रविवार, 17 जून 2018

सूबा सरहद में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इस्लाम का प्रयोग

 काबूल में इस्लाम का इस्तेमाल करने की कहानी

साम्राज्यवादी अंग्रेज़ों को न तो मुसलमानों से कोई मुहब्बत थी, न हिन्दुओं से कोई नफ़रत। उनको तो बस अपने सियासी और आर्थिक लाभ से मतलब था।

ब्रिटिश इण्डिया में अंग्रेज़ों का फ़ायदा मुस्लिम लीग को बढ़ावा देने में था, इसलिये उन्होंने मुस्लिम लीग को बढ़ावा दिया। यह बिल्कुल ऐसा ही था, जैसे पूँजीवादी अमेरिका ने कम्युनिस्ट यू. एस. एस. आर. ( सोवियत संघ ) के खि़लाफ़ अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिद्दीन की आर्थिक और सैनिक मदद की। मुजाहिद्दीन की हर तरह से मदद करने का यह मतलब तो कतई नहीं था कि पूँजीवादी अमेरिका मुसलमानों या इस्लाम का हमदर्द है। अमेरिका ने तो बस अफ़ग़ानिस्तान में यू. एस. एस. आर. का विरोध करना था, इसीलिये उसने मुजाहिद्दीन के कन्धों पर रखकर अपनी बन्दूक चलाई। वक़्त के बदलने के साथ उसे अफ़ग़ानिस्तान में ही तालिबान के खि़लाफ़ जंग करने में भी कोई झिझक नहीं हुई।

मज़हब का नाम इस्तेमाल करके मुसलमानों को मुसलमानों के क़त्लेआम में लगा देना सियासतदानों की ऐसी चाल रही है, जिसके बारे में लोगों को, ख़ास करके मुसलमानों को बहुत संजीदा होने की ज़रूरत है। आज अफ़ग़ानिस्तान में क्या हो रहा है? इस्लाम के नाम पर कुछ मुसलमान अपने ही मज़हबी भाइयों के क़त्लेआम में लगे हुये हैं। इसके पीछे ग़ैर-मुल्क़ी हाथ हैं। क़त्लेआम में लगे लोगों को यह समझ नहीं आ रही। ख़्यबेर पख्तूनख्वा में भी वही पख़्तून मारे जा रहे हैं, चाहे उनको तालिबान मार रहे हों, चाहे उनको पाकिस्तानी फ़ौज मार रही हो, और चाहे वे अमेरिकन ड्रोनों के शिकार बन रहे हों। इस्लाम के नाम पर मर भी मुसलमान ही रहे हैं।

इंडिया में इस्लाम के इस्तेमाल की कहानी

बस यही खेल ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत ने उस वक़्त के सूबा सरहद में भी खेला था। इस्लाम के नाम पर मुसलमानों के एक तबके को अपने ही मुसलमान भाई ख़ुदाई खि़दमतगारों के खि़लाफ़ खड़ा कर दिया गया। अगर उस दौर में इतना ज़्यादा ख़ून-ख़राबा नहीं हुआ, तो उसकी वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुदाई खि़दमतगारों की सहनशीलता ही थी, जो वे सब कुछ सह गये, लेकिन ज़ुल्म का रास्ता अख़्तियार नहीं किया, हथियार नहीं उठाए। नहीं तो, सोचो, अगर उस वक़्त की यह सबसे बड़ी सियासी जमात ख़ुदाई खि़दमतगार हथियार उठा लेती, तो क्या होता? मुस्लिम लीग के मुस्लिम नेशनल गार्ड की तरह खुदाई खि़दमतगार भी तो अपना कोई मिलिटेंट ग्रुप बना सकते थे।

1947 में जब सूबा सरहद में हिन्दुओं-सिखों का क़त्लेआम शुरू हुआ, तो यही निहत्थे ख़ुदाई खि़दमतगार अपने हिन्दू, सिख भाइयों की जानें बचाने के लिये सड़कों पर निकल आये थे। इन्होंने ग़ुस्से में आकर अपने विरोधी मुस्लिम भाइयों को भी नहीं मारा और जहाँ तक हो सका, इन्होंने अपने हिन्दू, सिख भाइयों की भी जानें बचाईं। सूबा सरहद के उस दौर के इतिहास में से ख़ुदाई खिदमतगारों को निकाल दो, तो बाक़ी बचता ही क्या है? बहुत अफ़सोस है कि आज हमारे भारत में लोग हमारा वह इतिहास नहीं जानते हैं।

ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत ने सूबा सरहद में मज़हब का इस्तेमाल अपने सियासी फ़ायदे के लिये कैसे किया, यह जानने से पहले बेहतर होगा कि उस वक़्त के अफ़ग़ानिस्तान और रूस के सियासी हालात को जान लिया जाये।

इतिहास का सब़क

उस दौर के इतिहास में आज के पश्तूनों / अफ़ग़ानों के लिये बहुत सबक़ लिखे हुये हैं। पश्तूनों को डुरंड लाइन के ज़रिये दो हिस्सों में बांट के रख देने वाली, पश्तूनों पर बेइंतहा ज़ुल्म करने वाली ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत के मनसूबों को कामयाब करने में उस वक़्त कुछ पश्तून ही सरकारी मशीनरी का हिस्सा बन गये थे। ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत ने पश्तूनों का इस्तेमाल अपने सियासी मुफ़ाद के लिये इस तरह से किया कि 1947 में ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत ख़त्म होने के 71 साल बाद भी पश्तून समाज न सिर्फ़ बंटा हुआ ही है, बल्कि खूँखार खानाजंगी का भी शिकार है।

जब साम्राज्यवादी अँग्रेज़ यहाँ आये, तो उस वक़्त रूस में ज़ार की हुकूमत थी। साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत को साम्राज्यवादी रूस हुकूमत से यह डर था कि वह कहीं अफ़ग़ानिस्तान पार करके ब्रिटिश इण्डिया पर हमला न कर दे।

पूरी तारीख़ तो लम्बी है, पर संक्षेप में बस इतना ही बता दूँ कि अफ़ग़ानिस्तान पर अपनी हिमायती हुकूमत बैठाने के चक्कर में अंग्रेज़ों की अफ़ग़ानों से तीन बार जंगें हुईं।

जब इण्डिया की हुकूमत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पास थी, उस वक़्त कम्पनी ने अफ़ग़ानिस्तान के अमीर, दोस्त मुहम्मद खान से रूस के खि़लाफ़ समझौता करना चाहा। दोस्त मुहम्मद खान ईस्ट इण्डिया कम्पनी से समझौता करने को राज़ी था, लेकिन वह चाहता था कि कम्पनी उसे पेशावर पर दुबारा कब्ज़ा करने में मदद दे, जो पंजाब के सिख साम्राज्य ने उससे छीन लिया था।

अँग्रेज़ जानते थे कि अफ़ग़ानिस्तान के अमीर की जगह पंजाब का रणजीत सिंघ ज़्यादा ताक़तवर था। अफ़ग़ानिस्तान और पंजाब में से अँग्रेज़ किसी एक को ही चुन सकते थे। उन्होंने पंजाब को चुना और रणजीत सिंघ से समझौता कर लिया।उधर दोस्त मुहम्मद खान ने अंग्रेज़ों को डराने के लिये रूसी सफ़ीर को काबुल बुला लिया। रूसी उसे रणजीत सिंघ के खि़लाफ़ मदद देने को राज़ी थे। इससे अंग्रेज़ों की नीन्द उड़ गई।तब के अँग्रेज़ हों या आज की अमेरिकन या यूरोपियन हुकूमतें, अफ़ग़ानों/पश्तूनों की रूसियों से नज़दीकियों से उन्हें ख़ौफ़ होता ही है। लार्ड ऑकलैंड ने दोस्त मुहम्मद को रूसियों से तालमेल करने पर एक ख़त लिखकर धमकाया। दोस्त मुहम्मद ने जंग से बचने के लिये पहले तो बातचीत शुरू की, लेकिन आखि़रकार अप्रैल, 1838 में उसने ब्रिटिश डिप्लोमेटिक मिशन को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकाल दिया। अब रूस के हमले के अन्देशे से ख़ौफ़ज़दा लार्ड ऑकलैंड ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करके वहाँ अपनी कठपुतली हुकूमत खड़ी करने की सोची।

पंजाब के महाराजा रणजीत सिंघ की मदद लेकर 1839 में अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दोस्त मुहम्मद को हटाकर शाह शुजा को वहाँ का हुक्मरान बना दिया। 1841 और 1842 में अफ़ग़ानों ने बग़ावत कर दी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फ़ौज के इण्डियन यूनिट्स और अँग्रेज़ फ़ौजियों के ख़ौफ़नाक ख़ून-खराबे के बाद 1843 में दोस्त मुहम्मद खान फिर से काबुल की गद्दी पर बैठ गया।इस पहली अँग्रेज़-अफ़ग़ान जंग में अंग्रेज़ों की इतनी खौफ़नाक हार हुई थी कि जब तक वे इण्डिया में रहे, वे उस ख़ून खराबे को कभी भूल नहीं पाए। अफ़ग़ानों और पश्तूनों से हमेशा डरे रहने, उन पर हमेशा शक़ करते रहने, और उनको सख़्ती से दबाकर रखने की उनकी कोशिशों की वजह ख़ास तौर पर पहली अँग्रेज़-अफ़ग़ान जंग से हासिल उनके बुरे तजुर्बे ही थे। 1849 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पंजाब पर कब्ज़ा कर लिया। 1857 के बाद इण्डिया का कन्ट्रोल सीधा ब्रिटिश साम्राज्य के पास चला गया।

13 जुलाई, 1878 को ऑस्ट्रिया-हंगरी, फ़्रांस, जर्मनी, ग्रेट ब्रिटन, इटली, रूस, और ओट्टोमन साम्राज्य में एक शान्ति समझौता हो गया, जिसको ‘ट्रीटी ऑफ बर्लिन’ कहा जाता है। यह एग्रीमेंट होने से ब्रिटिश हुकूमत को अपनी इण्डियन कॉलोनी पर रूस के हमले का डर ख़त्म हो गया। उसके बाद 1878 में अंग्रेज़ी इण्डियन हुकूमत ने अफ़ग़ानिस्तान पर दूसरा हमला किया। उस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान का अमीर शेर अली ख़ान था। शेर अली ख़ान ने इस हमले के खि़लाफ़ रूस की मदद लेने की कोशिश की, पर नाकामयाब रहा। 1879 में शेर अली की मौत हो गई, जिसके बाद उसके बेटे मुहम्मद याक़ूब ख़ान ने अंग्रेज़ों से समझौता कर लिया। इस समझौते के तहत अंग्रेज़ों को ख़्यबेर दर्रे तक का कंट्रोल मिल गया। क़ोएटा समेत कई इलाके भी अंग्रेज़ों को मिल गये। अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मामलों का ज़िम्मा भी अंग्रेज़ों को मिल गया। लेकिन उसी साल काबुल में एक बग़ावत उठी और वहाँ ब्रिटिश प्रतिनिधि को उसके स्टाफ समेत क़त्ल कर दिया गया। इससे दूसरी अफ़ग़ान-ब्रिटिश जंग का दूसरा दौर शुरू हो गया।

अंग्रेज़ों ने अब्दुर रहमान ख़ान को अफ़ग़ानिस्तान का जब अमीर बनाया

दूसरी जंग के इस दूसरे दौर में अंग्रेज़ों ने अब्दुर रहमान ख़ान को अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना दिया।अब्दुर रहमान ख़ान के वक़्त ही 1893 में डुरंड लाइन का एग्रीमेंट हुआ। यही डुरंड लाइन आज तक भी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच टेंशन की वजह बनी हुई है। 31 अगस्त, 1907 को सेन्ट पीटर्सबर्ग में यूनाइटेड किंगडम और रूस ने एंग्लो-रशियन कन्वेंशन पर दस्तख़त किये। इससे रूस ने अफ़ग़ानिस्तान पर अँग्रेज़ी हुकूमत के असर को मान्यता दे दी। इससे अँग्रेज़ी हुकूमत अब ख़ुद को इण्डिया में पहले की बनिस्बत ज़्यादा महफ़ूज़ मानने लगी थी।

28 जुलाई, 1914 को पहली संसार जंग शुरू हुई, जो 11 नवम्बर, 1918 तक चली। इसी संसार जंग के चलते ही रूस की हालत ख़स्ता हो गयी। मार्च 1917 में रूस की पहली क्रान्ति हुई। ज़ार निकोलस का राज ख़त्म हो गया। अक्टूबर, नवम्बर 1917 की दूसरे रूसी इंक़लाब के बाद रूस ख़ानाजंगी का शिकार बन गया। इधर अंग्रेज़ों की अफ़ग़ानों से तीसरी जंग 1919 में हुई। यह जंग अगस्त, 1919 में ख़त्म हुई। इससे अफ़ग़ानिस्तान पूरी तरह से अंग्रेज़ी असर से आज़ाद हो गया। अब अफ़ग़ानिस्तान अपनी विदेश नीति ख़ुद तय करने के लिये आज़ाद था। अंग्रेज़ों को यह फ़ायदा हुआ कि 1896 में उनकी खींची डुरंड लाइन को अफ़ग़ानिस्तान हुकूमत से दुबारा पक्की मन्ज़ूरी मिल गयी थी। अब डुरंड लाइन अफ़ग़ानिस्तान और ब्रिटिश इण्डिया की सरहद थी। अक्टूबर, नवम्बर 1917 की दूसरे रूसी इंक़लाब के बाद रूस ख़ानाजंगी का शिकार बन गया। यह ख़ानाजंगी 1922 तक चलती रही, जब यू. एस. एस. आर. बन गया।

सोवियत रूस के खि़लाफ़ सेन्ट्रल एशिया में बग़ावत 1934 तक चलती रही। सेन्ट्रल एशिया के कुछ मुसलमान गुटों को अंग्रेज़ों समेत दूसरे देशों से सोवियत रूस के खि़लाफ़ बग़ावत के लिये मदद मिलती रही थी। 1934 आते-आते यू. एस. एस. आर.  ने ऐसी बग़ावतों पर क़ाबू पा लिया।

इण्डिया पर काबिज़ अंग्रेज़ों के लिये अब अफ़ग़ानिस्तान की आमु नदी महज़ एक भूगोलक सरहद न रहकर एक विचारधाराक सरहद भी बन गयी। आमू के उस पार कम्युनिस्ट विचारधारा की हुकूमत थी। साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत का कम्युनिस्ट विचारधारा से गहरा टकराव था।

जैसे भूगोलक सरहद की हिफ़ाज़त के लिये किसी कण्टीली तार या दीवार की ज़रुरत होती है, वैसी ही ज़रूरत ब्रिटिश हुकूमत को कम्युनिस्ट विचारधारा के खि़लाफ़ विचारधारक सरहद की हिफ़ाज़त के लिये भी महसूस हुई।

साम्राज्यवादी निज़ाम और कम्युनिस्ट निज़ाम के दरमियान ब्रिटिश हुकूमत को एक मज़बूत विचारधारक दीवार की सख़्त ज़रूरत थी। और यह विचारधारक दीवार कम्युनिस्ट विचारधारा के सख़्त खि़लाफ़ भी होनी चाहिये थी।

ब्रिटिश हुकूमत ने भारत के दूसरे हिस्सों की तरह सूबा सरहद में भी सियासी रहनुमाओं की एक नई नस्ल खड़ी की। ये वो लोग थे, जिनको सरकार ने उनकी खि़दमत से ख़ुश होकर ‘सर’, ‘नवाब’, ‘ख़ान बहादुर’, ‘सरदार बहादुर’, ‘राय बहादुर’ और ‘राय साहिब’ वग़ैरह के खि़ताब दिये थे। 1937 तक सूबा सरहद में अँग्रेज़ी सरकार ने अँग्रेज़परस्त मुसलमानों और हिन्दुओं को सियासी रहनुमाओं की हैसियत से खुदाई खि़दमतगार तहरीक के खि़लाफ़ खड़ा किया। ब्रिटिश हुकूमत की तरफ़ से ख़ुदाई खि़दमतगारों के खि़लाफ़ पूरी ताक़त झोंक देने के बावजूद ख़ुदाई खि़दमतगारों ने 50 में से 19 सीटों पर जीत हासिल की। सूबाई असेम्बली में वे सबसे बड़ी सियासी पार्टी थे। पहले तो अप्रैल, 1937 में ‘नवाब सर’ साहिबज़ादा अब्दुल क़य्यूम की रहनुमाई में अँग्रेज़परस्त लोगों की मिनिस्ट्री बना दी गयी, लेकिन छह महीने बाद ही ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान साहिब के बड़े भाई ख़ान अब्दुल जब्बार ख़ान साहिब (डॉक्टर ख़ान साहिब) की रहनुमाई में ख़ुदाई खि़दमतगारों की मिनिस्ट्री बनी। इसके लिये इण्डियन नेशनल काँग्रेस और सूबाई असेम्बली के कुछ और मेम्बरान ने अपनी हिमायत दी।

पश्तून समाज के मौलवियों और पीरों की तरफ़ तवज्जों

इतनी कोशिशों के बाद भी अँग्रेज़परस्त लोगों की पक्की मिनिस्ट्री बनाने में नाकाम रही ब्रिटिश हुकूमत ने तब पश्तून समाज के मज़हबी रहनुमाओं यानी मौलवियों और पीरों की तरफ़ ज़्यादा तवज्जों देना शुरू कर दिया।

ब्रिटिश हुकूमत के अफ़सरों ने कई मज़हबी रहनुमाओं को अपने हक़ में करने के लिये बहुत कोशिशें कीं और उसमें बहुत हद तक कामयाब भी रहे। साम्राज्यवादी और पूँजीवादी निज़ाम वाले देशों को अपने और कम्युनिस्ट रूस के बीच एक विचारधारक दीवार की ज़रूरत महसूस होती है। ब्रिटिश इण्डियन हुकूमत को भी ऐसी दीवार की ज़रूरत महसूस हुई। उनकी नज़र में इस्लाम से बढ़कर कोई मज़बूत विचारधारक सरहद नहीं थी।

ब्रिटिश इण्डियन सरकार ने उस दौर में सूबा सरहद में मुस्लिम लीग की गुप्त और प्रत्यक्ष मदद इस लिये की, क्योंकि वह वामपंथी कम्युनिस्ट यू. एस. एस. आर. की विचारधारा को सूबा सरहद में फैलने से रोकना चाहती थी। मुस्लिम लीग दक्षिण पन्थी राजनीति पर चलने वाली पार्टी थी, जो अंग्रेज़ों के फ़ायदे की बात थी।

ख़ुदाई खि़दमतगार विचारधारक तौर पर समाजवादी थे। यह स्वाभाविक था कि वे साम्राज्यवादी अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ थे। भविष्य में कभी उनका कम्युनिस्ट यू. एस. एस. आर. से दोस्ताना सम्बन्ध हो जाना ब्रिटिश साम्राज्य के लिये ख़तरा बन जाता।

ब्रिटिश इण्डियन सरकार की तरफ़ से सूबा सरहद में मुस्लिम लीग की हिमायत और ख़ुदाई खि़दमतगारों का विरोध असल में एक साम्रज्यवादी ताक़त द्वारा कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रचार और प्रसार को रोकने को एक कोशिश थी। इसके लिये उन्होंने इस्लाम के नाम का प्रयोग किया। नहीं तो, साम्राज्यवादी अंग्रेज़ों को न तो मुसलमानों से कोई मुहब्बत थी, न हिन्दुओं से कोई नफ़रत।
 ---अमृत पाल सिंघ

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून 2018 के अंक में प्रकाशित

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