रविवार, 26 जुलाई 2020

मोदी बेच रहे हैं जिसको नेहरू ने बनाया था।










प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों व रेल बीमा बैंकिंग आदि क्षेत्रों को बेच रहे हैं उसको पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किस तरह से स्थापित किया था उस सबंध में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बाराबंकी के तत्कालीन जिला सचिव श्री सूर्य नारायण भट्ट  एडवोकेट ने विश्व वाणी अखबार में 1971   में यह एक लेख लिखा था -

 भारत सोवियत मैत्री
पारस्परिक हितों की समानता एवं  मानवीयता सुमधुर दृढ़ बंधनों से गठित मित्रता ही हमारे अंतरराष्ट्रीय संबंधों को सुस्थिर एवं लाभप्रद आधार प्रदान करने की क्षमता रखती है। स्वार्थी शोषक प्रवृत्तियां सदैव ही ऐसे गठबंधनों के लिए विष सिद्ध हुई है और आगे भी सिद्ध होती रहेंगी भारत के साथ दूसरे देशों के संबंधों को भी हमें इसी कसौटी से जांचना होगा यदि हम सचमुच अपने देश की विदेश नीति को छुद्र व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठाकर जनसाधारण के हितों की की पोषक बनाना चाहते हैं इसमें संदेह नहीं है कि ताली दोनों हाथों से बजती है एक से नहीं और यदि एक भी पक्ष ने दूसरे पक्ष के हित से किसी भी समय टकराव खाने लगता है तो दोस्ती में भी और वह उपस्थित हो जाना स्वाभाविक है भले ही हमारी भावनाएं कितनी ही उस दिन दोस्ती को कायम रखने के लिए सचेत एवं लगाई थी जब तक विभिन्न देशों के मध्य स्वार्थों एवं शक्तियों का अभिमान है उनके यहां भी स्थाई रूप नहीं ले पाएंगे प्रतियोगिताओं को जागरुक दृष्टि से देखेंगे अपनी नीति से लाभान्वित ही नहीं होंगे सभी देशों से एवं आधार प्राप्त करने की ओर भी उनकी प्रगति होगी
                    भारत सोवियत मैत्री इस युग का बहुचर्चित विषय बन गई है स्वतंत्रता के बाद सोवियत संघ पहला देश है जिसने स्वयं ताका घोषणा के साथ-साथ कुछ उसके पूर्व की अगस्त 1947 में भारत को मान्यता प्रदान की थी भारत का उस समय व्यापार अंग्रेजी भाषा माध्यम से शिक्षा एवं ब्रिटेन के शासनकाल में अर्जित पाश्चात्य संस्कृति के दृष्टिकोण से ब्रिटेन से सर्वाधिक संबंधित था जनता की प्राप्ति और ब्रिटेन की आर्थिक गिरावट ने अमेरिका से उसके संबंधों के प्रसार की सर्वाधिक संभावनाएं उपस्थित कर दी थी हमारे पूरे प्रयास का प्रभाव हमें पश्चिमी राष्ट्रों राष्ट्रों की ओर अधिक खींच रहा था और पूंजीवादी व्यवस्था का चकाचौंध हमें किसी भी अन्य मार्ग को देख ने का अवसर ही नहीं दे रहा था देश में केवल मुट्ठी भर ऐसे व्यक्ति थे जो साम्राज्यवादी पश्चिम से अपने संबंधों में शोषण की दुर्गंध पाते थे और इनमें घटनाओं के बढ़ने का अनुभव कर रहे थे। समाजवादी देशों से भारत के संबंध अधिकाधिक बढ़ाने के पक्ष में थे किंतु उनकी आवाज उस समय नक्कारखाने में  सोवियत संघ ने स्वतंत्र भारत को मान्यता दी नेहरू सरकार ने इसका स्वागत किया क्या इसमें दोनों देशों का हित नहीं था सोवियत संघ ने भारत की जनता में उपनिवेशवाद की कड़ी टूटी देखी स्वतंत्र आर्थिक विकास के लिए जन आकांक्षाओं का उन्मुक्त बढ़ाओ देखा नवोदित देश में विदेशी और पूंजीपतियों का टकराव देखा और इन सबसे अधिक उसने साम्राज्यवादी भेद से जनता का अलगाव देखा प्रगतिशील भारत में अपनी जनता को आर्थिक स्तर पर मजबूत करने का अवसर देख रहा था वह इसमें साम्राज्यवादी आर्थिक शिकंजे को ढीला करने अथवा उसमें मुक्ति का मार्ग देख रहा था साम्राज्यवादी चाहते थे कि भारत राजनैतिक संता का प्रयोग करने के लिए ना करें समाजवादी देशों से अपने स्वतंत्र भारत में उनके पूंजीवादी शोषण के मार्ग जनसाधारण साम्यवाद और समाजवाद के व्यवहार में नहीं समझ पा रहा था

 समाजवाद का आधार शोषण भी आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था है उत्पादन के साधनों को जनता द्वारा जनहित में उपयोग है इसी में     निहित है उसकी मानवीय एवं अंतर्राष्ट्रीय ता साम्राज्यवादी व्यवस्था का आधार शोषण है मुनाफा है मुट्ठी भर उद्योगपतियों के एकाधिकार में उत्पादन के साधनों को आदि का अधिक जमा करके निर्बाध आदि का अधिक मुनाफा प्राप्त करना है। साम्राज्यवादी देश भारत से अपना व्यापार बढ़ाना चाहते थे स्वतंत्रता के समय लगभग 66% भारत का व्यापार साम्राज्यवादी देशों से था जिसमें 10% के लगभग 10 तथा बाद में अमेरिका से हमारा व्यापार बढ़ गया किंतु यह व्यापार असंतुलित था भारत साम्राज्यवादी देशों का केवल कच्चा माल देता था और उनके मित्रों का बना माल स्वयं लेता था वे चाहते थे कि यही दशा सदैव बनी रहे इस निधि से ना केवल हमारा शोषण होता था वरना हम सदा सदा के लिए सैनिक दृष्टि से कमजोर बने रहने के लिए भी विवश है क्या कोई बेस बगैर अपने इस्पात उद्योग भारी मशीन उद्योग उद्योग तथा धातु उद्योग रसायन उद्योग बिजली उद्योग आदि निर्भरता की सीमा तक विकसित किए हुए अपनी क्षमता को और लंबी बना सकता है कदापि नहीं साम्राज्यवादी देश वह नहीं चाहते थे कि उनके उपनिवेश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उनसे आर्थिक होल्ड करने लगे सुरक्षा की दृष्टि से स्वावलंबी बने पूछा जा सकता है कि क्या समाजवादी देश नवोदित देशों से आर्थिक और पसंद करेंगे क्या वह नवोदित देशों की सैनिक शक्ति को स्वावलंबी होने देना पसंद करते हैं समाजवादी व्यवस्था में आर्थिक हुड़का यह कहीं प्रश्न ही नहीं उठता है

 आर्थिक और तभी संभव है जब मुनाफा कमाने की छूट हो या मुनाफा कमाना आवश्यक हो समाजवादी नवोदित देशों की सहायता उनसे मुनाफा का नाम कमाने के लिए नहीं उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए करते हैं यही उनकी साम्राज्यवादी व्यवस्था पर विजय है जितने नवोदित विकासशील देशों को आत्मनिर्भर बनाने में सफल हो जाएंगे उतने ही देश साम्राज्यवाद के शिकंजे से निकल जाएंगे और साम्राज्यवादी शोषण का अपने देश के हित के लिए सक्रिय विरोध करने की क्षमता प्राप्त कर लेंगे पर घटता है या साम्राज्यवादी खेमे को निर्बल बनाएगा जबकि समाजवादी देशों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा समाजवादी देश नवोदित देशों की आर्थिक उन्नति हमसे भयभीत नहीं होते हैं यदि वे अपने विकास का समाजवादी मार्ग अपना लेते हैं तो उनसे भी खाने जा सकता ही नहीं रह जाती उनका सहयोग परस्पर अधिक संगठित एवं लाभ पत्र बन जाता है यदि वे अपने विकास का स्वतंत्र पूंजीवादी मार्ग अपनाने हैं तो भीम साम्राज्यवादी देशों से निरंतर टकराव का रोड तथा पूंजीवादी से उत्पन्न आंतरिक समस्याएं उनके विकास की को पूरी गति से चलने में अवरोध उत्पन्न करेंगे और आर्थिक दृष्टि से ना वे आगे बढ़े साम्राज्यवादी देशों का स्तर ही प्राप्त कर सकेंगे और नहीं समाजवादी देशों से विकास में विरोध पूर्ण होने की स्थिति प्राप्त कर सकेंगे समाजवादी देशों में होड़ लेने की स्थिति में उनका अपनी स्व अर्जित सुरेंद्र ताऊ को आगे बढ़े साम्राज्यवादी देशों विशेष अमेरिका के सामने समर्पित कर देना पड़ेगा उनकी जनता की आकांक्षाओं के विरुद्ध होगा समाजवादी देश नवोदित देशों की सहायता केवल इसलिए करते हैं कि वह अपनी जनता की आकांक्षाओं को पहचाने जो साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत विकसित होने वाले एक अधिकारी पूंजीवाद से टकरा रही है सोवियत संघ की सहायता व सहयोग की परीक्षा इसी नीति के आधार पर की जा सकती है। आत्मनिर्भरता के लिए आर्थिक सहयोग
स्वतंत्रता के बाद भारत को यह देखने में देर नहीं लगी कि इस्पात उद्योग हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की हमारे स्वतंत्र औद्योगिक विकास की आधारशिला है द्वितीय पंचवर्षीय योजना से ही भारत में भारी उद्योगों विकास पर जोर देना प्रारंभ कर दिया था नेहरू सरकार ने अमेरिका व ब्रिटेन से अपने देश में सार्वजनिक क्षेत्रों में इस्पात का कारखाना लगाने की मांग की नवोदित देशों को ऐसा कर खाना देना वह ठीक नहीं समझते थे और उन्होंने इनकार कर दिया।देश भी इसके लिए नहीं तैयार थे वह भारत को अपने देश में बना दैनिक प्रयोग का सामान सिगरेट साबुन कपड़ा छोटी मशीनें दवाइयां आदि किसी भी मात्रा में देने को तैयार थे किंतु इस्पात का कारखाना भारी उद्योगों की भारी मशीनें तैयार करने का कारखाना देने को तैयार नहीं पर यह सहायता हमें स्वावलंबी बनाने की दिशा में नहीं थी अमेरिका ब्रिटेन तथा पश्चिमी जर्मनी ने भारत में इस्पात का कारखाना लगाने से इंकार कर दिया और सलाह दी कि भारत को अपनी पिछड़ी अर्थव्यवस्था के अनुकूल ही काम करना चाहिए उसे कृषि और कुटीर उद्योगों को बढ़ाना चाहिए इसके लिए हर प्रकार की सहायता भी देने को तैयार थे नेहरू सरकार ने विवश होकर सोवियत संघ से बात की और खुशी से इसके लिए राजी हो गया 2 फरवरी 1955 को दोनों देशों के मध्य भिलाई इस्पात के कारखाने के बनाने के बारे में समझौता हो गया मई 1956 में डाली गई 4 फरवरी 1959 को पहले पहल उसमें पिक कच्चा लोहा तैयार किया गया 12 अक्टूबर 1959 को पहले पहल इस्पात कारखाने में बनाया गया और नवंबर 1959 को सर्वप्रथम प्रथम बार रेलिंग इस्पात का बनाना प्रारंभ हुआ इस प्रकार साम्राज्यवादी देशों से विकास में अपने पिछड़े होने के विशाल अंतर को पूरा करने की और हमारा पहला कदम भिलाई का इस्पात का कारखाना था जो हमें सोवियत संघ के सहयोग से प्राप्त हुआ था। 16 से 1 दिसंबर 1956 को जब स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरु भिलाई के इस्पात कारखाने की वृद्धि देखने गए तो उन्होंने कहा कि जब मैं देश में भ्रमण करते हुए ऐसी योजना को देखता हूं तब तो भारत का भावी चित्र मेरे सामने आ जाता है और मैं प्रसन्न हो जाता हूं मैं स्वयं पूरे भारत का चित्र ना देख सकूंगा किंतु मैं उसकी प्रतिमूर्ति देख रहा हूं और उसी से प्रसन्न हो जाता हूं।

               आगे बोलते हुए उन्होंने कहा आप देखते हैं कि बहुत से रूसी प्लांट के निर्माण के लिए यहां आए हैं हमने इनको क्यों यहां बुलाया है साधारण उत्तर है कि हमने उनको उनसे कुछ सीखने के लिए बुलाया है इस काम का भली-भांति जानते हैं हमारे पास अच्छे इंजीनियर है पर भी अभी तक इस काम को अच्छी प्रकार नहीं जानते हैं अब भी सीख रहे इस काम के पूरा होने के बाद जब हम दूसरी इसी प्रकार का नया प्लांट लगाएंगे तब हमें या तो विदेशी सहायता की बिल्कुल आ सकता ना होगी या फिर बहुत कम सहायता की आवश्यकता होगी भविष्य में कुछ ही वर्षों में यदि हम कोई ऐसा कर खाना बनाने तो हमें कोई सामान अपने देश में तैयार करना चाहिए और हमारे इंजीनियरों को इस लायक होना चाहिए कि वह उसे स्वयं बगैर विदेशी सहायता के बना लें इन शब्दों से स्पष्ट है कि भारत आर्थिक दृष्टि से आज निर्भर होना चाहता था और आत्मनिर्भर बनने के लिए ही सोवियत संघ ने सहायता एवं सहयोग प्राप्त किया जो उसे साम्राज्यवादी देशों से नहीं प्राप्त हो सकता निर्माण के दौर में दिलाई कारखाने की क्षमता केवल 10 लाख टन रखी गई थी। 

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

लेख मे दी गयी सामग्री बहुत सराहनीय है ।

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