शनिवार, 21 नवंबर 2020

असाधारण कम्युनिस्ट नेत्री हाजरा बेगम -अनिल राजिमवाले

  • हाजरा बेगम का जन्म 10 दिसंबर 1910को सहारनपुर उ प्र में हुआ था। उनके पिता मुमताजुल्ला खान मेरठ में मैजिस्ट्रेट थे। उनकी माॅ का नाम नातिका बेगम था। परिवार धनी और आधुनिक विचारों का था। उन दोनों के दो लड़के और चार लड़कियां थीं और परिवार के कई सदस्य इंगलैंड रह आए थे।
    हाजरा की पढ़ाई नौ साल की उम्र तक घर में ही उर्दू, फारसी और अंग्रेजी में हुई। 1918 में इंफ्लुएंजा की महामारी फैल गई। उस वक्त उनके पिता बस्ती में डिप्टी कलेक्टर थे। हाजरा ने खुद अपनी आंखों से नदी को लाशें से पटा हुआ देखा था और कौवों और कुत्तों को लाशें नोचते हुए देखा था।
    1919 में हाजरा को क्वीन्स काॅलेज, लाहौर में दाखिल करा दिया गया। वह काॅलेज चीफ काॅलेज के समकक्ष था और दोनों ही राजकुमरियों और नवाबजादियों के लिए खुला था। हाजरा का परिवार चूंकि रामपुर नवाब
    से संबंधित था इसलिए उसे दाखिला मिल गया। हाजरा सभी विषयों में फर्स्ट क्लास आती रही। उसे साहित्य और खेलकूद से बड़ा लगाव था।
    हाजरा काॅलेज लाइब्रेरी में लगभग सारी किताबें पढ़ गई थी। उसे प्रेमचंद की एक कहानी ‘बूढ़ी काकी’ बड़ी पसंद आई। लेकिन काॅलेज का वातावरण कुलीन और फैशन-पसंद था जहां इस तरह की गतिविधियां खास पसंद नहीं की जाती थीं।
    1924 में हाजरा नौंवी क्लास में थी। उसी वक्त एक रूसी महिला का व्याख्यान आयोजित किया गया और
    छात्राओं केा रोका गया। हाजरा ने पहली बार वहीं ‘बोल्शेविक’ शब्द सुना। व्याख्याता बोल्शेविकों के खिलाफ जहर उगल रही थी। एक बार काॅलेज में ईद की छुट्टी नहीं हुई। इसके खिलाफ हाजरा के नेतृत्व में लड़कियों ने हड़ताल कर दी। सामाजिक सक्रियता का हाजरा का यह पहला अनुभव था। हाजरा पर रविन्द्रनाथ और प्रेमचंद का गहरा प्रभाव पड़ा।
    हाजरा ने 1926 में मैट्रिक पास किया। 1920 में उसकी मां की मृत्यु हो गई और मैट्रिक पास करने से पहले
    सौतेली मां की भी मृत्यु हो गई। भाई-बहनों की देखभाल के लिए उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। वह ‘स्त्री-स्वतंत्रत की समर्थक के रूप में प्रसिद्ध होने लगी। वह उर्दू-फारसी में हाजरा बेगम-असाधारण कम्युनिस्ट महिला नेता काफी लिखने लगीं। उसे वह समझ में नहीं आता कि हिन्दू और मुसलमान आपस में लड़ते क्यों हैं क्योंकि वह हिन्दुओं के साथ काफी रह चुकी थी। उसने पर्दा करना छोड़ दिया था। 1928 में हाजरा की शादी पुलिस डिप्टी सुपरिंटेंडेंट अब्दुल जमील खान से हुई। 1931 में हाजरा को एक पुत्र हुआ।
    राजनीति की ओर झुकाव हाजरा के मामू के लड़के महमूद जफर 7 वर्षों बाद इंगलैंड से लौटे और खादी पोशाक अपना ली। पहले तो हाजरा और अन्य सबों को बड़ा धक्का लगा। महमूमद ने इंगलैंड में खादी और खादी की विचारधारा पूरी तरह अपना ली थी। हाजरा दो महीनों तक महमूद के साथ मसूरी रही और
    महमूद ने आधुनिक राष्ट्रीय और क्रांतिकारी विषयों से हाजरा को पूरी तरह अवगत कराया। हाजरा में
    राष्ट्रीयता की भावनाएं जाग पड़ीं। उसने भी खद्दर की साड़ी पहनना शुरू कर दिया। एक पुलिस अफसर की पत्नी के लिए ऐसा करना बहुत बड़ी बात थी।
    चारों ओर चर्चा होने लगे। 1931 में चारों ओर ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ तथा अन्य नारे लग रहे थे। सत्याग्रह और जन-आंदोलन हो रहे थे। एक जगह लोग ऐसे नारे लगाते हुए नमक बना रहे थे। हाजरा खुद डी.एस.पी. की कार चला रही थी। उनके मना करने पर भी हाजरा ने कार रोक दी। 1932 में हाजरा पिता के पास
    मेरठ गई। उस वक्त कम्युनिस्टों पर सुप्रसिद्ध मेरठ षड्यंत्र केस चल रहा था। उनमें एक अभियुक्त थे लेस्टर हचिन्सन। हचिन्सन उसी मकान के दूसरे हिस्से में ठहरे हुए थे। उन्हें जमानत मिल चुकी थी। महमूद और हाजरा के बड़े भाई विलायत से लौटे थे और वहीं थे। पिता के मना करने पर भी हाजरा सबकी बातें सुना करती।
    हाजरा ने कन्युनिज्म की बातें सुनीं और हचिन्सन और बेन ब्रैडले के बारे में पिता से उलटी बातें सुनीं।
    मेरठ में एक महिला क्लब में भी दार्शनिक एवं राजनैतिक बातें होने लगीं। गर्मियों में हाजरा देहरादून चली गईं। उसके बाद वह पति के पास लौटने में देर करने लगी। दोनों के जीवन के रास्ते अलग होने लगे। दो-तीन महीनों बाद उसने पति को त्याग दिया।
    अगस्त 1932 में हाजरा पिता के पास लौट गई। महमूद को छोड़ सभी उसका विरोध कर रहे थे। कुछ समय उसने अलीगढ़ में स्कूल में बच्चों को पढ़ाया। फिर माॅन्टेसरी प्रशिक्षण के लिए इंगलैंड जाना तय किया। 1933 में आधा जेवर बेचकर अपने बच्चों को लेकर वह इंगलैंड पहुंच गई।
    इंगलैंड में हाजरा हैम्पस्टेड के मांटेसरी काॅलेज में भर्ती हो गई। उनका छोटा भाई भी पोटर््समाउथ में नौसेना प्रशिक्षण ले रहा था। बच्चे को भी स्कूल में दाखिल करा दिया। काॅलेज में कई लड़कियां नाजी अत्याचारों का शिकार देख और सह चुकी थीं। हाजरा को नाजीवाद के बारे में जानकारी मिलने लगी।
    इंगलैंड पहुंचने के तीसरे दिन ही सज्जद जहीर से मुलाकात हो गई। राजनीति संबंधी बातें हुईं। 1934 में
    बिहार में हुए भूकम्प के लिए राहत-कार्य लंदन में किया। 1934 की गर्मियों में वे सोवियत रूस गईं और
    कई सारे शहरों की यात्रा की। वहां चल रहे युगांतकारी परिवर्तनों ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। लंदन में वे
    ‘मार्क्स वादी भारतीय विद्यार्थियों के ग्रुप’ में शामिल हो गई। ग्रेट ब्रिटेन कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने वाले प्रथम भारतीयों मे वे एक थीं। उन्होंने अपना कोर्स दो वर्षों में पूरा किया। वे बहुत आर्थिक तंगी की हालत में वहां रहा करतीं।हाजरा ब्रसेल्स में आयोजित फासिज्म और युद्ध संबंधी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भी शामिल हुईं। सम्मेलन में एक बिंदु पर ‘साम्राज्यवाद’ शब्द शामिल नहीं करने पर उन्होंने अपने साथियों के साथ वाॅक-आउट भी किया।वे के.एम. अशरफ, जेड.ए. अहमद और सज्जाद जहीर के साथ भारत लौंटीं। वे 1935 में भारत लौर्टी और उन्होंने लखनऊ के करामत हुसैन मुस्लिम गल्र्स काॅलेज के जूनियर स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। लखनऊ में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में डाॅ. जेड.ए.अहमद आए और पं. नेहरू से मिले। वे हैदराबाद की अपनी नौकरी, काॅलेज में प्रिंसिपल का काम, छोड़कर नेहरू के अनुरोध पर 1936 में इलाहाबाद आ गए। फिर हाजरा भी अपना काम छोड़ इलाहाबाद आ गईं। वे दोनों एक-दूसरे से वर्षों से परिचित थे। उन दोनों ने शादी कर ली और कांग्रेस में सक्रिय काम करने लगे।
    हाजरा और जेड.ए. अहमद का विवाह सज्जाद जहीर के पिताजी सर सैयद वजीर हसन की कोठी पर हुआ जो लखनऊ हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। उर्दू के मशहूर शायर रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ और डाॅ. अशरफ उपस्थिति रहे।
    विवाह के बाद चूंकि जेड.ए. अहमद को कांग्रेस दफ्तर से केवल 75/रु. ही मिलते थे इसलिए हाजरा ने एक
    अंग्रेजी स्कूल में 75/रु. माहवार पर टीचर का काम ले लिया। इस प्रकार उनका काम चलने लगा। हाजरा ने
    किसानों और मजदूरों में बहुत काम किया। कांग्रेस ने उन्हें असेम्बली के लिए मुस्लिम महिला चुनाव-क्षेत्र से खड़ा करना चाहा लेकिन हाजरा राजी नहीं हुई। हाजरा ने प्रभा नामक पत्रिका का छह महीने संपादन किया। 1939 में हाजरा के एक पुत्री हुई। जिसका नाम सलीमा था। 1940 में हाजरा बेगम अख्लि भारतीय वीमेन्स काॅेन्फ्रेस ;ए. आई.डब्ल्यू.सी की संगठन मंत्री रहीं।
    कुछ समय लाहौर और प्रयाग में स्कूल में पढ़ाने का काम करने के बाद वे मजदूरों और किसानों में काम करने लगीं।
    1936 से वे प्रगतिशील लेखक संघ ;पी.डब्ल्यू.ए.के साथ सक्रिय कार्य करने लगीं। वे ए.आई.डब्ल्यू.सी. में
    निरंतर सक्रिय रहीं। उन्होंने इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के कुलियों को संगठित कर 1937 मे इलाहाबाद रेलवे कुली यूनियन का गठन किया। उन्होंने कानपुर की महिला मजदूरों, आजमगढ़ की महिला बुनकरों, रायबरेली की किसान महिलाओं तथा अन्य तबकों के बीच  सक्रिय कार्य किया।
    हाजरा बेगम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के फैजपुर ;1936, हरिपुरा ;1938और रामगढ़ ;1940 अधिवेशनों में सक्रिय हिस्सा लिया। 1930 के दशक में उन्होंने किसान और प्रभा नामक पत्रिकाओं का संपादन भी किया। उन्होंने 1946-47 के दौरान ए.आई.डब्ल्यू.सी. की उर्दू और हिन्दी पत्रिका रोशनी का संपादन भी किया।
    1940 में हाजरा अपनी बेटी सलीमा को लेकर लाहौर चली गईं। वहीं से पार्टी का गुप्त रूप से काम करने लगीं। पार्टी महासचिव ने उन्हें पंजाब में कम्युनिस्ट पार्टी की संचालिका नियुक्त किया। जब जेड.ए. अहमद को 1940 में देवली कैम्प में बंद कर दिया गया तो एक बार हाजरा अपनी बेटी के साथ उनसे मिलने गईं। बेटी को तो ‘दो मिनट’ मिलने दिया गया लेकिन हाजरा को अंदर नहीं जाने दिया गया।
    दो मिनट आधा घंटा में बदल गया। सभी कैदी बच्ची को देख बड़े खुश हुए। कई तो फूट-फूट कर रोने लगे।
    1942 में पंजाब में पेरिन भरूचा तथा हाजरा के नेतृत्व में लड़कियों का एक ग्रुप बनकर तैयार हो गया। पी.सी. जोशी ने उन्हें राजनैतिक शिक्षा देने का काम हाजरा बेगम को सौंपा।
    हाजरा बेगम 1940 के दशक में पूर्वी उत्तरप्रदेश में सामंती अत्याचारों के खिलाफ महिलाओं के बीच आंदोलन जोर पकड़ने लगा। 1947 में रतनपुरा तथा अन्य इलाकों में महिलाएं लाठी-डंडा लेकर शामिल होने लगीं।इनमें हाजरा बेगम ने रात-दिन मेहनतकरके उन्हें संगठित किया।
    हाजरा बेगम ने यू.पी. में पार्टी की स्थापना में भी भाग लिया।महिला आत्मरक्षा समिति 1940 के दशक में बंगाल,पंजाब, दिल्ली तथा अन्य स्थानों मे एक महिला जन-संगठन का गठन किया गया जिसक नाम था ‘महिलाआत्मरक्षा समिति’। हाजरा बेगम बताती हैं कि पंजाब महिला आत्मरक्षा लीग सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिए खाद्य संकट, सूखा तथा अन्य संकटों के बारे में जन-जागृति पैदा किया करता था।
    द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यह अभियान विशेष तौर पर तेज हुअ। एक गीत का शीर्षक था ‘ना तेल, ना डिब्बियां, साणु कीं लभेया’ अर्थात् न तेल है और न ही तेल का कनस्तर, हमें क्या मिला? हाजरा बेगम ए.आई.डब्ल्यू.सी में काम किया करती थीं। वह एक बड़ा संगठन था लेकिन वैचारिक रूप से हाजरा बेगम-असाधारण कम्युनिस्ट महिला नेता थी । जल्द ही उसके अंदर विचारधारा का संघर्ष आरंभ हो गया।
    संगठन कुलीन महिलाओं का संगठन बनता जा रहा था और गरीब तथा निचले तबके की महिलाओं से दूर होता जा रहा था। हाजरा समेत अन्य कम्युनिस्ट महिलाओं ने इसे एक स्वस्थ्य राजनैतिक-वैचरिक दिशा देने का प्रयत्न किया। कम्युनिस्ट पार्टी में जैसा कि हम कह आएं हैं हाजरा ब्रिटेन में ही कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बन चुकी थीं। वापस लौटने पर कुछ ही समय बाद वे और जेड.ए. अहमद दोनों ही पार्टी के पूरावक्ती कार्यकर्ता बन गए। हाजरा इलाहाबाद में सी.एस. पी. ;कांग्रेस सोशिलिस्ट पार्टी में भी
    काम करने लगीं। इलाहाबाद की सी.एस.पी. ;कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के युवा नेताओं में हाजरा, अहमद, अशरफ और राममनोहर लोहिया शामिल थे। उस वक्त हाजरा कम्युनिस्ट पार्टी के मुट्ठीभर महिला सदस्यों में थीं। 1949-51 के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी लगा दी गई और हाजरा अंडरग्राउंड चली गईं।
    ‘बी.टी.आर.’ लाइन का दौर जेड.ए. अहमद को इस दौर में ‘बी.टी.आर.’ नेतृत्व द्वारा काफी जलील किया गया। उन्हें शारीरिक कामों तक सीमित कर दिया गया। वे खाना पकाने और बर्तन मांजने का काम करने लगे!
    इतना ही नहीं, ‘बी.टी.आर.’ ने हाजरा बेगम को आदेश दिया कि जेड.ए. अहमद को तलाक दे दो क्योंकि वह सुधारवादी और संशोधनवादी बन गया है! लेकिन दोनों ने यह आदेश मानने से इंकार कर दिया।
    1952 में उन्होंने विएना में संपन्न विश्व शांति सम्मेलन में हिस्सा लिया। इसके अलावा उन्होंने 1953 में कोपनहेगन में फेडरेशन के सम्मेलन तथा 1955 में लुसाने में ‘माताओं के विश्व सम्मेलन’ में भाग लिया।
    एन.एफ.आई.डब्ल्यू. की स्थापना हाजरा बेगम एन.एआई.डब्ल्यू की संस्थापकों में थीं। 1943 में ही उन्होंने
    पार्टी नेतृत्व के सामने प्रस्तावित किया था कि पार्टी का एक अलग महिला मोर्चा होना चाहिए। इस प्रश्न पर उनका अन्य कई साथियों से मतभेद था। बंगाल से उन्हें काफी समर्थन मिला। उन्होंने कहा कि हमारे पास एक अखिल भारतीय महिला संगठन हो जो कम्युनिस्ट महिला संगठन नहीं हो। इसमें मजदूर, किसान, निम्न मध्यवर्ग, टीचरों,तबकों से महिलाएं हों और इस पर रानियों-महारानियों का प्रभुत्व न हो। उन्होंने कहा कि मध्यम वर्गें की महिलाएं मजदूर और कामकाजी महिलाओं की समस्याएं नहीं समझती हैं।
    कोपनहेगन सम्मेलन की तैयारी के लिए दिल्ली के बंगाली मार्केट में राष्ट्रीय तैयारी सम्मेलन की तैयारी समिति का कार्यालय स्थापित किया गया। 9 मई 1953 को एक राष्ट्रीय सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया। माॅडर्न स्कूल में एक प्रदर्शनी भी लगाई गईं। 25 महिलाओं का एक प्रतिनिधिमंडल चुना गया। वे सभी ‘‘भारत एयरवेज’ से गए, जो एक चार्टर्ड प्लेन पर जिसमें सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं था। जो पहले भी हवाई यात्रा कर चुके थे वे भी कलकत्ता से कोपनहेगन की यह यात्रा नहीं भूले। हाजरा बेगम के अनुसार, यात्रा को तीन रातें और दो दिन लगे। हवाई जहाज चिड़िया के समान फुदक रहा था। वह कई सारे शहर होता हुआ गुजरा। इन शहरों से यात्री भर लिए जाते जो कई बार जमीन पर ही सो जाते!
    प्रतिनिधिमंडल एक सप्ताह पहले ही पहुंच गया। इसलिए उनके रहने का कोई इंतजाम नहीं था। किसी तरह उनका इंतजाम ‘ग्रीष्म स्कूलों’ में किया गया जहां नहाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। सदस्यों को बिना काम के अजीब-सा लग रहा था। सम्मेलन के आयोजकों ने कहा कि आप चिंता क्यों कर रही हैं? आप सभी साड़ियों में है। सारे देश में लोग पूछ रहे हैं कि आप यहां क्यों आई हैं? सम्मेलन प्रचार तो आरंभ हो चुका है!
    कोपनहेगन कांग्रेस ने ‘‘महिलाओं के अधिकारों संबंधी घोषणा’ स्वीकृत की। इसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों का व्यापक दायरा प्रस्तुत किया गया। इनमें काम के अधिकारों, तथा व्यापार, कामकाज, प्रशासन, पुरूषों के साथ बराबरी, इसका विस्तृत वर्णन दिया गया। भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने ही सर्वप्रथम कार्यशील महिलाओं समेत भूमि के स्वामित्व की बात शामिल की।
    वापस लौटने पर एक समन्वय समिति गठित की गई जिसकी हाजरा बेगम और अनुसूया ज्ञानचंद संयोजक थीं और एनी मैस्केरीन अध्यक्ष। इसकी परिणाति अखिल भारतीय महिला सम्मेलन ;कलकत्ता, 4-6 जून 1954 के रूप में हुई। हाजरा बेगम संयुक्त सचिवों में चुनी गई। हाजरा बेगम से 1965 तक एन.एफ.आई.डब्ल्यू के नेतृत्व का हिस्सा रहीं। उन्होंने 1961 में काहिरा में एफ्रो-एशियाई महिला सम्मेलन में भाग लिया।
    हाजरा बेगम भा.क.पा. की उर्दू केंद्रीय मासिक पत्रिका ‘कम्युनिस्ट जायजा’ की संपादकमंडल में थी। वे दो बार पार्टी की केंद्रीय कंट्रोल कमिशन में चुनी गई। वे संगठन के अनुशासन की पक्की थीं। उन्होंने पार्टी अखबार ‘कौमी जंग’ के लिए भी बहुत लिखा। हाजरा बेगम की मृत्यु 20 जनवरी 2003 को लंबी बीमारी के बाद हो गई।

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