शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

भवानी शंकर सेनगुप्ता आजादी के महानायक ःअनिल राजिमवाले


भवानी शंकर सेनगुप्ता का जन्म

26 जनवरी 1909 को खुलना

जिले के फूलटोला थाने के भैरव

नदी किनारे स्थित पयग्राम में हुआ

था। अब वह स्थान बांग्लादेश में स्थित

है। वे अत्यंत अल्प साधनों वाले

मध्यम-वर्गीय परिवार के थे। उनके

पिता का नाम हर्षित सेनगुप्त और

माता का नलिनीबाला था। प्रारंभिक

शिक्षा करने के बाद भवानी सेन 13

वर्ष की उम्र में गांव छोड़ 20मील

दूर मूलधर फूफी के घर चले गए।

इसका कारण था परिवार की गरीबी।

वहां उसने 1921 में खररिया हाई

स्कूल में प्रवेश ले लिया। 1927 में

मैटिक पास करने के बाद मूलधर

छोड़ दिया।

राजनैतिक गतिविधियों का आरंभ

वह असहयोग आंदोलन का

जमाना था। हथकरघे और चरखे ने

उनकी देशभक्ति की भावनाओं को

जगा दिया था। प्रत्येक रविवार वे

स्कूल के अपने सहपाठियों के साथ

‘हित साधन समिति’ के स्वयंसेवक

के रूप में मुष्टि-भिक्षा के लिए निकल

जाया करते। इस काम में उन्हें अत्यंत

ही आनंद मिलता। 1926 में उन्होंने

एक कताई प्रतियोगिता में प्रथम

पुरस्कार जीता। वे चरखा चलाने में

निपुण हो गए थे।

1929 में ही मूलधर में खुलना

जिला राजनैतिक सम्मेलन का

अधिवेशन आयोजित किया गया।

देशबंधु सी.आर. दास आनेवाले थे

लेकिन नहीं आ पाए, इसलिए

वीरेंद्रनाथ सस्भाल ने उनका स्थान

लिया। भवानी सेन के शब्दों में ‘‘इसी

समय मैं अव्यक्त रूप से क्रांति के

शिविर में आ गया।’’

भवानी सेन निर्मल दास के मार्फत

‘जेसोर-खुलना दल’ के नेता प्रमथ

भौमिक के संपर्क में आ गए। दल

डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त के प्रभाव में

मार्क्सवाद की ओर झुकने लगा। यह

1925 की बात है। साथ ही भवानी

ने टैगोर तथा अन्य द्वारा रचित साहित्य

में भी दिलचस्पी ली। उन्होंने लिखा है

कि मूलधर हाई इंगलिश स्कूल से

मैट्रिक करके प्रथम श्रेणी की

स्कॉलरशिप पाई। वे दौलतपुर के हिन्दू

अकादमी में इंटरमीडियट में भर्ती हो

गए और छात्रवृत्ति प्राप्तकर्ता की

हैसियत से उन्हें निःशुल्क छात्रावास,

भोजन तथा मुक्त पढ़ाई मिला करती।

कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनियां-23

भवानी सेनः बहुमुखी प्रतिभा युक्त साथी

इस बीच उन्होंने लेनिन, ट्रॉट्रस्की,

पोस्टगेट, एम.एन.रॉय, इ. लेखकों की

पुस्तकें पढ़ डालीं। प्रमथ भौमिक के

अलावा उनका परिचय विष्णु चटर्जी

से हुआ जो आगे चलकर बांग्लादेश

के महान किसान नेता बने।

1929 में इंटरमीडियट पास

करने के बाद कलकत्ता चले गएऋ

उन्हें फिर छात्रवृत्ति मिली। उन्होंने

स्कॉटिश चर्च कॉलेज में अर्थशास्त्र

में ऑनर्स के साथ पढ़ाई की। उनकी

फीस माफ थी।

चटगांव शास्त्रगार कांड के बाद

प्रमथ भौमिक भूमिगत हो गए। उस

वक्त भवानी बी.ए. की परीक्षा की

तैयारी में लगे हुए थे। प्रमथ उनसे

गुप्त रूप से मिले और ट्रेड यूनियन

का काम करने तथा कम्युनिस्ट पार्टी

से संपर्क बनाने की सलाह दी। सुभाष

चंद्र बोस ने इन युवाओं को अपने

दल में शामिल करने का प्रयत्न किया

था लेकिन प्रमथ की कोशिशों से यह

नाकाम हो गया।

मेरट षड्यंत्र केस के दौरान बाहर

के साथियों में भवानी ने बी.टी.आर

तथा अन्य कुछ साथियों से संपर्क

किया लेकिन उन्हें उनका रूख पसंद

नहीं आया। कुछ समय तक भवानी

सेन ने ‘कारखाना’ नामक साप्ताहिक

का सम्पादन किया लेकिन बिना नाम

के। वे 22 मई 1932 को गिरफ्तार

कर लिए गए और अलीपुर सेंट्रल

जेल भेज दिए गए। वहां वे

फरवरी1933 तक रहे। फिर

हिजली कैम्प भेज दिए गए। वहां

उनकी मुलाकात जेसोर-खुलना ग्रुप

के पुराने साथियों से हुई। वे कम्युनिस्टों

के प्रवक्ता बन गए। जेल के अंदर

‘अनुशीलन’ वालों के साथ मार्क्सवाद

पर जमकर वाद-विवाद हुआ। उन्होंने

सबों पर विजय पाई और मार्क्सवादी

विद्वान के रूप में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी।

कई लोग कम्युनिस्ट बनने लगे।

जुलाई 1933 में भवानी सेन

का तबादला प्रेसिडेन्सी जेल कर दिया

गया। वहां कई लोग उन्हें जानते थे

और उनका ज्ञान का लोहा मानते थे।

वहां कॉ. गोपाल हलधर भी थे।

देवली कैम्प में

1934 में भवानी सेन को सुदूर

देवली कैम्प भेज दिया गया। वहां

विभिन्न क्रांतिकारी गुटों के नेता और

सदस्य भी थे। वहां प्रमथ भौमिक,

धरणी गोस्वामी, रेवती बर्मन, पांचु

गोपाल भादुरी, जीतेन घोष ;बाद में

बांग्लादेश मेंद्ध, सरोज आचार्य, सुधांशु

अधिकारी, इ. थे।

मार्क्सवाद पर क्लास लगने लगे

और मार्क्सवादी दर्शन संबंधी भवानी

सेन के लेक्चर काफी लोकप्रिय होने

लगे। कुछ लोग कम्युनिस्टों से ईर्ष्या

करने लगे। बात यहां तक बढ़ गई

कि कई कम्युनिस्ट विरोधी नजरबंदों

ने 1936 में एक दिन कम्युनिस्टों

की खूब पिटाई कर दी। कम्युनिस्टों

की संख्या कम थी। भवानी सेन को

बहुत पीटा गया और वे बेहोश हो गए।

कई कम्युनिस्टों को अस्पताल भेजना

पड़ा।

इस घटना के कुछ दिनों बाद

स्थिति में परिवर्तन होने लगा और

पिटाई करने में प्रमुख भूमिका अदा

करने वाला स्वयं ही कम्युनिस्ट बन

गया! भवानी ने दंगाइयों के नाम बताने

से इन्कार कर दिया। इस पर दंगा

करने के आरोप में उन्हें दो हफ्ते

‘‘काल-कोठरी की सजा’’ दी गई

उन्हें एम.ए. ;अर्थशास्त्रद्ध की परीक्षा में

भी देवली से ही बैठना पड़ा।

देवली में ढेर-सारी किताबें हुआ

करतीं। उन्होंने जेम्स जीन्स, एडिंगटन,

मैक्स प्लैंक से लेकर भारतीय दर्शन

संबंधी पुस्तकें भी पढ़ लीं। प्रमथ

भौमिक के अनुसार, अंग्रेजी में उपलब्ध

हेगेल की सारी रचनाएं उन्होंने पढ़

रखी थीं। उन्होंने मार्क्स की पूंजी का

अध्ययन किया।

1936 में वे देवली में कम्युनिस्ट

समन्वय समिति ;कोऑर्डिनेशन

कमिटिद्ध में शामिल हो गए। उनके

साथ-साथ धरणी गोस्वामी, रेवती

बर्मन, प्रमथ भौमिक, पांचु गोपाल

भादुरी, सुशील चटर्जी और लगभग

सौ अन्य नजरबंद भी शामिल हो गए।

देवली कैम्प में पहली बार 7

नवंबर 1936 को सुशील चटर्जी

के कमरे में ‘‘नवंबर क्रांति दिवस’

मनाया गया। पांच कैम्पों से लगभग

125 नजरबंद इसमें शामिल हुए।

भवानी सेन का भी भाषण हुआ।

1937 में उन्हें देवली से हटाकर

कोमिल्ला में एक गांव में रहने पर

मजबूर किया गया। विभिन्न जेलों में

छह वर्ष बिताने के बाद अगस्त

1938 में वे रिहा कर दिए गए।

रिहा होने पर भवानी सेन अपने

घर और परिवार के पास नहीं गए।

इसके बजाय वे कलकत्ता चले गए।

उन्होंने पूर्वी बंगाल रेलवे वर्कर्स यूनियन

के कांचरापाड़ा और लिलुआ केंद्रों में

रेलवे मजदूरों के बीच काम करना

आरंभ कर दिया। 1938 में उन्हें

रेलवे पार्टी शाखा में सदस्यता मिल

गई। वे पूर्व बंगाल रेलवे वर्कर्स यूनियन

के संगठन सचिव चुने गए।

1940 में उन्हें कलकत्ता से

निष्कासित कर दिया गया। वे तुरंत

भूमिगत हो गए। भूमिगत रहते हुए ही

उन्होंने इंदिरा सेन से विवाह कर

लिया। 1947 में इंदिरा बीमार हो

गईं और मृत्यु-पर्यन्त कई वर्षों तक

बीमार रहीं। भवानी सेन ने बड़े शांत

भाव से ये सारे दुख झेले और परिवार

की देखभाल की। 1942 में जब

पार्टी पर से पाबंदी हटाई गई तो उन्हें

भा.क.पा. की प्रांतीय समिति का

कार्यकारी सचिव बनाया गया। अब वे

खुलकर काम करने लगे। मई

1943 बंबई में आयोजित प्रथम पार्टी

कांग्रेस में उन्हें केंद्रीय समिति का

सदस्य बनाया गया।

बंगाल का महा-अकाल, 1943

1943-44 में बंगाल में

भयंकर महा-अकाल पड़ा जिसमें तीस

लाख से भी अधिक लोग मारे गए।

अकाल की पृष्ठभूमि में 1944 में

भवानी सेन ने बंगला में ‘भंगनेर मुखे

बांग्ला’ ;बर्बादी के कगार पर बंगालद्ध

नामक पुस्तक लिखी। यह अंग्रेजी में

‘रूरल बंगाल इन रूइन्स’ के शीर्षक

तले प्रकाशित हुई।

यु(ोत्तर साम्राज्यवाद-विरोधी

उभार, 1945-47

इस दौर की विभिन्न घटनाओं के

दौरान भवानी सेन एक गंभीर और

सुयोग्य नेता के रूप में उभर आए।

29 जुलाई 1946 को सारा बंगाल

बंद रहा। कांग्रेस और फॉरवर्ड ब्लॉक

के कुछ शरारती तत्वों ने पार्टी दफ्तर

पर हमले किए। भवानी सेन ने

शांतिपूर्वक स्थिति का सामना किया।

‘कलकत्ता नरसंहार’ और

नोआखाली के भयानक दंगे हुए।

भवानी ने संतुलन बनाए रखा। वे

बेलियाघाटा में गांधीजी से मिले और

संप्रदायवाद-विरोधी अभियान में पार्टी

के पूर्ण समर्थन की घोषणा की।

भवानी सेन की क्षमता 1946

में आरंभ हुए तेभागा आंदोलन के

दौरान उभरी। वे इस महान किसान

संघर्ष के रणनीति-निर्धारक, प्रमुख

प्रवक्ता, प्रचारक, लेखक और

संगठनकर्ता थे।

दूसरी पार्टी कांग्रेस, 1948

फरवरी-मार्च 1948 में भारतीय

कम्युनिस्ट पार्टी की दूसरी पार्टी

कलकत्ता में ही संपन्न हुई। उन्होंने

कांग्रेस में सक्रिय भूमिका अदा की।

वे केंद्रीय समिति और पोलिट ब्यूरो

के सदस्य चुने गए। बंगाल में पार्टी

अवैध घोषित कर दी गई।

इस दौर के जीवन का एन.के.

कृष्णन ने बड़ा ही दिलचस्प वर्णन

किया है। वे भी पॉलिट ब्यूरो सदस्य

थे और भवानी सेन के साथ एक ही

‘डेन’ ;अड्डेद्ध में रहते थे। वहां दोनों

को ही स्वादिस्ट बंगला खाना बनाना

सीखने का मौका मिला।

पोलिट ब्यूरो सदस्य के रूप में

भवानी सेन भी अन्य साथियों के साथ

संकीर्णतावादी दुस्साहिक लाईन के

लिए जिम्मेदार थे। 1951 में उन्होंने

इस संबंध में आत्म-आलोचना की।

उनकी आत्म-आलोचना सबसे स्पष्ट

और सबसे खरी थी।

वे 1951 के पार्टी सम्मेलन में

पार्टी सदस्यता से एक साल के लिए

मुअत्तल कर दिए गए। उन्होंने यह

फैसला सच्चे मन से मान लिया और

निचले स्तर से काम शुरू किया।

लेकिन उन्हें अनावश्यक रूप से

प्रताड़ित किया गया। उनका नाम

पूरावक्ती कार्यकर्ताओं की लिस्ट से

हटा दिया गया और अपना बंदोबस्त

खुद करने को कहा गया। इसलिए

उन्हें किसान सभा के ऑफिस में रहना

पड़ा। उन्हें पार्टी की साप्ताहिक पत्रिका

‘मतामत’ का उप-संपादक बनाया

गया। बाद में वे बारासात चले गए

और 24-परगना के किसानों के बीच

काम करना आरंभ किया।

1954 में उन्हें अखिल भारतीय

किसान सभा का महासचिव चुना गया।

उन्होंने बदलते कृषि संबंधों का काफी

अध्ययन किया और कई पुस्तकें

लिखीं। 1955 में उन्होंने ‘भारतीय

भूमि व्यवस्था और भूमि सुधार’

प्रकाशित की। इस पुस्तक ने तहलका

मचा दिया। 1955 में पार्टी कांग्रेस

से पहले ‘फोरम’ में भी उनका लेख

प्रसि( हुआ। उस वक्त किसान और

कम्युनिस्ट आंदोलनों में कृषि के क्षेत्र

अनिल राजिमवाले

शेष पेज 6 परपूंजीवादी संबंधों के विकास के

बारे में काफी विवाद रहा। भवानी सेन

ने इसमें अग्रणी भूमिका अदा की।

वे किसानों से आसानी से संबंध

कायम कर लेते। साथ ही सै(ांतिक

अध्ययन भी करते। उन्होंने नए खेत

मजदूर वर्ग को पहचान लिया। इस

विषय में खासकर उन साथियों से

बड़ी बहस चलती जो आगे चलकर

पार्टी छोड़ गए। वे अ.भा. किसान सभा

के बनगांव अधिवेशन के प्रमुख

संगठनकर्ता थे।

1955 के बाद भावानी सेन ने

विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन की नई

प्रस्थापनाएं तेजी से आत्मसात करना

आरंभ किया। वे विश्व कम्युनिस्ट

सम्मेलनों के नए दस्तावेजों एवं

प्रस्थापनाओं के दृढ़ समर्थक बन गए।

1970 में बारासात में अ.भा.

किसान सभा ने अपना सम्मेलन किया

जिसके वे प्रमुख संगठकर्ता थे। वे

इसके अध्यक्ष चुने गए। लाखों लोग

उन्हें सुनने सभा-स्थल पर आए।

पार्टी में विभाजन और भावानी सेन

प. बंगाल की पार्टी इकाई लगातार

उनकी उपेक्षा करती रही। आगे

चलकर ये ही लोग पार्टी से बाहर

चले गए। 1962 में चीनी आक्रमण

के बाद स्थिति गंभीर हो गई। भवानी

सेन ने एक पुस्तक लिखीः

‘‘कम्युनिस्ट शिविर में मतभेद

क्यों?’’ इसकी दसियों हजार प्रतियां

भवानी सेनः बहुमुखी प्रतिभा युक्त साथी

बिकीं। संकीर्णतावादियों के बाहर जाने

के बाद पार्टी के प्रमुख साथियों ने

पार्टी के पुनर्गठन का कार्य आरंभ

किया। प. बंगाल में यह काम बहुत

कठिन था। पार्टी को लगभग

आरंभ-बिन्दु से शुरू करना पड़ा।

भवानी सेन ने अथक परिश्रम के जरिए

60 और 70 के दशकों में राज्य में

भा.क.पा. को फिर से खड़ा कर

लिया, बल्कि उसे एक महत्चपूर्ण शक्ति

का रूप भी दे दिया।

पार्टी संगठन में

1956 में पालघाट ;केरलद्ध

कांग्रेस में भवानी सेन पार्टी की केंद्रीय

समिति के सदस्य चुने गए। 1958

में वे भा.क.पा. की राष्ट्रीय परिषद

सदस्य चुने गए। 1961 में पार्टी की

राष्ट्रीय परिषद और केंद्रीय

कार्यकारिणी समिति में शामिल कर

लिए गए।

1964 में पार्टी में विभाजन के

बाद वे पार्टी की प. बंगाल राज्य

परिषद के सचिव बनाए गए। उसी

वर्ष बंबई कांग्रेस में वे पार्टी की केंद्रीय

कार्यकारिणी समिति के सदस्य चुने

गए।

1965 में उन्होंने कलकत्ता में

पार्टी की नई पुस्तक-दुकान स्थापित

की। वे ‘कालांतर’ अखबार के दैनिक

बनने के बाद इसके सम्पादक मंडल

के अध्यक्ष बन गए।

1968 में पटना में संपन्न पार्टी

कांग्रेस में उन्हें राष्ट्रीय परिषद, केंद्रीय

कार्यकारिणी और पहली बार केंद्रीय

सेक्रेटारिएट में शामिल किया गया।

1971 में कोचीन पार्टी कांग्रेस में वे

फिर से केंद्रीय सेक्रेटारिएट में आ

गए। उन्हें अन्य कार्यों के अलावा पार्टी

शिक्षा का प्रभारी बनाया गया तथा पार्टी

स्कूल एवं सिलेबस को नया रूप देने

का कार्य उन्होंने अन्य साथियों के

साथ किया। इस सिलसिले में उन्होंने

बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया और पूर्वी

जर्मनी की यात्राएं कीं।

बांग्लादेश की मुक्ति में भवानी

सेन की भूमिका

1971 में पाकिस्तानी आक्रमण

के विरू( बांग्लादेश मुक्ति-आंदोलन

की सहायता में भवानी सेन की भूमिका

को आज भी याद किया जाता है।

मुक्ति संघर्ष को बिरादराना सहायता

देने में उनकी भूमिका आमतौर पर

अनजानी है। उन्होंने प. बंगाल की

सीमावर्ती जिलों में पार्टी साथियों को

बांग्लादेश के साथियों का स्वागत और

सहायता करने के इंतजाम का आदेश

दिया। उन्हें केंद्रीय पार्टी से बांग्लादेश

के संबंध में विशेष जिम्मेदारी दी गई

थी। जेसोर, खुलना तथा अन्य

सीमावर्ती क्षेत्रों में प्रशिक्षण का विशेष

इंतजाम किया गया। भवानी सेन ने

व्यापक दौरा किया, यहां तक कि वहां

की जनता को संबोधित भी किया।

उन्होंने अद्भुत कार्य किया। मुक्ति के

बाद वे कई बार बांग्लादेश गए।

भवानी सेन की मृत्यु 10 जुलई

1972 को मास्को में हृदय-गति

रूकने से हो गई। वहां वे इलाज के

लिए गए थे।

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