शनिवार, 7 नवंबर 2020

लखनऊ विश्वविद्यालय स्टूडेंट्स यूनियन के महासचिव व कम्युनिस्ट नेता हरीश तिवारी के दोनों हाथ पुलिस नें तोड़ दिए अनिल राजिमवाले

 
हरीश चंद्र तिवारी का जन्म मसवानपुर, नजदीक पनकी, कानपुर जिले में 5 सितंबर 1915 को एक
शिक्षित परिवार में हुआ था। यह परिवार बस्ती जिले का था। हरीश उन कम्युनिस्टों में थे जिन्होंने ए.आई.एस.
एफ. के स्थापना सम्मेलन ;1936 में भाग लिया था। उनके पिता पं. रामचंद्र तिवारी नजीबाबाद में स्कूल हेडमास्टर थे। हरीश ने कानपुर से इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। आगे पढ़ने के लिए उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ में दाखिला लिया।
हाई स्कूल में पढ़ते वक्त ही उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य इकट्ठा करना आरंभ किया। एक दिन वे ‘इंकलाब
जिन्दाबाद’ जैसे क्रांतिकारी नारे लगते हुए शहर घूमते रहे, इस आशा में कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर लेगी! चूंकि
उनके पिता समाज में एक सम्मानजनक व्यक्ति थे, हरीश को सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। लेकिन हरीश नहीं माने। उन्हें उनके चाचा श्री शिवमंदन तिवारी के कठोर अनुशासन में पढ़ाई करने कानपुर भेज दिया गया। उसके बाद वे लखनऊ चले गए। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान वे महत्वपूर्ण छात्र नेता के रूप में उभर आए। वे पूरी तरह ईमानदार और समर्पित नेता एवं व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। वहां से उन्होंने बी.ए. पास किया। वे हिन्दी, उर्दू तथा इंगलिश तीनों ही भाषाओं में पारंगत थे।
ए.आई.एस.एफ. के संस्थापकों में ;1936 जैसा कि सुविदित है ए.आई.एस. एफ. की स्थापना अगस्त 1936 में
लखनऊ में संपन्न अखिल भारतीय विद्यार्थी सम्मेलन में हुई थी। हरीश तिवारी ने इस सम्मेलन के आयोजित
करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यहां यह नोट किया जाना आवश्यक है कि कांग्रेस का अधिवेशन मई
1936 में लखनऊ में ही हुआ था। कांग्रेस के इस अधिवेशन के दौरान ही हरीश तिवारी, बदिउद्दीन, बलराम सिंह
और पी.एन भार्गव ने जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की और उन्हें अखिल भारतीय स्टूडेंट्स फेडरेशन के निर्माण
के लिए सम्मेलन आयोजित करने की योजना से अवगत कराया। नेहरू बड़े उत्साहित हुए और सम्मेलन का
उद्घाटन करने के लिए सहमत हो गए। महात्मा गांधी ने भी इस विचार का समर्थन किया। इस प्रकार कांग्रेस
के अधिवेशन ने विभिन्न विद्यार्थी तथा अन्य नेताओं को आपस में सलाह करने का अवसर दिया।
यह हरीश तिवारी ही थे जिन्हें बाद में नेहरू को औपचारिक रूप में आमंत्रित करने तथा लाने का जिम्मा
सौंपा गया था। हरीश ने ए.आई.एस. एफ. के संस्थापना सम्मेलन में सक्रिय हिस्सा लिया। इस प्रकार वे ए.आई.
एस.एफ. के संस्थापकों में थे। वे उत्तरप्रदेश तथा भारत के विद्यार्थी आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता एवंसंगठनकर्ता थे।
1938-39 में हरीश ने लखनऊ विश्वविद्यालय स्टूडेंट्स यूनियन के महासचिव पद का चुनाव लड़ा। जी.एल. बंसल ने अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था। हरीश के समर्थन में सक्रिय चुनाव कार्य करने वालों में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के भावी प्रोफेसर डॉ. पी.डी. श्रीमाली भी थे। इस बारे में उन्होंने सविस्तार लिखा है। ए.आई.एस.एफ. के शफीक नकवी भी थे। हरीश भारी मतों से चुनाव जीत गए। 1942 में गांधीजी और कांग्रेस के आवाहन पर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन फूट पड़ा। लखनऊ में हरीश तिवारी तथा अन्य ने 1942 के आंदोलन के लिए विद्यार्थियों का संगठित किया। विद्यार्थियों का एक विशाल जुलूस चल पड़ा। ‘मंकी ब्रिज’ ;आज हनुमान सेतु के पास पुलिस ने हमला कर दिया और बर्बर लाठी-चार्ज किया। हरीश को बुरी तरह पीटा गया और उनके दोनों हाथ तोड़ दिए गए।

हरीश 1940 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। वह कठिन दौर था। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़
चुका था। पार्टी ने पहले ही राष्ट्रीय मोर्चे के गठन का नारा दिया था। हरीश अभी विद्यार्थी ही थेः दिन में वे
यूनिवर्सिटी में पढ़ाई किया करते, रात में पार्टी के अंडरग्राउंड कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय काम करते। उन्होंने
लखनऊ में पार्टी संगठन खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस समय हरीश की मुलाकात श्रीनारायण तिवारी से हुई जो एक पुराने क्रांतिकारी थे और अमीनाबाद में टोपियों
की दूकान चलाया करते थे। वहां एक ‘अम्माजी’ बैठा करतीं जो सबों की अम्माजी थीं! वे आगंतुकों को चाय,
पानी, खाना, बहस के लिए जगह वगैरह का इंतजाम किया करतीं। आस-पास कई चाय की दूकानें बैठकों
और बहसों के लिए अच्छी जगह थी। हरीश का नेटवर्क इस इलाके में बड़ा ही प्रभावशाली था। श्री नारायण तिवारी
के जरिए हरीश का संपर्क ट्रेड यूनियन आंदोलन से हुआ। हरीश तिवारी अपने व्यक्ति एवंसामाजिक जीवन में कुछ सिधान्तों  का बड़ी ही दृढ़ता से पालन किया करते।
वे अपना सारा ध्यान पार्टी कार्य पर केंद्रित करते और कभी भी पदों के पीछे नहीं भागते। हालांकि वे अच्छे
खाते-पीते परिवार से थे लेकिन उन्होंने परिवार से कोई सहायता लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने सिर्फ पार्टी वेतन पर ही गुजारा करना तय किया जो उस वक्त मात्र 30 रु. था।
ट्रेड यूनियन गतिविधियांः
निम्बकर अवार्ड के लिए संघर्ष हरीश तिवारी ने 1940 में बिजली मजदूर यूनियन का गठन लखनऊ में
किया। इसमें उनका सहयोग कालाकांकेर के कुंवर ब्रजेश सिंह, बाबूलाल, ए.पी. तिवारी तथा अन्य
साथियों ने किया। आगे यह यूनियन मार्टिन बर्न की सभी कंपनियों की यूनियनों की फेडरेशन बन गई।
इसी समय ;1940 में हरीश नागपुर में संपन्न ए.आई.एस.एफ. के सम्मेलन में इसके संयुक्त सचिव बनाए
गए। उन्होंने बिजली तथा अन्य मजदूरों का न्यूनतम वेतन तय करने लिए प्रदेशव्यापी आंदोलन छेड़ दिया।
आखिरकार सरकार ने एक कमिटि का गठन किया जो ‘‘निम्बकर अवार्ड’’ कहलाया।
निम्बकर कमिटि या अवार्ड इससे पहले, तीस के दशक में आर.जी. रेगे कमेटी कहलाती थी। तीस और चालीस
के दशकों में यू.पी. में हरीश तिवारी तथा अन्य साथियों ने मजदूरों का न्यूनतम वेतन करने तथा अन्य मांगों
को लेकर आंदोलन चलाया। इसका परिणाम ‘‘निम्बकर अवार्ड’’ के रूप में हुआ। आर.एस. निम्बकर ए.
आई.टी.यू.सी. उच्च नेताओं में थे। उन्हें समिति में मजदूर पक्ष प्रस्तुत करने का जिम्मा सरकार की ओर से दिया गया। आगे चलकर ने समिति के अध्यक्ष तब बने। समिति ने काफी विस्तार से विभिन्न मांगों पर विचार किया और श्रम एवं औद्योगिक कानूनों में महत्वपूर्ण सुधार किए। साथ ही उत्तरप्रदेश में मजदूरों के वेतन में साढ़े बारह प्रतिशतकी बढ़ोतरी भी की। यह एक बहुत बड़ी जीत थी।
इस पूरे घटनाक्रम में हरीश तिवारी ने निरंतर योगदान दिया और संघर्ष किया। उनका योगदान इतना
प्रभावशाली साबित हुआ कि आम मजदूरों के बीच ‘निम्बकर अवार्ड’‘हरीश तिवारी अवार्ड’ के नाम से
विख्यात हो गया!
हरीश ने बीडी, कपड़ा, चमड़ा, सैनिक इंजीनियरिंग, प्लाईवुड, सरकारी कर्मचारियों एवं मजदूरों के बीच निरंतर
काम किया। मजदूरों के बीच हरीश के लिए विशेष गीतों और कविताओं की रचनाओं की रचना भी की गई!
1945-46 के दौरान बनारस में हरीश तिवारी की मुलाकात प्रेमलता तिवारी से हुई। वे भी पार्टी की सक्रिय
कार्यकर्ता थीं और अग्रवाल कॉलेज की प्रिंसिपल थीं। प्रेमलता ने अंडरग्राउंड पार्टी गतिविधियों में हिस्सा लिया।
1954 में हरीश और प्रेमलता ने अत्यंत गरीबी की हालात में विवाह कर लिया। लेकिन उन्होंने आपस में काम
बांटकर पार्टी का काम जारी रखा। तीन ‘टी’  तिवारी, टाइपराइटर, टोबैको!
टाईपराइटर हरीश तिवारी के जीवन का अभिन्न अंग बन गया था। वे साथियों और मजदूरों के बीच ‘थ्री टी’
के नाम से सुप्रसिद्ध हो गए। एक तो वे खुद ‘तिवारी‘ थे अर्थात ज् से शुरू होते
थे फिर मजदूरों के बीच संपर्क स्थापित करने में तम्बाकू बड़ा सुविधाजनक था। और टाइपराइटर
हमेशा उनके साथ चिपका रहा करता था! जब भी कुछ लिखना होता, पत्र या दस्तावेज, टाइपराइटर निकल
आता-फिर चाहे कमरा हो या आम सभा! वे एक ही उंगली से टाईप किया करते लेकिन बड़ी तेजी से। वे कभी
थकते नहीं। बिजली मजदूरों के नेता हरीश तिवारी यू.पी. तथा अखिल भारतीय पैमाने पर 1950-60 के
दशकों में बिजली मजदूरों के सर्वोच्च नेताओं में थे। उन्होंने तमलिनाडु के एस.सी. कृष्णन और महाराष्ट्र के ए.बी.
बर्धन के साथ मिलकर बिजली मजदूरों का अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अखिल भारतीय बिजली कर्मचारी फेडरेशन की स्थापना की गई। डॉ. वी. वी.गिरी की अध्यक्षता में पुराने फेडरेशन
को ही पुनर्जीवित किया गया। हरीश तिवारी संगठन के सहायक महासचिव बनाए गए।
वे एटक की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति के सदस्य चुने गए, साथ ही इसके कोषाध्यक्ष भी। उन्होंने वर्ल्ड
फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन की मीटिंगों में भी हिस्सा लिया।
हरीश तिवारी पार्टी में फूट पड़ने के बाद पार्टी और टी.यू. आंदोलन की कई जटिलताओं से गुजरे। उन्होंने यू.पी. में
28 स्पिनिंग मिलों में संगठन खड़ाकिया।
हरीश ने 1978 में एक विशाल मजदूर आंदोलन के दौरान इप्टा के साथियों से मजदूरों के बारे में ड्रामा
तथा गीत के लिए अनुरोध किया और उन्हें प्रोत्साहित किया। इसका परिणाम था‘‘क्या बदला है?’’ नामक एक ड्रामा जो सुप्रसिद्ध हुआ और कई बार मंचित किया गया। सज्जाद जहीर तथा डॉ. राशिद जहां भी जुड़े हुए थे। एक प्रकार से इसने आगे चलकर राज्य-स्तरीय टी.यू. कार्यालय के निर्माण में भीयोगदान दिया। हरीश तिवारी साहित्य
तथा पठन-पाठन में गहन दिलचस्पी रखा करते थे।
हरीश तिवारी को उच्च कोटि के जाने-माने नेताओं के बीच काम करना पड़ता था। एस.एस. युसुफ, रूस्तम
सैटिन, जेड.ए. अहमद, रमेश सिन्हा, अली सरदार जाफरी, सरजू पांडे, झारखंडे राय, जयबहादुर सिंह आदि।
फिर भी उन्होंने अपने ही ढंग से अपनी एक अलग पहचान बना ली।
वे 1978 में भंटिंडा में संपन्न भाकपा की कांग्रेस में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में चुने गए। वे राज्य पार्टी
सेक्रेटारिएट में भी चुने गए। हरीश तिवारी की मृत्यु 10 दिसंबर 1988 को लंबी बीमारी के बाद हो गई। मजदूर वर्ग और पार्टी के लिए यह बहुत बड़ी क्षति थी। उनके शोक-जुलूस में हजारों मजदूर तथा अन्य शामिल हुए। वे एक समझौताहीन,अनुशासित और आदर्श कम्युनिस्ट थे।

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