शनिवार, 6 मई 2017

*जातिप्रथा और आरक्षण*

जातिप्रथा उन्मूलन हो जाय, तो समझो हिन्दू धर्म ख़त्म हो गया। हिन्दू धर्म को जिन्दा रखना है, तो जातियों का बने रहना जरूरी है। हिन्दू धर्म में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व आ जाय, तो फिर बचेगा क्या। यदि सभी सामान हो जाँय, तो हिन्दू धर्म का मूल दर्शन वर्ण-व्यवस्था ख़त्म हो जाएगा। यदि वर्ण-व्यवस्था ख़त्म हो जाएगा, तो ब्राह्मण की सर्वोच्चता ख़त्म हो जाएगी। क्या ऐसा संभव होने दिया जाएगा कि ब्राह्मण की सर्वोच्चता ख़त्म हो जाय? यदि नहीं, तो जातियों को कभी भी ख़त्म नहीं होने दिया जाएगा।
     ब्राह्मणवाद शब्द अनुचित है। ब्राह्मणवाद कहने से एक साधारण ब्राह्मण भी उसका अर्थ ब्राह्मण ही लगाता है और संगठित होने लगता है। हम जितना ही ब्राह्मणवाद-ब्राह्मणवाद उच्चारित करेंगे, ब्राह्मण हमारे विरुद्ध तो संगठित होगा ही, अन्य सवर्णों और ओबीसी को भी हिन्दू के नाम पर संगठित कर हमें कमजोर करेगा।            
     बाबा साहब ने जातिप्रथा उन्मूलन के लिए कहा था। हमें जातिवाद शब्द का प्रयोग कर उनके प्रतिक्रियात्मक क्रोध को कम करना पड़ेगा। जातिप्रथा उन्मूलन से ब्राह्मण जातियाँ भी विरोधात्मक रुख नहीं अपनाती हैं, बल्कि बहुत से लोग हामी भरकर जाति तोड़ने की बात भी स्वीकारते हैं, जिससे वर्ग की एकता कायम होगी और जाति विहीन भारत का मार्ग प्रशस्त होगा।
     आरक्षण ख़त्म कर दो। मुझे जाति के बदले आरक्षण नहीं चाहिए। मैं जानता हूँ यह बैशाखी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए बहुत बड़ी कायरता के रूप में कार्य कर रही है। जिस दिन दलित कहा जाने वाला यह वर्ग आरक्षण विहीन हो जाएगा, इसके पास जुझारू आंदोलन के सिवा कोई विकल्प नहीं बचेगा। तब इसकी कायरता ख़त्म होगी और यह अपने वास्तविक हक़ के लिए संघर्ष करेगा। जरूर संघर्ष करेगा और ईमानदारी से संघर्ष करेगा। यदि फिर भी संघर्ष नहीं करेगा, तो मरेगा। पुनः दास बनकर सेवा करेगा।
     नहीं, मैं किसी को खुश करने के लिए ऐसा नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि, दलित वर्ग की जाहिलियत, स्वार्थी और कायरपना को निजात दिलाने के लिए उसकी आँखें खोलने के लिए लिख रहा हूँ। यह वर्ग जातिवाद का सारा इल्जाम ब्राह्मणों पर लगाता है, परन्तु अपनी जाति का प्रमाण-पत्र खुद ही बनवाकर धोबी-चमार-पासी होने का सबूत देता है। आखिर कैसे लड़ेगा जातिवाद से? जातिप्रथा तोड़ने के लिए सबसे पहले पहल कौन करेगा? जो नीचता का बोध करता है वही तो अपनी जाति को तोड़ेगा। फिर बाद में सवर्णों की जाति तोड़ने अथवा उन्मूलन का सवाल उठता है। जब तक आरक्षण रहेगा, दलित जातिप्रथा उन्मूलन का संघर्ष नहीं करेगा। एक हद तक दलित जातियाँ कायर हो चुकी है। मैं जानता हूँ आरक्षण होने की वजह से ही मुझे नौकरी मिली है। काश! ऐसा न हुआ होता, तो आज सवर्णों का चुभता हुआ ताना न सहना पड़ता। जिस दिन रोटी, कपड़ा और मकान का सवाल पैदा हुआ, उस दिन दलितों के सम्मुख जीने-मरने का सवाल भी पैदा हो जाएगा। उस दिन नीव की ईंट हिल जाएगी। फिर भी, जोश नहीं आया, तो गुलामी सिद्ध है।
     जिन्हें अपनी नींव की ईंट हिलवानी होगी, वो आरक्षण ख़त्म कर देंगे।
     क्यों डर रहे हैं? इनकी मजाल नहीं की आरक्षण ख़त्म कर दें। हाँ, डरेंगे, लड़ेंगे नहीं, तो आरक्षण जरूर ख़त्म हो जाएगा। एक बात बताइए, आप को आरक्षण चाहिए कि सम्मान? आरक्षण चाहिए, तो कैसे जाति की लड़ाई लड़ेगे? फिर, क्यों ब्राह्मणवाद-ब्राह्मणवाद चिल्लाते हैं? क्यों जाति का दोष ब्राह्मणों पर मढ़ते हैं? यदि जातिवाद की लड़ाई लड़नी है तो आरक्षण छोड़ना पड़ेगा, जाति-प्रमाण-पत्र बनवाना छोड़ना पड़ेगा। सम्मान का एक पल का जीवन गुलामी के हजारों वर्षों के जीवन से बेहतर होता है।
     आरक्षण पर मैं आप से पहले भी बात कर चुका हूँ। आरक्षण न जाति आधारित होनी चाहिर और न आर्थिक आधार पर। सिर्फ नौकरियां बढ़ाई जाँय और सब को शिक्षा सब को काम का प्रावधान किया जाय।
     15 लाख दलित नौकरी कर रहे हैं जिससे 3 करोड़ दलित खा-पी रहा है। 27 करोड़ निरक्षर है। न खेत है, न मजदूरी। वह खेत मजदूर है। उसके लिए आरक्षण से कौन सा फायदा दिलवा रहे हैं? क्या प्रतिनिधित्व का आधार वह तय नहीं करता है, फिर कहाँ गया उसका उचित हिस्सा? उसकी रोजी-रोटी के लिए दलित और संविधान क्यों चुप हो जाता है? उन गरीबों के लिए भी सोचिए कि क्या उन्हें ये आरक्षण और संविधान कुछ दे सकता है? खाया-अघाया दलित चिंतित हो जाता है कि यदि उसका आरक्षण ख़त्म हो गया, तो उसका क्या होगा। जो यहाँ तक आरक्षण के सहारे पोजीशन तैयार किया है,पल भर में बालू की भीत की तरह ढह जाएगा और पुनः उन दलित गरीबों के मध्य जाना और रहना पड़ सकता है जो निरक्षर और गरीब हैं, प्रतिदिन 20/- खर्च करने भर को ही कमा पाते हैं। यह अर्जुन सेन कमिटी की रिपोर्ट है। ऐसा मैं नहीं लिख रहा हूँ।
     मैं यही चाहता हूँ कि छीनने का माद्दा पैदा करो। बैशाखी पर कब तक चलोगे। यह सही है कि आरक्षण न होता, तो मुझे शायद नौकरी क्या शिक्षा भी न मिली होती। किन्तु, अब तो 3 करोड़ दलित पढ़े हैं। 3 करोड़ ब्राह्मण भी पढ़ा-लिखा है। आंदोलन इतना तीव्र करो कि संविधान को अपने (गरीबों) अनुकूल बदल दो। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को ला दो। आरक्षण डा.आम्बेडकर का त्रिसूत्र कभी नहीं दिला सकता है।
     डा.आम्बेडकर आरक्षण नहीं चाहते थे। वह पृथक निर्वाचन चाहते थे। गांधी जी के आमरण अनसन की वजह से डा.आम्बेडकर को पूना पैक्ट कर मजबूरन आरक्षण स्वीकार करना पड़ा। यदि पूना पैक्ट न हुआ होता,तो क्या आरक्षण मिलता? फिर क्या होता? तो क्या दलितों को नौकरियां न  मिलतीं? दलित उस समय क्या करता?
     पृथक निर्वाचन अच्छा है अथवा आरक्षण? यदि पृथक निर्वाचन अच्छा है, तो हमें आरक्षण के बदले पृथक निर्वाचन की जोरदार माँग उठानी चाहिए। उसके लिए पुनः संघर्ष करना चाहिए। उस समय डा.आम्बेडकर अकेले थे, इस समय 3 करोड़ दलित पढ़े-लिखे हैं। कुर्बानी दे सकते हैं। यदि अपने ही गरीब भाइयों के पेट पर लात मार कर  आरक्षण पर ही गुजारा करना है, तो मुझे दलित समाज से कुछ नहीं कहना है।
     आप ने मेरे सही मर्म को समझ लिया है और लोगों को समझाया भी, किन्तु सुविधा संपन्न दलितों को सम्मान नहीं आरक्षण चाहिए। अपने भाइयों के लिए न रोटी, कपड़ा, मकान की बात करते हैं, न आरक्षण की सुबिधाओं की। और सच ये है कि इन्हीं की बदमाशियों का परिणाम होता है कि दूर-दराज में गरीब दलितों की सवर्णों द्वारा प्रतिक्रिया स्वरूप पिटाई होती रहती है।
-आर डी आनंद

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-05-2017) को
संघर्ष सपनों का ... या जिंदगी का; चर्चामंच 2629
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Jyoti Dehliwal ने कहा…

बहुत ही विचारणीय आलेख... बिल्कुल सही आकलन किया है आपने। आज ऐसे दलितो की संख्या ज्यादा है जिन्हें आत्मसम्मान नहीं आरक्षण चाहिए! जब तक उनकी ये सोच बदल नहीं सकती तब तक आरक्षण खत्म नहीं हो सकता।

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