गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

अरूणा आसफ अली: 1942 की गौरवशाली नेत्री -अनिल राजिमवाले

 
अरूणा आसफ अली का जन्म 16
जुलाई 1909 को कालका में एक
बंगाली ब्राह्मो समाज परिवार में हुआ
था। उनके माता-पिता श्रीमती और श्री
गांगुली ज्यादा समय बंगाल में नहीं
रहे। गांगुली कालका रेलवे जलपान
गृह के इंचार्ज थे।
अरूणा दो बेटियों और तीन बेटों
में सबसे बड़ी थीं। अरूणा और उससे
छोटी पूर्णिमा की आरंभिक पढ़ाई लाहौर
के ‘कॉन्वेंट ऑफ सैक्रेंड हार्ट’ में हुई।
उस वक्त उनके पिता पत्रकार बन चुके
थे। स्कूल में अरूणा को ‘इरीन’ नाम
से पुकारा जाता था। अरूणा आध्यात्मिक
बन गईं और ‘रहस्यमय’ तथा ‘अदृश्य’
में विश्वास करने लगीं। वे रोमन
कैथोलिक चर्च से गहरे रूप से प्रभावित
हुईं। एक समय तो वह ‘नन’ बनने
का भी सोचने लगी। जब उसने अपना
फैसला माता-पिता को बताया तो उन्हें
बहुत धक्का लगा। उसे बड़ी डांट पड़ीं।
उन्होंने उसे नैनीताल भेज दिया और
एक प्रोटेस्टेंट स्कूल में भर्ती कर दिया।
वहां गांगुली ने एक होटल खेल लिया
था।
अरूणा पुस्तकें बहुत पढ़ा करतींः
क्लासिक्स, कविता, उपन्यास, दर्शन,
राजनीति, इत्यादि। उसने माता-पिता
के दबाव से शादी से इंकार कर दिया
और पश्चिमी प्रभाव में मुक्त जीवन
व्यतीत करना चाहती थी। अपना खर्चा
खुद चलने के लिए वह आसफ अली
घर से निकल पड़ी और कलकत्ता चली
गईं। वहां वह गोखले मेमोरियल स्कूल
फॉर गर्ल्स में पढ़ाने लगीं। वे उच्चतर
पढ़ाई के लिए इंगलैंड जाना चाहती थीं
लेकिन अब जीवन में एक नया मोड़
आ गया।
जीवन में मोड़
अरूणा अपनी बहन पूर्णिमा के साथ
गर्मी की छुट्टियां बिताने इलाहाबाद
गई हुई थी। पूर्णिमा का विवाह बनर्जी
से हुआ था। वहां आसफ अली आए
हुए थे जो बनर्जी के मित्र थे। वे एक
युवा बैरिस्टर थे जो दिल्ली में प्रैक्टिस
कर रहे थे। वे उस वक्त मुस्लिम लीग
में शामिल थे। अरूणा और आसफ
अली परस्पर नजदीक आए। उनके
विवाह पर माता-पिता तथा अन्य को
खासी अपात्तियां थीं, खासकर
हिन्दू-मुस्लिम का प्रश्न। आसफ अली
41 वर्ष के और अरूणा 19 की थी।
उन दोनों ने सारे विरोध के बावजूद
सादगी से विवाह कर लिया।
राजनीति मेंः जेल की यात्रा
आरंभ में अरूणा को राजनीति में


कोई दिलचस्पी नहीं थीऋ यहां तक कि
वह खद्दर और उसे पहनने वालों का
मजाक भी उड़ाया करती।
लेकिन इसी बीच गांधीजी का
नमक सत्याग्रह आरंभ हो गया। इसमें
आसफ अली शामिल हो गए। उन्होंने
सत्याग्रह में भाग लिया और जेल भी
गए। इसका अरूणा पर गहरा प्रभाव
पड़ा। उसने 1857 के विद्रोह संबंधी
गर्मागर्म भाषण भी दिया। दिल्ली के
चीफ कमिश्नर ने अच्छे व्यवहार और
राजनीति में हिस्सा न लेने की गारंटी
मांगी। अरूणा ने इंकार कर दिया और
उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। उन्हें
लाहौर महिला जेल एक साल के लिए
भेज दिया गया। गांधी-इर्विन पैक्ट में
बाकी सभी तो रिहा कर दिए गए लेकिन
अरूणा को जेल में ही रखा गया। इस
पर दूसरों ने भी जेल से बाहर जाने से
इंकार कर दिया। गांधीजी और अंसारी
ने बीच-बचाव किया और तभी बाकी
बाहर निकले।
आखिरकार अरूणा को छोड़ा गया।
उनका भारी स्वागत हुआ। खान अब्दुल
गफ्फार खान भी मिलने आए।
1932 में उन्हें फिर गिरफ्तार
किया गया। जब उन्होंने 200/रु. दंड
देने से इंकार कर दिया तो पुलिस
उनकी कीमती साड्यिं उठा ले गई!
अरूणा ने भूख हड़ताल कर दी। वे
बीमार पड़ गई। उन्हें अम्बाला जेल
भेजा गया। दिल्ली और अम्बाला जेल,
दोनों जगह स्थिति खराब थी। अरूणा
को अम्बाला जेल में अकेले सेल में
रखा गया।
फिर वे राजनीति से दस साल दूर
रहीं। वे मुख्यतः अपने पति के लिए
राजनीति में आई थीं। कभी-कभी ऑल
इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस के सम्मेलनों में
हिस्सा लेतीं।
द्वितीय विश्वयु( में अपनी इच्छा
के विपरीत भारत को घसीटने के विरोध
में 1940 में गांधीजी ने सविनय
अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। गांधी
जी ने अरूणा आसफ अली को भी
सत्याग्रही के रूप में चुना।
यहां यह उल्लेख करना उचित होगा
कि 1938-39 में जब कम्युनिस्ट
और बोस समर्थक दिल्ली कांग्रेस के
बहुमत में आ गए तो अरूणा देशबंधु
गुप्त-आसफ अली ग्रुप की समर्थक
थी।
अरूणा आसफ अली को दिल्ली में
फिर गिरफ्तार कर लिया गया और
लाहौर महिला जेल भेज दिया गया। वे
अकेले रहना चाहती थीं इसलिए ‘सी’
क्लास मांगा और उन्हें मिला। सेल को
उन्होंने अच्छी तरह सजाया। सूत
कातना उन्हें विशेष पसंद नहीं आया।
अत्यंत सादा खाना मिलता। वे कैदियों
की बड़ी सहायता करतीं। हर सप्ताह
मीटिंग करके वे पूरे सप्ताह की खबरें
महिलाओं को सुनाया करतीं।
कभी-कभी अरूणा को ए.आई.एस.
एफ. तथा अन्य विद्यार्थी मीटिंगों में
बोलने के लिए बुलाया जाता। उन्होंने
उन दिनों दिल्ली महिला लीग भी गठित
किया।
1942 का कांग्रेस अधिवेशनः
इतिहास में नाम दर्ज
जेल से रिहा होने के बाद अगस्त
1942 में आसफ अली और अरूणा
दोनों ही अखिल भारतीय कांग्रेस
अधिवेशन, बंबई में भाग लेने गए।
आसफ अली महत्वपूर्ण कांग्रेसी थे।
अरूणा काफी मिलनसार और खुश थी
और सबों से मिल रही थीं। वे लोकप्रिय
हो रही थीं। किसी को भी इस बात का
जरा भी अंदाज नहीं था कि अगले ही
दिन अरूणा आसफ अली का नाम
इतिहास में दर्ज होने वाला है।
9 अगस्त 1942 की सुबह ही
सारे प्रमुख कांग्रेस नेता गिरफ्तार कर
लिए गए। सुनते ही अरूणा बोरीबंदर
दौड़ गईं जहां से गिरफ्तार सदस्यों को
लेकर ट्रेन चलनेवाली थी। पुलिस ने
उन्हें स्टेशन के अंदर जाने से रोक
दियाः ‘‘आपकी गिरफ्तारी का कोई
वॉरन्ट नहीं है।’’ वे जबर्दस्ती प्लेटफॉर्म
पर चली गईं और गांधीजी, नेहरू वगैरह
को गंभीर मुद्रा में देखा।
ट्रेन खुलने पर अरूणा घर लौट
आईं। वे गुस्से से उबल रही थीं। उन्होंने
कहा, जन-विद्रोह को कुचलने के लिए
‘‘पर्ल हार्बर’’ किस्म के तरीके अपनाए
जा रहे हैं। कांग्रेस ने अब तक कोई
विशिष्ट तरीका आंदोलन का तय नहीं
किया था, इसलिए अस्रूणा को समझ
में नहीं आ रहा था कि क्या किया
जाए?
आखिरकार, वे सुप्रसि( ग्वालिया
टैंक मैदान चली गईं जहां मौलाना
आजाद झंडा फहराने का काम करने
वाले थे। लेकिन वे उपस्थित नहीं थे।
उसी समय अरूणा ने एक पुलिस
अफसर को अनखुला झंडा उतार देने
का आदेश देते सुना। इस समारोह की
अध्यक्षता अरूणा आसफ अली ही करने
वाली थीं। अरूणा ने आगे बढ़कर झंडा
फहरा दिया। तुरंत पुलिस ने आंसू गैस
छोड़ा। लेकिन इकट्ठा भीड़ भागने के
बजाय जुलूस की शक्ल में बदल गई
और कांग्रेस भवन की ओर गई। लोग
बड़े गुस्से में थे।
अरूणा आसफ अली ने जो तिरंगा
फहराया था उसे दस मिनटों के अंदर
ही ब्रिटिश सार्जेन्ट ने कुचल दिया।
उसी वक्त अरूणा ने प्रण कियाः ‘‘मैं
ब्रिटिश शासन का नाश करके ही दम
लूंगी।’’ बाद में लोगों पर लाठी-चार्ज
और फायरिंग हुई।
अरूणा दिल्ली लौट आई। वे किसी
भी समय गिरफ्तार हो सकती थीं। इससे
‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव लागू करने में
बाधा पहुंच सकती थी। उन्होंने
विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों को
आंदोलित किया। वे अंडरग्राउंड हो गईं।
दिल्ली में आंदोलन संगठित कने के
बाद वे ढाई वर्षों तक जगह-जगह
विभिन्न छद्म वेशभूषा में छिपती घूमती
रहीै। वे एक गुप्त क्रांतिकारी का जीवन
व्यतीत करने लगीं।
अंग्रेजों द्वारा इनाम घोषित
अरूणा के गायब होते ही अंग्रेज
सरकार ने उन्हें पकड़ने के लिए
5000/रु. का इनाम घोषित कर
दिया। लेकिन वे पकड़ में नहीं आ रही
थीं। एक पुलिस अफसर ने अपने बॉस
से कहा कि हम नौ लोग उसे खोज रहे
हैं लेकिन दिल्ली के नौ लाख लोग
उसे बचा रहे हैं। वे सभी जगह थीं और
कहीं भी नहीं! वे पुलिस के कई बार
छका चुकी थीं।
कांग्रेस कार्यसमिति प्रस्ताव का
खंडन
राजनैतिक कैदियों की रिहाई के
बाद 1945 में कलकत्ता में कांग्रेस
की कार्यसमिति ;वर्किंग कमिटिद्ध की
बैठक में 1942 और अहिंसा पर एक
प्रस्ताव पास किया गया। वाइसराय ने
कांग्रेस पर हिंसा का सहारा लेने का
आरोप लगाया था। साथ ही अरूणा
आसफ अली की ओर इशारा करते हुए
वाइसराय ने कहा कि कार्यसमिति के
एक सदस्य की पत्नी ने हिंसा का सहारा
लेकर सरकार के यु( संबंधी तैयारियों
को भीतरघात करने की कोशिश की।
अरूणा आसफ अली ने कांग्रेस
कार्यसमिति के प्रस्ताव और कांग्रेस
अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद
के प्रेस वक्तव्य के कुछ अंशों पर आपत्ति
जताई। अरूणा आसफ अली और
अच्युत पटवर्धन ने अपने वक्तव्य में,
जो ‘‘भारत में किसी जगह’’ से जारी
किया गया था, कहा कि 11 दिसंबर
1945 के अपने प्रस्ताव के प्रथम
पैरा में यह कहना कि प्रमुख कांग्रेसियों
की गिरफ्तारियों के बाद अनियंत्रित
भीड़ ने स्वतःस्फूर्त ढंग से कार्रवाई की,
’ पूरी तरह सही नहीं है’। अरूणा ने
कहा कि उस वक्त बंबई में विभिन्न
प्रांतों के कई जिम्मेदार लोग उपस्थिति
थे। इसमें से कई गांधीजी के अहिंसा
के सि(ांत के अनुयायी थे। हमने
समय-समय पर जो उचित समझा,
जनता को निर्देश दिए। ये निर्देश कांग्रेस
के निर्णयों के अनुरूप ही किए गए।
अनिल राजिमवाले
अरूणा आसफ अली
शेष पेज 12 पर
12 मुक्ति संघर्ष साप्ताहिक 11 - 17 अक्टूबर, 2020
गांधीजी का अहिंसा का सि(ांत उचित
होते हुए भी व्यावहारिक रूप में ही लागू
किया जा सकता है। सेना और पुलिस
का दमन कई बार कठिन परिस्थिति
पैदा कर देता है। हमने कार्यसमिति के
प्रस्ताव का पूरा पालन किया है। अरूणा
ने कहा कि कार्यसमिति ने पिछले तीन
वर्षों की घटनाओं को कम करके आंका
है।
अरूणा आसफ अली का खुले में
आना
25 जनवरी 1946 के अरूणा
के खिलाफ वांरट वापस ले लिया गया
हालांकि निचले अधिकारी इससे अवगत
नहीं थे। चार दिनों बाद उन्हें कलकत्ता
में ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के एक
रिपोर्टर ने उनसे बातचीत की। वे महात्मा
गांधी से मिलना चाहती थीं जो अभी
संभव नहीं था।
कलकत्ता में स्वागत
कलकत्ता प्रथम शहर था जिसने
लंबे अर्से बाद अरूणा को सुना। देशबंधु
पार्क में बड़ी सभा हुई जहां अरूणा का
अरूणा आसफ अलीः 1942 की गौरवशाली नेता
भाषण हुआ। जिस प्लेटफॉर्म पर वे खड़ी
थीं उसे न्यू थियेटर के आर्ट डायरेक्टर
सौरेन सेन ने बनाया था। वहां एक
शहीद स्मारक भी बनाया गया।
प्लेटफॉर्म और स्मारक दोनां ही 1942
के आंदोलन की भावनाओं को व्यक्त
का रहा था।
एक घंटे तक अरूणा आसफ अली
हिन्दुस्तानी, अंग्रेजी और बंगला में
बोलती रहीं। उन्होंने लॉर्ड वैवेल की
तीखी आलोचना करते हुए कहा कि
भारतीय खुद अपनी आजादी की तारीख
तय कर लेंगे। उन्होंने भारतीयों से
आजादी की लड़ाई जारी रखने का
आवाहन किया।
31 जनवरी 1946 को वे
कलकत्ता से दिल्ली के लिए चलीं।
स्टेशन पर विदा करने के लिए बड़ी
भीड़ थी। उन्होंने नेहरू के अनुरोध पर
इलाहाबाद में ‘ब्रेक जर्नी’ की। रास्ते में
जगह-जगह लोग उन्हें देखने आए।
इलाहाबाद स्टेशन पर खुद नेहरू
स्वागत के लिए आए। दिल्ली के रास्ते
में एक जगह पंजाब रेजीमेंट के सैनिक
भी मिलने आए। गाजियाबाद में उनके
पति आसफ अली साढ़े तीन वर्षों बाद
मिले। दिल्ली में बड़ी भीड़ इकट्ठा हो
गई। बाद में उन्होंने मजदूरों को
संबोधित किया।
उनका घर जो करोल बाग में था
और जिसे सरकार ने जब्त कर लिया
था, उन्हें वापस मिल गया। उनकी छोटी
कार ‘बेबी ऑस्टिन’ पुलिस ने बेच दी
थी, उसका पैसा भी उन्हें दे दिया गया।
गांधीजी से मुलाकात
फरवरी 1947 में वे गांधीजी से
मिलने वर्धा गईं। नागपुर में 30 हजार
लोगों को संबोधित किया। गांधीजी के
बारे में उन्होंने कहा कि उन्होंने ही
महिलाओं को निडर और बहादुर बनाया
और मुक्ति संग्राम में शामिल किया।
गांधीजी से कांग्रेस के पुनर्गठन संबंधी
चर्चा हुई। कई सवालों पर मतभेद भी
थे। लेकिन अरूणा उन्हें ‘राष्ट्रपिता’
और हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक
मानती थीं और बहुत सम्मान करती
थीं।
फरवरी 1946 में बंबई में हुए
नाविक विद्रोह से वे काफी प्रभावित हुईं।
इसका नेतृत्व कम्युनिस्टों ने किया था।
वैसे वे कम्युनिस्टों की आलोचक रहीं
लेकिन धीरे-धीरे उनमें परिवर्तन आ
रहा था। इस प्रश्न पर उनका गांधीजी
से काफी मतभेद रहा और दोनों के
बीच काफी बहस भी हुई।
आजादी के बाद
1946 के बाद अरूणा आसफ
अली वामपंथ की ओर तेजी से झुकने
लगीं। 1947-48 में वे दिल्ली प्रदेश
कांग्रेस कमिटि की अध्यक्ष चुनी गईं
लेकिन 1948 में उन्होंने कांग्रेस छोड़
दी और सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो
गई। 1950 में उन्होंने लेफ्ट
सोशलिस्ट ग्रुप बनाया। रजनी पाम दत्त
और इदेटाटा नारायणन के साथ वे
मास्को गईं।
1953 में अरूणा आसफ अली
और उनका लेफ्ट सोशलिस्ट ग्रुप
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो
गया।
दिल्ली में उन्होंने टेक्सटाइल
मजदूरों के बीच ‘मार्क्सवादी अध्ययन
मंडलियां’ बनाईं। 1953-54 की
मदुरै ‘तीसरी पार्टी कांग्रेस’ में अरूणा
आसफ अली भा.क.पा. की केंद्रीय
समिति ;सी.सीद्ध में चुनी गई।
महिला आंदोलन में
1950 के दशक के आरंभ में
अरूणा महिला आत्मरक्षा समिति ;प.
बंगालद्ध के संपर्क में आईं। वे समिति
के चौथे प. बंगाल प्रादेशिक सम्मेलन
;1952द्ध में मुख्य अतिथि थीं। वे
1953 में कोपेनहेगन जाने वाले
महिला प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थीं।
अरूणा आसफ अली एन.एफ.आई.
डब्ल्यू ;नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन
वीमेन या भारतीय महिला फेडरेशनद्ध
की संस्थापक सदस्य थीं। 1967 में
उन्हें इसका अध्यक्ष चुना गया और
इस पद पर वे 1986 तक बनी रहीं।
1956 में सुप्रसि( ‘खुश्चेव
रिपोर्ट’ जारी हुई जिसमें स्तालिन-काल
की ज्यादतियों का वर्णन और विशेलषण
किया गया था। इन जानकारियों और
घटनाओं से उन्हें बड़ी निराशा हुई और
उन्होंने भा.क.पा. से त्यागपत्र दे दिया।
लेकिन वे भा.क.पा. के साथ अंत तक
बनी रहीं।
दिल्ली की मेयर
1958 में अरूणा आसफ अली
दिल्ली की मेयर चुनी गईं। दिल्ली
म्युनिसिपल कारपोरेशन की 80 सीटों
के सदन में न कांग्रेस को बहुमत मिला
न ही जनसंघ को। भा.क.पा. को आठ
सीटें मिलीं। भा.क.पा. ने कांग्रेस को
प्रस्तावित किया कि वह अरूणा आसफ
अली को समर्थन दे। जवाहरलाल नेहरू
से बातचीत करने से वे सहमत हो
गए। अरूणा कारपोरेशन की सदस्य
नहीं थीं। इस प्रकार भा.क.पा. और
कांग्रेस के समर्थन से वे मेयर बन गई।
इसी समय ;1958द्ध बंबई के
मेयर भी एक कम्युनिस्ट ही थे-एस.
एस. मिरजकर।
‘लिंक’ और ‘पैट्रियट’ अखबार
1958 में कई वामपंथियों,
कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों की सहायता
से ‘लिंक’ नामक एक वामपंथी
साप्ताहिक अंग्रेजी में प्रकाशित किया
जाने लगा जिसके प्रमुख संगठनकर्ता
थे अरूणा आसफ अली और ई.
नारायण। आगे चलकर ‘लिंक हाउस’
से भारत का प्रथम वामपंथी दैनिक
अखबार के ‘पैट्रियट’ छपने लगा। इसमें
भी अरूणा आसफ अली की महत्वपूर्ण
भूमिका रही।
1992 में उन्हें पदम-विभूषण से
सम्मानित किया गया। मृत्योपरांत
1997 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से
विभूषित किया गया।
अरूणा आसफ अली की मृत्यु 29
जुलाई 1996 को 87 वर्ष की आयु
में दिल्ली में हो गई।

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

जीवन परिचय को प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद।

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