सोमवार, 25 सितंबर 2023

ऐतिहासिक पूना पैक्ट की वास्तविकता - डॉ. सुरेश खैरनार

ऐतिहासिक पूना पैक्ट की वास्तविकता - डॉ. सुरेश खैरनार 26 सितंबर 1932 के दिन, आजसे 91 साल पहले ! ऐतिहासिक पूना पॅक्ट पर, एरवडा जेल के अंदर हस्ताक्षर हुए थे ! हमेशा की तरह, इस समय भी उस पैक्ट को लेकर कुछ लोग गलत बयानी कर रहे हैं ! मुखतः माननीय कांशीरामजी, जब पुणे में डिफेंस में नौकरी के लिए ! कुछ दिनों के लिए रहे थे ! उस दौरान उन्होंने, जो भी कुछ अध्ययन किया, उसमें से उन्होंने आज से 91 साल पहले के ! ऐतिहासिक पूना पैक्ट को लेकर ! बाकायदा एक दलित मराठी भाषी प्रोफेसर, और दलित साहित्य तथा जाति व्यवस्था के उपर ! मराठी में अधिकारिक चलते - फिरते संदर्भ ग्रंथ जैसे - मेरे मित्रने मुझे खुद कहा कि " कांशीरामजी जब पूनावासी थे तब वह मेरे पास दलित सवाल पर, अक्सर बातचीत करने के लिए नियमित रूप से आते-जाते थे ! एक दिन अचानक उन्होंने कहा कि " आज मुझे मेरी राजनीति के लिए एक शत्रु मिल गया !" तो मैंने पुछा 'कौन ?' तो उन्होंने कहा कि "महात्मा गांधी !" मैं सुनकर दंग हो गया ! और पूछा कि 'कैसे ?' तो उन्होंने कहा कि "पूना पैक्ट !" तो मैंने कहा कि " डॉ. बाबा साहब अंबेडकर जी ने अपनी खुद की पत्रिका, बहिष्कृत भारत के पहले ही अंक में प्रकाशित लेख में कहा है कि " काश महात्मा गाँधी जी के साथ मेरे संबंध और पहले होते। उन्होंने तो मैंने सिर्फ 71 सीटें आरक्षण में मांगी थी ! लेकिन गांधीजी के आग्रह पर 148 सीटें मिली है। यह तो डबल से भी अधिक सीटें मिली थी और जिस तरह से उन्होंने संपूर्ण देश में अस्पृश्यता के खिलाफ जनजागृति मुहिम शुरू की है ! यह ऐतिहासिक महत्व की बात है ! " पुणे जेल से रिहा होने के बाद हिंदुत्व को छुआछूत की बुराई से मुक्त करने के लिए वे महात्मा गाँधी 12500 मील लंबी यात्रा पर निकल पड़े ! उन्होंने हिंदुओं से आग्रह किया कि" वे हरिजनो के विरुध्द अपने पूर्वाग्रहों का त्याग करे !" और हरिजनो से निवेदन किया कि" वे नशीले पदार्थों और शराब का सेवन छोड़ दें !" महात्मा गाँधी जी के साढे बारह हजार मील से अधिक हरिजन यात्रा के दौरान ! जिस तरह से सार्वजनिक तालाब, कुओं से लेकर मंदिर के दरवाजे दलितों के लिए खोले जा रहे गए थे ! यह अस्पृश्यता के खिलाफ, भारत के इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन ! वह भी सवर्ण समाज की पहल पर शुरू हुआ है ! बहुत बड़ी सामाजिक बदलाव की शुरुआत हुई है ! इस देश में समाजवाद कब आऐगा पता नहीं ! इसलिए कुछ भी किया तो भी, भारत के साढ़े छह सौ लाख से अधिक गांवो में रहने वाले दलितों को अपनी जिविका के लिए, सवर्ण समाज के उपर निर्भर रहकर ही, अपनी जीविका के लिए मजबूर रहना पड़ता है और उन्हें नाराज करते हुए आप गांव में आसानी से जी नही सकते ! यह वास्तविकता है ! भले ही डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने दलितों को गांवों को छोड़कर शहरों की तरफ चलने का नारा दिया होगा ! लेकिन कितने दलितों को आज भी गांव में ही रहने के लिए मजबूर होना पड रहा है ? इसलिए सतत तनाव में रहते हुए, गांव में अपनी जिंदगी बसर करना संभव नहीं होता ! आखिर में मिलजुलकर ही रहना यही वास्तिकता हैं ! जिसे महात्मा गाँधीजी ने बराबर पहचाना था ! इसलिए अस्पृश्यता के खिलाफ, उन्होंने सतत अपनी भूमिका समय - समय पर निभाने की कोशिश की है ! यहां तक कि कांग्रेस के इतिहास में पहली बार कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने नागपुर कांग्रेस अधिवेशन जो 1920 में हुआ था और वह एक सामान्य प्रतिनिधि की हैसियत से उसमे शामिल रहने के बावजूद उन्होंने नागपुर कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार अस्पृश्यता के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने के लिए विशेष रूप से प्रयास किया है। दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत के उनके सभी आश्रमों में सभी जाति धर्म और विभिन्न देशों के लोग रहते थे। किसी भी तरह की छुआछूत या अस्पृश्यता के खिलाफ उन्होंने काम किया है और जिस जाति-व्यवस्था का आधार व्यवसाय है ! उसी को उन्होंने बदलाव करते हुए, अपने आश्रम में, खुद पाखाना साफ करने से लेकर, मरे हुए जानवर की चमडी निकालने के कामों में, कोकणस्थ ब्राह्मण अप्पासाहेब पटवर्धन जैसे और आज कल में विजय दिवाण वह काम बखूबी कर रहे हैं ! और अंतरजातीय विवाह के अलावा और उसमे भी वधु - वर मे से एक सवर्ण और दुसरा दलित होगा तो ही शादी में शामिल होने की कसम खाई ! क्योंकि डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी ने भी कहा है कि "जाति तभी समाप्त होगी कि जबतक अंतरजातीय विवाह नही होंगे !" यही जाति निर्मूलन के लिए कृतिशील कार्यक्रम का सुझाव दिया है। अन्यथा जाति नही वह जाति कहावत के जैसे ही जाति-व्यवस्था बनी रहेंगी ! इसलिये मैंने इस लेख में, बलराम नंदा की "गांधी और उनके आलोचक" और अंग्रेजी में प्यारेलाल द्वारा लिखित 'THE EPIC FAST' इन दोनों किताबों का सहारा लिया हूँ और बलराम नंदा के किताब में से पन्ना नंबर 31 से लेकर 39 का गांधीजी और जाति-प्रथा नाम के संपूर्ण अध्याय को पुनः पोस्ट कर रहा हूँ ! गांधीजी के उपर जो आरोप लगाए गए हैं, उनमें एक यह भी है कि उन्होंने जाति - प्रथा के पक्षधर के रूप में कार्य किया, लिहाजा 1932 मे किया गया उनका उपवास, अंग्रेजी सरकार द्वारा शूद्रों अर्थात अछूतों के पक्ष में नियोजित एक सकारात्मक कार्यवाही को रोकने के लिए था ! तथ्य यह है, कि सदियों पुरानी जाति - प्रथा की कमर तोड़ने, और अस्पृश्यता का दाग हिंदुत्व के माथे से मिटाने के लिए ! गांधीजी से अधिक कोई कुछ नहीं कर सकता है ! और वह ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है ! - जाति-प्रथा का उदभव, इसके गुण तथा अवगुण, छुआछूत के विरुध्द गांधीजी का जीवन पर्यंत संघर्ष, तथा हिंदुओ की एक सामाजिक समस्या को 1932 में भारतीय राष्ट्रीयता के विरुध्द एक राजनीतिक हथियार बना देने की साम्राज्यवादी कोशिश ! वैसे तो जाति - प्रथा के आरंभ के बारे में विद्वानों में विवाद रहा है ! लेकिन आमतौर पर यह स्वीकार किया गया है "कि मूल रूप में इसके व्यवसायगत चार प्रमुख विभाग थे ! और न तो वे अनिवार्यतः वंशानुगत थे, और न ही अपरिवर्तनीय ! इस प्रथा ने लगता है, एक ऐतिहासिक प्रयोजन सिध्द किया था ! कुछ अन्य उपमहाद्वीपो के विजेताओं की तरह ! भारतीय आर्यों ने स्थानीय आबादियों को न मिटाया और न ही उन्हें गुलाम बनाया ! अपनी सर्वोच्चता कायम रखते हुए भी ! उन्होंने मूल निवासियों को ! एक सामाजिक ढांचे में बांधे रखने का प्रयास किया ! यह जाति - प्रथा के कारण ही संभव हो सका ! "कि उत्तर - पस्चिम से आक्रमणकारियों, और अप्रवासियो की निरंतर आती लहरें अपनी विशिष्ट पहचान खोए बिना भारतीय समाज में अपना स्थान बना सकी ! राजनीतिक उथल-पुथल के समयों में जाति - प्रथा ने हिंदु समाज को एक निश्चित लचीलापन प्रदान किया और करोडो लोग, शासक, राजवंशों और उनके परिजनों के साथ जो कुछ बीता उससे बेखबर अपना जीवन जीते रह सके ! पर, समय के साथ इस प्रथा में अत्यांतिक रुढता आ गई और यह पूरी तरह वंशानुगत बन गया ; अनेक प्रकार के निषेध और कर्मकांडीय भावना से जुड़े विचार इसमें प्रवेश कर गए ! फलतः जो वर्ग इस सामाजिक भवन की तली में थे वे हीन अत्याचारों के और भेदभाव के शिकार बन गए ! सफाई से लेकर कारीगिरी तक के निम्न कार्यो में लगे 'अंत्यजो 'की दशा विशेष रूप से दारुण हो गई ! मध्य युग में बसवेश्वर, तुकाराम, गोरखनाथ, नानकदेव, कबीर और चैतन्य जैसे संतो ने और उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले, आंबेडकर, रामास्वामी नायकर उर्फ पेरियार जैसे समाज - सुधारको ने करुणावश इनकी और ध्यान दिया ! लेकिन कट्टरपन की जड़ें इतनी गहरी थी कि उन्हें आसानी से हिलाया नही जा सकता था ! अतंतः जाति - प्रथा की कट्टरता और छुआछूत की बुराईयों के सदियों पुराने जंजाल में फंसे, हिंदुत्व को झकझोर कर बाहर निकालने का काम गांधीजी के जिम्मे आया ! गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में वर्णन किया है! "कि कैसे उनके अपने घर में छुआछूत से उनका सामना हुआ !" जैसा कि वैष्णव हिंदुओ में सामान्य जातिगत भेदभावो का प्रचलन था, उनकी माता भी इसे मानतीं थी ! बच्चों को आदेश था ! "कि वे परिवार की भंगिन ऊका को छुकर, और कक्षा के अछूत सहपाठियों के साथ खेलकर, अपने आप को भ्रष्ट न करें ! गांधीजी एक आज्ञाकारी बालक थे, लेकिन इन निषेधो पर वे प्रकट रूप से बिदकते थे ; उस छोटी आयु में भी ! उन्हें छुआछूत की प्रथा में, और रामायण के उस मनोहारी प्रसंग में, जिसमें, उन्होंने सुना था कि "नायक राम को एक निम्न जाति के केवट ने गंगा के पार उतारा, उन्हें एक असंगति दिखाई देती थी !" जैसे - जैसे वे बड़े होते गए, निम्न से भी निम्नतम के प्रति मित्रत्व की भावना उनमें बढती गई ! दक्षिण अफ्रीका में, सभी वर्गों के और समुदायों के लोग उनके सहयोगी बने ! 1915 में भारत वापस आने के पर ! अहमदाबाद में जो पहला आश्रम उन्होंने स्थपित किया, उसमें एक अछूत परिवार को भी रखा ! इस बात पर अहमदाबाद के वे धनी व्यापारी बिगड़ उठे, जो आश्रम के लिए धन दे रहे थे ! विरोध में कुछ सहयोगी भी साथ छोड़ कर गए थे ! धन चुक गया, और आश्रम में भी थोडे लोग रह गए ! जो अब तक उनके साथ जुड़े थे ! गांधीजी ने सोचा कि "अहमदाबाद की गंदी बस्तियों में जाकर रहा जाए !" तभी एक गुमनाम दानी ने उनके इस विचार को अनावश्यक बना दिया ! दक्षिण अफ्रीका से वापसी के बाद ! पहले चार वर्षों के दौरान, जब गांधीजी राष्ट्रीय राजनीति के किनारे पर थे ! उन्होंने छुआछूत की बुराई के विरुध्द, निरंतर प्रचार किया ! इस सुधार को उन्होंने अपने 1920 - 22 के राजनीतिक अभियान में, एक मुद्दा तक बनाया ! तीसरे दशक में ! अपनी देशव्यापी यात्राओं के दौरान, अपने भाषणों में, छुआछूत का बार - बार उन्होंने जिक्र किया है ! 1931 के लंदन की गोलमेज परिषद में, "यह देखकर उन्हें चोट पहुँची ! कि अछूतों के प्रतिनिधि, प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक और राजनीतिक तत्वों के हाथों में खेल रहे हैं !" जैसा कि मुसलमानों, सिखों और इसाईयो के साथ किया गया ! अछूतो को भी एक पृथक चुनावी समुदाय के रूप में तोडकर अलग किए जाने का उन्होेंने विरोध किया ! इस विषय पर उनके विचार कितने दृढ थे, यह उस भाषण से प्रकट होता है ! जो उन्होंने 13 नवंबर 1931 को अल्पसंख्यक समिति की बैठक में दिया था ! "अस्पृश्यो की विशाल जनसंख्या का प्रतिनिधित्व अपने निजी रूप में करने का दावा मैं करता हूँ ! यहाँ मैं सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से ही नहीं, बल्कि अपने निजी पक्ष से भी बोल रहा हूँ मै दावा करता हूँ ! कि यदि अछूतो का जनमत लिया जाए ! तो मैं उनका मत प्राप्त करुंगा ! और सर्वाधिक मत मुझे ही मिलेंगे ! हम नही चाहते कि, हमारे रजिस्टर और हमारी जनगणना में अछूतो को एक अलग वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाए ! सिख भले ही सदा सिख रहे, इसी प्रकार मुसलमान मुसलमान रहे और युरोपीयन युरोपीयन, पर क्या अछूत सदा के लिए अछूत ही बने रहेंगे ? " यह महात्मा गाँधी जी के एक मां की ममता से दलित समस्याओं को देखने का नजरिया है ! जिसे चंद राजनीतिक उद्देश्य के लिए कुछ लोग अनदेखी कर के ! गलत इंटरप्रिटेशन करते हैं ! महात्मा गाँधी जी के मन में तो अस्पृश्यता खत्म करके ! छुआछूत की प्रथा का खात्मा करते हुए ! समस्त अस्पृश्य समाज हिंदुओ के बराबरी में शामिल हो ! अन्यथा छुआछूत के साथ, जिस तरह से मुसलमान, सिखों और इसाईयो के साथ ! समस्त अस्पृश्यसमाज भी हिंदू धर्म से टूटकर अलग होने से ! अस्पृश्यता तो बनी रहेंगी ! लेकिन भारत के भविष्य में अलगाव से आगे होनेवाले बटवारे में और एक तत्व शामिल होने से, भारत के और कितने पाकिस्तान बनेंगे ? इस दूरदर्शिता के कारण उन्होंने अपने जीवन के 63 वे साल में अपने प्राणों की आहुति तक देने का संकल्प लिया था ! मार्च 1932 में जब गांधीजी जेल में थे, तब उन्होंने ब्रिटेन की सरकार को उस सांप्रदायिक निर्णय के संबंध में एक पत्र, भारत सचिव सर सैम्युअल होर को लिखा था, जिसके द्वारा नए संविधान के अंतर्गत, विधानमंडलो में प्रतिनिधित्व की संख्या और विधि निर्धारित की गई थी ! उन्होंने होर को बताया "कि पृथक चुनाव - क्षेत्रों से अछूतो का कोई भला नहीं होगा, पर इससे हिंदु समाज विभाजित हो जायेगा !" जैसा कि उन्होंने लंदन में कहा था वही उन्होंने पुनः याद दिलाया ! उन्होंने कहा था ! "कि दलित वर्गों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र बनाने का विरोध वे जीवन देकर भी करेंगे !" गांधीजी ने लिखा " यह बात क्षणिक भाऊकता में अथवा वाकपटुता के रूप में नहीं कही गई थी !" जब 17 अगस्त 1932 को सांप्रदायिक निर्णय प्रकाशित हुआ ! तब गांधीजी का डर पुष्ट हो कर सामने आ गया ! दलित वर्ग को दुहरे मताधिकार दिए गए थे ! एक उनके निजी पृथक चुनाव क्षेत्र में और साथ ही दुसरा आम (हिंदु) चुनाव क्षेत्रों में ! लेकिन तथ्य यह रहा कि ! इन वर्गों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र बनाए जाने थे ! गांधीजी ने तत्काल ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड को लिखा कि "उन्होंने आमरण उपवास का निश्चय किया है!" यह उपवास तभी तोडा जायेगा ! जब इसके दौरान ब्रिटिश सरकार या तो अपने विवेक से, या लोकमत के दबाव से अपना फैसला बदल देगी और दलित वर्गों के लिए, जातिगत (पृथक) चुनाव क्षेत्र बनाने की अपनी योजना वापस लेगी ! " उन्हें जेल से छोड देने की स्थिति में भी, उपवास जारी रहेगा !" तीन सप्ताह बाद रैस्मे मॅकडोनाल्ड ने गांधीजी के पत्र का जवाब दिया और सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए कहा "कि यह विरोधी दावे को न्यायसंगत रूप में संतुलित करने का प्रयास है !" ब्रिटिश प्रधान मंत्री और उनके सलाहकार समस्या के प्रति, गांधीजी के भावनात्मक और धार्मिक रूख को समझने में असमर्थ रहे ! उन्हें लगा कि इस उपवास में एक राजनीतिक लक्ष्य छुपा है ! उन्हें संदेह हुआ कि " सविनय अवज्ञा आंदोलन की विफलता से, गांधीजी की प्रतिष्ठा को जो धक्का लगा ! उसे पुनः प्राप्त करने के लिए, उनकी यह एक चाल है !" ब्रिटिश मंत्रीगण, इस विषय पर, गांधीजी की भावनाओं की गहराई को नाप नही सके ! इससे भी अधिक, यह की "दृष्टि में जो एक राजनीतिक समस्या थी, उसके समाधान के लिए उपवास करने की नैतिकता को वे एकदम ही समझ सके !" (यह मेरा आकलन है कि ! ब्रिटिश शासन गांधीजी की, भारत में अंग्रेजी शासन बांटो और राज करो की निति के कारण ! यह कम्यूनल अवार्ड के तहत, सबसे पहले मुसलमानो को, और सिखों तथा तथाकथित युरोपीयनो को , तो 1857 के बाद अलग - अलग तरह से इस्तेमाल कर रहे थे ! अब अस्पृश्यो को 1931 की राऊंड टेबल कॉंफ्रेंस की आड में ! मतलब भारत के कम-से-कम चार से पांच टुकडो की, नींव डालने की नीति लागू करने की कोशिश में ! महात्मा गांधीजी के उपवास को, जानबूझकर अनदेखी कर रहे थे ! यह मेरी राय है ! डॉ. सुरेश खैरनार- उपवास उन्हें जोर-जबरदस्ती का एक छद्म रुप ही प्रतीत हुआ ! गांधीजी के उपवासों के प्रति ब्रिटिश प्रतिक्रिया को ! डेविड लो ने अपने कार्टून '1933 की भविष्यवाणी' में अच्छी तरह चित्रित किया था ! इसमें भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड विलिंग्टन को भूख हड़ताल पर बैठते हुए दिखाया गया था ! क्योंकि 10 डाऊंनिग स्ट्रीट का आदेश था कि ' गांधीजी को नया संविधान स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाय !' क्या उपवास जोर - जबरदस्ती का एक तरीका था ? गांधीजी जानते थे कि ! उनके उपवासों से एक नैतिक दबाव पैदा होता है ! लेकिन वह दबाव उनसे असहमत होने वाले पर नही, बल्कि उनपर अधिक पड़ता था, जो उनसे प्रेम करते थे, और उनमें आस्था रखते थे ! वे उनकी आत्मा में दर्द पैदा करने चाहते थे, और एक अमानुषिक सामाजिक अन्याय उत्पन्न अपनी व्यथा उन तक पहुंचाना चाहते थे ! उन्हे यह उम्मीद नहीं थी कि ! उनके आलोचक भी वैसे ही प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे, जैसी उनके मित्र और सहकर्मी व्यक्त करते हैं ! उनका विश्वास था कि, यदि उनका आत्मबलिदान भारत के उन करोड़ों लोगों के सामने, जिससे वे एकात्म हो चुके थे, उनकी सच्चाई को प्रदर्शित कर सका, तो आधी से अधिक लडाई तो जीत ही गई ! एक बार अमेरिकी मिशनरी ई स्टेनली जोंस ने, यरवदा जेल में गांधीजी से पुछाः"क्या आपका उपवास जोर - जबरदस्ती का ही एक रुप नही है ?" गांधीजी का उत्तर थाः " हाँः है; यह वैसी ही जोर - जबरदस्ती है, जैसे जीजस सलीब पर से आपके उपर करते हैं !" उपवास सलीब को माध्यम बनाकर, मुद्दे को स्पष्ट करने का उपक्रम है ! हालांकि प्रकट में यह तर्क दबाता दिखता है, पर वास्तव में इसका लक्ष्य जडता और पूर्वाग्रह के मिश्रण से बुद्धि को मुक्त करना है, जिसने सदियों से हिंदू समाज को एक कुत्सित सामाजिक अन्याय सहने के लिए बाध्य किया है ! इस समाचार से गांधीजी उपवास करने वाले हैं ! एक कोने से दुसरे कोने तक पूरे भारत को हिला दिया ! 20 सितंबर 1932 जिस दिन उपवास आरंभ हुआ, देश में उपवास और प्रार्थना दिवस के रूप में मनाया गया ! शांतिनिकेतन में रवींद्र नाथ टैगोर ने, काले कपड़े पहनकर ! एक विशाल जनसमूह के सामने, उपवास पर और युगों पुरानी कुप्रथा के विरुद्ध, लडने की आवश्यकता पर भाषण दिया ! भावना का एक सहज ज्वार उठने लगा, मंदिरों, कुओं और सार्वजनिक स्थानों को अछूतो के लिए खोल दिया गया ! सवर्ण हिंदुओ और अछूतो का एक संम्मेलन पूना में बुलाया गया ! जिसका उद्देश्य एक वैकल्पिक निर्वाचन व्यवस्था की खोज करना था, जो अंग्रेजो के सांप्रदायिक निर्णय के उन प्रावधानों का स्थान लें सकें, जिन्होंने गांधीजी को चरम बलिदान के लिए प्रेरित किया था ! एक समझौता हो गया, लेकिन बहुत शीघ्र नही ! गांधीजी के बिस्तर के पास बैठकर, दलित वर्गों के लिए जो काल्पनिक निर्वाचन व्यवस्था बनाई गई, उसमे कहा गया "कि दलित वर्गों के मतदाता एक प्राथमिक चुनाव करेंगे, और हर स्थान के लिए चार उम्मीदवार चुनेंगे ! ये उम्मीदवार सवर्ण हिंदुओ और दलित वर्गों द्वारा, संयुक्त चुनाव के लिए स्वयं को प्रस्तुत करेंगे !" प्रांतीय विधानमंडलो में दलित वर्गो के स्थानो की संख्या, जो ब्रिटिश निर्णय के अनुसार 71 थी ! बढाकर 148 कर दी गई ! स्थानों का यह आरक्षण तब तक चलना था ! जब तक आपसी समझौते से इसे समाप्त न कर दिया जाए ! 'पूना पैक्ट' के नाम से जानी गई, इस निर्वाचन व्यवस्था को ब्रिटिश सरकारने स्वीकार किया, और गांधीजी ने 26 सितंबर 1932 को रवींद्रनाथ टैगोर की उपस्थिति में अपना उपवास तोड़ दिया ! बाद मे हिंदु नेताओं ने, विशेष कर बंगाल में, गांधीजी की आलोचना की और कहा कि उन्होंने दलित वर्गों को बहुत कुछ दे डाला ; पर इस संवैधानिक हिसाब से उन्हें घृणा थी ! वे महसूस करते थे "कि अतीत में सवर्ण हिंदुओं ने अपने कमजोर भाईयों के साथ जो अत्याचार किए हैं, उन्हें देखते हुए कुछ भी करके अधिक उदार वे नही कहला सकते !" इस उपवास का कम-से-कम एक तो उत्तम परिणाम निकला कि दलित वर्गों के लिए, पृथक चुनाव क्षेत्रों की बात खत्म कर दी गई ! भारतीय राजनीति में एक कील की तरह गडे, प्रतिनिधित्व के इस तरीके का छलपूर्ण प्रभाव अगले दशक में पूर्णतः प्रकट हो गया ! 1909 में सुधारों की मोर्ले - मिंटो योजना के अंतर्गत लागू किए गए, पृथक चुनाव - क्षेत्रों ने ! मुस्लिम अलगाववाद के विकास के लिए, एक संस्थागत आधार निर्मित कर दिया था ! इसके तेईस वर्ष बाद राष्ट्रीय मोर्चे में एक बड़ी दरार डाल देने के ! वैसे ही प्रयास को, गांधीजी के उपवास ने विफल कर दिया ! 1932 में यदि पूना पैक्ट के द्वारा सांप्रदायिक निर्णय में संशोधन न किया होता ! तो 1945 - 47 के वर्षों में भारत की राजनीतिक समस्या का समाधान, वस्तुतः जितना कठिन था, उससे अधिक, असिमीत रूप में कठिन हो गया होता ! सत्ता हस्तांतरण के लिए, बातचीत के दौरान अंबेडकरजी ने दावा किया कि ! "उनका अनुसूचित जाति संघ पूरी छः करोड़ अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व करता हैं और केवल वही उनके एकमात्र प्रामाणिक प्रतिनिधि है !" उन्होंने तर्क दिया कि ! "अनूसुचित जातियों को विशेष संरक्षणो की, और अल्प संख्यक के रूप में मान्यता को, ठीक वैसे ही जरूरत है, जैसी मुस्लिम संप्रदाय को दी गई है ! 'सवर्ण हिंदुओं के प्रभुत्व' की निंदा करते हुए वे बहुत कुछ जिन्ना के मुहावरे में बोले ! उन्होंने अनुसूचित जातियों के लिए पृथक चुनाव - क्षेत्रों और यहां तक कि पृथक चुनाव निर्णयों की मांग की ! अंग्रेजो के मन में अंबेडकर के लिए एक कमजोरी थी ! वे 1942 की वायसराय परिषद के सदस्य थे ! 1945 में शिमला सम्मेलन में बहस के दौरान अंतरिम सरकार के लिए बनी सूची में लार्ड वेवेल ने उनका नाम शामिल किया, पर 1946 के प्रारंभ में प्रांतीय विधानमंडलो के लिए आम चुनावों के बाद स्थिति बदल गई ! कांग्रेस ने अंबेडकर के दल को उखाड़ फेंका ! अब अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें मान्यता देना सरकार के लिए भी असंभव हो गया ! अंबेडकर ने 1946 में संयुक्त चुनाव क्षेत्रों के अंतर्गत हुए चुनावों के परिणामों पर, प्रश्न चिन्ह लगाया, सवर्ण हिंदुओं के अत्याचारों के विरुद्ध विषवमन किया और सीधी कारवाई की धमकी दी ! उन्होंने प्रधानमंत्री एटली से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया ! तो एटली को सलाह दी गई कि "वे अंबेडकर के विरोध की परवाह न करें !" यदि गांधीजी ने 1932 में उपवास न रखा होता और जातिगत निर्णय में दिए गए, पृथक चुनाव क्षेत्रों को पूना समझौते के द्वारा, बदला नहीं गया होता तो, सभंवतः मुस्लिम अलगाववाद, और रियासतों के हठपूर्ण रवैये के कारण ! पहले से ही दुरूह बनी 1946 - 47 की बातचीत की गुथियां, अनुसूचित जातियों की समस्या के अतिरिक्त भार से, और भी उलझ जाती ! संविधानिक व्यवस्था तो संयोगवश अगले तीन वर्षों तक लागू नहीं हो पाई, पर इससे अधिक महत्वपूर्ण थी भावनात्मक विरेचन की वह प्रक्रिया ! जिससे होकर हिंदु समाज गुजरा ! जैसा कि गांधीजी ने माना था, उपवास का प्रयोजन " हिंदु समाज की अंतरात्मा में चुभन पैदा करके ! उसे सही धार्मिक क्रियान्वयन की ओर, उन्मुख करना ही था !" दलित वर्गों के लिए पृथक चुनाव - क्षेत्रों की समाप्ति छुआछूत के अंत की शुरुआत बन जानी थी ! इतिहास में समाजसुधार के सबसे बडे आंदोलनों में से एक आंदोलन एक राजकीय बंदी ने छेडा ! गांधीजी ने अपने अनगिनत संवाददाताओं के लिए वक्तव्यों और पत्रों की एक झड़ी लगा दी, ताकि छुआछूत की बुराई से लोगों को अवगत व शिक्षित किया जा सके ! उन्होंने इस आंदोलन को गति देने के लिए एक साप्ताहिक पत्रिका 'हरिजन' के प्रकाशन की व्यवस्था की ! 'हरिजन' शब्द का अर्थ होता है, ईश्वर की संतान ! यह नाम गांधीजी ने अंत्यजो, अछूतों को दिया था! गांधीजी ने लिखा कि संसार के सभी धर्मों में ईश्वर को प्रथमतः मित्रहीनो का मित्र, असाहयो का सहायक और कमजोरो का संरक्षक बताया गया है ! अछूत नाम से वर्गीकृत चार करोड़, हिंदुओं से अधिक मित्रहीन, असहाय और कमजोर और कौन होगा ? " गांधीजी को इस बात में संदेह था कि हिंदु धर्म ग्रंथों में अस्पृश्यता के समर्थन में कुछ भी लिखा गया है ! यदि किसी प्राचीन पांडुलिपि में से इस क्रुरता के अनुमोदन में कुछ उद्घत करना संभव भी हुआ तो गांधीजी उससे बंधे नही ! हर धर्मशास्त्र में कुछ चरम सत्य लिखे होते है ! लेकिन समसामयिक समाज के लिए संगतपूर्ण कुछ निषेधाज्ञाए भी उसमे रहती है ! यदि इनसे मानव गरिमा को क्षति पहुंची है तो इनकी उपेक्षा की जा सकती है ! हरिजन का एक बड़ा हिस्सा गांधीजी स्वयं लिखते थे ! हिंदुओं के अंतरंग से छुआछूत के पाप को बाहर खींच लाने और अछूतों की उस दर्दनाक स्थिति को शब्द - चित्र में अंकित कर प्रकाशित करने की पहल गांधीजी ने ही की ! जेल से छुटने के बाद हिंदुत्व को छुआछूत की बुराई से मुक्त करने के लिए वे 12500 मील लंबी यात्रा पर निकल पड़े ! उन्होंने हिंदुओं से आग्रह किया कि वे हरिजनो के विरुध्द अपने पूर्वग्रहों का त्याग करे और हरिजनो से निवेदन किया कि वह नशीले पदार्थो और शराब का सेवन छोड़ दें, क्योंकि हिंदु समाज में हिलमिल जाने में यह आदत सबसे बड़ी बाधा थी ! उन्होंने इस अंधविश्वास का मजाक उड़ाया कि कोई व्यक्ति जन्म से ही अपवित्र हो सकता है !ई अथवा किसी एक मनुष्य की छाया या उसका स्पर्श मात्र दूसरे को गंदा कर सकता है ! हरिजन फंड के लिए धन इकठ्ठा करने के लिए उन्होंने अपने आपको थका डाला ! दस महीनों में उन्हें आठ लाख रुपये प्राप्त हुए ! यह राशि वे किसी महाराजा अथवा करोड़पति से उपहार के रूप में ले सकते थे ; लेकिन वैसे धन इकठ्ठा करने को वे अधिक महत्व नहीं देते थे ! करोड़ों पुरुष - स्री और बच्चे जिन्होने उनके कटोरे में पैसे डालें - छुआछूत के विरुध्द उनकी लड़ाई में साथी - सैनिक बन गए ! यह हरिजन यात्रा एक विजय यात्रा बिल्कुल नहीं रही ! गांधीजी एक युगों पुरानी क्रुरता पर और लंबे समय से स्थापित निहित स्वार्थों पर आघात कर रहे थे, जबकि उन्हें मालूम था कि ये स्वार्थ अपनी रक्षा मे किसी बात से भी पीछे रहने वाले नही ! कट्टरपंथी हिंदुओ ने एक खतरनाक हिंदुद्रोह का आरोप उनपर लगाया, काले झंडे लेकर प्रदर्शन किए, उन्हें बोलने नही दिया और उनकी सभाओं को तोड़ने की कोशिश की ! 25 जून 1934 को जब वे पूना में नगरपालिका भवन की ओर जा रहे थे, उनके प्रतिनिधिमंडल पर बम फेंका गया ! गांधीजी को चोट नहीं आई पर सात व्यक्ति घायल हो गए ! बम फेंकने वाले अज्ञात व्यक्ति के प्रति उन्होंने गहरी करुणा व्यक्त की ! उन्होंने कहा! मैं शहीद बनने के लिये तिलमिला नही रहा हूँ, पर यदि उस अवस्था को कार्यरूप देने मे जिसे मैं अपना सर्वोच्च कर्तव्य मानता हूँ, और करोडो हिंदू जिसमें मेरे साथ एकमत हैं, वह मेरे रास्ते में आ ही जाए, तो मैं समझूँगा कि मैंने उसे ठीक ही अर्जित किया है ! यद्यपि कट्टरपंथी हिंदुओ का विरोध कठिनाई से ढीला पड़ा, और उग्र हरिजन नेता भी उनकी आलोचना ही करते रहे, तब भी गांधीजी एक अति प्राचीन फोडे को चीरा लगाने में सफल रहे ! अग्रिम पंक्ति के राष्ट्रीय नेता राजगोपालाचारी ने 'क्रांति पूरी हुई ' शीर्षक से एक लेख लिखा था :"अब सिर्फ मलवे को हटाना बाकी है !" यह एक आशावादी उक्ति थी पर इसमे संदेह नहीं कि सुधारवादियों ने एक अच्छा आरंभ किया था ! 1937-39 के कांग्रेस मंत्रिमंडलो ने हरिजनो की कुछ कानूनी अक्षमताओ को दूर कर दिया था और 1952 में लागू हूए भारत संघ - राज्य के संविधान में छुआछूत को गैर- कानूनी करार दिया गया ! एक सामाजिक और आर्थिक सभी मोर्चो पर निरंतर संघर्ष की जरुरत थी, पर इसमें भी संदेह नहीं कि गांधीजी के आंदोलन ने उन सभी मोर्चो को जड तक हिलाया ! यद्यपि छुआछूत के प्रति गांधीजी का विरोधात्मक तेवर अविचल और अटल था, पर छुआछूत जिस जाति - प्रथा की विकृत उपज थी उसके प्रति दक्षिणी अफ्रीका से वापसी के आरंभिक वर्षों में उनका रूख कुछ दुविधापूर्ण था ! हिंदू पुराण - ग्रथों ने उनके सामने प्राचीन भारत की वर्णाश्रम व्यवस्था का एक रोमानी चित्र प्रस्तुत किया था ! उस काल में इस मुलभूत चतुर्विध विभाजन में जातियाँ व्यवसायिक संघो के समकक्ष थी और जन्म ही एकमात्र सामाजिक स्तर एवं प्रतिष्ठा का निर्धारक नही था ! गांधीजी को लगा कि अपने प्रकट दोषों के बावजूद इस प्रणाली ने उथल-पुथल के उन युगो में बाहरी दबाओ को सोख लेने का काम किया हैः वे सोचते थे कि क्या इसकी मूलभूत पवित्रता वापस आ सकती है और हिंदू समाज की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप इसे ढाला जा सकता है ? जाति - प्रथा के प्रति उनकी प्रशंसात्मक टिप्पणियां, जिन्हें अक्सर उनके विरुद्ध उद्घत किया जाता है, इसी पृष्ठभूमि में की गई है ! यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि जाति - प्रथा के अनुकूल जो भी विचार उन्होंने व्यक्त किए, वे उनके विश्वास के अनुसार जैसी वह व्यवस्था उस सुदूर अतीत में थी उसके बारे में है, न कि जैसी वह उनके समय में बन गई, उसके बारे में ! भारत के सामाजिक परिदृश्य को प्रत्यक्ष और निकट से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया था कि अंधविश्वासों, छुई - मुईवाद, सामाजिक विषमता और भेदभाव ने इस प्रथा को इतना सडा दिया है कि यह सुधार के लायक नहीं रह गई है ! जाति - प्रथा के प्रति गांधीजी का रुख निरंतर सख्त होता दिखाई देता है ! दिसंबर 1920 में उन्होंने लिखा था "मै सिर्फ इन चार विभाजनों को मुलभूत, नैसर्गिक और आवश्यक मानता हूँ ! अनगिनत उपजातियां कभी सुविधाजनक हो जाती है, पर अक्सर रुकावटें पैदा करती है ! जितनी जल्दी वे परस्पर घुलमिल जाए उतना ही अच्छा है !" पंद्रह वर्ष बाद उन्होंने घोषणा की कि शास्त्रों में वर्णित वर्णाश्रम आज व्यवहार में अस्तित्वहीन है ! आज की जाति - प्रथा वर्णाश्रम से एकदम उलट है ! सार्वजनिक राय से इसे जितनी जल्दी समाप्त किया जाय उतना ही अच्छा है !" उन्होंने सुझाव दिया कि सभी हिंदू स्वेच्छा से अपने आपको शुद्र कहे, वे शुद्र जो सामाजिक सीढी में सबसे नीचे माना जाता है!" उन्होंने इस विचार का खंडन किया कि छुआछूत हिंदू संस्कृति का एक अनिवार्य अंग है ! उन्होंने कहा "यह एक महामारी है जिससे लडना हर हिंदू का परम कर्तव्य है ! "1920 के दशक में विभिन्न जातियों के लोगों के एक साथ खाने और परस्पर विवाह करने पर लगे प्रतिबंधों के अनुमोदन के लिए तैयार थे, क्योंकि वे इन्हें आत्मनियंत्रण के माध्यम मानते थे ! पर 1930 के दशक में जाति - प्रथा अथवा स्थानीय पूर्वाग्रह से उत्पन्न किसी भी वर्जना की वे खुलकर निंदा करते थे ! उन्होंने लिखा है "कोई व्यक्ति - स्रती या - पुरुष - कहाँ विवाह करता है या किसके साथ खाता है, यह उसकी उन्मुक्त इच्छा पर छोड़ दिया जाना चाहिए" यदि भारत एक है और अविभाज्य है तो निश्चय ही इसमें अनगिनत छोटे - छोटे समुहो को जन्म देनेवाले कृत्रिम विभाजन नही होने चाहिए, जो न एक दूसरे के साथ बैठकर खाना खा सके और न परस्पर विवाह कर सके ! " 1946 में गांधीजी ने एक चौका देनेवाली घोषणा की कि उनके सेवाग्राम स्थित आश्रम में कोई विवाह - संस्कार तबतक नही किया जाएगा जब तक वर - वधू में से एक जन्म से अछूत न हो ! आरंभिक वर्षों में जाति - प्रथा पर सीधी चोट करने में गांधीजी की हिचकिचाहट महज एक राजनीतिक कौशल हो सकती है ! 1956 में हंगेरी के पत्रकार टाईबर मेंडे से बातचीत को जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रकार किया है : "मैंने गांधीजी से बार - बार कहा : आप जाति - प्रथा पर सीधी चोट क्यों नहीं करते ? तो उन्होंने कहा कि वे आदर्श व्यवसायिक संघठनो में व्यक्त होनेवाले रूप के अलावा जाति - प्रथा में विश्वास नहीं रखते ! वर्तमान जाति - प्रथा संपूर्णतया अहितकर है और इसे समाप्त करना ही होगा ! उन्होंने कहा "मै छुआछूत की समस्या का सामना करके इसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर रहा हूँ !" इस तरह आप देखते हैं कि किसी एक बात को हाथ में लेने के और उस पर ध्यान केंद्रित करने का उनका एक अलग तरीका था ! उन्होंने कहा था "यदि छुआछूत नष्ट हो जाती है तो जाति - प्रथा भी नष्ट हो जाएगी ! "

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