कालाढूंगी में सन्नाटा पसरा हुआ है। चारों तरफ खाकी वर्दीधारी घूम रहे हैं। क्षेत्र में धारा 144 लगी है लेकिन माहौल कफ्र्यू जैसा है। नौजवान घरों से बाहर नहीं निकल रहे हैं या उनके मां-बाप ने डर के मारे उन्हें क्षेत्र से बाहर भेज दिया है। हर किसी की जुबां पर एक ही चर्चा है कि अब क्या होगा। पुलिसकर्मी की हत्या व थाने पर आगजनी के जुर्म में कौन-कौन धरा जाएगा। क्षेत्र में पुलिस की दबिशें जारी हैं, खुफिया विभाग के लोग सादी वर्दी में अपराधियों को सूंघ रहे हैं। जनता की ‘मित्र पुलिस’ जनता की शत्रु का रोद्र रूप धारण कर चुकी है। क्षेत्र का प्रत्येक निवासी पुलिस का अपराधी है, वह कभी भी धरा जा सकता है। पुलिस ने बहीखाता खोल लिया है जिसमें 15 लोग नामजद हैं व अन्य 400 का नाम इस बहीखाते में लिखा जाना बाकी है। गांव में दबिश देने 2-4 पुलिस वाले नहीं जाते, दबिश देते समय पुलिस वालों की संख्या 200 तक भी होती है, उनका मकसद जनता में दशहत पैदा करना है। छुटभैय्ये नेता अपने आकाओं से अपना नाम पुलिस के मुकदमें में आने से बचाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। खाकी के आगे जनता बेबस, असहाय नजर आ रही है। 23 अगस्त की पूर्वाह्न का समय बीत चुका है जब जनता ने भावावेश में आकर कुछ समय के लिए सब कुछ अपने हाथ में ले लिया था। अब खाकी ने अपने राज और रूतबे को फिर से कायम कर लिया है। अशोक कुमार, आई.जी. पुलिस ने जनता की दो नस्लें परिभाषित की हैं, एक पुलिस से लड़ने वाली, दूसरी पुलिस को बचाने वाली। पुलिस से लड़ने वालों को दण्डित किया जायेगा, पुलिस को बचाने वालों को पुरूष्कृत।
लोग खुलकर नहीं बोल रहे हैं कानाफूसी कर रहे हैं कि बलवन्त की हत्या नीरज ने नहीं की, तो फिर किसने की, बरबस ही यह सवाल कौंध जाता है। इसका उत्तर ग्रामीण कुछ इस प्रकार बयां करते हैं।
कोटाबाग के ब्लाक प्रमुख बलवन्त सिंह ने 22 अगस्त की रात में बसपा नेता नीरज तिवारी की एक रेस्टोरेन्ट में पिटाई कर दी। पिटाई के बाद नीरज तिवारी भागकर थाना कालाढूंगी पहुंचा, कुछ ही देर बाद बलवन्त भी एक पत्रकार के साथ कालाढूंगी थाने में पहुंच गया। बलवन्त वहां पुलिस से भी गाली-गलौच करने लगा। ग्रामीणों का कहना है कि जिस गोली से बलवंत की हत्या हुई वह पुलिस की थी और उसकी हत्या थाने के बाहर नहीं थाने के भीतर के कमरे में हुयी है। हत्या के बाद पुलिस ने बलवन्त की लाश को बाहर डलवा दिया और खून के निशान साफ करवा दिये। इस दौरान थाने की बत्ती बुझा दी गयी।
मारे गये भाजपा नेता बलवन्त सिंह पर कुल 19 मुकदमें लगे थे तथा बसपा नेता नीरज तिवारी पर 2 मुकदमें चल रहे हैं।
ग्रामीण बताते हैं अगले दिन सुबह जब बलवन्त की बहन इंद्रा, अपने परिजनों व ग्रामीणों के साथ हत्या की जानकारी लेने कोतवाली पहुंची तो बहन इन्द्रा को बलवन्त की चप्पलें कोतवाली परिसर के भीतर पड़ी दिखाई दीं। बलवन्त के परिजनों ने जब इस पर पुलिस के सामने सन्देह व्यक्त किया तो खाकी ने इसका जवाब उन्हें पिटाई से दिया। इससे मामला बिगड़ गया, जनाक्रोश भड़क उठा व जनता बेकाबू हो गयी और फिर वह सब कुछ हुआ जिसके लिये न तो क्षेत्र की जनता तैयार थी और न ही पुलिस। कालाढूंगी थाना फूंक दिया गया। दर्जनों वाहन जला दिये गये, पुलिसकर्मी भागते-छिपते नजर आए।
इसी दौरान नैनीताल के एस.एस.पी. मोहन बंग्याल, डी.एम. शैलेेष बगौली, सी.ओ. मुकेश चैहान पुलिस टीम व बज्र वाहन साथ लेकर कालाढूंगी पहुंचे। आक्रोशित जनता को देखकर डी.एम., एस.एस.पी., सी.ओ. व पुलिस के कुछ सिपाही मौके से भाग खड़े हुये। उसी काफिले में शामिल पूरन लाल व 4-5 अन्य सिपाही पब्लिक के बीच फंस गये जिनकी जनता ने पिटाई कर दी। इसी बीच किसी ने पूरन लाल के सर पर पत्थर दे मारा जिससे पूरन लाल की मौत हो गयी।
22 व 23 अगस्त का घटनाक्रम पुलिस प्रशासन की कार्यवाही पर कई तरह के सवाल खड़े करता है। पहला यह कि बलवन्त की हत्या थाने के भीतर हुयी है तो इस बात को स्वीकार करने में आई.जी. को तीन दिन का समय क्यों लग गया। इससे अंदेशा होता है कि क्षेत्र के ग्रामीण इस मामले में जो कुछ बोल रहे हैं कहीं वह सच तो नहीं है। दूसरी बात पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों ने मौके से भागने के बजाय भीड़ को समझाने का प्रयास क्यों नहीं किया, क्या उनकी अपने स्टाफ के प्रति यही जबाबदेही है कि वह उन्हें छोड़कर मौके से भाग खड़े हों। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या कालाढूंगी की घटना उत्तराखण्ड की या देश की अनोखी घटना है।
इसका जवाब है नहीं। देश में शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब देश में जनता का आक्रोश सरकारों के जनविरोधी रवैयों के कारण पुलिस अथवा सुरक्षा बलों के खिलाफ न फूटता हो। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान पुलिस द्वारा रचा गया रामपुर तिराहा काण्ड, खटीमा, मसूरी काण्ड क्या उत्तराखण्ड की जनता कभी भूल सकती है जब पुलिस ने दर्जनों आंदोलनकारियों की कुर्बानी ले ली थी। मां-बहनों की इज्जत से खिलवाड़ किया था। कालाढूंगी की घटना क्या वर्ष 2001 में रामनगर में पुलिस कस्टडी में हुयी मौत के बाद शहर में मचे बबाल से अलग है या दो वर्ष पूर्व बेतालघाट में पुलिस उत्पीड़न से आक्रोशित जनसमूह द्वारा इंस्पेक्टर का मुंह काला कर देने की घटना से अलग।
यह सभी घटनाएं चीख-चीखकर एक बात कह रही हैं, वह यह कि देश की पुलिस आजादी के 62 वर्षों बाद भी लगभग वैसी ही है जैसी ब्रिटिशकालीन गुलाम भारत में थी। देश में अंग्रेजों के बनाए कानून आज भी राज करते हैं। लार्ड मैकाले द्वारा बनायी गयी भारतीय दण्ड संहिता 1860, पुलिस अधिनियम 1861, पुलिस अधिनियम 1888, पुलिस द्रोह अधिनियम 1922 इत्यादि देश के कानून की किताबों में आज भी मौजूद है। अंगेेजों ने भारत में पुलिस का ढांचा अपने लूट के साम्राज्य को कायम करने व देश की जनता का उत्पीड़न करने के लिये कायम किया था। आजादी के बाद सत्ताधारी पंूजीपतियों की पार्टी कांग्रेस ने उसी ब्रिटिशकालीन ढांचे को कुछ फेरबदल करके गोद ले लिया। बिडम्बना यह कि देश में एक के बाद एक सरकारें बदलती गयी परन्तु ढांचे में कोई भी बुनियादी बदलाव नहीं हुआ, इसे बदलने की राजनैतिक इच्छा शक्ति किसी भी सरकार ने नहीं दिखाई।
कालाढूंगी में उपजे असंतोष का कारण मात्र बलवन्त सिंह की हत्या नहीं था। इस असंतोष के पीछे वे सभी कारण मौजूद हैं जिसे देश की जनता रोज व रोज अपनी जिन्दगी में झेलती है। थाने जाने के नाम पर आज भी आम आदमी थर्रा जाता है। कमजोरों का उत्पीड़न, ताकतवरों-धनवानों का सहयोग देश की पुलिस का गुण है। फर्जी मुकदमें, फर्जी एनकाउन्टर, अवैध वसूली, जनान्दोलनों का निर्मम दमन, देश की पुलिस का चेहरा है। कानूनी मर्यादाओं का उल्लंघन कर लोगों से मारपीट, थर्ड डिग्री का इस्तेमाल, अवैध हिरासत में रखना, गाली-गलौच पुलिस की कार्यशैली है।
कुछ लोगों का कहना कि कालाढूंगी में पुलिस ने ढील दे दी, उसे सख्ती बरतनी चाहिये थी। सवाल यह है कि क्या वहां पर खून की नदियां बहा देनी चाहिये थी। पुलिस की गोली से घायल दो लोगों का मामला इस शोरगुल में कहीं दब गया है। शासक वर्ग का एक हिस्सा इस तरह की घटनाएं रोकने के लिए पुलिस को और ज्यादा दमनात्मक रूख अपनाने की बात कह रहा है। हमेशा सत्ताधारी ऐसे ही सोचते हैं, वह कभी अपनी गलती नहीं मानते, वे सोचते हैं कि दमन करके, कानून का भय दिखाकर वे सब कुछ ठीक कर लेंगे। परन्तु लोकतन्त्र में ऐसा सम्भव नहीं है।
इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, देश के कानूनी ढांचे में आमूल-चूल बदलाव लाने की जरुरत है जिसका दम इस देश की राजनैतिक पार्टियों में नहीं है। अब जनता को ही संगठित होकर पहल करनी होगी।
मुनीष कुमार
संपादक- ‘नागरिक’
हिन्दी, पाक्षिक समाचार पत्र
मोबाइल नं. 09837474340
लोग खुलकर नहीं बोल रहे हैं कानाफूसी कर रहे हैं कि बलवन्त की हत्या नीरज ने नहीं की, तो फिर किसने की, बरबस ही यह सवाल कौंध जाता है। इसका उत्तर ग्रामीण कुछ इस प्रकार बयां करते हैं।
कोटाबाग के ब्लाक प्रमुख बलवन्त सिंह ने 22 अगस्त की रात में बसपा नेता नीरज तिवारी की एक रेस्टोरेन्ट में पिटाई कर दी। पिटाई के बाद नीरज तिवारी भागकर थाना कालाढूंगी पहुंचा, कुछ ही देर बाद बलवन्त भी एक पत्रकार के साथ कालाढूंगी थाने में पहुंच गया। बलवन्त वहां पुलिस से भी गाली-गलौच करने लगा। ग्रामीणों का कहना है कि जिस गोली से बलवंत की हत्या हुई वह पुलिस की थी और उसकी हत्या थाने के बाहर नहीं थाने के भीतर के कमरे में हुयी है। हत्या के बाद पुलिस ने बलवन्त की लाश को बाहर डलवा दिया और खून के निशान साफ करवा दिये। इस दौरान थाने की बत्ती बुझा दी गयी।
मारे गये भाजपा नेता बलवन्त सिंह पर कुल 19 मुकदमें लगे थे तथा बसपा नेता नीरज तिवारी पर 2 मुकदमें चल रहे हैं।
ग्रामीण बताते हैं अगले दिन सुबह जब बलवन्त की बहन इंद्रा, अपने परिजनों व ग्रामीणों के साथ हत्या की जानकारी लेने कोतवाली पहुंची तो बहन इन्द्रा को बलवन्त की चप्पलें कोतवाली परिसर के भीतर पड़ी दिखाई दीं। बलवन्त के परिजनों ने जब इस पर पुलिस के सामने सन्देह व्यक्त किया तो खाकी ने इसका जवाब उन्हें पिटाई से दिया। इससे मामला बिगड़ गया, जनाक्रोश भड़क उठा व जनता बेकाबू हो गयी और फिर वह सब कुछ हुआ जिसके लिये न तो क्षेत्र की जनता तैयार थी और न ही पुलिस। कालाढूंगी थाना फूंक दिया गया। दर्जनों वाहन जला दिये गये, पुलिसकर्मी भागते-छिपते नजर आए।
इसी दौरान नैनीताल के एस.एस.पी. मोहन बंग्याल, डी.एम. शैलेेष बगौली, सी.ओ. मुकेश चैहान पुलिस टीम व बज्र वाहन साथ लेकर कालाढूंगी पहुंचे। आक्रोशित जनता को देखकर डी.एम., एस.एस.पी., सी.ओ. व पुलिस के कुछ सिपाही मौके से भाग खड़े हुये। उसी काफिले में शामिल पूरन लाल व 4-5 अन्य सिपाही पब्लिक के बीच फंस गये जिनकी जनता ने पिटाई कर दी। इसी बीच किसी ने पूरन लाल के सर पर पत्थर दे मारा जिससे पूरन लाल की मौत हो गयी।
22 व 23 अगस्त का घटनाक्रम पुलिस प्रशासन की कार्यवाही पर कई तरह के सवाल खड़े करता है। पहला यह कि बलवन्त की हत्या थाने के भीतर हुयी है तो इस बात को स्वीकार करने में आई.जी. को तीन दिन का समय क्यों लग गया। इससे अंदेशा होता है कि क्षेत्र के ग्रामीण इस मामले में जो कुछ बोल रहे हैं कहीं वह सच तो नहीं है। दूसरी बात पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों ने मौके से भागने के बजाय भीड़ को समझाने का प्रयास क्यों नहीं किया, क्या उनकी अपने स्टाफ के प्रति यही जबाबदेही है कि वह उन्हें छोड़कर मौके से भाग खड़े हों। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या कालाढूंगी की घटना उत्तराखण्ड की या देश की अनोखी घटना है।
इसका जवाब है नहीं। देश में शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब देश में जनता का आक्रोश सरकारों के जनविरोधी रवैयों के कारण पुलिस अथवा सुरक्षा बलों के खिलाफ न फूटता हो। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान पुलिस द्वारा रचा गया रामपुर तिराहा काण्ड, खटीमा, मसूरी काण्ड क्या उत्तराखण्ड की जनता कभी भूल सकती है जब पुलिस ने दर्जनों आंदोलनकारियों की कुर्बानी ले ली थी। मां-बहनों की इज्जत से खिलवाड़ किया था। कालाढूंगी की घटना क्या वर्ष 2001 में रामनगर में पुलिस कस्टडी में हुयी मौत के बाद शहर में मचे बबाल से अलग है या दो वर्ष पूर्व बेतालघाट में पुलिस उत्पीड़न से आक्रोशित जनसमूह द्वारा इंस्पेक्टर का मुंह काला कर देने की घटना से अलग।
यह सभी घटनाएं चीख-चीखकर एक बात कह रही हैं, वह यह कि देश की पुलिस आजादी के 62 वर्षों बाद भी लगभग वैसी ही है जैसी ब्रिटिशकालीन गुलाम भारत में थी। देश में अंग्रेजों के बनाए कानून आज भी राज करते हैं। लार्ड मैकाले द्वारा बनायी गयी भारतीय दण्ड संहिता 1860, पुलिस अधिनियम 1861, पुलिस अधिनियम 1888, पुलिस द्रोह अधिनियम 1922 इत्यादि देश के कानून की किताबों में आज भी मौजूद है। अंगेेजों ने भारत में पुलिस का ढांचा अपने लूट के साम्राज्य को कायम करने व देश की जनता का उत्पीड़न करने के लिये कायम किया था। आजादी के बाद सत्ताधारी पंूजीपतियों की पार्टी कांग्रेस ने उसी ब्रिटिशकालीन ढांचे को कुछ फेरबदल करके गोद ले लिया। बिडम्बना यह कि देश में एक के बाद एक सरकारें बदलती गयी परन्तु ढांचे में कोई भी बुनियादी बदलाव नहीं हुआ, इसे बदलने की राजनैतिक इच्छा शक्ति किसी भी सरकार ने नहीं दिखाई।
कालाढूंगी में उपजे असंतोष का कारण मात्र बलवन्त सिंह की हत्या नहीं था। इस असंतोष के पीछे वे सभी कारण मौजूद हैं जिसे देश की जनता रोज व रोज अपनी जिन्दगी में झेलती है। थाने जाने के नाम पर आज भी आम आदमी थर्रा जाता है। कमजोरों का उत्पीड़न, ताकतवरों-धनवानों का सहयोग देश की पुलिस का गुण है। फर्जी मुकदमें, फर्जी एनकाउन्टर, अवैध वसूली, जनान्दोलनों का निर्मम दमन, देश की पुलिस का चेहरा है। कानूनी मर्यादाओं का उल्लंघन कर लोगों से मारपीट, थर्ड डिग्री का इस्तेमाल, अवैध हिरासत में रखना, गाली-गलौच पुलिस की कार्यशैली है।
कुछ लोगों का कहना कि कालाढूंगी में पुलिस ने ढील दे दी, उसे सख्ती बरतनी चाहिये थी। सवाल यह है कि क्या वहां पर खून की नदियां बहा देनी चाहिये थी। पुलिस की गोली से घायल दो लोगों का मामला इस शोरगुल में कहीं दब गया है। शासक वर्ग का एक हिस्सा इस तरह की घटनाएं रोकने के लिए पुलिस को और ज्यादा दमनात्मक रूख अपनाने की बात कह रहा है। हमेशा सत्ताधारी ऐसे ही सोचते हैं, वह कभी अपनी गलती नहीं मानते, वे सोचते हैं कि दमन करके, कानून का भय दिखाकर वे सब कुछ ठीक कर लेंगे। परन्तु लोकतन्त्र में ऐसा सम्भव नहीं है।
इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, देश के कानूनी ढांचे में आमूल-चूल बदलाव लाने की जरुरत है जिसका दम इस देश की राजनैतिक पार्टियों में नहीं है। अब जनता को ही संगठित होकर पहल करनी होगी।
मुनीष कुमार
संपादक- ‘नागरिक’
हिन्दी, पाक्षिक समाचार पत्र
मोबाइल नं. 09837474340
2 टिप्पणियां:
कोशिशें ज़ारी हैं!
अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
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