करीब सवा दो हज़ार साल से पतंजलि द्वारा इजाद की गयी स्वास्थ्य सुधार की एक पद्यति योग इस देश में चल रही है. शारीरिक कसरत का यह तरीका देश के अवाम के लिए कभी नहीं रहा है, क्यूंकि वे शारीरिक परिश्रम करते हैं और जो शारीरिक श्रम करते हैं, वे सभी शुद्र घोषित होते थे, जो समाज के सभी संसाधनों से वंचित रखे जाते हैं. शूद्रों को छोड़कर व्यापारी, क्षत्रिय और ब्राहमण चूँकि कोई शारीरिक श्रम नहीं करते रहे हैं, इसलिए स्वास्थ्य उन्ही की सबसे बड़ी समस्या बना रहा है. स्तिथि आज भी इससे अलग नहीं है. तीनो तथाकथित उच्च वर्णों का श्रम न करने के कारण बीमारियों से लड़ना कठिन रहा है. उनके स्वास्थ्य के लिए यह हिन्दू आनुष्ठानिक कसरत का तरीका इजाद किया गया, लेकिन इस योग ने इस देश को कितना स्वस्थ किया, इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए.
भारत में कैंसर तक का इलाज करने का दावा करने वाले योगकर्मी क्या कभी देश को यह बताएँगे कि उन्होंने कितनो को स्वस्थ बनाया कि वे ओलंपिक खेलों में उस तरह सफल हो सके, जिस तरह योग से दूर का भी रिश्ता न रखने वाले दरिद्र देश इथोपिया के खिलाड़ी स्वर्ण-पदक जीतते हैं ? दौड़ने, कूदने, तैरने जैसी प्रतियोगिताएं के लिए भी योग सिखाने के नाम पर अरबों रुपये कमाने वाले रामदेव किसी को जीतने लायक स्वस्थ क्यों नहीं बना पाए ?
योग से अकूत सम्पदा बनाने वालों से पूछना जाना चाहिए कि उनके शिविरों में वे ही मध्यवर्गीय क्यों आते हैं, जिनकी तोंद नहीं सम्हलती और चर्बी संतुलित भोजन के बावजूद बढती रहती है ? किसी तोंदवाले रिक्शा चालक या मजदूर को क्या किसी ने देखा है ? वे मध्यवर्गीय और उच्च वर्गीय लोग जिनके आसन गद्दियाँ या काउच होते हैं, किसी जिमखाने में नहीं जाते. उन्हें योग आसान लगता है और थोडा अध्यात्मिक संतोष भी मिलता है. उन्हें थोड़े से योग से स्वास्थ्य लाभ एवं धार्मिक पुण्य मिलने का भी सुख तत्काल मिलता है, जिसकी उन्हें जरूरत होती है. जिमखाना में अध्यात्मिक सुख कहाँ मिल सकता है ?
योग के थोथेपन की यह चर्चा इसलिए जरूरी है कि सत्ता में बैठे बड़े-बड़े लोग भी इस अर्थहीन और उच्च वर्ग को लुभाने वाली कसरत की वास्तविकता नहीं जानते और योग शब्दे से वे अध्यात्मिक आतंक महसूस करते हैं. आठवीं सदी के बाद से इस देश को घोर धर्मभीरु बना दिया गया है और जैसे वह धर्म के दूसरे कर्मकांडों से डरता है, योग लाभ की क्रिया से भी डरना सीख लेता है. इस देश में हिन्दू महिलाएं जैसे सत्यनारायण की कथा में जाकर सुख पाती हैं, ठीक वैसे ही वे योग शिविरों में पाती हैं. योग शिविर में भर्ती होने की फीस अगर लम्बी-चौड़ी है तो इस मध्यवर्गीय महिला को वर्गीय संतोष भी मिल जाता है.
इन सारे मामलों को तार्किक नजरिये से नहीं देखा गया है. एक समय वृंदा करात ने रामदेव के व्यापार की शुचिता को लेकर काफी कडवी बहस छेड़ी थी लेकिन तब भी उन्होंने योग पर सवाल नहीं उठाया था. यह गनीमत है कि कभी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने इस धंधे को चुनौती दी. उम्मीद है कि आने वाले दिनों में योग नाम के छद्म की तटस्थता से पड़ताल की जाएगी.
- सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुद्रारक्षस की कलम से
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (23-06-2016) को "संवत्सर गणना" (चर्चा अंक-2382) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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