१- सांस्कृतिक मोर्चे का शक्तिशाली अस्त्र : जनगीत
साहित्य हमें संस्कारित करता है। मानवीय बनाता है, मानव विरोधी विचारों के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करता है। गैर बराबरी, शोषण और उत्पीड़न के पीछे तर्कशास्त्र समझने में सहयोग करता है। आज कारपोरेट की लूट (जल, जंगल, जमीन) तथा सत्ता के साथ उसके गठबंधन ने देश के किसानों, मजदूरों, छोटे व्यापारियों, दलितों, आदिवासियों के जीवन को त्रस्त कर दिया है। बहुलतावादी हमारी संस्कृति, सहभाव, साझापन को रौंद दिया है। झूठ फरेब, लूट की संस्कृति को ऐसे अर्ध सत्य बनाकर पेश किया जा रहा है जहाँ महान मानवीय मूल्यों का स्पेश कम हो। साहित्य को भी प्रश्नांकित कर उसे फालतू और बाजारू बनाकर सत्ता के हित साधक के रूप में बदला जा रहा है। यह एक बेहद खौफनाक समय है मनुष्यता विरोधी और जन विरोधी। लेकिन ऐसे ही समय में सबसे ज्यादा साहित्य की जरूरत होती है या है। फर्दाफाश करने वाले, लूट के तर्क को खोलने वाले। बढ़ती निराशा से मुक्त होकर मानवता के पक्ष में खड़ा करने में सहयोग देने वाले। ऐसे साहित्य की जरूरत जो बकौल प्रेमचन्द्र ‘राजनीति के आगे चलने वाले मशाल’ की तरह हो।
अगर भारत के इतिहास को देखें तो ऐसा साहित्य राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के दौर में खूब लिखा गया, जन-जन तक पहुँचा। काव्य पंक्तियाँ जन संग्रामों का कण्ठ हार बन गइंर्। कई-कई कविताएँ तो आन्दोलनों का केन्द्रीय नारा बन गईं। कहने का तात्पर्य यह है कि जन संघर्ष को पर्याप्त ऊष्मा, ऊर्जा और दिशा साहित्य इस दौर में प्रदान करती रही। शीत युद्ध के दौर में यह क्रम बदला लेकिन आजाद भारत में भी जन संघर्षों के साथ जो साहित्य रचा गया वह अत्यन्त सारवान रहा और जन उपयोगी तथा जनपक्षधर भी।
इस तरह के आन्दोलनधर्मी तथा जन संघर्षों के गीत-कविताओं के दो रूप हैं। पहला जनता के लिए दूसरा जनता के संघर्ष को संचालित करने वाले हिरावल लोगों के लिए। पहले को हम जनगीत नाम से जानते हैं तथा दूसरे को गंभीर विमर्श वाले सौन्दर्य बोधीय तराने के रूप में। आज बड़े पैमाने पर आन्दोलन चलाए जा रहे हैं छात्रों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों, व्यवसायियों के। फिर से एक बार नये जनगीतों की जरूरत है जो जनता के बीच नये समाज का स्वप्न तथा भरोसा बाँट सकें। जन संघर्षों को उद्दीप्त कर सकें। ऊर्जा प्रदान करें, सत्ता के शोषण कारी चरित्र को उजागर कर सकें।
जन गीतों की बुनावट जहाँ एक तरफ लोकधर्मी (धुन, लय, भाव) के स्वर पर हो तो दूसरी तरफ जनता के गहरे बिखराव और निराशा के भावों को दर किनार कर नया सौन्दर्य भाव सृजित कर सकें। इस सन्दर्भ में हमें अपने पूर्ववर्ती जनगीतों को याद करना चाहिए। ऐसे जनगीत आज भी हमारे बैठकों, धरनों, गोष्ठियों, मार्चों में गाये जाते हैं।
सबसे लोकप्रिय गीतों में कोई विभेद तो नहीं किया जा सकता लेकिन फैज के तराने का कोई सानी नहीं है। लाजिम है कि हम देखेंगे, आज भी हमारे बैठकों का सबसे जरूरी गीत है। गीत की बुनावट कयामत की अवधारणा के रूपक को स्टेप बाई स्टेप फैज ने क्रांति के संभव होने के वक्त में बारीकी से बदल दिया है जो आज भी हमारे लिये मानीखेज है। कयामत के दिन ‘पहाड़ रुई की तरह उड़ने लगेंगे, काबे से बुत उठाये जाएँगे, धरती धड़धड़ धड़केगी, ऐसा पवित्र ग्रंथों में लिखा है वह संभव होगा। लेकिन इसी रूपक में फैज ने तख्त-ताज के गिराने, उछाले जाने, मजलूमों के पाँव तले और अहले हकम के सर ऊपर उपेक्षित हरम के लोगों को मसनद पर बैठने को जोड़कर क्रांति के दिन में बदल दिया है। गीत पढ़ें और कयामत के रूपक को ध्यान में रखें तो इसका आनन्द और बढ़ जाता है। अपने अंतिम बन्द तक रूपक को नया आयाम देते हुए फैज घोषणा करते हैं कि-
उठ्ठेगा अन-अल, हक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
और राज करेगी खल्क-ए-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
यह इकलौता गीत नहीं है।
हिन्दी उर्दू बांग्ला, मराठी के बड़े कवियों ने जनगीत लिखे। उनके लय-धुन, भाव-संवेदना को लोक तथा समय के साथ आज नये सिरे से पढ़ने या पाठ करने की जरूरत है। लाउड होना भी एक कला है। अपने भीतर खौलते हुए जज्बात को गीतों में ढालना एक महान सृजन है तथा उसे संयत स्वरों में जन-जन तक पहुँचाना जनगीतों का आन्तरिक धर्म। इस क्रम में शलभ श्रीराम सिंह और शशिप्रकाश के गीतों को याद करना बेहद जरूरी है। शलभ श्रीराम सिंह ने ढेरों गीत लिखे लेकिन उनका गीत ‘घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए’ आज भी बेहद लोकप्रिय है। गीत की लय मार्च पास्ट की है और हर बन्द नये रूपक तथा उपमानों से सुसज्जित है अपने समय की विडम्बना को उन्होंने तेजाबी भाषा में रचा है जो वर्षों बाद आज भी प्रासंगिक हैः-
नफस-नफस, कदम-कदम
बस एक फिक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवारल से
हमें जवाब चाहिए
जवाब दर सवाल है
कि इन्कबाल चाहिए।
शलभ श्री राम सिंह के इस गीत के प्रत्येक बन्द नये प्रतीकों तथा उपमानों में अपने समय की सत्ता का फर्दाफाश करते हैं। जहाँ पे लफ्ज-ए-अम्न एक खौफनाक राज हो, जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज हो, उन्हीं की सरहदों में कैद हैं हमारी बोलियाँ, वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ। इस तरह की पंक्तियाँ जहाँ पर्दाफाश करती हैं वहीं उत्साहित करने, संघर्ष करने की ताकत देती हैं। इनकी झूठी बात पर ना और तू यकीन कर, इस रूप में गीत मात्र नारे बाजी नहीं बल्कि गहरे जनतांत्रिक व्यवस्था को प्रश्नांकित करती हैं। राजनीति के झूठ को बेनकाब करती है।
इस क्रम में नये लोगों में शशि प्रकाश ने जन गीत खिले हैं। वे परिवर्तन सृजन, संघर्ष का बखूबी एक नया लोक ही रचते हैं उनका प्रसिद्ध गीत जिन्दगी ने एक दिन कहा जिन प्रतीकों, विम्बों से रचा गया है वह हमारे भीतर कहीं गहरे एक नई ऊष्मा ऊर्जा भरता है। जनगीतों को नारा कहने वाले कला आग्रही लोगों को इस गीत को पढ़ना चाहिए। उनके सारे सौन्दर्य बोधीय कलात्मक प्रतिमान टूट जाएँगे। जिन्दगी का कहन खासकर स्वर कैसे एक नये संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। कैसे गीत के क्रमशः अगले बन्द नये स्वर सृजन का संधान करते हैं, बेजोड़ है।
जिन्दगी ने कहा-क्या, क्या, क्या, तुम लड़ां कि चह-चहा उठे हवा के परिन्दे, आसमान चूम ले जमीन को, जिन्दगी महक उठे.....। तुम उठो- कि उठ पडं़े असंख्य हाथ, चलो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ मुस्करा उठे क्षितिज पर भोर की किरन। जिन्दगी ने एक दिन कहा.... क्या कि तुम बहो, रुधिर की तरह, जिन्दगी ने एक दिन कहा तुम जलो कि रौशनी के पंख झिलमिला उठें, जिन्दगी ने एक दिन कहा तुम रचो हवा पहाड़ रोशनी नई, महान आत्मा नई गीत लड़ने, उठने, जलने, कहने और रचने का आह्वान करती है। कैसे रुधिर प्रवाह की तरह नये जीवन के रचने की लड़ने की उठने की, कि दुनिया बदल जाए। भाव तथा रूप की ऐसी गहरी एकता विरल है।
यहाँ लगभग तीन जन गीतकार फैज, शलभ श्रीराम सिंह तथा शशिकांत के तीन गीतों की ओर मैंने आपका ध्यान दिलाया है। ऐसे हजारां जनगीत हैं जो लाखों करोड़ों की जुबान पर आज भी मौजूद हैं, लेकिन जैसे प्रत्येक समय अपने संघर्ष आन्दोलन पैदा करता है उसी प्रकार वह अपने गीत जन गीत पैदा करता है। विरासत को संभाले हमें आज के नये गीत रचने और गाने होंगे जो हमें इस सदी के लिये नये संघर्षों को वाणी दे सकें। लिखा तो आज भी जा रहा है, लेकिन उसे अभी जन कण्ठ तक पहुँचने में थोड़ा वक्त लगेगा।
२-जनगीतों का विजन : हर नारे में महाकाव्य सृजन की प्रतिश्रुति
कविता के वितान में महाकाव्य को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। हालाँकि बदलते जीवन सन्दर्भ तथा गद्य के विकास के साथ अब महाकाव्य का स्थान उपन्यास ने ले लिया है। रैल फॉक्स ने लिखा है कि ‘‘उपन्यास आधुनिक युग का महाकाव्य है।’’ बावजूद इसके महाकाव्य की सर्वश्रेष्ठता के भाव पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। अपने उदात्त भावों तथा बड़े विजन के कारण महाकाव्य की महत्ता यथार्थ रूप में न सही भावरूप में अभी भी बनी हुई है। मुक्तिबोध अपनी कविता ‘‘मुझे कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं’’ में कहते हैं-
मुझे भ्रम होता है कि
प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि
प्रत्येक वाणी में महाकाव्य की पीड़ा है।
प्रतीक रूप में ही सही मुक्तिबोध महाकाव्य की सर्वश्रेष्ठता स्वीकार करते हैं हालाँकि उन्होंने स्वयं कोई महाकाव्य नहीं रचा। इसी तरह तुर्की के प्रसिद्ध कवि नाजिम हिकमत अपनी कविता में महाकाव्य का प्रतीक रूप में प्रयोग करते हैं-
पढ़ना किसी महाकाव्य की तरह,
सुनना किसी प्रेमगीत की तरह,
लेकिन ठीक इसके उलट अपनी छोटी सी रचना विधान में जनगीतों ने बड़े विजन और उदात्त भावों को सृजित किया है। स्वप्न, यथार्थ, परिवर्तनकामी चेतना, पीड़ा-दुख, संघर्ष, उत्साह, उल्लास का जो सन्दर्भ जनगीतों में है वह महाकाव्यों के विस्तृत कलेवर के बावजूद कमतर दृष्टिगत होता है। माहेश्वर के चर्चित गीत की पंक्तियाँ हैं-
‘‘सृष्टि बीज का नाश न हो हर मौसम की तैयारी है। हर नारे में महाकाव्य के सृजन कर्म को बारी है।’’ नारा वैसे भी गंभीर आचार्यों का जनगीतों के लिए आरोपित शब्द है। कविता नहीं है, यह तो नारे बाजी है। दूसरी तरफ महाकाव्य सृजित करने की प्रतिश्रुति है, न विडम्बना, लेकिन हजारों कण्ठों में रचे बसे नारे इतिहास के खास मुकाम पर जो रोल अदा करते हैं या किए हैं बड़ी से बड़ी कविता, महान कविता ईर्ष्या करे। कवि की सार्थकता जनता की जुबान पर चढ़ना और नारे बनने में है। यह अलग बात है कि आपके लिए कविता समाज बदलने का उपकरण हो। मात्र सौन्दर्य
बोधी तराने न हों। जब भी आप साहित्य को बड़े तथा मानवीय सरोकारों से जोड़कर देखेंगे तो सहज ही आपके निष्कर्ष जनगीतों में मौजूद नारों तथा उसमें निहित महा काव्यात्मक औदात्य के पक्ष में होंगे।
माहेश्वर के गीत को पहले देखा जाए। अपने लघु कलेवर में बड़ा विजन, शाश्वत संघर्षों के मूल्य तथा परिवर्तन कारी चेतना को अद्भुत तरीके से माहेश्वर ने पिरोया है। परत-दर परत गीत महान मानवता के पक्ष में क्रमशः नई जमीन और नये भाव विन्यासों से मेल करता है। पहली ही पंक्ति नये समाज सृजन की बुनियाद रखती है :-
सृष्टि बीज का नाश न हो हर मौसम की तैयारी है,
कल का गीत लिये होठों पर आज लड़ाई जारी है।
‘सृष्टि बीज’ एक तरह से गीत की आधार रेखा है और कल का स्वप्न तथा आज का संघर्ष परिवर्तनकारी चेतना की प्रतिश्रुति। गीत के अगले चरण पर पहुँचने से पहले सृष्टि बीज शब्द तथा भाव की अर्थ व्याप्ति पर गौर करना चाहिए। यही वह सूत्र है जो गीत को बड़े विजन के साथ जोड़ देता है। बेहतर कल के लिए आज का संघर्ष, सृष्टि बीज को बचाते हुए। हैं न अद्भुत भाव तथा सोच। गीत के अगले बंद में माहेश्वर इस संघर्ष को शाश्वत संघर्ष, बेहतर दुनिया के लिए जोड़ देते हैं। ध्वंस और निर्माण जवानी की निश्छल किलकारी। ध्वंस और निर्माण शाश्वत सत्य हैं। इसलिए यह समझ संघर्ष में उतरने की प्ररेणा भी देता है वहीं इस बात की ओर संकेत भी करता है कि सिर्फ ध्वंस ही काम्य नहीं है बल्कि ध्वंस के बाद निर्माण भी हमारा ही कार्यभार है। लेकिन जवानी, युवा, निश्छलता, किलकारी, हताशा तो एक साथ निराशा के विरुद्ध समाज परिवर्तन में लगे लोगों के लिए बेहद जरूरी उपकरण हैं। जवानी की निश्छल किलकारी और परचम, परचम चमकता बूढ़ा सूरज। एक तरफ युवा जोश तो दूसरी तरफ ज्ञान अनुभव की थाती। दोनों के समवेत संघर्ष से ही नये समाज का निर्माण संभव है।
जंजीरों से क्षुब्ध युगों के प्रणयगीत ही रणभेरी पंक्ति तो निश्चय ही गीत को महाकाव्यात्मक औदात्य प्रदान करती है। शायद माहेश्वर इसीलिए लिखते हैं कि हर नारे में महाकाव्य के सृजनकर्म की बारी है। इस रूप में जनगीत अपनी छोटी सी रचना विधान में बड़े विजन का सृजन करते हैं। निश्चय ही यह महाकाव्य तो नहीं लेकिन महाकाव्यात्मक तो है ही।
इसीक्रम में शंकर शैलेन्द्र की प्रसिद्ध और चर्चित रचना ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर’, के विजन स्वर्ग को धरती पर उतारने की बात होनी चाहिए। हजारों लोग आज भी इस गीत को गुनगुनाते रहते हैं। स्कूलों कालेजों में चर्चित समूहगान है यह गीत। स्वर्ग एक मिथकीय परिकल्पना है। बकौल गालिब-हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है।
जो भी हो लेकिन स्वर्ग, दुख विहीन समाज तथा जीवन का बड़ विजन है। शंकर शैलेन्द्र पहले ही साफ कर दे रहे हैं अगर कही हो स्वर्ग तो। इसलिए स्वर्ग को धरती पर उतार लाने का विजन धरती को स्वर्ग जैसा बनाने का स्वप्न मात्र है। समस्याहीन तथा दुखहीन जीवन। दरअसल जन गीतों में वर्णित चित्रित जीवन संधर्ष तथा लक्ष्य स्पष्ट रूप से आजादी समानता से लैस महान मानवीय समाज की रचना है। इस क्रम में स्वर्ग जैसा विजन सहज भी है और शानदार भी। शंकर शैलेन्द्र इसे धरती पर उतार लाने का अह्वान करते हैं। गम और सितम के चार दिनों से पार जाने की शदियों से चली आ रही जद्दो जहद को वह स्वर देते हैं।
बड़े स्वप्न-विजन और उसके लिए सतत् संघर्ष। नाउम्मीदी के दुश्चक्र से बाहर आना, एक जुटता उत्साह, उल्लास तथा प्रयत्न जनगीतों की महत्वपूर्ण विशेषता है। यही कारण है कि ये गीत आज भी हमारे कण्ठहार बने हुए हैं। ऐसा नहीं है कि जन गीतों में अपने समय के कटु यथार्थ का चित्रण नहीं है या गीतकार यथार्थ से मुंह चुराते हैं बल्कि अन्य कविताओं के मुकाबले यहाँ यथार्थ की तीव्रता कहीं ज्यादा ही है। श्ांकर शैलेन्द्र स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि-
बुरी है आग पेट की बुरे हैं दिल के दाग ये। या ‘जुल्म के महल’, ‘भूख और रोग के स्वराज’ तो असामानता और उत्पीड़न का कटु सत्य और यथार्थ है। जिसके लिये वे स्वर्ग को जमीन पर उतारने के संघर्ष का एहसास करते हैं। इस रूप में जीवन का भयावह शोषण उत्पीड़न से भरा मंजर और इससे मुक्ति के लिए धरती को स्वर्ग में बदलने की तीव्र आकांक्षा। जनगीत का यही काव्य सौन्दर्य है। शंकर शैलेन्द्र ने अत्यन्त कुशलता से रचा है। यथार्थ और स्वप्न-विजन का द्वन्द्व। बेहतरी के लिए संघर्ष गीत का केन्द्रीय भाव है।
राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के दौर में लिखे साहिर लुधियानवी के चर्चित गीत का उल्लेख इस सन्दर्भ में बेहद महत्वपूर्ण है। साहिर बड़े शायर हैं। उनकी परिकल्पना और विजन महान है। भयावह यथार्थ और परिकल्पित स्वप्न के द्वन्द्व पर रचा गया उनका गीत यह सुबह कभी तो आएगी, अपने सम्पूर्ण रचना विधान में महाकाव्यात्मक है। साहिर आश्वस्त हैं कि यह सुबह कभी तो आएगी और यह भी कि यह सुबह हमी से आयेगी हम अर्थात शोषित पीड़ित जन। वे एक तरफ अपने समय के भयावह यथार्थ तथा दुख को याद करते हैं, भयानक शोषण उत्पीड़न की रात को रखते हैं दूसरी तरफ यह विश्वास भी व्यक्त करते हैं कि सुबह आएगी कभी तो आएगी। उनको यकीन है कि जब दुख के बादल पिघलेंगे और जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी और यह संघर्षों से एक दिन संभव होगा।
साहिर अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाने से पहले अपने समय के भयावह यथार्थ को रखते हैं। यही वह संदर्भ है जहाँ से नई दुनिया के रचना की जरूरत बनती है। यथार्थ चित्रण के क्रम में वे सारा ध्यान पीड़ित मानवता पर रखते हैं। खासकर मजदूरों, किसानों स्त्रियों की स्थिति पर। भूख गरीबी, लाचारी शोषण उत्पीड़न पर उनकी निगाह ठहरती है और वहीं से वह एक अनोखी दुनिया का विजन लेकर चलते हैं। मांग रखते हैं या उसकी बुनियाद उठाने की बात करते हैं। एक सुबह ऐसी जिसमें वर्तमान की अंधेरी रात डूब जाएगी। वे वर्तमान के भयावह यथार्थ वर्णन करते हैं। इंसानों का मोल मिट्टी से भी गया बीता है। उनकी इज्जत सिक्कों से तौली जा रही है। दौलत के लिए स्त्रियों की अस्मत बेची जा रही है। चाहत को कुचला जा रहा है। औरत को बेचा जा रहा है। भूख और बेकारी का साम्राज्य फैला है। दौलत की इजारेदारी में मानवता कैद है। एक तरफ मजबूर बुढ़ापा धूल फांक रहा है तो दूसरी तरफ बचपन गंदी गलियों में भीख मांगने पर विवश है। हक की आवाज उठाने वालों को सूली पर चढ़ाया जा रहा है। फांकों की चिंता में हैं और सीने में दोजख की आग लगी हुई है। अर्थात यह दुनिया पूरी तरह भयावह लूट और शोषण अन्याय के हजारों सन्दर्भों से पटी पड़ी है। अंधेरी रात बहुत ही भयानक है लेकिन इसी भयानक यथार्थ के बीच साहिर उम्मीद बनाये रखते हैं। शोषण विहिन समाज का महान विजन सामने रखते है। हमें आश्वस्त करते है। यह शोषण की, उत्पीड़न की, लूट की रात एक दिन खत्म होगी। सुबह तो आएगी और हमीं से आएगी। साहिर एक तरफ भयावह यथार्थ को देखते हैं तो दूसरी तरफ उससे मुक्ति के प्रति आशा व्यक्त करते हैं। यह आस्था और विश्वास आज अत्यन्त सारवान है। यथार्थ के तीखे सन्दर्भ और उससे मुक्ति के लिये संघर्ष को पूरी शक्ति के साथ साहिर ने अपने कालजयी गीत में पिरोया है।
इसी तरह शशि प्रकाश का एक गीत है। बेहद स्वप्न दर्शी और विजनरी। नई दुनिया का ख्वाब। इस ख्वाब को हम ही पूरा करेंगे। यह हमारा ऐतिहासिक कार्यभार है। गीत के बोल है-
दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं,
आंखां में हमारी नई दुनिया के ख्वाब है।
शशि प्रकाश मेहनतकश अवाम की महान संघर्ष गाथा को पहले चंद पंक्तियों में रखते हैं जो कुछ दुनिया में सुन्दर है, महान है, वह हम मेहनतकश श्रमिकों की रचना है। दुनिया का निर्माण श्रमजीवी वर्ग ने ही किया है।
इन बाजुओं ने दुनिया बनायी है,
काटा है जंगलों को बस्ती बसाई है,
जांगर खटा के खेतों में फसलें उगाई है,
सड़कें निकाली है, अटारी उठाई है,
ये बांध बनाये हैं फैक्ट्री बनाई है।
हमने अपनी मेहनत से दुनिया को गढ़ा है लेकिन हमीं इस दुनिया में सबसे ज्यादा शोषण-उत्पीड़न के शिकार हुए हैं। दुनिया में जो भी बदसूरत हैं वह मुट्ठी भर शोषकों तथा उसकी व्यवस्था की देन है। लेकिन जो दुनिया को बना सकते हैं, वही एक जुट संघर्ष से शोषण और उत्पीड़न को समाप्त करेंगे। यही स्थायी ख्वाव हमारी आँखों में है। शोषण मुक्त समाज का स्वप्न।
दरसल हमेशा से जनगीतों को राजनैतिक विचारों की उद्रणी, लाउड पोयट्री, भावों की गहराई का अभाव, उथलापन आदि आरोप लगाकर बड़े कलेवर की कृतियों महाकाव्य आदि तथा प्रोजियन फार्म की कविताओं के मुकाबले कम महत्व का माना जाता रहा है। जबकि जनगीतों को आन्तरिक बुनावट, कथन, यथार्थ बोध और सबसे ऊपर महान तथा बड़ा विजन तथा उसका व्यापक फलक किसी तरह से कमतर नहीं है। जनगीतों की अपार लोकप्रियता तथा सफलता और इससे भी आगे बढ़कर एक साथ बड़े जन समूह को उद्वेलित प्रेरित करने की शक्ति उसे अलग से रेखांकित करने की मांग करती है। जहाँ तक भावों विचारों की गहराई तथा कलात्मकता की बात है वह भी कविता के किसी फार्म के मुकाबले कमतर भी नहीं है। बस गंभीरता का लबादा फेंककर जन गीतों के आन्तरिक सौन्दर्य को नया पाठ रचना होगा। यदि कविता की सार्थकता महाकाव्य होने में है तो जनगीतों की सार्थकता नये समाज के विजन को हकीकत में बदलने वाले संघर्षों के प्रेरक बनने में है।
3-जनगीतों का सामाजिक सन्दर्
साहित्य अपने अन्तिम निष्कर्षों में एक सामाजिक उत्पाद होता है। कत्र्ता के घोर उपेक्षा के बावजूद समय और समाज की सच्चाई उसके होठों पर आ ही जाती है। ऐसे में जब कविता का मूल भाव समाज परिवर्तन हो तो समाज में निहित द्वन्द्व, अन्त र्विरोध अत्यन्त स्वाभाविक रूप से कविता में घुल-मिलकर प्रवाहित होते हैं। ‘जनगीतों’ का स्वरूप कुछ ऐसे ही बना-रचा हुआ है। सामाजिक अन्तः सम्बन्ध और उनमें निहित असमानता के तनावपूर्ण रूप जनगीतों के मूल विषय हैं।
जनगीतों में सर्वाधिक गैर बराबरी तथा शोषण और उत्पीड़न के सन्दर्भ चित्रित हुए हैं। लगभग सभी गीतों का आधार तथा दृष्टि इस बात से परिचालित है कि जो लोग अपने मेहनत से दुनिया का सृजन करते हैं वही समाज में उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार हैं। चूंकि समाज का ताना-बाना, मूलतः एक विशाल शोषणकारी तन्त्र द्वारा संचालित है जिसमें मेहनतकश अवाम के लिए कुछ भी नहीं है और मुठ्ठीभर लोगों के लिए ‘सब कुछ है।’ इसलिए जनगीतों का इसके विरुद्ध संघर्ष और परिवर्तन का स्वर प्रमुख है। इस रूप में जनगीतों के भीतर एक शोषण और अन्याय से भरे समाज का चित्रण हुआ है तो दूसरी ओर इसके बदलने की बेचैनी का।
समाज अपने व्यापक तथा सीमित दोनों अर्थों में व्यक्ति, परिवार, जाति समूह गांव, रिश्ते-नाते, देश आदि से बँधा होता है। लेकिन उसके बीच मौजूद असमान रूप तथा उत्पीड़नकारी सम्बन्ध निरन्तर संचालित होते हैं। जनगीतों में मौजूद समाज इस नुक्ते को साफ कर के चलता है कि सारे सामाजिक सम्बन्ध मात्र शोषक-शोषित के बीच बँटे हुए होते हैं। इस रूप में जनगीतों का समाजशास्त्र शास्त्रीय किस्म का समाज नहीं है बल्कि लूट और उत्पीड़न से संचालित समाज है जिसे बदलने की बेहद जरूरत है। लेकिन इसके कथन की शैली तथा रूपकों में भिन्नता एक नये आवर्त और उठान के साथ आता है जिससे एक ताजगी बनी रहती है। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य है कि एक पूरा का पूरा समाज और उसके बुनियादी द्वन्द्व जनगीतों का यह विशेष सामाजिक सन्दर्भ है।
‘आहृवान’ नाट्य टोला का प्रसिद्ध गीत है जो ‘हमारा शहर’ फिल्म में गाया भी गया है। पूरे गीत में भारतीय समाज के मुख्य तथा अन्य सामाजिक अन्तविर्रोधों को बेहद खूबसूरती से उठाया गया है। प्रत्येक बन्द अलग-अलग सामाजिक गतियों को चित्रित-वर्णित करते हैं। पहले बन्द में कृषक समाज का चित्र रखा गया है-
अपनी मेहनत से भाई धरती की हुई खुदाई
माटी में बीज बोया, धरती भी दुल्हन बनाई
पसीना हमने बहाया, जमींदार ने खूब कमाया
साहूकार के कर्ज ने हमको गांव से शहर भगाया।
अरे दाने-दाने को मजदूर तरसे जीने की कठिनाई
ऐसी क्यों हे भाई......................।
गीत एक बारगी किसान के मजदूर बनने की प्रक्रिया और गांव से उजड़ने के कारणांे का खुलासा करता है। समस्या उस समाज की है जिसमें जमींदार और साहूकार अभी भी मौजूद हैं और नये तरीके से ‘धरती को दुल्हन’ की तरह अपने पसीने से सजाने वाले किसान को बदहाल बना देते हैं। इसी क्रम में गीत के क्रमशः अपने अगले बन्दों में एक-एक सामाजिक समूह की बिद्रूपताआंे को उठाया गया है तथा-
अपनी मेहनत से भाई, धरती की हुई खुदाई
माटी से गारा बनाया, माही से ईंट बनाई
धनवान को मिली सुविधा, सुख चैन भुलाया हमने
अरे अपना ही रहने का घर नहीं है भाई। यह बिल्डरों का राज है।
खाने को दाना नहीं पीने को पानी नहीं रहने को घर नहीं पहनने को कपड़ा नहीं। यह कैसा राज है भाई।
इसी क्रम में बुनकरों की सामाजिक स्थितियों तथा उनके कर्म की उपेक्षा का चित्र है यथा-
अपनी मेहनत से, रूई को सूत बनाया
उसको चढ़ा पहिये पर, कपड़ा हमने बनाया
कपड़े पर रंग-बिरंगे झालर चढ़ाई हमने
टी0बी0 को अपनाया, माल लिया मालिक ने अरे हम अध नंगे मुर्दाघाट पर कफन की भी महंगाई। ऐसा क्यों है भाई।
किसानों,मजदूरों,बुनकरों,दलितों की विडम्बना पूर्ण स्थितियों के बिदू्रप चित्रों तथा विडम्बना मूलक सामाजिक सन्दर्भो से भरे पड़े हैं जनगीत। बल्कि उनकी रागिनी उनके दुःख पीड़ा की ठंडी लहर सी निर्मित होती है।
जनगीतों का सारा ध्यान मेहनतकश अनाम तथा उसके श्रम की लूट पर टिका हुआ है। ब्रज मोहन के गीत कुछ इस तरह हैं:-
धरती को सोना बनाने वाले भाई रे
माटी से हीरा उगाने वाले भाई रे
अपना पसीना बहाने वाले भाई रे
उठ तेरी मेहनत को लूटे हैं कसाई रे।
मिल, कोठी, कारें, ये सड़कें ये इंजन
इन सब में तेरी ही मेहनत की धड़कन
तेरे ही हाथों ने दुनिया बनाई
तूने ही भर पेट रोटी न खाई.........।
कहने का अर्थ यह कि एक ऐसा समाज जो मेहनत कश के अपार श्रम के लूट पर टिका है वह समाज नहीं चल सकता। उसे बदलने की जरूरत है। निश्चय ही यही जनगीतों का महत्वपूर्ण सामाजिक सन्दर्भ है। श्रम जीवी समाज की दुःख, पीड़ा, गरीबी और दुश्वारियों के चित्रण के साथ जनगीत उस बुनियादी अन्तर्विरोध को उठाते हैं जो मानव समाज को आगे ले जाने में समर्थ हैं अर्थात श्रम और पूंजी का अन्तर्विरोध। शील ने इसे साफ शब्दों में रचा है-
हँसी जिन्दगी, जिन्दगी का हक हमारा।
हमारे ही श्रम से है जीवन की धारा।
ऐसे समाज में जहाँ समस्त श्रमजीवी समाज यथा मजदूर, किसान, दलित स्त्री उत्पीड़ित है उसे बदलने की जरूरत है। यह आकस्मिक नहीं कि जनगीत समाज परिवर्तन के लिए निरन्तर संघर्ष के लिए पे्ररित करते दिखते हैं। इस रूप में जनगीत का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू समाज परिवर्तन तथा एक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण विशेष सामाजिक सन्दर्भ है। यहाँ यह भी साफ होना चाहिए कि जनगीत किसी अमीर और व्यक्गित उन्नति का पाठ नहीं रचते बल्कि उनका सारा जोर समाज बदलने का आहृवान, संघर्ष, प्रेरणा और नवीन समाज के स्वप्न से भरा हुआ है।
जनगीत विशुद्ध रूप में सामाजिक हैं उनका ध्येय शोषण पर टिके समाज को बदलकर नये समाज का सृजन है, यही उनका मान है यही लय है और यही छन्द। साहिर का प्रसिद्ध गीत है-यह किसका लहू है कौन मरा। उसकी चन्द पंक्तियों का उल्लेख जरूरी है:-
हम ठान चुके हैं अब जी में
हर जलियाँ से टक्कर लेंगे
तुम समझौते की आस रखो
हम आगे बढ़ते जाएँगे
हमंे मंजिल आजादी की कसम
हर मंजिल पे दोहराएँगें ।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तो अपने गीत में एक साथ शोषण तन्त्र के तमाम रूपों तथा कारणों को चित्रित करते हैं और उसके खिलाफ एक साथ जंग का ऐलान करते हैं। अपने आस-पास बिखरी समस्याओं की पहले वे व्याख्या करते हैं-
यह छाया तिलक लगाये जनेऊ धारी हैं
यह जात-पात के पूजक हैं
यह जो भ्रष्टाचारी हैं।
यह जो भू-पति कहलाता है जिसकी साहूकारी है।
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
इसी गीत का अगला बंद है-
यह जो तिलक मांगता, लड़के की धौंस जमाता है।
कम दहेज पाकर लड़की का जीवन नरक बनाता है।
पैसे के बल पर यह जो अनमेल विवाह रचाता है।
उसे मिटाने और बदलने की तैयारी है।
जारी है-जारी है आज लड़ाई जारी है।
संघर्ष के आहृवान का दूसरा मुकाम संघर्ष से नये समाज को प्राप्त करने का है। बल्ली सिंह का प्रसिद्ध गीत है-
ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के, पूछती है झोपड़ी और पूछते खेत भी, कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गांव के। बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहां यह जानकर अब लड़ाई लड़ रहे हैं, लोग मेरे गांव के।
जनगीत कार एक नये समाज रचना के लिए प्रतिबद्ध है। वह समाज जो शोषण-उत्पीड़न से मुक्त बराबरी समानता का हो। मेहनत कश अवाम का हो। गरीब मजदूर किसान की दुश्वारिया जहां न हों, जहाँ स्वास्थ्य शिक्षा की सबके लिए व्यवस्था हो। उसे उम्मीद है कि शोषण का पूरा ढांचा एक दिन गिरेगा। ब्रेख्त के शब्दों में -
एक दिन ऐसा आयेगा
पैसा फिर काम न आयेगा
धरा हथियार रह जायेगा
और यह जल्दी ही होगा
ये ढाँचा बदल जायेगा.........।
इस प्रकार जनगीत बेलौस तरीके से समाज के मुख्य अन्तर्विरोध को उठाते हैं। उनके लिए मेहनत की लूट और पूँजीवादी निजाम महत्वपूर्ण सामाजिक सच्चाई है। लेकिन वे यहीं नहीं रुकते वे इसे बदलने के लिए संघर्ष की हामी भरते हैं। परिवर्तन में आस्था व्यक्त करते हैं। एक लम्बी तथा दीर्घ कालिक संघर्ष को सजाये गीत नये समाज के स्वप्न को धरती पर उतारने के लिए प्रतिबद्ध हैं। श्रम और पूंजी के इस जंग में वे श्रम के सभी पक्षकारों को आमन्त्रित करते हैं-
गर हो सके तो अब कोई शम्मा जलाइए
इस अहले सियासत का अन्धेरा मिटाइए
अब छोड़िये आकाश में नारा उछालना,
आकर हमारे कन्धे से कन्धा मिलाइए।
क्यों कर रहे हैं आँधी के रुकने का इन्तजार,
ये जंग है, इस जंग में ताकत लगाइए।
ख ख्याल
४ घ- जनगीतां कात रचना विधान : कला का नया शास्त्र
सामान्यतः जगगीतां
की स ृजनात्मकता, कलात्मकता, भाषिक
सौन्दर्य तथा रचाव-गठन पर चर्चा ही
नहीं हुई है। उस े गम्भीर आलोचनात्मक
विमर्श का हिस्सा ही नहीं माना गया है।
सतही, लाउड, नारे बाजी कहकर उसम ें
निहित कलात्मकता की उपेक्षा होती रही
है। इस सन्दर्भ म ें यह भी उल्लेखनीय
तथ्य है कि बड ़ी प्रतिभाआें क े शामिल
होने क े बावज ूद उन पर विचार करते
समय जनगीतां को उनक े साहित्यिक
अवदान स े बाहर रखा गया ह ै।
जनगीतकारां तथा उनके सृजन को गम्भीर
अकादमिक विमर्श स े बाहर रखना दुखद
भी है और आश्चर्य का विषय भी। इस
रूप म ें जनगीतां क े रचना विधान तथा
उनम ें निहित काव्यात्मक सौन्दर्य पर एक
तरह स े विचार करने क े लिए जरूरी है
कि गम्भीर कलात्मक उपकरणां के सर्वमान्य
मान दण्डां के बरक्स नया शास्त्र प्रस्तावित
किया जाय। यह मांग कविता क े व्यापक
जनतांत्रिक समझ को और लाख-लाख
संघर्षो की आवाज को अकादमिक मान्यता
तथा विमर्श का हिस्सा बनाने क े लिए
जरूरी है।
यह बेहद आश्चर्य का विषय है कि
राष्ट्रीय मुक्ति स ंग्राम और बाद क े जन
संघर्षो के बीच लाख-लाख परिवर्तन कामी
भी कष्ट से गाये जाने वाले तराने कलात्मक
नहीं हैं बल्कि पुस्तकालयां और पाठ्यक्रमां
म ें शामिल श्रोता पाठक विहीन रचनाएँ
काव्य कला क े उत्क ृष्ट नम ूने है ं। इस
भटकाव का कारण मुख्य रूप स े कविता
रचना को देखने क े नजरिये स े सम्बन्धित
है। चूंकि स ंहिता को आप जन स ंघर्ष
विहीन तथा परिवर्तन क े उपकरण क े
स्थान पर महान कालजयी सा ैन्दय र्
बोधीय तराने क े रूप म ें देखते है ं तो आप
के दृष्टि पक्ष में जनगीत तथा उनमें निहित
कलात्मकता नहीं दिखलाई पड ़ती है।
जरूरी ह ै कि जनगीता ं े की अपार
लोकप्रियता तथा परिवर्तन कामी चेतना
को अपने दृष्टि म ें रखें तो उनम ें निहित
कलात्मकता को समझना बेहद आसान
हा े जाएगा। पाठक-श्रा ेता बिहीन
पुस्तकालयी कविता की तुलना में जनगीतां
की कलात्मकता ही है कि वे लाखां लेगां
का े निराशा, पस्त-हिम्मती स े बाहर
निकालकर एकज ुट स ंघर्ष क े लिए आज
भी प्र ेरणा स ्रोत बने हुए है ं। एक आलेख
म ें तो यह सम्भव नहीं कि जनगीतां की
बुनावट क े उन तत्वां की पहचान हो जो
बेहद कठिन समय म ें भी हमें स ंघर्षो क े
लिए प्र ेरणा प्रदान करते है ं बल्कि बिखर
जाने स े थाम ें रहते हैं लेकिन इस दिशा म ें
पहल तो करनी ही होगी।
जनगीतों क े रचना विधान का पहला
और सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू उसकी
काव्यभाषा है जो शब्द कोशों स े नहीं
बल्कि जीवन कोशां स े निर्मित है। यहां
साधारण से साधारण जनभाषा को अत्यन्त
कलात्मक काव्य भाषा में बदलने का
अभूतपूर्व कौशल दिखलाई पड़ता है। बेहद
साधारण और मामूली वाक्य विन्यास तथा
शब्द पदक्रम गहरे आत्ममिक स ंस्पर्श स े
मारक काव्य शक्ति ग्रहण करते है ं और
व्यापक जन को सम्मोहित कर लेते है ं।
दिव्य काव्य बोध स े सम्पन्न रचनाओं में
निहित आत्मा की भाषा का स ृजन शास्त्र
उन्हें बेजोड ़ बनाता है। गौरव पाण्डेय क े
बेहद चर्चित गीत को उदाहरण क े लिए
देखा जा सकता है-
समय का पहिया चले रे साथी,
समय का पहिया चले।
फौलादी घोड ़ों की गति स े
आग बफ र् में जले।
रात और दिन पल-पल
छिन-छिन आगे बढ़ता जाए
तोड ़ पुराना नये सिरे स े सब
क ुछ गढ़ता जाए।
पर्वत-पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा
गले रे साथी
गीत क े मुखड ़े स े लेकर अंतिम बन्द
तक आप सिफ र् शब्द चयन और वाक्य
विन्यास को ध्यान दें तो अवश्य ही लगेगा
कि गीत की भाषा बेहद सहज सरल और
रोजमर्रा क े जीवन का हिस्सा है। कवि ने
उस े एक लय क्रम में रख भर दिया है
जिसस े अर्थ चमक उठा है। ‘आग बफ र् में
जले’ ‘लोहा मोम सा गले’ आजादी की
सड़क ढले आप रुककर प्रयुक्त वाक्य पद
में विरोधी अवस्थितियों को देखें और उससे
निकलन े वाल े ब ेहद साधारण भाषिक
विन्यास क े भीतर से अर्थ चमक को पढ़ने
की जहमत उठाएँ तो आपको जनगीतों
की कलात्मकता का दर्शन होगा। दरअसल
जनगीतों पर बात न होने के कारण उसकी
कलात्मकता पर विचार नहीं हुआ वरना
उपर्युक्त वाक्य पद विन्यास हिन्दी कविता
में दुर्लभ है।
काव्य भाषा का एक और महत्वपूर्ण
पहलू जो जनगीतों में रेखांकित किया
जाना चाहिए वह है उर्दू, हिन्दी, भोजपुरी,
अवधी एवं अन्य बोलियों का अधिकतम
प्रयोग। यह वह तत्व है जो भाषा को
जीवन्त और हृदय स्पर्शी बनाता है। आम
अवाम तक पह ु ंचन े म े ं यह अत्यधिक
सहायक बना है। यदि स ूत्र वाक्य में कहें
तो जन गीतों की काव्य भाषा जनभाषा के
स ृजनात्मक प्रयोग का कलात्मक कौशल
है। सामान्यतः जन भाषा म ें काव्य भाषा को ढालना और उनस े बड ़े विजन तथा
परिवर्तन कामी चेतना स े लवरेज कर
इच्छित लक्ष्य की ओर गतिमान करना
बेहद उन्नत किस्म की कला है जिसे जन
गीतकारों ने सम्मान दिया है। प ्रमुख
जनगीत कारों में विशेषकर ‘शील’ शलभ
श्रीराम सि ंह, श ंकर श ैल ेन्द ्र, साहिर
लुधियानवी, बृजमोहन, फैज अहमद फ ैज,
राम क ुमार क ृषक, शशिप्रकाश, गोरख
पाण्डे के जनगीतों में यह कलात्मक उत्कर्ष
चरम पर है ं। गोरख पाण्डे का एक और
जनगीत दृष्टव्य है-
हमारे वतन की नयी जिन्दगी हो,
नयी जिन्दगी इक मुकम्मल खुशी हो
नया हो गुलिस्तां नई बुलबुले हां
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हां,
न ही हथकड़ी कोई फसलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो।
पूरे गीत क े रचाव में चलती
हिन्दुस्तानी ज ुबान है। वही ज ुबान जो
मीर की है, फ ैज की है। मुकम्मल भाषा।
भाषाई सादगी का सौन्दर्य, गोरख आगे
कहते है ं-
सभी होठ आजाद हो मयकदे में, कि
गंगो जमन ज ैसी दरियादिली हो।
गंगो जमन, की दरियादिली यही है
भाषा मिजाज, जिस े जन गीतों ने सम्भव
किया है। इस सन्दर्भ में एक और महत्वपूर्ण
पक्ष की ओर गौर करना जरूरी है। वह है
वर्णिक, मात्रिक छ ंदों स े बाहर लय और
स ंगीत को कविता का आधार रेखा बना
देना। यह भी उल्लेखनीय है कि लय और
संगीत को लोकधुनों से लेकर नवीन संगीत
से लबरेज कर देना। कलात्मकता का यह
और भी विरल उदाहरण है कि आप चाहें
तो उन धुनों, लयों को नये अंदाज तथा
लोच अपने हिसाब स े भी दे सकते है ं
अर्थात गायन का मुक्त अवकाश। यह
कविता में बिल्क ुल करिश्मा ज ैसा है।
दिल्ली और पटना, गुजरात और गोरखपुर
क े साथी एक ही गीत को अलग-अलग
धुनों और लोच क े साथ प्रस्तुत करते है ं
जिसमें थोड ़ी सी स्थानीयता भी लगी
रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि
राग रागिनीया े ं स े आबद्ध जनगीत
अपनी-अपनी तरह के धुनों लयों के प्रयोग
को स्पेश भी देते है ं। जितना स ंगीत का
बंधन है उतना लय और धुनों की उन्मुक्तता
भी। दरअसल जनगीतों की स ृजनशीलता
के पीछे समूह की सृजनात्मकता भी शामिल
ह ै। इस े नजरअ ंदाज नही ं किया जा
सकता। ज ैस े फ ैज क े एक तराने को
अलग-अलग टोलियाँ अलग-अलग तरह
से गाती हैं और लय और धुन तथा उठान
और सम पर जोर बदल जाता तो हमेशा
क ुछ नया मिलता है। जनगीतों की यह
संगीतात्मक शक्ति अनूठी है। शशि प्रकाश
का एक गीत है-
जिन्दगी लड ़ती रहेगी गाती रहेगी
नदिया बहती रहेगी।
कारवां चलता रहेगा चलता रहेगा।
अलग-अलग टीम ें इस े अलग-अलग
धुनों में जन कण्ठ तक पहुचांती रहती है ं
और नया पन बना रहता है। जनगीतों क े
रचना विधान का सबस े महत्वपूर्ण पहलू
मुखड ़ा है। मुखड ़े में ही वह सारी काव्य
शक्ति तथा स ृजनात्मकता का प ्रयोग
फलित होता है। बाद की पंक्तियों में नये
बिम्बो चित्रों तथा सामाजिक सत्यों को
उद्घाटित करने वाले पद विन्यास होते हैं
जो एक लयात्मक आवर्त क े साथ पुनः
मुखड ़े पर पहु ंचते है ं। इस रूप में मुखड ़े
पर पुनः लौटते समय गीत नयी अर्थछवि
ग्रहण करता है। यही कला उस े कविता
क े छन्द बंद्ध रूप अथवा छन्द मुक्त रूप
विन्यास स े विलग करता है। आवृत्ति क े
साथ नई अर्थ छवियों का स ृजन यह
अद्भुत काव्य कौशल है जो जनगीतों क े
अतिरिक्त दुलर्भ है। शंकर शैलेन्द्र का
चर्चित जन गीत है। गीत का मुखड ़ा है
‘भगत सिंह इस बार लेना काया भारतवासी
की।’ गीत अपने हर बन्द में नये तरह की
गुलामी का साक्षात्कार करते हुए सम पर
लौटकर मुखड ़े की टेक की आवृत्ति स े
नया काव्य बोध स ृजित करता है। यथा-
सत्य अंहिसा का शासन है, रामराज्य
फिर आया है
भेड ़ भेडि ़ये एक घाट है, सब ईश्वर की
माया है,
दुश्मन ही जज अपना, टीपू ज ैसों का
क्या करना है
शांति स ुरक्षा की खातिर हर हिम्मतकर
को डरना है
पहनेगी हथकड ़ी भवानी रानी लक्ष्मी
झांसी की।
देश भक्ति क े लिए आज भी सजा
मिलेगी फ ांसी की
इस प्रकार स े जनगीतों का रचना विधान
ऊपर स े सहज सरल इकहरा दिलखाई
तो पड़ता है लेकिन अपने आन्तरिक गठन
तथा रचाव में बेहद कलात्मक ठहरता है
थोड ़े स े आम फहम शब्दों में स ंगीतात्मक
स ंस्पर्श से व्यापक जन समुदाय को प्रेरित
उद्वेलित करने की काव्य कला जनगीतों
का रचना विधान है।
बहुत सारे जनगीत लोक धुनों
तथा लोक गीतों क े सन्दर्भ में भी रचे गये
है ं, लेकिन वे लोकगीत नहीं जनगीत है ं।
दरअसल लोकगीतों में बहुत सारे पिछ ़ड ़े
म ूल्य भी मिल जाते है ं लेकिन जनगीत
उसस े बुरी तरह स े मुक्त हैं और अपनी
प्रगतिशील चेतना स े स ंचालित है ं। लोक
उनक े लिए मात्र जन-जन तक पहुँचने
का माध्यम भर है ं। इस स्नदर्भ में ढेर सारे
भोजपुरी, अवधी में लिखे जनगीतों को
उद्धृत किया जा सकता है, बल्कि भोजपुरी
जनगीतों पर अलग स े कार्य करने की
आवश्यकता है। हजारों जनगीतों के रचना
विधान के कलात्मक सौन्दर्य का साक्षात्कार
करने क े लिए जरूरी है कि नये काव्य
शास्त्र की खोज की जाये। पुराने काव्य
विमर्श जनगीतों क े कलात्मक उत्कर्ष की
व्याख्या क े लिए नाकाफी है
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शानदार...
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