रविवार, 20 अक्टूबर 2024

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बिहार 85 साल कम नहीं होते - राजेंद्र राजन

85 साल कम नहीं होते राजेंद्र राजन देश की कम्युनिस्ट पार्टी की स्धापना के 14 साल बाद बिहार में 85 साल पहले 20 अक्टूबर 1939 को मुंगेर में कम्युनिस्ट पार्टी बनी थी। इसके पहले कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ होकर कम्युनिस्ट राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय थे। द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर था। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी राष्ट्रवादी विचारों से ग्रसित हो गई थी। कम्युनिस्ट पार्टी गैरकानूनी थी। विपरीत परिस्थितियों में भी महासचिव पीसी जोशी के परामर्श से बिहार में पार्टी बनाने की तैयारी हो गई। क्रांतिकारी आंदोलन से होकर सुनील मुखर्जी कलकत्ता में कम्युनिस्ट बन चुके थे। राहुल सांकृत्यायन भी पहले से ही कम्युनिस्ट हो चुके थे। सेंट्रल कमिटी से रुद्रदत्त भारद्वाज छिपकर मुंगेर आए। सुनील मुखर्जी की बहन के गंगा किनारे स्थित घर में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन काल में हंगामे के बीच स्थापना बैठक पुलिस और सीआईडी की आंखों में धूल झोंक कर संपन्न हुई थी । कुल 17 सदस्य वहां जुटे थे। सुनील मुखर्जी प्रथम सचिव चुने गए। मार्क्सवादी विचारधारा के प्रचार पर ज्यादा ध्यान दिया गया। तेजी से संगठन और आंदोलन विकसित होने लगे। सेंट्रल कमिटी ने छात्र, औद्योगिक मजदूर और किसान मोर्चे के आंदोलनों में समय देने का निर्देश दिया। फलस्वरूपदूसरे दौर में जल्दी ही इन्द्रदीप सिंहा ,जगन्नाथ सरकार , चन्द्रशेखर सिंह और अली अशरफ सरीखे उस वक्त के तेजस्वी एवं मेधावी छात्र नेता पार्टी में आ गए। कुछ ही दिनों बाद प्रसिद्ध समाजवादी नेता किशोरी प्रसन्न सिंह ,फिर कार्यानंद शर्मा, रामावतार शास्त्री आदि आ गए। जमशेदपुर ,धनवाद ,भागलपुर ,मुजफ्फरपुर ,गया ,चंपारण ,पटना आदि प्रमुख केन्द्रों में भी संगठन बने और आंदोलनों की धूम मच गई। संघर्षों ने एक नई पार्टी और नए नेताओं को जन्म दिया। 1942 में राहुल सांकृत्यायन ने पटना कालेज के सामने जमीन खरीद कर किताब की दुकान पीपुल्स बुक हाउस खोला। पार्टी के नेताओं ने जमीन ,घर बेचकर जनशक्ति अखबार निकाला, प्रेस खोला। संसदीय राजनीति में भी पार्टी ने गौरवशाली अध्याय आरंभ किया। बिहार के मुख्यमंत्री डाक्टर श्रीकृष्ण सिंह के मुकाबले कम्युनिस्ट भोला प्रसाद उम्मीदवार बने। कांग्रेस को पानी पिला दिया। किसी प्रकार बुथ कब्जा कर वे जीत सके। संपूर्ण बिहार में तीब्र गति से लाल झंडे का प्रभाव बढा। स्वामी सहजानंद सरस्वती के अधिकांश किसान नेता कम्युनिस्ट बन गए। भूमि संघर्षों का जाल बिछ गया। औद्योगिक क्षेत्रों में संघर्ष ,हड़ताल होने लगे। सामंती उत्पीड़न के विरुद्ध जातीय नहीं ,वर्गीय संघर्ष तेज हो गए। नए -नए संघर्षों ने नये ,नये नेताओं को जन्म दिया। आज के समय में यह सवाल अक्सर पूछा जाता है , मार्क्सवादी वैज्ञानिक विश्वदृष्टि ,चेतना और गौरवशाली अतीत की विरासत संपन्न कम्युनिस्ट आंदोलन की वर्तमान में पतनोन्मुख अवस्था क्यों है? इस सवाल पर स्थापना दिवस के निमित्त गंभीर विमर्श की दरकार है। कम्युनिस्ट सिद्धांतकार ,संगठन कर्ता और आंदोलनकर्ता तीनों होता है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस विषय पर न्याय करेंगे। जहां तक मेरी सोच है , 80 के करीब पहुंच जाने और उम्र जनित व्याधियों एवं समस्याओं से पीड़ित होकर भले ही आजकल मूलधारा से अपरिहार्य कारणों से दूर हूँ , लेकिन विभिन्न मोर्चे और स्तरों पर लगभग पचपन वर्षो के सक्रिय योगदान के फलस्वरूप प्राप्त अनुभवों और मार्क्सवाद के बुनियादी दृष्टिकोण के आधार पर जितना समझा हूँ , एक कम्युनिस्ट ( नन कार्ड होल्डर ) की हैसियत से कह सकता हूँ - 1) सैद्धान्तिक विमर्श ,जिसे छोड़ दिया गया है , जिंदा करना होगा। इसके अभाव में सूखी नदी में मछली पालने का अभ्यास होगा। मार्क्सवादी साहित्य ,पत्र-पत्रिकाओं के पठन-पाठन और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना जरूरी है। इसके अभाव में सिद्धांत विहीन संगठन से नाउम्मीदी बढ रही है। व्यवस्था परिवर्तन का एजेंडा आज गायब है। संसदीय लाभ अपनी मूल पहचान खोकर नहीं पाया जा सकता है। जातिवादी पार्टियों का दूमछल्ला बनने से अपने धरती ही गायब हो जाती है सिद्धांतों के अनुरूप जीवन और चरित्र निर्माण जरूरी है। कथनी और करनी एक हो। 2) वर्गीय संघर्ष और जनांदोलनों के अपने गौरवशाली इतिहास से सबक लेकर संघर्षोंन्मुख पार्टी बनाने पर पहल। तभी नये नेता जन्म लेंगे। सर्कुलरों और सम्मेलनों को विकल्प नहीं बनाया जा सकता है। नेतृत्व को प्रत्यक्ष भागीदारी देने केलिए आगे आना होगा। संसदीय भटकाव ,पदलोलुपता और गुटबाजी को खत्म करना होगा। 3) नए ईमानदार कार्यकर्ताओं को विश्वास देकर आगे बढ़ाने पर योजनाबद्ध निरंतर पहल। पार्टी और विचारधारा की वफादारी को बढाना ,न कि खास व्यक्ति और गुट का वफादार बनाना। 4) जनसंगठनों एवं जनांदोलनों के स्वतंत्र विकास पर बल देना। जेबी जनसंगठनों से विकृति बढती है। नुमाइशी जनसंगठनों से जनांदोलनों के प्रहसन होते हैं। 5) संगठित कम्युनिस्टों की तुलना में असंगठित कम्युनिस्टों की तादाद तीन गुना ज्यादा है। उन्हें जोड़ने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। 6)चापलूसी करने और कराने वाले कम्युनिस्ट नहीं हो सकते हैं। उनसे मुक्ति जरूरी है। जाति उन्मुलन विचारधारा को मजबूती प्रदान करना जरुरी है। साम्प्रदायिकता से सीधा टकराव करना अनिवार्य है। फिलहाल यही। 85 साल कम नहीं होते। क्या पाया ,क्या खोया ,वक्त आ गया है ,सभी मिल विचारें।

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