बुधवार, 31 दिसंबर 2025

समाजवादी नेता राजनारायण के 39 वे पुण्यस्मरण दिवसपर विनम्र अभिवादन.

समाजवादी नेता राजनारायण के 39 वे पुण्यस्मरण दिवसपर विनम्र अभिवादन. लखनऊ के दोस्त शाहनवाज़ अहमद कादरी ने संपादित की हुई 512 पनौ की "राजनारायण एक नाम नहीं इतिहास है. " शीर्षक की किताब को पढ़ने के बाद सेल्फ कन्फेशन "हालांकि शाहनवाजजी इस किताब के लिए मुझसे काफी समय से मुझे भी आग्रह कर रहे थे "कि मैं भी राजनारायण जी पर कुछ लिखूं" लेकिन बचपन से ही, राष्ट्र सेवा दल और वह भी मुख्यतया महाराष्ट्र के समाजवादी नेताओं से राजनारायणजी के बारे में जो भी कुछ सुनते आया था वह एक हास्यास्पद व्यक्ति से आगे कुछ नहीं थे ऐसी छवि बनाने वाला मामला था.लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे यह बात स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं हो रहा है " कि मेरे मन में राजनारायणजी के बारे में बनी हुई छवी गलत थी." डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद सही मायने में उनके "जेल, वोट और फावडे का सिद्धांत" पर खरे उतरने वाले लोगों में, राजनारायणजी एक थे. यह इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे लग रहा है. आजादी के तीस साल पहले पैदा हुए राजनारायणजी ( 23 नवंबर 1917 ) कुलमिलाकर 69 साल की जींदगी जिएं (31 दिसंबर 1986 मृत्यु ) काशी के राज परीवार में पैदा हुए राजनारायणजी फकिर जैसा जीवन जीए थे. हालांकि चार बेटे और एक बेटी के पिता होने के बावजूद और खुद एक सामंती परिवार में पैदा होने के बावजूद अपने परिवार के किसी भी सदस्य को तथाकथित परिवारवादी राजनीतिक, उत्तराधिकारियों के जमाने मे अपने परिवार का एक भी सदस्य राजनीति में नहीं है. सब के सब एक सामान्य जीवन वह भी अपने बलबूते पर पढ - लिख कर नौकरी में रहे हैं. तीन नंबर के बेटे श्री. जयप्रकाश उत्तर प्रदेश सरकार की नौकरी से निवृत्त होकर इलाहाबाद में रहने वाले की मृत्यु हुई है. सबसे बड़ा बेटा भुवनेश्वर प्रकाश की युवावस्था में ही बिमारी से मृत्यु हो गई थी. दो नंबर के पुत्र मोहनजी गांव में रहकर खेती-बाड़ी का काम करते हैं. और छोटे पुत्र ओमप्रकाश बैंक की नौकरी से निवृत्त होकर वाराणसी में ही रहते हैं. और पुत्री सावित्री देवी आजमगढ़ में ब्याहता है. यह सब विस्तार से देने की वजह राजनारायणजी की छवी हमारे अपने आंखों में क्या थी ? और वास्तविक स्थिति क्या है ? यह लोगों को पता चलना चाहिए इसलिए दे रहा हूँ. राजनारायणजी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत, उम्र के तेरह साल के थे (1930) तब से शुरू हुई है. बनारस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी नेता के रूप में उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत की थी. और युद्ध विरोधी प्रदर्शन के कारण 1939 में पहली गिरफ्तारी हुई, तो फिर लोहिया के जेल फावड़ा और वोट के अनुसार आजादी मिलने तक तीस साल के पहले ही अपने जीवन के पांच साल जेल में बंद रहे. आजादी के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया "के जो जमीन को जोते बोवे, वहीं जमीन का मालिक है " नारे के अनुसार अपने हिस्से की पुश्तैनी जमीन पर, जो भी ज्योतदार थे उन्हें अपने हिस्से की जमीन का मालिकाना हक घोषित कर दिया, इससे अधिक समाजवाद को अपने खुद के व्यक्तिगत जीवन में ढालने के उदाहरण और कितने समाजवादी या कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों के है ? महाराष्ट्र के पंढरपूर के विठ्ठल मंदिर प्रवेश के सत्याग्रह आंदोलन की शुरूआत सानेगुरुजी के नेतृत्व में 1948 में हुई है. और उसकी काफी चर्चा भी है. लेकिन 1956 भारत के सबसे प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर प्रवेश सत्याग्रह आंदोलन का सुत्रपात राजनारायणजी के नेतृत्व में हुआ है. और उस सत्याग्रह के समय पुलिस तथा सेना तैनात कर दी गई थी. लेकिन राजनारायणजी ने सेना और पुलिस की परवाह न करते हुए, सत्याग्रह किया, जिसमें उन्हें लहू-लुहान होने तक पुलिस के द्वारा बेरहमी से पीटा गया और छ महिनों के लिए घायलावस्था में ही जेल में बंद कर दिया था. लेकिन दलितों को मंदिर प्रवेश और मंदिर के बाहर "दलितों को प्रवेश वर्जित है." कि तख्ति को खोदकर ही दम लिया. और उसी तरह अंग्रेजी शासन तो हट गया था लेकिन 1957 में आजादी के दस साल के बावजूद, अंग्रेजों की मूर्तियां जगह - जगह मौजूद थी. राजनारायणजी पहले नेता थे जिन्होंने इस मुद्दे पर, बनारस के बेनिया बाग में व्हिक्टोरिया रानी की मूर्ति को लेकर, पहले उन्होंने तरिकेसे सरकार को निवेदन दिया "कि अब अंग्रेजो के जगह पर, देशी लोग आ गए हैं, तो गुलाम के प्रतिक इन मूर्तियों को हटाने के लिए कहा. " लेकिन सरकार ने मूर्ती को हटाने की मांग को ठुकराया दिया तो राजनारायणजी कहाँ मानने वाले थे ? सो उन्होंने हल्लाबोल, शैली में आंदोलन शुरू कर दिया और जबरदस्त पुलिस बंदोबस्त के रहते हुए मूर्ति तक अपने साथीयो के साथ पहुंचे और मूर्ति को धराशायी करके ही रुके. हालांकि उनकी इस कृति में पुलिस लगातार लाठीचार्ज किए जा रही थी. और उसके बाद 27 महिनों के लिए, जेल में बंद कर दिया था. मतलब राजनारायणजी आजादी के बाद, आजादी के पहले की तुलना में, अधिक समय जेल में बंद रहे हैं. आपातकाल के उन्नीस महिने आलग से. और उसमे भी श्रीमती इंदिरा गांधी के 1971 बंगला देश की लड़ाई के आलोक में उनके खिलाफ सभी विरोधी दलों के तरफसे अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर कोई भी नेता चुनाव लड़ने के लिए, तैयार नहीं हो रहा था. अकेले राजनारायणजी ने इस चुनौती को स्वीकार कर के रायबरेली से चुनाव लड़ा. और हारने के बाद भी नहीं माने इंदिरा गाँधी जी के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की और सभी लोग हंसी मजाक उड़ाने के बावजूद (जिसमें सोशलिस्ट भी शामिल थे ) राजनारायणजी नहीं मानें, उन्होंने कहा "कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने चुनाव में धांधली की है. " और आस्चर्य की बात राजनारायणजी इलाहाबाद हाई कोर्ट में, श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ अपना मामला जीत गए. और उसी दौरान भारत में गुजरात से लेकर बिहार तक, विद्यार्थियों का आंदोलन चल रहा था. और उसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे. 12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद हाई कोर्ट के जगमोहन लाल सिन्हा नाम के जज ने, अपने फैसले में कहा "कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने, अपने चुनाव में भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करने के कारण, चुनाव जीती है. इसलिए उन्हें लोकसभा के सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिया." और संपूर्ण विश्व में भूकंप जैसा माहौल बन गया था. और मुख्यतः भारत की आजादी के बाद हमारे न्यायालय के इतिहास में पहली बार किसी जज ने देश के सबसे बड़े पद पर बैठे हुए व्यक्ति के खिलाफ फैसला देने के कारण न्यायालय का मान बढ़ाया है. और राजनारायणजी को मस्खरा समझने वाले लोगों को अचानक वह राष्ट्रीय स्तर के नेता लगने लगे और तबसे राजनारायणजी के नाम के आगे नेताजी शब्द उनके मृत्यू परांत भी जारी है. इंदिरा गाँधी, जयप्रकाश नारायण के आंदोलन तथा राजनारायणजी के कोर्ट केस में मामले की हार और जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में चल रहे रेल्वे कर्मचारियों के हड़ताल से तंग आकर आपातकाल की घोषणा 25 जून 1975 को आधी रात को कर दी थी. और उन्नीस महीनों के बाद विभिन्न एजेंसियों के रिपोर्ट के आधार पर जनवरी 1977 में पांचवीं लोकसभा बर्खास्त कर के चुनाव की घोषणा कर दी और राजनारायणजी ने जेल से ही घोषणा कर दी "कि मै श्रीमती इंदिरा गांधी जहां से भी चुनाव लडेगी मै उनके खिलाफ चुनाव लडुंगा. हालांकि उन्हें फरवरी के आठ तारीख को रिहा करने के बावजूद वह अपने निर्णय पर अटल रहे उनके शुभचिंतकों ने कहा "कि आप दो जगह से चुनाव लड़िए " इसके लिए उन्हें प्रतापगढ़ से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया (क्योंकि वहाँ की संसदीय क्षेत्र से पांच विधानसभा सीट में से तीन सोशलिस्टो के पास थे. ) इसलिए सभी साथियों का आग्रह उन्हें दोनों जगह से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया था. लेकिन वह नहीं मानें. और सिर्फ रायबरेली से ही खड़े हुए और 52 हजार वोटों से श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ जीत दर्ज की. और इसीलिये राजनारायणजी का नाम भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा गया उन्हें भारत के जीमीकार्टर से लेकर, जॉयंट किलर जैसे उपाधियों से नवाजा गया. भारत और विश्व के मिडिया ने अपने सर आंखों पर बिठाया है. मतलब कुछ दिनों पहले एक मस्खरा के रूप में उसी मिडिया ने राजनारायणजी को लेकर क्या - क्या वाक्यों का प्रयोग नहीं किया था ? और आज वही मिडिया, उनके तारीफ करते हुए उनकी तारीफ के पूल बांध रहा है. 1977 में जनता सरकार में, उन्होंने स्वास्थ मंत्री के रूप में मोरारजी देसाई ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल करते हूऐ उन्हें भारत के स्वास्थ मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी थी. भारत की उपेक्षित चिकित्सा पद्धतियों में से होमिओपॅथी, आयुर्वेद तथा यूनानी, और अन्य पारंपरिक पद्धतियों को पहली बार, एलोपैथी के बराबर दर्जा देने का फैसला राजनारायण जी ने लिया . जो बात मेरे खुद के होमिओपॅथी कॉलेज के दिनों में मैंने कॉलेज के जी. एस. होने के नाते मैंने बहुत कोशिश की है. उसके अपने खुद के जेब से पैसे खर्च कर के लिए दिल्ली जाकर (1971-72) तत्कालीन राष्ट्रपति श्री. वी. वी. गिरी को राष्ट्रपति भवन में जाकर, एक प्रतिनिधी मंडल के साथ मिला था. और उन्हें होमिओपॅथी तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति और युनानी तथा कुछ और भी पारंपरिक रूप से, हज़ारों वर्षों से अधिक समय से चली आ रही चिकित्सा पद्धतियों का शास्त्रीय तरीके से सज्ञान लेते हुए, उन्हें एलोपैथी के साथ ही, दर्जा देने की मांग की है. और मेरी मांग के पांच सालों के भीतर राजनारायणजी ने स्वास्थ मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद तुरंत ही यह निर्णय लिया है. इसलिए मैंने दिल्ली जाकर उन्हें विशेष धन्यवाद ज्ञापन सौंपा है. मेरे लिए सबसे अहम बात आर. एस. एस. के साथ जनसंघ के संबंधों को देखते हुए मैने आदरणीय एस. एम. जोशी जी को आपातकाल के समय जनता पार्टी के गठन होने की प्रक्रिया के दौरान ही कहा था "कि जनसंघ के साथ चुनाव के लिए तात्कालिक रूप से गठबंधन कर सकते हो लेकिन इस दल के साथ सोशलिस्ट पार्टी का विलय कर के एक पार्टी कर के बहुत बड़ा नुकसान सोशलिस्टो का होगा. क्योंकि जनसंघ आर. एस. एस. की राजनीतिक ईकाई है. इसलिए उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता हिंदूत्ववादी तथा समाजवाद और सेक्युलरिज्म के विरोधी और पूंजीवादी मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक दल के साथ सोशलिस्टो ने एक पार्टी बनाना बहुत गलत निर्णय होगा. और इस प्रक्रिया में सबसे अधिक, समाजवादियों का नुकसान होगा इसलिए तात्कालिक रूप से चुनावी गठबंधन तक ठीक हैं. लेकिन जनसंघ के साथ एक दल बनाना बिल्कुल गलत है. " और इसलिए मैं खुद व्यक्तिगत रूप से जनता पार्टी मे शामिल नहीं था. और मुझे अमरावती लोकसभा के लिए वह महाराष्ट्र जनता पार्टी के अध्यक्ष, एस एम जोशी जी जेपी के आग्रह पर बने थे . तो उस हैसियत से, आदरणीय एस. एम. जोशी जी ने कहा" कि तुम्हारे चुनाव में, मै खुद अपनी पूरी क्षमता से जेपी, जगजीवन राम तथा विजया लक्ष्मी पंडित को भी प्रचार के लिए अमरावती ले आऊंगा." लेकिन मै नहीं माना और वह महाराष्ट्र जनता पार्टी के अध्यक्ष होने के नाते मुझे अपने साथ महाराष्ट्र जनता पार्टी के महासचिव बनने का आग्रह किया तो वह भी मैने अस्वीकार कर दिया था . इस कारण जब, चंद कुछ दिनों के भीतर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग जनसंघ के मंत्रियों के द्वारा रोजमर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप करते हुए देखकर राजनारायणजी के कान खड़े हुए. और उन्होंने विधीवत प्रधानमंत्री मुरारजी देसाई के सामने यह मामला उठाया. मुरारजी भाई ने राजनारायण की आपत्ति को अनदेखी कीया . जैसा कि गांधी हत्या के पहले ही नगरवाला नामके एक पुलिस अधिकारी ने मुंबई राज्य के गृहमंत्री रहते हुए मुरारजी देसाई को 30 जनवरी 1948 कुछ दिनों पहले ही "कहा कि मुझे बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर की गतिविधियों में संशयास्पद नजर आ रहा है. और यह आदमी महात्मा गाँधी जी के हत्या का षडयंत्र कर रहा है, इसलिए आप मुझे इसे गिरफ्तार करने की इजाजत दिजीए. " तो मुरारजी देसाई नगरवाला के उपर गुस्सा होकर उसे डांटकर कहा, "कि खबरदार सावरकर को हाथ लगाया तो महाराष्ट्र में दंगे शुरू हो जायेंगे. " हिंदुत्ववादीयो के प्रति मुरारजी देसाई की सहानुभूति कितनी पूरानी है. यह बात सामने लाने के लिए मै मनोहर मुळगांवकर की किताब 'The men who killed Gandhi' के हवाले से लिख रहा हूँ. वैसे भी संगठन कांग्रेस पार्टी भी समाजवाद के विरोधी और मुक्त पुंजिवाद की हिमायती होने के कारण उन्हें आर एस एस के प्रति लगाव था. राजनारायणजी ने जनसंघ के दोहरी सदस्यता के मुद्दे को सब से पहले पार्टी के भीतर उठाया था . लेकिन कुछ लोगों को सत्ता के मोह में राजनारायणजी की बात ठीक नहीं लगी तो राजनारायणजी ने अपने मंत्रिपद से त्यागपत्र दे दिया. और अपने ही पार्टी के सरकार के खिलाफ विपक्ष की भूमिका में आ गए. और संपूर्ण देश में दोहरी सदस्यों वाले मुद्दे पर जनजागरण करने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन मिडिया में शुरू से ही आर. एस. एस. के लोगों की भरमार होने के कारण राजनारायणजी की छवि खराब करने के लिए विशेष रूप से, तेज गति से अभियान चलाया गया था. और यह सब देखकर, उन्होंने जुलाई 1979 में बगावत का झंडा बुलंद कर जनता पार्टी तोडकर जनता पार्टी सेक्युलर का गठन किया. और मुरारजी देसाई की सरकार को धराशायी कर दिया. इसलिए राजनारायणजी के उपर हमारे अजिज दोस्त शाहनवाज़ कादरी साहब ने अपनी खुद की जेब से पैसे लगाकर राजनारायणजी के प्रति उनकी निष्ठा और प्रतिबध्दता का परिचय दिया है. 512 पन्नौकी किताब में संस्मरणात्मक लेखो के अलावा वैचारिक लेख राजनारायणजी ने दिए हुए साक्षात्कार खुद राजनारायणजी की कलम से लिखे गए लेखों से लेकर संसदीय लायब्रेरी से उनके संसदीय कार्य के बारे में 31 महत्वपूर्ण मुद्दों के उपर उठाए गए मुद्दों पर 144 पृष्ठों में बृहत जानकारी दी गई है. वह बहुत ही महत्वपूर्ण और देश के अहम मुद्दो के उपर उन्होंने अपने संसदीय जीवन में एतिहासिक भूमिका निभाई है. आज उनके 29 वे पुण्यस्मरण दिवसपर विनम्र अभिवादन. डॉ. सुरेश खैरनार 31 दिसंबर 2023, 2025 नागपुर.

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |