जिसे हम समान नागरिक संहिता कहते हैं, उसका संबंध व्यक्तिगत कानूनों (विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गुज़ारा भत्ता व बच्चों की अभिरक्षा) से है। हमारे देष में फौज़दारी और दीवानी कानून सभी धार्मिक समुदायों के लिए समान हैं परंतु चूंकि व्यक्तिगत कानूनों का संबंध धर्म से होता है, इसलिए हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाईयों के लिए अलग-अलग व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लाॅ) हैं। दिलचस्प यह है कि व्यक्तिगत कानूनों के मामले मंे, जैन, बौद्ध और सिक्ख समुदायों को हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाता है। स्पष्टतः, हिन्दू धर्म में बहुत विभिन्नताएं हैं और इस कारण, हिन्दू व्यक्तिगत कानून भी हिन्दू धर्म के सभी पंथों की धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप नहीं है। संविधान सभा में लंबी बहस के बाद यह निर्णय लिया गया था कि व्यक्तिगत कानूनों को जस का तस रखा जाए। राज्य के नीति निदेषक तत्वों (अनुच्छेद 44) में यह कहा गया है कि राज्य, सभी धर्मों के नागरिकों के लिए एक से कानून लागू करने का प्रयास करेगा। इस प्रावधान का उद्देष्य है व्यक्तिगत कानूनों को प्राकृतिक न्याय की अवधारणा के अनुरूप बनाना।
नेहरू के अनुरोध पर, तत्कालीन केंद्रीय विधि मंत्री बी.आर. अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल तैयार किया ताकि विभिन्न हिन्दू समुदायों के लिए एक से कानून का निर्माण किया जा सके। इसके पीछे सोच यह थी कि चूंकि हिन्दू समुदाय देष का सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है इसलिए अगर सबसे पहले हिन्दुओं के लिए एक से कानून बनाए जाते हैं तो आगे चलकर, अन्य समुदायों के मामले में भी ऐसा ही किया जा सकता है। अंबेडकर ने यह बिल तैयार किया। अंबेडकर की मान्यता थी-जो कि बहुत हद तक सही भी थी-कि वर्तमान कानून, महिलाओं के साथ न्याय नहीं करते। इस बिल के मसविदे का हिन्दू समुदाय के एक बड़े तबके ने कड़ा विरोध किया। इसका कारण यह था कि यह बिल तत्कालीन समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक मूल्यों के न केवल खिलाफ था वरन उनमें क्रांतिकारी बदलावों का हामी था। बाद में इस बिल के कई प्रावधानों को हटाकर उसे लागू किया गया। बिल को जस का तस पास करवाने में अपनी असफलता से निराष होकर अंबेडकर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर अगली बहस षाहबानो प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उपजी। षाहबानो ने तलाक के बाद गुज़ारा भत्ता दिए जाने की मांग की, जिसे न्यायालय ने उचित ठहराया। मुसलमानों का परंपरावादी तबका इस निर्णय के खिलाफ लामबंद हो गया और सरकार उसके दबाव में आ गई। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने एक बिल पास कर उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलट दिया। इसके बाद, हिन्दू सांप्रदायिक ताकतें सक्रिय हो गईं और उन्होंने समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग की। इस सिलसिले में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया वह यह था कि मुसलमानों को चार पत्नियां रखने का हक़ है। इसके पीछे षायद यह सोच थी कि बहुपत्नी प्रथा के कारण मुसलमानों की आबादी, हिन्दुओं से ज़्यादा हो जाएगी। सच यह है कि मुसलमानों में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन, अन्य समुदायों की तुलना में अधिक नहीं है और ना ही किसी पुरूष द्वारा एक से अधिक पत्नियां रखने से उस समुदाय की आबादी अपेक्षाकृत तेज़ी से बढ़ती है। आबादी में वृद्धि का संबंध प्रजनन-योग्य आयु की महिलाओं की संख्या से है, फिर चाहे वे एक पुरूष की पत्नियां हों या अनेक पुरूषों की।
मुसलमानों के नेतृत्व के एक हिस्से, और विषेषकर मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने समान नागरिक संहिता को प्रतिष्ठा का प्रष्न बना लिया और यह घोषणा कर दी कि इसे लागू किए जाने से मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों को चोट पहुंचेगी। ऐसा बताया गया मानो बहुपत्नी प्रथा, बुर्का व मुंहज़बानी तलाक ही इस्लाम के प्रतीक हैं। मुस्लिम समुदाय के भीतर से अनेक महिलाओं के समूह उठ खड़े हुए और उन्होंने इन प्रथाओं के उन्मूलन और लैंगिक न्याय के लिए अभियान षुरू किए। इन सबका नतीज़ा यह हुआ कि व्यक्तिगत कानूनों में सुधार का मसला, मुस्लिम समुदाय तक सीमित होकर रह गया और हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की आवष्यकता पर विचारविमर्ष ही बंद हो गया। सांप्रदायिक ताकतें, समान नागरिक संहिता की मांग तो करती हैं परंतु वह क्या और कैसी हो, इस बारे में उनकी सोच स्पष्ट नहीं है। यह मानकर चला जाता है कि समान नागरिक संहिता का निर्माण हिन्दू, मुस्लिम व ईसाई व्यक्तिगत कानूनों में से चुनिंदा कानूनों को मिलाकर कर दिया जाएगा। जाहिर है कि इस विमर्ष से लैंगिक न्याय का मुद्दा गायब है।
सांप्रदायिक ताकतों के अलावा, प्रगतिषील महिला संगठनों ने भी समान नागरिक संहिता की मांग करनी षुरू की परंतु जल्द ही उन्हें यह एहसास हो गया कि सभी धर्मों के व्यक्तिगत कानून, महिलाओं के साथ न्याय नहीं करते और इसलिए उन्होंने लैंगिक न्याय पर आधारित कानूनांे के निर्माण की मांग करना षुरू की। प्रष्न यह है कि समान नागरिक संहिता कैसे बनेगी? क्या इसका आधार लैंगिक न्याय होगा? कुछ लोगों को लगता है कि समान नागरिक संहिता का निर्माण सरकार द्वारा कर दिया जाएगा और वह सभी समुदायों पर लागू हो जाएगी। एक दूसरी सोच, नीचे से ऊपर की ओर बढ़ने की है अर्थात पहले समाज में सुधार की प्रक्रिया को प्रोत्साहन दिया जाए और बाद में इन सुधारों को कानून की षक्ल दे दी जाए। यहां महत्वपूर्ण यह है कि सुधार की यह प्रक्रिया लैंगिक न्याय पर आधारित होनी चाहिए।
इस सिलसिले में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन द्वारा किए गए प्रयास महत्वपूर्ण हैं। आंदोलन ने मुंहज़बानी तलाक की प्रक्रिया के उन्मूलन के समर्थन मंे 50,000 हस्ताक्षर इकट्ठे किए हैं। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन और उसके जैसे अन्य संगठनों का लक्ष्य है परिवर्तन के लिए दबाव बनाकर नए कानूनों का निर्माण करवाना ताकि न्यायपालिका, महिलाओं के साथ न्याय कर सके। ज़ाहिर है कि इस तरह के आंदोलनों से समाज में जागरूकता बढ़ती है और महिलाओं के साथ अन्याय की संभावनाएं कम होती हंै। इस तरह के अभियान, महिलाओं को न्याय दिलवाने में मददगार होते हैं। मुंहज़बानी तलाक पर प्रतिबंध की मांग को लेकर चलाया जा रहा अभियान, लैंगिक न्याय पर आधारित सुधार लाने की दिषा में महत्वपूर्ण कदम है।
सांप्रदायिक ताकतें ज़ोरषोर से समान नागरिक संहिता लागू किए जाने की मांग तो कर रही हैं परंतु लैंगिक न्याय मंे उनकी कोई रूचि नहीं है। उनका मुख्य उद्देष्य मुस्लिम समुदाय को आतंकित करना है। मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय पर वे केवल घड़ियाली आंसू बहा रही हैं। पुरूषों के वर्चस्व वाले मुस्लिम संगठन भी अपनी पितृसत्तात्मक सोच के चलते इस तरह के सुधारों के खिलाफ हैं।
कहने की आवष्यकता नहीं कि कोई भी भयग्रस्त समुदाय, लैंगिक न्याय के मुद्दे को महत्व नहीं दे सकता। उसकी प्राथमिकता सुरक्षा और सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्रों में बराबरी हासिल करना हो जाती है। सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने वाले सभी संगठनों का नेतृत्व पुरूषों के हाथ में है। स्वनियुक्त पर्सनल लाॅ बोर्डों पर पितृसत्तात्मक सोच हावी है। दूसरी ओर, महिलाएं, लैंगिक समानता के लिए संघर्ष कर रही हैं और सुधार की प्रक्रिया को नीचे से ऊपर की ओर ले जाने की हामी हैं। समान नागरिक संहिता के विरोध की जड़े सांप्रदायिक राजनीति के बढ़ते प्रभाव और पितृसत्तात्मक मूल्यों में है।
कुछ लोगों द्वारा यह तर्क भी दिया जा रहा है कि मुंहज़बानी तलाक जैसी प्रथाओं के विरोध में अभियान चलाने से हिन्दुत्ववादी संगठनों को यह मौका मिल जाएगा कि वे हिन्दू कानूनों को समान नागरिक संहिता के नाम पर देष पर लाद दें। यह तर्क कानूनों में सुधार की मांग में निहित खतरों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। परंतु हमें यह उम्मीद है कि वर्तमान परिस्थितियांे में हिन्दू कानूनों को समान नागरिक संहिता के रूप में देष पर लादे जाने की संभावना बहुत कम है क्योंकि महिला संगठन यह अच्छी तरह से जानते हैं कि हिन्दू कानून भी महिलाओं के साथ न्याय नहीं करते। समय आ गया है कि इस मुद्दे पर हमारा चिंतन, लैंगिक न्याय और विभिन्न समुदायों के भीतर स्वेच्छा से सुधारों पर आधारित होना चाहिए।
-राम पुनियानी
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1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-08-2016) को "बिखरे मोती" (चर्चा अंक-2425) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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