शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर बी डी जोशी


 प्रसिद्ध मजदूर नेता, स्वतंत्रता

सेनानी व राजनीतिज्ञ बी.डी. जोशी

;भवानी दत्त जोशी का जन्म 9 अगस्त

1917 में शिमला में हुआ। इनके

पिता महाराजा शिमला के राजपुरोहित

एवं ज्योतिषी थे। इनके पूर्वज

उत्तराखंड, जिला अल्मोड़ा के निवासी

थे। अल्मोड़ा जिला उत्तराखंड के

कुमाऊं क्षेत्र में आता है। अल्मोड़ा शुरू

से ही शिक्षा व संस्कृति का केंद्र रहा है

जहां ब्रिटिशराज में साक्षरता की दर

देश के अन्य भागों के मुकाबले कहीं

अधिक थी। यही कारण है यहां के

पंडित अच्छे पढ़े-लिखे व संपन्न हैं।

इस कारण समाज के हर क्षेत्र में चाहे

सरकारी पद हो, राजनीतिक, साहित्य

व कला इत्यादि के क्षेत्र में सब जगह

इनकी पकड़ थी। पंडित गोविन्द बल्लभ

पंत, पी.सी. जोशी, सुमित्रानंदन पंत,

मोहन उप्रेती, बी.एम. शाह इसी श्रेणी

से संबंध रखते हैं। यहां के पंडित-पंत,

जोशी पांडे, उप्रेती, लोहिनी, तिवारी

इत्यादि अपने को दीवान खानदान का

बताते हैं।

दीवान खानदान बनने का इतिहास

बताया जाता है कि सन्1792 में

नेपाल के गोरखों ने गढ़वाल व कुमाऊं

पर अधिकार कर लिया जो 1815

तक चला। गोरखों ने यहां के निवासियों

पर तरह-तरह के जुल्म ढाए। उनके

अत्याचारों के बारे में आज भी प्रचलित

है कि ‘‘यह कोई गोरखिया राज थोड़ा

ही है’’। तब अल्मोड़ा के इसी खानदान

के हरीदेव जोशी कलकत्ता में अंग्रेजों

से मिले और गोरखों से मुक्ति दिलाने

का आग्रह किया, शर्त यह रखी गई कि

अंग्रेज राजा होंगे और तथाकथित उच्च

जाति के पंडित दीवान। अंग्रेज-गोरखा

यु( में गोरखा हार गए। इस प्रकार ये

लोग दीवान बन गए। हालांकि कुछ

इतिहासकार इससे सहमत नहीं है।

शिमला अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन

राजधानी हुआ करती थी जहां जोशी

का बचपन बीता। शिमला, जो ब्रिटेन

के शहरां की भांति था तथा यहां भारतीयों

को प्रवेश की इजाजत नहीं के बराबर

थी। यही उनकी प्राथमिक शिक्षा संस्कृत

माध्यम से हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त करने

हेतु वह दिल्ली आए और दिल्ली

विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में

दाखिला लिया। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों

का उपेक्षित व्यवहार देख जोशी को

आरंभ से ही उनसे नफरत होने लगी।

नौजवानों में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा था,

ऐसे वातावरण ने जोशी को भी प्रभावित

किया। इसके अलावा उनके बड़े भाई

खिलाफत आंदोलन में शामिल थे

जिसका प्रभाव भी जोशी पर पड़ा जिसने

कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी-54

प्रसि( ट्रेड यूनियन व कम्युनिस्ट नेता बी.डी. जोशी

उन्हें राजनीतिक में आने के लिए प्रेरित

किया।

1939 में जोशी सरकारी नौकरी

में आ गए। जोशी ने अपनी योग्यता व

मेहनत के दम पर वह बहुत जल्दी

पदोन्नति पाकर वित्त मंत्रालय में

अधिकारी बन गए। वही जोशी ने

मंत्रालयों में कार्यरत चतुर्थ श्रेणी के

कर्मचारियों को संगठित किया और

संगठन का मार्गदर्शन करने लगे

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में

भी उनकी हिस्सेदारी रही। छद्म नाम

से वह कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी दिल्ली

प्रदेश के महत्वपूर्ण पदाधिकारी रहे।

1943 से 1945 के बीच में वह

कई बार जेल गए। अंत में सन 1945

में फिरोजपुर जेल से रिहा हुए। नौकरी

चली गई। देश आजाद होने पर उन्हें

नौकरी पर बहाल करने का आदेश

हुआ परंतु वरियता के अनुसार, पद न

मिलने के कारण उन्होंने स्वीकार नहीं

किया।

आजादी मिलते ही देश का बंटवारा

भारत-पाकिस्तान के रूप में हो गया

और सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए। 30

जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या

कर दी गई। जोशी उस समय कांग्रेस

पार्टी के श्रमिक विभाग के मुखिया थे।

समाजवादी नेता फिरोज गांधी व

कृष्णाकांत जो बाद में भारत के

उपराष्ट्रपति बने, जोशी के मित्रों में से

थे। सरकार ने दिल्ली में दंगों से निबटने

के लिए उन्हें ऑनरेरी-मैजिस्ट्रेट नियुक्त

किया तथा उनका कार्यक्षेत्र बाड़ा

हिन्दूराव था। उनकी पत्नी श्रीमती

सुभद्रा जोशी तथा श्रीमती इंदिरा गांधी

उनके इस कार्य में सहभागी थे। कुछ

समय बाद उनका कांग्रेस पार्टी से

मोहभंग हो गया और वह सोशलिस्ट

पार्टी में चले गए। यहां का माहौल भी

उन्हें रास नहीं आया, अतः उन्होंने

त्यागपत्र दे दिया, अब वह मजदूर

संगठनों व सामाजिक संस्थाओं से जुड़े

रहे।

उस दौर में दिल्ली राजनीति से

जुड़े नेताओं में प्रमुख थे-श्रीमती अरूणा

आसफअली, सुभद्रा जोशी, मीर मुस्तफा

अहमद, कृष्णचंद्र चांॅदी वाले, बी.डी.

जोशी, चौधरी ब्रह्मप्रकाश, एम. फारूकी,

बृजमोहन तूफान, सरल शर्मा, वाई.डी.

शर्मा, लाला श्यामनाथ, रामचरण

अग्रवाल इत्यादि। सी.के. नायर जिन्हें

देहात का गांधी कहा जाता था, इन

सबमें वरिष्ठ थे। सन् 1952 में जोशी

नायर के खिलाफ दिल्ली देहात से

कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के रूप में

लोकसभा का चुनाव लड़ें, परंतु विजयश्री

नायर को मिली। इससे पहले 1952

में जोशी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में

दिल्ली विधान सभा का चुनाव लड़े

और जीते। यह दिल्ली की पहली विधान

सभा थी जिसका कार्यकाल

1952-57 तक था।

1957 में जोशी ने विधिवत

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ;सी.पी.आईद्ध

की सदस्यता ले ली। अब वह ट्रेड

यूनियन के अलावा पार्टी के कार्यक्रमों

में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे।

सन् 1962 में चीन ने भारत पर

आक्रमण कर दिया। भारत के

दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों ने

कम्युनिस्टों को बदनाम करने में कोई

कसर नहीं छोड़ी। कई जगह पार्टी

कार्यालयों पर हमले हुए। दिल्ली के

चांदनी चौक के कटरा अशर्फी में एटक

का कार्यालय था, कार्यालय की विशेषता

यह थी कि उसका एक गेट एक गली

में खुलता था तो दूसरा दूसरी गली में।

आरएसएस तथा भारतीय जनसंघ

;बीजेपी से पहले पार्टी का नामद्ध के

गुंडों ने कार्यालय पर हमला कर दिया।

उनकी नीयत कार्यालय पर कब्जा करने

या सील करवाने की थी। अंदर जोशी

के नेतृत्व में यूनियन की बैठक चल

रही थी। शोर सुनकर कामरेड दरवाजे

पर डंडे लेकर बचाव में खड़े हो गए।

जब बात बढ़ गई तो कामरेड डट गए।

जो आगे आकर शोर मचाता उसको

खींचकर अंदर उचित इलाज देने के

बाद दूसरे दरवाजे से बाहर फेंक देते

थे, इस प्रकार जब 5-6 हुल्लड़बाजों

की पिटाई हुई तो उपद्रवी भाग खड़े

हुए। यह जोशी के साहस और सूझबूझ

का ही परिणाम था।

सन् 1965 में भारत-पाक यु(

हुआ जिसमें पाकिस्तान ने मुंह की

खायी। भारत को ब्लैकमेल करने के

लिए चीन ने भारत पर एक बार फिर

आक्रमण करने की धमकी दे दी। कारण

पूछा गया तो पता चला कि चीन भारतीय

फौजों पर उनकी सौ भेड़ों को उठा कर

ले जाने का आरोप लगा रहा था। इसके

जवाब में सीपीआई ने बी.डी.जोशी और

प्रेमसागर गुप्ता के नेतृत्व में 101

भेड़ों का जूलूस निकाला। जुलूस चांदनी

चौक, लाल किला, तीन मूर्ति होते हुए

चीनी दूतावास पर पहुंचा। काफी लोग

जुलूस में शामिल थे। नेताओं के भाषण

के बाद चीनी दूतावास अधिकारियों को

आग्रह किया गया कि वे अपनी भेड़ें ले

लें, परंतु आक्रमण न करें। काफी समय

तक जब कोई उत्तर नहीं मिला तो

जुलूस समाप्त कर दिया गया।

सन 1972 में जोशी दिल्ली

महानगर परिषद के लिए दिल्ली

किशनगंज से चुने गए। उनके अलावा

सीपीआई के दो अन्य सदस्य रामचन्दर

शर्मा व चौधरी श्रीचंद भी चुने गए।

उस समय दिल्ली महानगर परिषद में

57 सीटें थी, राज्य बनने के बाद

दिल्ली विधानसभा के सदस्यों की संख्या

70 है। जोशी इस परिषद के वरिष्ठ

तथा सम्मानित सदस्य थे। जनता की

समस्याओं को लेकर काफी मुखर रहते

थे। आपातकाल में जबरन नसबंदी व

तुर्कमान गेट की तोड़फोड़ की कार्रवाईयों

के खिलाफ महानगर परिषद में वह

खूब बोले। जोशी का यह ऐतिहासिक

भाषण सुनने लायक था जिसमें उन्होंने

संजय गांधी के खिलाफ जमकर बोला।

इसकी जोशी दम्पत्ति को बाद में कीमत

भी चुकानी पड़ी।

जोशी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की

राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहे तथा कुछ

समय तक केंद्रीय कार्यकारिणी में विशेष

आमंत्रित भी रहे। सन्1957 से लेकर

1999 तक पार्टी के अनुशासित

सदस्य रहे। उनका मार्क्सवाद में अटूट

विश्वास था। संस्कृत भाषा पर जोशी

की अच्छी पकड़ थी। गीता के कई

श्लोक उन्हें कंठस्थ याद थे, जिन्हें वे

समय-समय पर राजनैतिक बहस व

संवादों के दौरान उदाहरण के रूप में

प्रयोग करते थे। भर्थरी के नीति शतक

हो या कालीदास के मेघदूत या वाल्मीकि

रामायण के संदर्भों का प्रयोग वह मीटिंगों,

रैलियों में अपने भाषणों के दौरान करते

थे। इसके अलावा भारतीय दर्शन पर

भी उनकी अच्छी पकड़ थी।

जोशी एक कुशल वक्ता थे। उनके

भाषणों को श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते

थे। विषय पर विस्तार से चर्चा करते थे

और हर बात में तर्क होता था। सन

1962 में सुभद्रा जोशी ने बलरामपुर

उत्तर प्रदेश से संसद का चुनाव लड़ा।

उनका मुकाबला भारतीय जनसंघ के

दिग्गज नेता अटलबिहारी वाजपेयी से

था। वाजपेयी लखनऊ और बलरामपुर

दोनों जगहों से लड़ रहे थे। वाजपेयी

का नामांकन पहले हो चुका था जबकि

कांग्रेस पार्टी तब तक अपना उम्मीदवार

तय नहीं कर पाईं। वाजपेयी ने प्रचार

किया कि कांग्रेस के पास उनके खिलाफ

लड़ने के लिए कोई प्रत्याशी है ही नहीं।

खुद पंडित नेहरू भी यहां से चुनाव

लड़ने से कतरा रहे हैं। जब सुभद्रा

जोशी का नामांकन हो गया तो वाजपेयी

ने अपने भाषणों में कहना शुरू कर

दिया, ‘‘सुना है कांग्रेस ने हमारे खिलाफ

कोई सुभद्रा जोशी नाम की महिला को

खड़ा किया है जो न मांग भरती है, न

बिन्दी लगाती हैं, न चूड़ियां पहनती है,

पता नहीं शादीशुदा है या विधवा। न ही

भारतीय सभ्यता व संस्कृति का ज्ञान

है, न ही पढ़ी-लिखी मालूम पड़ती हैं।’’

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सुभद्रा

जी से अनुरोध किया कि जब तक

चुनाव हैं तब तक वह यही सबकुछ

कर लें। परंतु सुभद्रा जी और जोशी

जी ने यह बात नहीं मानी। जोशी ने

सुभद्रा जी का भाषण तैयार किया जिसके

अनुसार, सुभद्रा जी ने एक विशाल

जनसमूह में कहा, ‘‘वाजपेयी जी बड़े

विद्वान आदमी हैं, देश के महान होनहार

नेता हैं और ओजस्वी वक्ता हैं, मेरे

बारे में उन्होंने कुछ बातें कही है

जैसे-मेरा मांग न भरना, बिन्दी न

लगाना तथा चूड़ियां न पहनने के

अलावा मेरे भारतीय संस्कृति व सभ्यता

के ज्ञान के बारे में भी टिप्पणी की है।

वाजपेयी जी हम तो उस भारतीय

सभ्यता में विश्वास करते हैं कि जहां

सीता हरण के बाद सुग्रीव ने रामचंद्र

को सीता जी के कुछ जेवर दिए जो

सीता जी ने रावण के पुष्पक विमान से

नीचे फेंक थे। राम सीता के कर्णफल

को दिखाकर लक्ष्मण से पूछते हैं कि

भैया क्या यह सीता का ही कर्णफल

है? जवाब में लक्ष्मण कहते है कि भैया

कोई पैर का आभूषण हो तो दिखाइए,

मैं पहचान लूंगा। कर्णफल नहीं पहचान

सकूंगा क्योंकि मैंने तो हमेशा उनके

पैर ही छुए हैं, कभी भी सर उठाकर

उनकी ओर नहीं देखा।’’ मैंने मांग भरी

है या नहीं, मैं चूड़ियां पहनती हूं या

नहीं, इससे वाजपेयी जी का अभिप्राय

क्या है? वह किस भारतीय संस्कृति

की बात कर रहे हैं?’’ परिणाम यह

हुआ कि वाजपेयी जी को मीटिंगें ठंडी

पड़ने लगी और अंत में वह बहुत बड़े

अंतर से हार गए।

जोशी ने अपने सामाजिक जीवन

की शुरूआत एक मजदूर नेता से की

थी। पहले केंद्रीय सरकार में कार्यरत

चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को संगठित कर

उनके संगठन के मार्गदर्शक के रूप में

उसके बाद दिल्ली के कपड़ा मजदूरों

की यूनियन के नेता के रूप में। बतौर

राजनेता उन्होंने इतनी शोहरत नहीं

टीकाराम शर्मा कमाई जितनी एक मजदूर नेता के

रूप में। वह कई वर्षों तक दिल्ली राज्य

कमेटी एटक के प्रधान व महामंत्री रहें।

राष्ट्रीय पैमाने पर वह एटक के

उपप्रधान, प्रधान, सचिव,

उप-महासचिव व कार्यवाहक महासचिव

रहे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह विश्व

मजदूर संघ की जनरल काउंसिल के

सदस्य भी रहे। कई बार उन्होंने

समाजवादी तथा दूसरे देशों की यात्राएं

भी की। कपड़ा उद्योग की बारीकियों

की भी उनको गहरी समझ थी।

जोशी जी का कार्यक्षेत्र दिल्ली व

फरीदाबाद रहा। दिल्ली में ‘‘कपड़ा

मजदूर एकता यूनियन’’ के वह अंत

तक महासचिव रहे। दिल्ली में चार

प्रमुख कपड़ा मिलें थी-दिल्ली क्लॉथ

मिल, स्वतंत्र भारत मिल, बिरला मिल

व अजुध्या टेक्सटाइल मिल, मजदूरों

के वेतनमान, महंगाई भत्ता इत्यादि को

लेकर कई हड़तालें हुई जिसमें एकता

यूनियन के अलावा अन्य यूनियनें भी

शामिल रहीं। परंतु कपड़ा मजदूर

यूनियन एवं जोशी का उनमें विशेष

योगदान था। जुलाई 1979 में हुई

संपूर्ण हड़ताल में करीब 24,000

मजदूरों ने भाग लिया। इसमें अन्य

बातों के अलावा जस्टिस विद्यालिंगम

अवार्ड को लागू करने की मुख्य मांग

थी। यह हड़ताल करीब 3 महीने चली।

इसमें तीन मिलों के मालिक इसे लागू

करने के लिए तैयार हो गए परंतु डी.

सी.एम.;दिल्ली क्लॉथ मिलद्ध राजी नहीं

हुआ। अंत में जोशी आमरण अनशन

पर बैठे और डी.सी.एम. प्रबंधन को भी

झुकना पड़ा।

इसके अलावा जोशी जी ने प्रेमसागर

गुप्ता के साथ मिलकर मिल मजदूरों

के लिए करमपुरा क्षेत्र में रिहायशी मकान

प्रसि( ट्रेड यूनियन व कम्युनिस्ट नेता बी.डी. जोशी

बनवाए। इसमें तत्कालीन शहरी

विकासमंत्री मेहरचंद खन्ना का भी

योगदान था। पहले कर्मचारियों को इन

मकानों का किराया देना पड़ता था।

एक अर्से बाद यह मांग उठाई गई कि

किराया मकान के मूल्य के बराबर या

उससे अधिक दे दिया गया है। अतः

मकान में रहने वाले कर्मचारी के ही

नाम कर दिए जाए। एक सम्मानपूर्ण

समझौते के आधार पर उक्त कर्मचारी

मकान मालिक बन गए।

आरंभ से ही जोशी फरीदाबाद बाटा

कर्मचारी यूनियन से जुड़े रहे। पहले

वह यूनियन के प्रधान रहे तथा उसके

बाद इसके आजीवन चेयरमैन। बाटा

यूनियन के अलावा उनका दखल कुछ

समय के लिए एस्कॉर्ट्स व गुडईयर

वर्कर्स यूनियनों में भी रहा। बाटा दुकानों

में कार्यरत सेल्समैन यूनियन के भी वह

नेता रहे। इसके अलावा ऑल इंडिया

बाटा इम्पलॉयज फेडरेशन के भी प्रधान

रहे। हरियाणा एटक के महासचिव व

बाटा मजदूर यूनियन के नेता कामरेड

बेचूगिरी बतलाते हैं-प्रबंधकों से वार्ता

करने के मामले में जोशी का कोई सानी

नहीं था। वह खुद कम बोलते थे और

मालिकों को बोलने का अधिक मौका

देते थे। खुद बड़े ध्यान से सुनते थे।

यहीं से वह मालिकों की रणनीति भांप

लेते। यहीं से उन्हें बहस के लिए मुद्दे

मिल जाते थे। दूसरी बात, उनकी

ड्रॉफ्टिंग गजब की थी जिसका कायल

मैंनेजमेंट भी था। उनके अंग्रेजी के ज्ञान

की हर कोई सराहना करता था।’’

फरीदाबाद के अलावा जोशी जी ने

मोदी नगर में भी मजदूरों की यूनियन

बनायी और कुछ समय उसमें काम भी

किया। मोदी नगर एक ऐसी जगह थी

जहां मालिक यूनियन बनने ही नहीं

देते थे।

जोशी देहली मेडिकल टेक्नीशियन्स

एंड इम्प्लॉयज ऐसोसिएशन के भी

1971 से 1999 ;अप्रैलद्ध तक

प्रधान रहे। सन 1974 में दिल्ली

नगरनिगम के अस्पतालों में हड़ताल

हुई। जोशी महानगर परिषद के सदस्य

थे, अतः इस आंदोलन की गूंज

महानगर परिषद में भी पहुंची। जहां

निगम प्रशासन बात करने को राजी

नहीं था इसके बाद घुटनों के बल ;झुक

गयाद्ध आ गया। सन्1978 में मौलाना

आजाद मेडिकल कॉलेज एवं

लोकनायक तथा जी.बी. पंत के

तकनीकी कर्मचारी संघर्षरत थे। जोशी

ने तत्कालीन जनता पार्टी, जो महानगर

परिषद में बहुमत में थी, धमकी दे दी

कि अगर फैसले के लिए सरकार राजी

नहीं है तो दिल्ली की दूसरी बड़ी

यूनियनें-पेट्रोलियम, डी.टी.यू., बैंक,

टेक्सटाइल यूनियनों को संघर्ष में उतारा

जाएगा। परिणामस्वरूप दिल्ली प्रशासन

के स्वास्थ्य विभाग के हस्तक्षेप के बाद

समझौता हो गया। दिल्ली प्रशासन में

कार्यरत तकनीकी कर्मचारियों की भर्ती

के नियम, पदोन्नति नीति आदि बनवाने

में जोशीजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

एक अन्य यूनियन ‘‘ग्रामीण

श्रमजीवी यूनियन’’ के भी जोशी प्रधान

थे। इसका दायरा मुख्यतः दिल्ली देहात

था। सरकार ने कंझावला में 1970

में हरिजनों व पिछड़ी जातियों में 120

एकड़ जमीन आवंटित की। इनमें

109 हरिजन तथा 7 पिछड़ी जातियों

के परिवार थे। वहां के बड़े जमींदारों ने

इन परिवारों को उक्त जमीन का कब्जा

नहीं लेने दिया और इसके विरू(

दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका

लगाई जिसे माननीय न्यायलय ने

खारिज कर दिया। फिर भी उक्त

परिवारों को जमीन नहीं जोतने दी गई।

गरीब परिवार कई वर्षां तक कुछ नहीं

कर सके, न ही सरकार ने इनकी कोई

मदद की। 7 जुलाई 1978 को इसे

लेकर संघर्ष हुआ क्योंकि संगठन इनके

साथ था। इस खूनी संघर्ष में 12

हरिजन, 8 औरतें तथा 4 आदमी बुरी

तरह जख्मी हुए। 8 जुलाई को बी.डी.

जोशी, प्रेमसागर एवं एन.एन. मन्ना ने

दौरा किया । भूपेश गुप्ता ने यह मामला

राज्य सभा में उठाया। तब कहीं जाकर

शांति कायम हुई।

दिल्ली के राजनेताआें औेर

नौकरशाही में जोशी का बहुत सम्मान

था। इसका फायदा हमारे संगठन को

मिला, जो समस्या निचले स्तर पर

नहीं सुलझती उसे सचिवों या कार्यकारी

पार्षदों के साथ बैठक कर सुलझा लिया

जाता। वह एक अच्छे वार्ताकार थे तथा

उनके तर्क अकाट्य थे। पिछली सदी

के सत्तर के दशक में उपभोक्ता मूल्य

सूचकांक की समीक्षा के लिए एक कमेटी

बैठी जिसके चेयरमैन प्रो. नीलकंठ रथ

थे। एटक का प्रतिनिधित्व जोशी ने

किया। आधारवर्ष 1960 था,

दियासलाई के मूल्य को लेकर बहस

शुरू हुई। 1960 में इसकी कीमत

1 आना ;6 नए पैसेद्ध थी जबकि बैठक

के समय 10 नए पैसे, कीमत में

बढ़ोतरी को लेकर सरकार के प्रतिनिधि

ने 66.66ø बताई जबकि जोशी का

कहना था कि बढ़ोतरी शत-प्रतिशत

है। यह सुनकर सब लोग चौंक गए

और जोशी से इसे सि( करने के लिए

की। वैसे तो 66.66ø सही था। परंतु

जोशी ने कहा कि जो दियासलाई 6

पैसे में आती थी उसमें साठ तिल्लियां

होती थी और अब 10 पैसे में आ रही

है तो उसमें केवल 50 तिल्लियां ही

है! इस प्रकार मूल्यवृ( शत-प्रतिशत

है। सबके यह बात माननी पड़ी।

जोशी को पहली बार मैंने 1973

में एटक ऑफिस आसफअली रोड पर

देखा था। दिल्ली एटक में मैं अपनी

यूनियन का प्रतिनिधित्व करता था,

इसलिए हर मीटिंग में उनसे मुलाकात

होती थी, उनके सामने खड़े होने या

सीधे बात करने की मेरी हिम्मत नहीं

होती थी। 1978 में मैं अपनी यूनियन

का महासचिव चुना गया। अतः अक्सर

मुलाकात होने से मेरी झिझक भी जाती

रही। नए साथियों को आगे बढ़ाने और

उनकी हौसला अफजाही करना जोशी

जी की विशेषता थी। एक समय के

बाद अक्सर मुझे उनका या सुभद्रा जी

के रक्त के नमूने लेने जाना पड़ता

था, हम लोग नाश्ता साथ ही करते थे।

ऐसे मौके पर वे अपने बारे में और

अपने अनुभवों के बारे में बतलाते थे।

इन्हीं वार्तालापों के आधार पर मुझे

उनके निजी जीवन व राजनैतिक जीवन

के बारे में पता चला। उसी के आधार

पर इस लेख को मैं पाठकों से साझा

कर रहा हूं। जोशी अपने स्वास्थ्य के

प्रति काफी सचेत रहा करते थे। अतः

उन्होंने अच्छी जिंदगी बिताई। परंतु अंत

में एक बार वह बीमार हुए तो दिल्ली

के एक निजी नर्सिंग होम में भर्ती हुए।

कुछ दिन ठीक रहने के बाद उन्हें

पीलिया हो गया। ऐसा माना जाता है

कि उन्हें संक्रमित रक्त चढ़ गया था।

यह पीलिया आम पीलिया नहीं बल्कि

एक विशेष प्रकार का पीलिया था जिसे

हैपेटाइटिस-बी कहते है, जो बहुत

खतरनाक बीमारी होती है। यही पीलिया

अंत में उनकी मौत का कारण बना।

इस बीमारी से वे करीब दो वर्ष तक

जूझते रहे। अंत में 27 अप्रैल 1999

को दिल्ली के जी.बी.पंत अस्पताल में

उनकी मृत्यु हो गई।


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