बुझानी थी आग जिनको वही घर जला रहे है।
निभानी वफ़ा थी जिनको वही घर जला रहे है।
हसरत थी आसमां को छु लेंगे झूमकर
परवाज खो चुके जो वही घर जला रहे है ॥
एक घर की आग से ही जलती है बस्तियां,
मेरे रफीक फ़िर भी मेरा घर जला रहे है॥
अहले हयात ख्वाहिशों में यूँ सिमट गई
हमराज हमसफ़र मेरा घर जला रहे है ॥
4 टिप्पणियां:
बुझानी थी आग जिनको वही घर जला रहे है
निभानी वफ़ा थी जिनको वही घर जला रहे है.
वाह बहुत सुन्दर.
बहुत बढिया गज़ल है।बधाई।
आपको और आपके पुरे परिवार को वैशाखी की हार्दिक शुभ कामना !
हसरत थी आसमां को छु लेंगे झूमकर
परवाज खो चुके जो वही घर जला रहे है
बेहतरीन ....वाह.
नीरज
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