गुरुवार, 25 दिसंबर 2025
वक़्त की धारा में हँसिए की धार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल
वक़्त की धारा में हँसिए की धार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास 1917 की रूसी क्रांति के तुरंत बाद शुरू होता है, उसकी हालत हमेशा आज जैसी नहीं थी
नासिरुद्दीन
बीबीसी हिंदी
सौ साल पहले ब्रितानी हुकूमत के दौर में भारत में दो अलग विचारों वाले संगठन बने, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज कई तरह की मुश्किलों का सामना करती दिख रही है, वहीं आरएसएस इतना मज़बूत पहले कभी नहीं रहा.
हम यहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल के सफ़र के कुछ अहम पड़ावों का ज़िक्र कर रहे हैं.
भारत में कम्युनिस्ट विचार की आमद
बीसवीं सदी के दूसरे दशक में कांग्रेस और महात्मा गांधी नेतृत्व में आज़ादी के आंदोलन में तेज़ी आई.
इस दशक में ही (1917) रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई. उसके बाद दुनिया के कई देशों में कम्युनिस्ट विचार का असर तेज़ी से दिखने लगा.
विदेशों में रह रहे कुछ भारतीय और ख़िलाफ़त आंदोलन से जुड़े लोग भी रूस पहुँचे. इनमें से कुछ ने वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की कोशिश की.
साल था 1920. चूँकि, यह बहुत छोटा समूह भारत से बाहर था, इसलिए बात आगे नहीं बढ़ी.
इतिहासकार सुमित सरकार 'आधुनिक भारत' में लिखते हैं, "भारतीय कम्युनिज़्म की जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर से ही फूटी थीं. वे क्रांतिकारी जिनका मोहभंग हो चुका था, असहयोग आंदोलनकारी, ख़िलाफ़त आंदोलनकारी, श्रमिक और किसान आंदोलनों के सदस्य राजनीतिक और सामाजिक उद्धार के नए मार्ग खोज रहे थे."
इस दौर के बारे में 'इंडियाज़ स्ट्रगल फ़ॉर इंडिपेंडेंस'में इतिहासकार प्रोफ़ेसर बिपिन चंद्रा लिखते हैं, "भारत में 1920 के दशक के आख़िरी दौर और 1930 के दशक में एक मज़बूत वामपंथी समूह उभरने लगा. राजनीतिक आज़ादी का मक़सद ज़्यादा साफ़ हुआ और यह सामाजिक-आर्थिक स्वरूप ग्रहण करने लगा."
"आज़ादी की राष्ट्रीय लड़ाई की धारा और शोषित वर्गों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति की लड़ाई- दोनों धाराएँ एक-दूसरे के निकट आने लगीं. समाजवादी विचार भारत की ज़मीन में जड़ें जमाने लगे."
बिपिन चंद्रा लिखते हैं, "यह भारतीय युवाओं का पसंदीदा आदर्श बन गया. इसके प्रतीक जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस थे. धीरे-धीरे इस धारा की दो शक्तिशाली पार्टियाँ उभरीं- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी)."
बंबई के श्रीपाद अमृत डांगे ने सबसे पहले सभी वामपंथी समूहों का एक खुला सम्मेलन करने का विचार दिया था.
इसी बीच क्रांतिकारी सत्यभक्त कानपुर आए. उन्हें 'इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी' यानी 'भारतीय साम्यवादी दल' बनाने का ख़याल आया.
साल 1925 के दिसंबर में उन्होंने एक राष्ट्रीय सम्मेलन की घोषणा की.
साल 1978 में दिए गए एक इंटरव्यू में सत्यभक्त ने बताया था, "कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के समय मेरे मुख्य सहायक मौलाना हसरत मोहानी, राधामोहन गोकुलजी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, चार लोग ही थे. वैसे तो हसरत साहब लीग से, राधामोहन जी हिन्दू सभा से, अरोड़ा जी कांग्रेस से और सुरेश बाबू क्रांतिकारी दल से संबंधित थे, लेकिन वे सब आर्थिक क्षेत्र में कम्युनिज़्म के सिद्धांत को ठीक समझते थे और उनसे मेरा व्यक्तिगत संपर्क भी था."
(‘सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी‘, लेखक- कर्मेंदु शिशिर, लोकमित्र)
इस तरह 26 से 28 दिसंबर 1925 को कानपुर में भारतीय कम्युनिस्टों का स्थापना सम्मेलन हुआ. इसमें क़रीब 500 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया.
स्वागत समिति के अध्यक्ष के तौर पर मौलाना हसरत मोहानी ने कहा था, "कम्युनिज़्म का आंदोलन, किसानों और मज़दूरों का आंदोलन है. हमारा मक़सद है, सही रास्ते पर चलते हुए स्वराज या पूरी आज़ादी की स्थापना करना."
पार्टी का नाम रखा गया- 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया. मक़सद तय हुआ- 'ब्रितानी साम्राज्यवादी शासन से भारत की मुक्ति, उत्पादन और वितरण के साधनों का समाजीकरण और इसके आधार पर मज़दूरों और किसानों का गणराज्य बनाना.'
सदस्यता के लिए एक अहम शर्त थी, "अगर कोई भारत में किसी सांप्रदायिक संगठन का सदस्य है, तो वह कम्युनिस्ट पार्टी में सदस्य के तौर पर शामिल नहीं होगा."
(‘डॉक्यूमेंट्स ऑफ़ द हिस्ट्री ऑफ़ द कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’)
बाद के दिनों में कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच बुनयिाद के साल के बारे में मतभेद रहा. कुछ कम्युनिस्ट पार्टियाँ इसका साल 1920 मानती हैं. हालाँकि,भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मानती है कि उसकी बुनियाद का साल 1925 है.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद से पहले साल 1921-22 में ही कांग्रेस के साथ जुड़े कम्युनिस्ट रुझान के मौलाना हसरत मोहानी, स्वामी कुमारानंद, एम. सिंगारवेलु जैसे नेताओं ने सबसे पहले पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास कराने की कोशिश की, लेकिन वे नाकाम रहे. मशहूर नारा ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ मौलाना हसरत मोहानी ने ही दिया था.
इसके सात साल बाद 1929 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव मंज़ूर किया.
[25/12, 7:08 pm] loksangharsha: षडयंत्रों का केस और सीपीआई
रूसी क्रांति के बाद अंग्रेज़ सरकार समाजवादी/ साम्यवादी विचार से बहुत सर्तक हो गई थी. इसलिए आज़ादी के आंदोलन के दौरान कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ कई ‘षडयंत्र केस’ चले.
ब्रितानी हुकूमत ने भारत में साल 1919 से 'बोल्शेविक एजेंटों और उनके प्रचार के ख़तरे' पर नज़र रखने के लिए ख़ास स्टाफ़ की नियुक्ति की.
इसे सीआईडी के ‘बोल्शेविक (विरोधी) विभाग’ के तौर पर जाना जाता था. इनके ज़रिए इकट्ठा रिपोर्ट ख़ुफ़िया विभाग के 'कम्युनिज़्म इन इंडिया' या कम्युनिज़्म एंड इंडिया' नाम के दस्तावेज़ों में देखी जा सकती हैं.
रूस से लौटते वक़्त कई भारतीय कम्युनिस्ट पकड़े गए थे. इन पर पेशावर में राजद्रोह का मुक़दमा चला और सज़ाएँ हुईं. इसे 'पेशावर षडयंत्र केस' के नाम से जाना गया. इसके बाद साल 1924 में अंग्रेज़ी हुकूमत ने कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ 'कानपुर में बोल्शेविक षडयंत्र केस' चलाया.
यह देखते हुए अंग्रेज़ी हुकूमत के दमन से बचने के लिए स्थापना के बाद कम्युनिस्टों ने अपना राजनीतिक काम 'पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी'(डब्ल्यूपीपी) के ज़रिए किया.
प्रोफ़ेसर बिपिन चंद्रा के मुताबिक़, "... कम्युनिस्ट इस पार्टी के सदस्य थे. डब्ल्यूपीपी का मूल मक़सद कांग्रेस के अंदर रहकर काम करना और इसे ज़्यादा रेडिकल नज़रिया देना था. इसे 'आम लोगों की पार्टी' बनाना था... इसके ज़रिए पहले पूर्ण स्वराज और आख़िरकार समाजवाद के मक़सद को हासिल करना था."
वे लिखते हैं, "डब्ल्यूपीपी बहुत तेज़ी से बढ़ी. बहुत ही थोड़े वक़्त में कांग्रेस के अंदर, ख़ासकर बंबई में कम्युनिस्टों का असर भी तेज़ी से बढ़ा. यही नहीं, जवाहरलाल नेहरू और दूसरे रेडिकल कांग्रेसियों ने कांग्रेस को रेडिकल बनाने में डब्ल्यूपीपी की कोशिशों का स्वागत किया."
हालाँकि, आगे चलकर डब्ल्यूपीपी ख़त्म हो गया.
मेरठ षडयंत्र केस
प्रोफ़ेसर बिपिन चंद्रा के मुताबिक़, "साल 1929 तक राष्ट्रीय और मज़दूर आंदोलनों में कम्युनिस्टों के तेज़ी से बढ़ते असर से सरकार बेहद फ़िक्रमंद थी. इसने सख़्त क़दम उठाने का फ़ैसला किया. मार्च 1929 में अचानक छापेमारी हुई. सरकार ने 32 रेडिकल राजनीतिक और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया."
"इन 32 लोगों पर मेरठ में मुक़दमा चलाया गया. मेरठ षड्यंत्र केस जल्द ही एक 'महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दा' बन गया. गिरफ़्तार लोगों की पैरवी का ज़िम्मा कई राष्ट्रवादी नेताओं ने संभाला. इनमें जवाहरलाल नेहरू, एमए अंसारी और एमसी छागला शामिल थे. गांधी मेरठ के क़ैदियों से अपनी एकजुटता दिखाने और आने वाले दिनों में होने वाले संघर्ष में उनकी मदद पाने के लिए उनसे मिलने जेल गए."
इसी कड़ी में लाहौर षड्यंत्र केस को भी जोड़ा जा सकता है. इस केस में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मौत की सज़ा हुई थी. इस केस के दौरान भी वामपंथी विचारों का काफ़ी प्रसार हुआ. भगत सिंह के एक साथी अजय घोष तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव भी बने.
आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी
बिपिन चंद्रा के मुताबिक़, साल 1939 में पीसी जोशी ने पार्टी के साप्ताहिक अख़बार नेशनल फ़्रंट में लिखा था, "आज सबसे बड़ा वर्ग संघर्ष हमारा राष्ट्रीय संघर्ष हैऔर इसका मुख्य संगठन कांग्रेस है."
बिपिन चंद्रा लिखते हैं, "कम्युनिस्ट अब कांग्रेस के अंदर बहुत मज़बूती से काम कर रहे थे. कई तो कांग्रेस की ज़िला और प्रांतीय समितियों में पदाधिकारी बने. लगभग 20 (कम्युनिस्ट) अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य थे."
इस बीच राष्ट्रीय आंदोलन में मार्क्सवाद, साम्यवाद और सोवियत संघ से प्रभावित युवाओं का एक और समूह उभरा.
इन्होंने जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव और मीनू मसानी की लीडरशिप में अक्तूबर 1934 में बंबई में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का गठन किया. ये कांग्रेस के अंदर ही रहकर काम कर रहे थे.
मार्क्सवादी विचारक और लेखक अनिल राजिमवाले इस वक़्त 77 साल के हैं. पिछले 58 साल से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं.
वे कहते हैं, "साल 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के बाद इसका गहरा असर देश की आज़ादी के आंदोलन पर पड़ा. उस वक़्त की जितनी धाराएँ थीं, उनमें कम्युनिज़्म और मार्क्सवाद के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई. वैज्ञानिक समाजवाद के प्रति बहस छिड़ी. इसके बाद कई अलग-अलग आंदोलनों के लोग, कम्युनिस्ट पार्टी के साथ आए."
इसीलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास को समझने के लिए आज़ादी के आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अंदर समाजवादी और वामपंथी धड़े, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक), किसान सभा, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए), ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन (एआईएसएफ़), महिला आत्मरक्षा समिति (एमएआरएस-मार्स), प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्ल्यूए), भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), ऑल इंडिया वीमेन कॉन्फ़्रेंस, वर्कर्स एंड पीज़ेंट्स पार्टी, भारत नौजवान सभा, लाल बावटा कला पथक, प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप वग़ैरह संगठनों के काम और असर को भी समझना ज़रूरी है.
बंबई में सीपीआई की पहली कांग्रेस
साल 1934 से 1942 तक सीपीआई पर पाबंदी लगी रही. उससे पहले और 1945 से 1947 के बीच भी पाबंदी जैसी ही हालत थी. इस दौरान पीसी जोशी महासचिव बने और पार्टी को नई दिशा मिली.
साल 1942 के बाद इसकी गतिविधियों में काफ़ी तेज़ी आई. संगठन का विस्तार हुआ.
इसके नतीजे में 23 मई से एक जून 1943 तक खुले तौर पर सीपीआई का पहला अधिवेशन या कांग्रेस का आयोजन हुआ. इस अधिवेशन में पूरे देश से 139 प्रतिनिधि शामिल हुए.
मशहूर कम्युनिस्ट डॉ. ज़ेडए अहमद अपने संस्मरण 'मेरे जीवन की कुछ यादें' में लिखते हैं, "1943 के बाद पूरे देश में कम्युनिस्ट पार्टी और उसके जन संगठनों का बड़ी तेज़ी से विकास हुआ. पार्टी के विकास में उसे क़ानूनी वैधता प्राप्त होना तथा कॉमरेड पीसी जोशी का कुशल नेतृत्व एक महत्वपूर्ण पहलू तो था ही, दूसरी ओर, संगठनों के जन संघर्ष तथा स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भूमिका उससे भी अधिक महत्वपूर्ण पहलू थी."
1940 का दशक और कम्युनिस्ट पार्टी
1930-40 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने या उससे जुड़े संगठनों के नज़दीक आने वालों में बौद्धिक, संस्कृति, कला और साहित्य जगत की कई नामचीन शख़्सियतें हैं. जैसे- गीतकार प्रेम धवन, मख़्दूम मोहिउद्दीन, कैफ़ी आज़मी, जाँनिसार अख़्तर, सज्जाद ज़हीर, रशीद जहाँ, साहिर लुधयानवी, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, अभिनेता बलरज साहनी, एके हंगल, दीना पाठक और ज़ोहरा सहगल, फ़िल्मकार ऋत्विक घटक, संगीतकार सलिल चौधरी, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, अली सरदार जाफ़री, अन्ना भाऊ साठे, अमर शेख़, डीएन गवनकर, मुक्तिबोध, सिब्ते हसन...
इससे जुड़े कलाकारों ने कला के साथ ज़िंदगी का रिश्ता जोड़ा. इसका असर 'धरती के लाल' और 'नीचा नगर' के बाद की फ़िल्मों की कहानी, गीत-संगीत पर साफ़ देखा जा सकता है.
चालीस के दशक में दो बड़ी घटनाएँ हुईं. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में अकाल और देश के पूर्वी इलाक़े में जापानी हमला.
अकाल की भयावह हालत दिखाते सुनील जाना के फ़ोटो, चित्तोप्रसाद, ज़ैनुल आब्दीन की कला, कम्युनिस्ट कलाकारों और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के सांस्कृतिक दल ने इस त्रासदी से पूरे देश को जोड़ने का काम किया.
सुमित सरकार का मानना है, "(दूसरे विश्व) युद्ध की समाप्ति तक कम्युनिस्ट पार्टी देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी, हालाँकि, कांग्रेस और (मुस्लिम) लीग की तुलना में यह अब भी अत्यंत कमज़ोर थी."
ब्रितानी हुकूमत से आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ कम्युनिस्ट किसानों और मज़दूरों के हक़ के लिए भी संघर्ष कर रहे थे. इनके नेतृत्व में कई बड़े आंदोलन हुए. इनमें केरल में नारियल के रेशे (कयर) बनाने वालों का विद्रोह, अवध में किसानों का लगान और टैक्सबंदी का संघर्ष, तेलंगाना में किसानों का सशस्त्र विद्रोह, बंगाल का तेभागा, महाराष्ट्र में वर्ली आदिवासियों का आंदोलन प्रमुख हैं.
मशहूर कम्युनिस्ट डॉ. ज़ेडए अहमद 'मेरे जीवन की कुछ यादें' में लिखते हैं, "अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने भी कई राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाए जिनमें 1946 की डाक तार विभाग एवं रेलवे की मज़दूरों की छँटनी के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय स्तर पर छह माह तक चली हड़ताल उल्लेखनीय है. भारत के इतिहास में यह (उस वक़्त तक की) सबसे बड़ी मज़दूर हड़ताल थी."
कम्युनिस्ट पार्टी ने उस दौर में कई माँगें उठाईं. बाद में ये राष्ट्रीय बन गईं. इनमें प्रमुख थीं- ज़मीन उस किसान की, जो उसे जोते. देश की दौलत देश के लोगों के हाथों में हो. काम के घंटे आठ हों. संगठन बनाने, मीटिंग, प्रदर्शन करने और हड़ताल का लोकतांत्रिक हक़ मिले. स्त्रियों और दलितों को सामाजिक बराबरी और इंसाफ़ मिले.
औरंं आज़ादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने क्या किया?
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आज़ादी का ख़ूब ज़ोर-शोर से स्वागत किया. उसके अख़बार के ख़ास अंक निकले. बंबई में पार्टी ने आज़ादी का जश्न मनाया.
कुछ सालों की अंदरूनी उथल-पुथल के बाद सीपीआई ने साल 1951-52 के पहले आम चुनाव में भाग लिया. कई राज्यों में पार्टी पर पाबंदी थी और कई नेता छिपकर काम कर रहे थे. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी. काफ़ी दूर ही सही, दूसरे नंबर पर सीपीआई थी.
सीपीआई के चुनाव निशान हँसिया और गेहूँ की बाली पर 61 उम्मीदवार लड़े और 25 जीते. इसके अलावा चार निर्दलीय उम्मीदवार भी सीपीआई की हिमायत से जीते. लोकसभा में ये सभी 29 एक ही समूह का हिस्सा थे. दूसरे लोकसभा चुनाव में इसने 122 सीटों पर चुनाव लड़ा और इसके समूह के सदस्यों की तादाद 30 थी.
यही नहीं, साल 1964 में पार्टी में टूट से पहले हुए तीन लोकसभा चुनावों में वह देश की मुख्य विपक्षी पार्टी थी.
यह दुनिया में एक नए तरह की कम्युनिस्ट राजनीति की शुरुआत थी. संसद के दोनों सदनों में कम्युनिस्ट सांसदों ने देश की अर्थव्यवस्था, मज़दूरों-किसानों, देश की विदेश नीति से जुड़े मुद्दे उठाए.
रेणु चक्रवर्ती, प्रोफ़ेसर हीरेन मुखर्जी, रवि नारायण रेड्डी, पार्वती कृष्णन, एसए डांगे, भूपेश गुप्ता, गीता मुखर्जी, भोगेन्द्र झा, सरजू पांडे, झारखंडे राय, इंद्रजीत गुप्ता, मोहम्मद इलियास, इसहाक़ संभली शुरुआती दौर के कुछ प्रमुख कम्युनिस्ट सांसद रहे हैं. यही नहीं, विपक्ष के पहले नेता भी भाकपा सांसद एके गोपालन थे.
केरल में पहली वामपंथी सरकार
वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में 15 साल पहले भारतीय राजनीति के इस अहम पड़ाव का ज़िक्र किया था.
वे लिखते हैं, "साल 1957 के दूसरे आम चुनाव में कुछ ऐसा हुआ कि पूरी दुनिया चौंक गई. ये वाक़या तुरंत ही एक अंतरराष्ट्रीय सनसनी बन गया. केरल में अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विधानसभा चुनाव जीत लिया था."
"वही केरल, जिसे उस वक़्त लोग 'भारत का समस्याओं से भरा राज्य' कहते थे. इस तरह दुनिया में पहली बार कोई कम्युनिस्ट पार्टी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव से सत्ता में आई. शुरुआती हैरानी और उत्साह धीरे-धीरे चिंता में बदल गए और यह चिंता देश के भीतर कम बल्कि बाहर की दुनिया में ज़्यादा थी."
केरल की सरकार ने सामाजिक-आर्थिक सुधार के कई क़दम उठाए. इन क़दमों ने समाज के मज़बूत वर्गों को नाराज़ कर दिया. वहाँ आंदोलन होने लगे. एक वक़्त ऐसा आया कि तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार ने साल 1959 में ईएमएस नंबूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया.
कम्युनिस्ट पार्टी का भविष्य
मौजूदा दौर की चुनावी राजनीति में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की हालत अच्छी नहीं दिखती. उसके पुराने गढ़ माने जाने वाले इलाक़े कमज़ोर हुए हैं. जैसे-बिहार.
एक वक़्त कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बिहार विधानसभा में विरोधी दल के नेता भी थे. इस बार के विधानसभा चुनाव में इसके एक भी उम्मीदवार को क़ामयाबी नहीं मिली.
मौजूदा लोकसभा और राज्यसभा में इसके दो-दो सदस्य हैं. हालाँकि, केरल में पिछले दो चुनावों से वाम जनवादी मोर्चा की सरकार है. सीपीआई इस सरकार का हिस्सा है.
इससे पहले सालों तक वामपंथी मोर्चे की सरकारें पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में भी रही हैं. एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या किसी विचार के असर को सिर्फ़ चुनावी कामयाबी के पैमाने पर तौला जा सकता है?
तो क्या नई पीढ़ी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ रही है?
अनिल राजिमवाले कहते हैं, "जुड़ रही है लेकिन जितने नौजवान आने चाहिए, उतने नहीं आ रहे हैं. हमें नए तबक़ों के बीच काम करने की ज़रूरत है. भारत जैसे देश में हथियारबंद संघर्ष और हथियारबंद क्रांति की कोई जगह नहीं है, इस देश में कई वामपंथी सरकारें बनी हैं. उससे सबक मिलता है, लोकतांत्रिक अधिकारों का सही इस्तेमाल किया जाए तो कम्युनिस्ट सत्ता में आ सकते हैं. सबसे बढ़कर, बदलती परिस्थिति के मुताबिक़ कम्युनिस्टों को बदलना होगा."
बी बी सी से साभार
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