पुचलपल्ली सुंदुरै ̧या का जन्म 1मई1913 को अलगनी पाडु ;वर्तमान विडावलूर मंडल नल्लोर जिला,आंध्रप्रदेश में हुआ था। उनका मूलनाम पुचलपल्ली सुंदररमी रेड्डी था। वे एक सामंत परिवार के थे। उनके पास 50 एकड़ सिर्फ धान की ही खेती थी। माता का नाम शेषम्मा था। अछूतों के प्रश्न पर उनका गांव वालों से झगड़ा होने लगा। दो वर्षोंं तक गांव के स्कूलमें तेलुगू पढ़ी। फिर बहनोई के साथ रहने लगे। इस बीच पिता की मृत्यु होगई। वे बहनोई की बदली के साथनयी जगह जाने लगे। मद्रास पहुंचकर तीन वर्ष पढ़ाई की, 1929 में एन्टें्रस पास किया और लायोला कॉलेज में भर्ती हो गए। तेलुगू रामायण प्रेम से पढ़ रखी थी। 1924 आते-आते राष्ट्रीय साहित्य और राष्ट्रीय अंदोलन का चस्का लग गया। फिर 1925 से उन्होंने गांधी साहित्य को खूब पढ़ा,फिर रामतीर्थ, विवेकानंद, तिलक, योग,इ. पढ़ा। 1927 में मद्रास में कांग्रेस अधिवेशन आयोजित किया गया जो उन्हें देखने को मिला जिससे उनमें राष्ट्रीय भावनाएं जगाने में सहायता मिली। 1928 में साइमन कमीशन जब मद्रास आया तो सुंदरै ̧या ने विरोध प्रदर्शनों में जमकर भाग लिया।कॉलेज में वे गणित, रसायन और भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी थे लेकिन साथ ही राजनीति और अर्थशास्त्र भी पढ़ा करते। 1930 में गांधी जी के आवाहन पर नमक-आंदोलन में शामिल हो गए। वे आंदोलन के ‘सोदर समिति’के केंद्र पश्चिम गोदावरी चले गए। वे नमक सत्याग्रह के दो सौ स्वयंसेवकों के कप्तान बना दिए गए। फिर कॉलेज छोड़कर गांव चले गए। गांव में देखा कि खेत मजदूरों को बहुत कम मजदूरी मिलती है। उन्होंने मांग की कि मजदूरी चौगुनी बढ़ाई जाए। चारों ओर आंदोलन छिड़ गया।17 वर्ष की उम्र में उन्हें ‘कैदी बाल स्कूल’’ में गिरफ्तार कर तंजौर भेज दिया गया। जेल में सोवियत रूसके बारे में पुस्तकें पढ़ने का मौका मिला।वहां उन्होंने हिन्दी भी पढ़ी। खराब बर्ताव का विरोध करने के लिए साथियों के साथ भूख-हड़ताल भी की।
अमीर हैदर खान से मुलाकात
गांधी-इरविन समझौते के बाद;1931 उन्हें जेल से रिहा किया गया। पहले बंगलौर और फिर मदास पहुंच गए। वहां अमीर हैदर खान तथा अन्य कई कम्युनिस्टो एवं सोशलिस्टों के साथ मुलाकात हुई। इनमें सिंगारवेलु, घाटे तथा कई अन्य शामिल थे। वे कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर झुकने लगे।इस बीच गांव लौटकर अछूतों और खेतिहर मजदूरों को संगठित करना शुरू किया। अछूतों को कुएं पर जाने नहीं दिया जाता था। कुछ दर्जन युवाओं को संगठित कर उन्होंने कुएं पर जाने का अधिकार छीना। इसके अलावा खेतिहर मजदूरों के लिए सहकारी दुकान बनाई।साक्षरता अभियान के लिए स्कूल,पाठशाला और पुस्तकालय खोला।वे दक्षिण में घाटे के सहायक के रूप में काम करने लगे।कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय1934 में सी.एस.पी.की स्थापना हुई। कम्युनिस्ट पार्टी के लोग सी.एस..पी. तथा कांग्रेस में काम करने लगे। पार्टी के काम से मलाबार गए जहां उनकी ई.एम.एस. से मुलाकात हुई। वे उन्हें सी.एस.पी. में ले आए और वे धीरे-घीरे कम्युनिस्ट पार्टी की ओर आने लगे। ई.एम.एस. कांग्रेस में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगे।1936 में आंध्र की सी.एल.पी.में कम्युनिस्टों का वर्चस्व था, कांग्रेस में भी अच्छा प्रभाव था। 1937 मेंउन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल की सजा हुई लेकिन आंध्र में कांग्रेस मंत्रिमंडल बनने के बाद चार महीनों बाद ही छोड़ दिया गया।1937 में ही वे आंध्र सी.एस.पी. के सचिव बनाए गए। युवाओं के राजनैतिक प्रशिक्षण के लिए कोत्थपटनम् में ग्रीष्म स्कूल संगठित किया गया।घाटे लिखते है कि 1934 में मद्रास पहुंचने पर वे कम्युनिस्ट गुरुप के प्रमुख साथियों से मिले जिनमें आंध्र से सुंदरै ̧या, मद्रास से ‘ए.एस.के.’ एवं अन्य साथी थे।सुंदरै ̧या ने मद्रास तथा आंध्र क्षेत्रमें‘लेबर प्रोटेक्शन लीग’ के गठन में सहायता की . उनके साथ सिंगारवेलु,ए.एस.के., अमीर हैदर तथा अन्य साथी भी थे।सुंदरै ̧या, घाटे तथा अन्य साथियों की कोशिशों से केरल से कृष्ण पिल्लै,ई.एम.एस. तथा अन्य साथी सी.एस.पी से भाक.पा. में शामिल हो गए। सज्जाद जहीर, दिनकर मेहता, ई.एम.एस. तथा सोली बाटलीवाला सी.एस.पी. की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी थे।1939 में भा.क.पा. पर पाबंदी लगा दी गई। सुंदरै ̧या समेत बहुत सारे नेता अंडरग्राउंड चले गए। एक बार सुंदरै ̧या को पुलिस से बचने केलिए पचास मील भागना पड़ा था। इसक्षेत्र में गैर-कानूनी पार्टी का खुला अखबार ‘स्वतंत्र भारत’ छपता था, तीनह जार प्रतियों में। आंध्र पार्टी ‘प्रजाशक्ति’ साप्ताहिक प्रकाशित किया करती थी जो 10 हजार से भी अधिक छपता था। वह डेढ़ हजार गांवों तक पहुंचती थी। सुंदरै ̧या जननेताऔर किसान के रूप में उभर रहे थे।1936 में वे अखिल भारतीय किसान सभा के पदाधिकारी चुने गए।1934 में पी. सुंदरै ̧या को भा.क.पा. की केंद्र समिति ;सी.सी का सदस्य बनाया गया। 1936 में घाटे और सुंदरै ̧या की देखरेख में तमिलनाडु पार्टी इकाई की स्थापना की गई। उस वक्त वह मद्रास प्रेसिडेन्सी का हिस्सा था। उन्होंने ए.एस.के
अयंगर,जीवानंदन, बी.श्रीनिवासन राव, एस.वी. घाटे, इ. के साथ काम किया।1943 में भाकपा की प्रथम पार्टी कांग्रेस ;बंबई में सुंदरै ̧या फिर से केंद्रीय समिति में चुने गए।तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह,1946-50निजाम के हैदराबाद रजवाड़े में सामंती संबंधों एवं अत्याचारों का पूरा बोलाबाला था। विशेषकर उसके तेलंगाना क्षेत्र में सामंत विरोधी संघर्ष तेजी से सशस्त्र संघर्ष का रूप धारणकर रहा था। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में आंध्र महासभा के गठन से किसानों,खासकर गरीब किसानों औरखेत-मजदूरों का संघर्ष तेज हो गया।महासभा एक प्रकार का व्यापक संयुक्त मोर्चा था जिसमें कांग्रेस भी शामिल थी।पार्टी ने केंद्रीय नेतृत्व से संपर्क किया और कॉ. पी.सी. जोशी तथा अन्य नेताओं से बातचीत की। पी.सी. जोशी ने सशस्त्र संघर्ष छेड़ने की अनुमति दे दी। यह सामंत-विरोधी, निजाम -विरोधी संघर्ष था। इसके अलावा यह निजामके हैदराबाद रजवाड़े के खिलाफ थाजो भारत की आजादी को मान्यता नहीं दे रहा था और स्वतंत्र होना चाहता था। कुल मिलाकर यह एक व्यापक सामंत विरोधी मोर्चा था।पी. सुंदरै ̧या तेलंगाना संघर्ष के नेताओं में थे। अन्य नेताओं में सी.राजेश्वर राव, रावी नारायण रेड्डी,बद्दम यल्ला रेड्डी, के.एल. महेंद्रा, इ.थे। इस संघर्ष के दौरान करीब 2500 गांव आजाद किए गए और हजारों भूमिहीनों में जमीनें बांटी गई। ये ‘मुक्तक्षेत्र’ जिन्हें स्थापित करने का मुख्य श्रेय कम्युनिस्ट पार्टी को जाता है।‘बी.टी.आर. लाइन’,1948-50जैसा कि सुविदित है 1948 की दूसरी पार्टी कांग्रेस से कुछ पहले ही पार्टी पर संकीर्णतावादी दुस्साहिक लाइन हावी हो गई जो संपूर्ण पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हुई। 13 सितंबर1948 को तब स्थिति गुणात्मक रूपसे बदल गई जब भारतीय फौजें हैदराबाद रजवाड़े में प्रवेश कर गई।निजाम का मंत्रिमंडल गिरफ्तार कर लिया गया और निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। एक नई सरकार का गठन हुआ और हैदराबाद भारत में मिल गया।भूमि सुधारों का कार्य भी आरंभ हो गया। इस कर्रवाई के फलस्वरूप तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन में फूट पड़ गई।किसानों का बड़ा हिस्सा संघर्ष से अलग हो गया। उन्हें अब सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता नहीं रही। कम्युनिस्ट किसानों से अलग-थलग पड़ने लगे और उन्हें जंगलों का सहारा लेना पड़ा।‘बी.टी.आर. लाइन’ तेलंगाना संघर्षको ‘भारतीय क्रांति’ के अभिन्न अंग केरूप में देखती थी। इसलिए उसने भारतीय फौजों के प्रवेश के बाद संघर्ष तेज करने का आत्मघाती रूखअ पनाया। अब भारतीय पुलिस और फौज से भिंड़त होने लगी जिससे आखिरकार संघर्ष की भारी नुकसान उठाते हुए पराजय हो गई। इस प्रकार1948-50 का दौर तेलंगाना संघर्ष के पीछे हटने और पराजय का दौर था। छापेमार दस्तों को गांवों को छोड़ जंगलों की शरण लेनी पड़ी।‘आंध्र लाइन’1948-50 मे अपनाई गई सशस्त्र संघर्ष में भी दो लाइनें थींःहथियारबंद विद्रोह और छापेमार युद्ध की लाइनें। इन्हें ‘रूसी’ और चीनी’नमूने की सशस्त्र लाइनें भी कहा जाता था। अधिकतर आंध्र के साथ चीनी किस्म के छापेमार युद्ध के हिमायती थे। इनमें सुंरदै ̧या, सी. राजेश्वर राव तथा अन्य थे। बी.टी.आर. देशव्यापी जनविद्रोह ;रूसी तरीका के हिमायती थे।1950 में बी.टी.आर. को अपने पद से हटा दिए जाने के बाद उसपर कुछ महीनों के लिए ‘आंध्र लाइन’ हावी हो गई। सी. राजेश्वर राव भा.क.पा. के महामंत्री बनाए गए। वे गुरिल्ला युद्धके हिमायती थे। नई केंद्रीय समिति और पॉलिट ब्यूरो में सुंदरै या भी शामिल कर लिए गए। वे ‘बी.टी.आर. लाइन’के आलोचक थे लेकिन सशस्त्र संघर्ष के समर्थक। कुछ ही महीनों के बाद ‘सी.आर. की जगह अजय घोष महासचिव बनाए गए और सशस्त्र संघर्ष की लाइन छोड़ दी गई तथा पार्टी देश की मुख्यधारा में शामिल हो गई।सुंदरैया तेलंगाना कमेटी के इंचार्ज बने जो आंध्र पी.सी. से अलग थी। 1952 के आम चुनावों के बाद सुंदरै ̧या मद्रास से राज्य सभा के लिए चुने गए। वे कम्युनिस्ट ग्रुप के नेता चुने गए। वे तीन बार आंध्र प्रदेश असेम्बली मेंचुने गए। वे काफी समय तक भा.क.पा. की केंद्रीय समिति और पॉलिट ब्यूरो के सदस्य बने रहे। 1958 में अमृतसर पार्टी कांग्रेस में वे केंद्रीय कार्यकारिणी और सेक्रेटारिएट में चुने गऐ।सुंदरै ̧या प्रथम पार्टी कांग्रेस में केंद्रीय समिति में चुने गए, फिर 1948 में।फिर वे 1950 में पॉलिट ब्यूरो में आए और 1954 और 1956 में भी।भा.क.पा. ;मार्क्सवादी में शामिल1964 में पार्टी में फूट और भा.क.पा.सी.पी.एम.के गठन केबाद पी. सुंदरै ̧या सी.पी.एम. में चले गए वे आरंभ से ही अर्थात 1964 से ही भा.क.पा. ;मार्क्सवादी के महासचिव बनाए गए।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के महासचिव पद से इस्तीफा
1976 में सुंदरै ̧या ने सी.पी.एम. के महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया।इसके कारणों का विस्तृत वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक माइ रेजिग्जेशन ;मेराइस्तीफा1991नामक पुस्तक में दिया है।दिनांक 22 अगस्त 1975 के केंद्रीय समिति के नाम अपने पत्र में उन्होंने विस्तार से उन कारणों की चर्चा की जिनके कारण आगे उन्होंने महासचिव पद से इस्तीफा दिया। इन कारणों मे जे.पी. आंदोलन में जनसंघ/आर.एस.एस. का साथ देने का विरोध, जनसंगठनों संबंधी कार्यनीति-गत मतभेदों, केंद्रीय नेतृत्वकारी इकाइयों की कार्यशैली, इ. संबंधी मतभेदों की चर्चा की। सुंदरै ̧या के मतभेदों की जड़ें 1948-50 के ‘बी.टी.आर.दौर’ में जाती हैं जब सशस्त्र समाजवादी क्रांति का नारा दिया गया था। उस वक्त भी वे बी.टी.आर. लाइन से पूरी तरह सहमत नहीं थे और बाद में अधिक दूर चले गए। बाद में उन्होंने पूंजीवादी जनतांत्रिक प्रक्रिया और उसकी संभावनाओं को अधिक महत्व दिया। उन्होंने हमेशा ही आर.एस.एस.-जनसंघ ;बाद में भाजपा की ओर से सांप्रदायिक-फासिज्मके खतरे से बार-बार ध्यान खींचा और इस बिंदु पर कोई समझौता नहीं किया।सुंदरै ̧या 1951 के पार्टी कार्यक्रम तथा ‘नीतिगत वक्तव्य’ के हिमायती थे।उनकी शिकायत थी कि बिना सलाह या बहस के इन दस्तावेजों में 1964 के बाद अनावश्यक परिवर्तन किए गए। वे भारतीय विशेषताओं पर अधिकाधिक जोर देने लगे थे।वे नई टेक्नोलॉजी का विरोध करने के भी खिलाफ थे। उन्होंने ट्रेड यूनियनसे कहा कि सिर्फ बेरोजगारी बढ़ने को कारण बता कर नई तकनीकों का विरोध नहीं किया जा सकता। हमें टेक्नोलॉजी -विरोधी होने की छवि नहीं बनानी चाहिए।अपने पद से इस्तीफा देने के बाद पी. सुंदरै ̧या आंदोलन की स्थिति से काफी निराश रहे। उनकी मृत्यु 19 मई 1985 को हो गई।
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