उस दिन ट्रेन से लौट रहा था। जैसा कि स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही अफरा-तफरी का माहौल हो जाता है, उसी दरम्यान किसी ने कसाब-कसाब चिल्लाया। हर शख्स की निगाहें खिड़की से चिल्ला रहे उस शख्स पर और जिस चार साल के बच्चे को वह सम्बोधित कर रहा था की तरफ गयी। अफरा-तफरी के माहौल में न जाने कहां से एक चुप्पी और फुसफुसाहट सी आयी और धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया।
हमने कसाब के बारे में काफी देर तक सोचा। और जिस भी निष्कर्ष पर पहुंचते वहां कहीं न कहीं मीडिया नजर आती। मीडिया ने इस तरह चिल्ला-चिल्लाकर यह नाम लिया कि आज हर शख्स इससे वाकिफ हो गया है। कुछ शब्द ऐसे हो जाते हैं जिनके संबोधन से पहले हमें बड़ी संजीदगी से अपने आस-पास देखना होता है। और अगर कहीं वह खुद के धर्म व निवास स्थान से जुड़ा हो तो और भी। ऐसा ही एक शब्द आजमगढ़ पिछले दिनों प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बना। जिन वजहों से आजमगढ़ जाना गया उन घटनाओं को बीते साल भर होने जा रहे हैं। पर घटनाएं जैसे-जैसे पुरानी हो रही हैं उस पर जमीं धूल की परत औरों के मन में इसके प्रति और कुंठा भरती जा रही है। जो भी हो आजमगढ़ आज मानवाधिकार हनन के सबसे बड़े मरकज के रुप में तब्दील हो गया है। जहां के लोगों के जेहन में इस हमारे सबसे बड़े कथित लोकतंत्र को टिकाए रखने के लिए शहादत और पीड़ित होने का पूर्वानुमान हमेशा सालता रहता है। सरकारों की जरुरत, प्रशासन के द्वारा और मीडिया की सहभागिता से इस पूरे मिथक की रचना की गयी है।
आजमगढ़-आतंकवाद, ‘मिथक और यथार्थ’ एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर देते-देते वे थक गए हैं। बस एक जुबान से चाहे इसे सवाल कहें या मांग-अपने मासूम बच्चों की हत्या की न्यायिक जांच। शायद इनका उत्तर भी यहीं से पूरा होगा। चारों तरफ एक सरहद जिसके बाहर वो आतंकगढ़ के रुप में जाना जाता है। दुनिया को ‘घुमक्ड़ी’ और ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ की नसीहत देने वालों को आज एक सरहद में कैद कर दिया गया है। ‘जहां-जहां आदमी, वहां-वहां आजमी’ कहने वालों के स्वर धीमे हो गए हैं। हो भी क्यों न अपने ही देश के महानगरों में एक अदद कमरे को तरसना पड़ रहा है। तो वहीं अन्दर अनाधिकृत खौफ के दस्तों की निगरानी में जीने को मजबूर हैं।
आज आजमगढ़ के भविष्य के इतिहास की रचना को मीडिया ऐसे व्याकुल है कि उसने उसके पुराने इतिहास को ही विस्मृत कर दिया है। जैसे कैफी-राहुल बीते जमाने की चीज हों। इस नए प्राइमटाइमिया इतिहास लेखन से लड़ने के लिए आजमगढ़िए तैयार हैं और नए-नए तरह के हथियार गढ़ रहे हैं। जैसे वे कभी ‘सांप्रदायिक और अफवाह फैलाने वाले पत्रकार यहां न आएं’ लिखे बैनर बांधते हैं तो कभी जब इन कुत्सित इतिहासकारों को उनकी तमाम नैतिकताओं की याद दिलाने के बावजूद जब वे नहीं मानते तो जनकार्यवाई का भी सहारा लेते हैं। बहुत से पत्रकार इस वजह से मौका-ए-वारदात पर भी अब आजमगढ़ में नहीं जाते। क्योंकि उन्हें अपनी जबान पर यकीन रहता है कि वे कुछ ऐसा करेंगे की उन पर जनकार्यवाई होगी।
इनकी वजह से ही अपने मासूम बच्चों की हत्या, जेलों में दी जा रही यातना व दर्जनों को फरारी के नाम पर पुलिस कब मार गिराए इन आशंकाओं के साथ यहां के लोग जीने को अभिशप्त हैं। कभी-कभी यहां तक कह देते हैं कि मारना है तो सीधे पूरे परिवार को फासी पर चढ़ा दे सरकार पर इस तरह हमारे मासूमों को न मारे। पिछले दिनों यहां आए मानवाधिकार संगठनों की जांच के दौरान खूफिया, पुलिस व मीडिया के जिस तांडव से हम रुबरु हुए वह काफी भयावह था। इस दौरान साथ गयी अमेरिकी मानवाधिकार कार्यकर्ती से इस हालात को समझ कर इस बात का एहसास हुआ कि उनके और हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली में मानवाधिकार हनन की सीमाओं में काफी अंतर था। बहुत छोटी-छोटी बातें कि गिरफ्तारी के बाद फोन नहीं करने दिया, जेल में मुलाकात करते वक्त पुलिस रहती है, उनके लिए बड़े सवाल थे। जबकि यहां की गयी गिरफ्तारियों में अधिकांश को कहीं से उठाकर हफ्तों बाद कहीं और से भारी मात्रा में बम-बारुद के साथ दिखाया गया है या फिर किसी फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया गया, जो इतना सामान्य हो चुका है कि अब न्यायालय भी इस पर बिना किसी झिझक के पुलिस के पक्ष में निर्णय दे देती है।
लोकतंत्र एक आधुनिक विचार है पर हमारी पुलिस या शासन प्रणाली सामंती विचार की है। जैसा कि इसी दौरान सरायमीर के एक इस्पेक्टर जिसको दौड़ने में हाफा छूट जाएगा के आने पर हमने कुर्सी नहीं छोड़ी और नमस्कारी नहीं की तो वे काफी उखड़ गए। हमको वे इस सम्मान के लायक नहीं लगे क्योंकि जांच या फिर पूरी लड़ाई ही इस पूरे तंत्र के खिलाफ है ऐसे में हमारा यह व्यवहार स्वाभाविक था। यहां इस बात पर सोचने की बात है कि वो हमसे क्यों ऐसी अपेक्षा रखता है। इसका उत्तर साफ है कि हमारा पूरा तंत्र एक लोकतांत्रिक सामंतवाद की परिधि में ही हमें आजादी देता है। उसके बाहर जाने पर तमाम काले कानूनों और जो हमारे लिए गैर कानूनी या असंवैधानिक हैं उनकी अपनी जरुरतों के चलते वे कानूनी और संवैधानिक हो जाते हैं। एक इंस्पेक्टर मीडिया वाले के साथ आया और कहा मीडिया जानना चाहती है कि आप कहां जाएंगे। हमने कहा हम नहीं बताएंगे। वो तुरंत कुछ लोगों का नाम हमें बताने लगा और हमारी व्यक्तिगत बातों को भी। यहां गौर करने की बात है कि इस पूरे क्षेत्र में जो भी लोग मानवाधिकार हनन का सवाल उठाते हैं गैर कानूनी तरीके से उनके मोबाइल टेप किये जाते हैं और पुलिस उनको धमकी देती है।
संजरपुर जिसे मीडिया ने आतंकवाद के नाम पर चल रहे खूनी यु़द्ध के लिए लड़ाकों की नर्सरी तो कभी आतंकवादियों के गांव के रुप में स्थापित किया है वहां मीडिया के कारिंदे पुलिस की गाड़ियों में घूमते नजर आए। जिनके फोटो खींचने पर वे अपना मुंह हाथों से ठीक वैसे ही छुपा रहे थे जैसे किसी अश्लील जुर्म में पकड़े गए लोग। जिन्हें पकड़े जाने के बाद इस बात का एहसास रहता है कि वे गलत कर रहे थे और उनकी यह छवि समाज में नहीं जानी चाहिए। पर यहां तो हद थी सब शर्म-हया ये धो कर पी चुके थे। इंजीनियरिंग के छात्र सरवर जिसे उज्जैन से एसटीएफ ने उठाकर लखनऊ में गिरफ्तार दिखाया, जिसकी उज्जैन में अपहरण की रिपोर्ट भी दर्ज है, के घर चांद पट्टी जाना हुआ। यहां तो खुफिया और मीडिया गुंडई पर उतारु हो गए कि उनके परिजनों बयान उनके सामने लिया जाय। सरवर को पिछले दिनों पेशी के दौरान कैदियों से मरवाया-पिटवाया गया। हम लोगों ने इन लोगों से कहा कि यह घटना उत्पीड़न की है और आप लोगों के सामने परिजन बेबाकी से बोल नहीं पाएंगे। खुफिया के लोग तो चले गए पर पत्रकार ने यह तर्क दिया कि ऐसा कर हम उसके काम में बाधा पहुंचा रहे हैं। यहां तंत्र के तीनों स्तंभों से मानवाधिकार हनन की लड़ाई लड़ रहे लोगों को दूसरी और अहम लड़ाई मीडिया से लड़नी पड़ रही है।
वहां से चलते-चलते उस पत्रकार से हमने कहा कि भाई ऐसे धमका के पत्रकारिता नहीं की जाती। वो बिना बोले सिर हिलाते हुए सहमति भी व्यक्त कर रहा था। पर तभी पीछे से दो पहिया वाहन पर गमछे से मुंह बाधे आखों पर काला चश्मा लगाए गुंडों की तरह लगने वाले खुफिया पुलिस ने पत्रकार को गाड़ी पर बैठने का इशारा किया। हमने फिर उसे समझाया कि यार पुलिस वालों के साथ पत्रकारिता नहीं की जाती पर वह हमें झटकते हुए गाड़ी पर बैठ गया। फिर क्या था हमने भी कैमरा निकाला और उनकी फोटो खींचने की कोशिश की। दोनों मुंह छिपाते हुए कैमरे और हम पर हमलावर हो गए। पर उनके पास हमारे सवालों का कोई उत्तर न था।
राजीव यादव
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित
हमने कसाब के बारे में काफी देर तक सोचा। और जिस भी निष्कर्ष पर पहुंचते वहां कहीं न कहीं मीडिया नजर आती। मीडिया ने इस तरह चिल्ला-चिल्लाकर यह नाम लिया कि आज हर शख्स इससे वाकिफ हो गया है। कुछ शब्द ऐसे हो जाते हैं जिनके संबोधन से पहले हमें बड़ी संजीदगी से अपने आस-पास देखना होता है। और अगर कहीं वह खुद के धर्म व निवास स्थान से जुड़ा हो तो और भी। ऐसा ही एक शब्द आजमगढ़ पिछले दिनों प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बना। जिन वजहों से आजमगढ़ जाना गया उन घटनाओं को बीते साल भर होने जा रहे हैं। पर घटनाएं जैसे-जैसे पुरानी हो रही हैं उस पर जमीं धूल की परत औरों के मन में इसके प्रति और कुंठा भरती जा रही है। जो भी हो आजमगढ़ आज मानवाधिकार हनन के सबसे बड़े मरकज के रुप में तब्दील हो गया है। जहां के लोगों के जेहन में इस हमारे सबसे बड़े कथित लोकतंत्र को टिकाए रखने के लिए शहादत और पीड़ित होने का पूर्वानुमान हमेशा सालता रहता है। सरकारों की जरुरत, प्रशासन के द्वारा और मीडिया की सहभागिता से इस पूरे मिथक की रचना की गयी है।
आजमगढ़-आतंकवाद, ‘मिथक और यथार्थ’ एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर देते-देते वे थक गए हैं। बस एक जुबान से चाहे इसे सवाल कहें या मांग-अपने मासूम बच्चों की हत्या की न्यायिक जांच। शायद इनका उत्तर भी यहीं से पूरा होगा। चारों तरफ एक सरहद जिसके बाहर वो आतंकगढ़ के रुप में जाना जाता है। दुनिया को ‘घुमक्ड़ी’ और ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ की नसीहत देने वालों को आज एक सरहद में कैद कर दिया गया है। ‘जहां-जहां आदमी, वहां-वहां आजमी’ कहने वालों के स्वर धीमे हो गए हैं। हो भी क्यों न अपने ही देश के महानगरों में एक अदद कमरे को तरसना पड़ रहा है। तो वहीं अन्दर अनाधिकृत खौफ के दस्तों की निगरानी में जीने को मजबूर हैं।
आज आजमगढ़ के भविष्य के इतिहास की रचना को मीडिया ऐसे व्याकुल है कि उसने उसके पुराने इतिहास को ही विस्मृत कर दिया है। जैसे कैफी-राहुल बीते जमाने की चीज हों। इस नए प्राइमटाइमिया इतिहास लेखन से लड़ने के लिए आजमगढ़िए तैयार हैं और नए-नए तरह के हथियार गढ़ रहे हैं। जैसे वे कभी ‘सांप्रदायिक और अफवाह फैलाने वाले पत्रकार यहां न आएं’ लिखे बैनर बांधते हैं तो कभी जब इन कुत्सित इतिहासकारों को उनकी तमाम नैतिकताओं की याद दिलाने के बावजूद जब वे नहीं मानते तो जनकार्यवाई का भी सहारा लेते हैं। बहुत से पत्रकार इस वजह से मौका-ए-वारदात पर भी अब आजमगढ़ में नहीं जाते। क्योंकि उन्हें अपनी जबान पर यकीन रहता है कि वे कुछ ऐसा करेंगे की उन पर जनकार्यवाई होगी।
इनकी वजह से ही अपने मासूम बच्चों की हत्या, जेलों में दी जा रही यातना व दर्जनों को फरारी के नाम पर पुलिस कब मार गिराए इन आशंकाओं के साथ यहां के लोग जीने को अभिशप्त हैं। कभी-कभी यहां तक कह देते हैं कि मारना है तो सीधे पूरे परिवार को फासी पर चढ़ा दे सरकार पर इस तरह हमारे मासूमों को न मारे। पिछले दिनों यहां आए मानवाधिकार संगठनों की जांच के दौरान खूफिया, पुलिस व मीडिया के जिस तांडव से हम रुबरु हुए वह काफी भयावह था। इस दौरान साथ गयी अमेरिकी मानवाधिकार कार्यकर्ती से इस हालात को समझ कर इस बात का एहसास हुआ कि उनके और हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली में मानवाधिकार हनन की सीमाओं में काफी अंतर था। बहुत छोटी-छोटी बातें कि गिरफ्तारी के बाद फोन नहीं करने दिया, जेल में मुलाकात करते वक्त पुलिस रहती है, उनके लिए बड़े सवाल थे। जबकि यहां की गयी गिरफ्तारियों में अधिकांश को कहीं से उठाकर हफ्तों बाद कहीं और से भारी मात्रा में बम-बारुद के साथ दिखाया गया है या फिर किसी फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया गया, जो इतना सामान्य हो चुका है कि अब न्यायालय भी इस पर बिना किसी झिझक के पुलिस के पक्ष में निर्णय दे देती है।
लोकतंत्र एक आधुनिक विचार है पर हमारी पुलिस या शासन प्रणाली सामंती विचार की है। जैसा कि इसी दौरान सरायमीर के एक इस्पेक्टर जिसको दौड़ने में हाफा छूट जाएगा के आने पर हमने कुर्सी नहीं छोड़ी और नमस्कारी नहीं की तो वे काफी उखड़ गए। हमको वे इस सम्मान के लायक नहीं लगे क्योंकि जांच या फिर पूरी लड़ाई ही इस पूरे तंत्र के खिलाफ है ऐसे में हमारा यह व्यवहार स्वाभाविक था। यहां इस बात पर सोचने की बात है कि वो हमसे क्यों ऐसी अपेक्षा रखता है। इसका उत्तर साफ है कि हमारा पूरा तंत्र एक लोकतांत्रिक सामंतवाद की परिधि में ही हमें आजादी देता है। उसके बाहर जाने पर तमाम काले कानूनों और जो हमारे लिए गैर कानूनी या असंवैधानिक हैं उनकी अपनी जरुरतों के चलते वे कानूनी और संवैधानिक हो जाते हैं। एक इंस्पेक्टर मीडिया वाले के साथ आया और कहा मीडिया जानना चाहती है कि आप कहां जाएंगे। हमने कहा हम नहीं बताएंगे। वो तुरंत कुछ लोगों का नाम हमें बताने लगा और हमारी व्यक्तिगत बातों को भी। यहां गौर करने की बात है कि इस पूरे क्षेत्र में जो भी लोग मानवाधिकार हनन का सवाल उठाते हैं गैर कानूनी तरीके से उनके मोबाइल टेप किये जाते हैं और पुलिस उनको धमकी देती है।
संजरपुर जिसे मीडिया ने आतंकवाद के नाम पर चल रहे खूनी यु़द्ध के लिए लड़ाकों की नर्सरी तो कभी आतंकवादियों के गांव के रुप में स्थापित किया है वहां मीडिया के कारिंदे पुलिस की गाड़ियों में घूमते नजर आए। जिनके फोटो खींचने पर वे अपना मुंह हाथों से ठीक वैसे ही छुपा रहे थे जैसे किसी अश्लील जुर्म में पकड़े गए लोग। जिन्हें पकड़े जाने के बाद इस बात का एहसास रहता है कि वे गलत कर रहे थे और उनकी यह छवि समाज में नहीं जानी चाहिए। पर यहां तो हद थी सब शर्म-हया ये धो कर पी चुके थे। इंजीनियरिंग के छात्र सरवर जिसे उज्जैन से एसटीएफ ने उठाकर लखनऊ में गिरफ्तार दिखाया, जिसकी उज्जैन में अपहरण की रिपोर्ट भी दर्ज है, के घर चांद पट्टी जाना हुआ। यहां तो खुफिया और मीडिया गुंडई पर उतारु हो गए कि उनके परिजनों बयान उनके सामने लिया जाय। सरवर को पिछले दिनों पेशी के दौरान कैदियों से मरवाया-पिटवाया गया। हम लोगों ने इन लोगों से कहा कि यह घटना उत्पीड़न की है और आप लोगों के सामने परिजन बेबाकी से बोल नहीं पाएंगे। खुफिया के लोग तो चले गए पर पत्रकार ने यह तर्क दिया कि ऐसा कर हम उसके काम में बाधा पहुंचा रहे हैं। यहां तंत्र के तीनों स्तंभों से मानवाधिकार हनन की लड़ाई लड़ रहे लोगों को दूसरी और अहम लड़ाई मीडिया से लड़नी पड़ रही है।
वहां से चलते-चलते उस पत्रकार से हमने कहा कि भाई ऐसे धमका के पत्रकारिता नहीं की जाती। वो बिना बोले सिर हिलाते हुए सहमति भी व्यक्त कर रहा था। पर तभी पीछे से दो पहिया वाहन पर गमछे से मुंह बाधे आखों पर काला चश्मा लगाए गुंडों की तरह लगने वाले खुफिया पुलिस ने पत्रकार को गाड़ी पर बैठने का इशारा किया। हमने फिर उसे समझाया कि यार पुलिस वालों के साथ पत्रकारिता नहीं की जाती पर वह हमें झटकते हुए गाड़ी पर बैठ गया। फिर क्या था हमने भी कैमरा निकाला और उनकी फोटो खींचने की कोशिश की। दोनों मुंह छिपाते हुए कैमरे और हम पर हमलावर हो गए। पर उनके पास हमारे सवालों का कोई उत्तर न था।
राजीव यादव
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित
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