रामनाथ कोविन्द को
राष्ट्रपति पद का अपना उम्मीदवार घोषित कर, भाजपा ने एक बार
फिर प्रतिकात्मक राजनीति का दांव खेला है। कोविन्द केवल नाम के लिए दलित हैं। असल
में वे एक खालिस हिन्दू राष्ट्रवादी हैं। मोदी सरकार के पिछले तीन सालों के
कार्यकाल में मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों के खिलाफ
हिंसा में भी बढ़ोत्तरी हुई है। मद्रास आईआईटी में पेरियार स्टडी सर्किल को
प्रतिबंधित किया गया और ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर दी गईं कि रोहित वेम्युला नाम
के दलित शोधार्थी को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा। दलितों के विरूद्ध गुजरात
के ऊना में हिंसा हुई। एक समुदाय के तौर पर दलित, हिन्दू राष्ट्रवादी
राजनीति के निशाने पर हैं। एक केन्द्रीय मंत्री ने दलितों की तुलना कुत्तों से की
और उत्तरप्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष कृपाशंकर सिंह ने कहा कि मायावती एक वेश्या से
भी बदतर हैं। पार्टी ने औपचारिक रूप से सिंह को डांट पिलाई परंतु उनकी पत्नी को
विधानसभा चुनाव में टिकट दे दिया और अब वे उत्तरप्रदेश की योगी सरकार में मंत्री
हैं। योगी के सत्ता में आने के बाद उत्तरप्रदेश के सहारनपुर में भयावह दलित-विरोधी
हिंसा हुई। योगी की सरकार बनने के बाद से ऊँची जातियों की हिम्मत बढ़ गई है। चन्द्रशेखर
के नेतृत्व वाली भीम आर्मी ने जब दलितों पर हमलों का विरोध किया तो चन्द्रशेखर को
गिरफ्तार कर लिया गया जबकि हमलावरों पर केवल मामूली धाराएं लगाकर उन्हें खुले
घूमने की इजाज़त दे दी गई।
कोविन्द को
राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने दलितों के घाव पर मरहम लगाने की सतही
कोशिश की है। हमें याद रखना चाहिए कि गुजरात कत्लेआम - जिसे गोधरा अग्निकांड के
बहाने अंजाम दिया गया था-के तुरंत बाद मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए भाजपा ने डॉक्टर
एपीजे अब्दुल कलाम को देश का राष्ट्रपति बनाया था। यह भी एक प्रतीकात्मक कदम था, जिसने समाज में व्याप्त अल्पसंख्यक-विरोधी प्रवृत्तियों पर कोई प्रभाव
नहीं डाला। प्रतीकात्मकता का अर्थ ही यह होता है कि उससे आपको केवल यह महसूस होता
है कि कोई आपकी ओर मदद का हाथ बढ़ा रहा है, जबकि यथार्थ में
ऐसा नहीं होता।
कोविन्द पुराने
आरएसएस स्वयंसेवक हैं और उन्होंने अपने पुश्तैनी मकान को संघ की गतिविधियों के लिए
अर्पित कर दिया है। उनके विभिन्न वक्तव्यों से यह पता चलता है कि वे इस्लाम और
ईसाईयत को विदेशी धर्म मानते हैं। रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट पर संसद में चर्चा में
इस्लाम और ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके दलितों के लिए आरक्षण के मुद्दे पर बहस के
दौरान कोविन्द का यह दृष्टिकोण सामने आया था। कोविन्द का यह भी कहना है कि शिक्षा
को आरक्षण पर प्राथमिकता मिलनी चाहिए। स्पष्टतः, वे दलितों को
आरक्षण दिए जाने के समर्थक नहीं हैं।
भाजपा नेता के रूप
में कोविन्द ने उत्तरप्रदेश के गैर-जाटव दलितों को पार्टी की ओर आकर्षित करने के
अभियान में भाग लिया था। भाजपा-आरएसएस ने कई दलितों को अपने साथ कर लिया है। इनमें
रामविलास पासवान जैसे नेता शामिल हैं, जो सत्ता के लिए
दलितों के हितों की बलि चढ़ाने से नहीं चूकते। इन्ही पासवान ने फरमाया कि जो लोग
कोविन्द का विरोध कर रहे हैं, वे दलित-विरोधी
हैं! दलित नेता होने का क्या अर्थ है? क्या कोविन्द और
पासवान जैसे लोग - जो दलितों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के बारे में एक शब्द भी नहीं
बोलते - दलित नेता कहे जा सकते हैं? इस समय देश का दलित
नेतृत्व असमंजस की स्थिति में है। रामविलास पासवाननुमा दलित नेता भाजपा-आरएसएस के
साथ जुड़ गए हैं क्योंकि वही सत्ता की उनकी भूख को पूरा कर सकती है। परंतु ऐसी दलित
नेताओं की संख्या भी बहुत बड़ी है जो दलितों की गरिमा और उनके अधिकारों के लिए
व्यवस्था से संघर्ष कर रहे हैं। वे उन्हें समान नागरिक का दर्जा दिलवाना चाहते
हैं। भारतीय संविधान, दलितों के लिए एक
बड़ी उपलब्धि है। उसने सैद्धांतिक तौर पर दलितों को बराबरी का दर्जा दिया। संविधान
ने दलितों का वह ज़मीन दी, जिस पर खड़े होकर वे
अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं।
दूसरी ओर, आरएसएस की राजनीति, भारतीय राष्ट्रवाद
की विरोधी है और हिन्दू राष्ट्रवाद की पैरोकार। संघ की आस्था उन धर्मग्रंथों में
है, जो जातिगत पदक्रम को औचित्यपूर्ण ठहराते
हैं। क्या यह केवल संयोग है कि आरएसएस तब अस्तित्व में आया जब महाराष्ट्र के
विदर्भ क्षेत्र में गैर-ब्राह्मण आंदोलन के रूप में दलित अपने अधिकारों के लिए
संघर्ष करने को उठ खड़े हुए थे। यह आंदोलन उस सामाजिक ढांचे के खिलाफ था, जो ब्राह्मण ज़मींदारों को जनता का प्रभु बनाता था। समानता के लिए संघर्ष, स्वाधीनता संग्राम के समानांतर चलता रहा। दलितों ने कई आंदोलनों के ज़रिए
समानता के लिए संघर्ष किया। हिन्दू राष्ट्रवाद, जातिगत पदक्रम और
जाति व्यवस्था के सदियों पुराने ढांचे को बनाए रखने का हामी है। सन 1990 के दशक के बाद से, आरएसएस-भाजपा की
राजनीति आरक्षण के विरोध पर आधारित रही है। उसने कई स्तरों पर दलितों को अपना
हिस्सा बनाने के लिए काम किया। वनवासी कल्याण आश्रम आदिवासियों के हिन्दुकरण के
लिए काम करता आ रहा है। सामाजिक समरसता मंच ‘समानता’ के विरूद्ध ‘समरसता’ की बात करता है। हिन्दू राष्ट्रवादी यह प्रचार करते रहे हैं कि दलितों ने
हिन्दू धर्म की इस्लाम के हमले से रक्षा की।
पिछले कुछ समय से
अंबेडकर भी संघ परिवार के प्रिय बन गए हैं। उन्हें एक ‘महान हिन्दू’ बताया जा रहा है और उनकी जयंती पर भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।
सच यह है कि अंबेडकर और आरएसएस की राजनीति एक-दूसरे की धुर विरोधी हैं। अंबेडकर, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व
के हामी थे; हिन्दू राष्ट्रवाद, वैदिक काल के पदक्रम-आधारित समाज का समर्थक है। सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए
दलितों को बाबरी मस्ज़िद के ध्वंस में भागीदार बनाया गया और उन्हें मुसलमानों के
खिलाफ सड़कों पर हिंसा करने के लिए प्रेरित किया गया।
कोविन्द को हम कैसे देखें? यह मानना गलत होगा कि
किसी धर्म, जाति या वर्ग में जन्म लेने से ही वह व्यक्ति उस धर्म, जाति या वर्ग के हितों का
संरक्षक हो जाता है। देश में ऐसे कई दलित नेता हैं जो हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति
के पिछलग्गू हैं और दलितों के हितों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। दूसरी ओर, ऐसे गैर-दलित नेता भी हैं
जो अंबेडकर के आदर्शों में सच्चे मन से विश्वास रखते हैं और दलितों के कल्याण के
लिए काम करते हैं। कोविन्द ने निश्चित तौर पर आरएसएस की वह शपथ ली होगी, जो हिन्दू राष्ट्र के
निर्माण की बात कहती है। भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए भारत का संविधान सबसे
पवित्र पुस्तक है। अगर कोविन्द राष्ट्रपति बनते हैं तो वे हिन्दू राष्ट्र के
निर्माण के लिए काम करेंगे या भारतीय संविधान की रक्षा के लिए?
-राम पुनियानी
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