रविवार, 3 मई 2009

घर तुम्हारा नहीं..


चाहतो को मिटाता रहा आदमी
ख़ुद से हो दूर होता रहा आदमी
स्वर्ग की लालसा में इधर से उधर -
पाप के बीज बोता रहा आदमी

ये धरा वो गगन कुछ तुम्हारा नही
अग्नि ,जल ,पवन कुछ तुम्हारा नही
बंद पलकों को बस यही कह गया -
एक राही हो घर तुम्हारा नही

ईश की वंदना में होता असर
दर्द के गीत होते सदा हम सफर
जिंदगी श्राप बनकर कड़कती यहाँ -
मौत चूमती जिंदगी के अधर

नैन का भौं भरे लालिमा से अधर
केश बिखरे सजे आलिहो झूले डगर
आप इतना सँवर कर देखे उसे -
लग जाए कहीं आईने की नजर

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही '

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |