रविवार, 28 मार्च 2010

अल्लाह के घर महफ़ूज़ नहीं हैं

महफ़ूज़ नहीं घर बन्दों के, अल्लाह के घर महफूज़ नहीं।
इस आग और खून की होली में, अब कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
शोलों की तपिश बढ़ते-बढ़ते, हर आँगन तक आ पहुंची है।
अब फूल झुलसते जाते हैं, पेड़ों के शजर महफ़ूज़ नहीं॥
कल तक थी सुकूँ जिन शहरों में, वह मौत की दस्तक सुनते हैं ।
हर रोज धमाके होते हैं, अब कोई नगर महफ़ूज़ नहीं॥
दिन-रात भड़कती दोजख में, जिस्मों का ईधन पड़ता है॥
क्या जिक्र हो, आम इंसानों का, खुद फितना गर महफ़ूज़ नहीं॥
आबाद मकां इक लमहे में, वीरान खंडर बन जाते हैं।
दीवारों-दर महफ़ूज़ नहीं, और जैद-ओ-बकर महफ़ूज़ नहीं॥
शमशान बने कूचे गलियां, हर सिम्त मची है आहो फुगाँ ।
फ़रियाद है माओं बहनों की, अब लख्ते-जिगर महफ़ूज़ नहीं ॥
इंसान को डर इंसानों से, इंसान नुमा हैवानों से।
महफूज़ नहीं सर पर शिमले, शिमलों में सर महफूज़ नहीं॥
महंगा हो अगर आटा अर्शी, और खुदकश जैकेट सस्ती हो,
फिर मौत का भंगड़ा होता है, फिर कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥

-इरशाद 'अर्शी' मलिक
पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही हैजिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है

20 टिप्‍पणियां:

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

aap shi hen lekin ek sch voh he jo uprvaale ne likh diyaa he ke ese log jo arajkta phela rhe hen ek din inshaallah voh jail men honge or aap hm hmaari proprty desh mndir msjid gurudvaare chrch surkshit rhenge.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

-इरशाद 'अर्शी' मलिक की
सुन्दर कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद!

Anita kumar ने कहा…

बहुत ही मार्मिक कविता है धन्यवाद

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

बेहतरीन खयाल

विजय प्रकाश सिंह ने कहा…

bahut sundar kavita hai | This side or that side only common people get affected but it is also true that its they who get swayed easily.

Thanx.

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

इस शानदार कविता को पढ़वाने के लिए बहुत बहुत आभार!

ajay prakash ने कहा…

सुमन जी, पाकिस्तान के क्रूर यथार्थ से परिचित कराने वाली नज़्म पढवाने के लिए शुक्रिया.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

अब कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
waah, bahut sahi bhawnayen

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

शानदार!

شہروز ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत और लाजवाब नज़्म!!

क्या अच्छा होता गर कठिन उर्दू शब्दों के अर्थ भी दे दिए जाते.
हमज़बान पर आपके ब्लॉग का लिंक दे रहा हूँ.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

nice

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

अल्लाह के घर के महफ़ूज नहीं है इस बात को लिख पाने के लिये साहस चाहिये वो भी पाकिस्तान में रहकर... गहरा दर्द झलक रहा है।

Anil Pusadkar ने कहा…

इस सच की तारीफ़ के लिये शब्द नही मिल रहे।कलम के अजेय बहादुर सिपाही को सलाम करता हूं।

Anil Pusadkar ने कहा…

इस सच की तारीफ़ के लिये शब्द नही मिल रहे।कलम के अजेय बहादुर सिपाही को सलाम करता हूं।

Anil Pusadkar ने कहा…

इस सच की तारीफ़ के लिये शब्द नही मिल रहे।कलम के अजेय बहादुर सिपाही को सलाम करता हूं।

Anil Pusadkar ने कहा…

इस सच की तारीफ़ के लिये शब्द नही मिल रहे।कलम के अजेय बहादुर सिपाही को सलाम करता हूं।

राज भाटिय़ा ने कहा…

नाईस nice

Mohinder56 ने कहा…

धर्म जब अपनी असल जगह छोड कर सडक पर आ जाता है तो वह धर्म नहीं हथियार बन जाता है और हथियार नहीं जानता कि किसे का मजहब कौन सा है.

सुन्दर कविता पढवाने के लिये आभार.

किसी सुनी हुई गजल का एक शेर याद आ रहा है

"मस्जिदें हैं नमाजियों के लिये
तुम अपने घर में कहीं खुदा रखना
घर की तामीर चाहे कैसी सी भी हो
रोने के लिये थोडी जगह रखना"

bodhisatva kastooriya ने कहा…

मानव मूल्यों का, जब कभी पतन होता है,
संस्क्रति सिसकतीहै,और तभी वतन रोता है!
जब नारी- मां,बहन और बेटी हुआ करती थी,
तब मां भी घर में, बेटी होने की दुआ करती थी!
अब बेटी को हम ,जीन्स-पैन्ट पहन डुलाते हैं,
और बेटी को बेटा बनाने का, मुकुट लगाते हैं !
वस्त्रों से ही अगं-प्रदर्शन कर,यौन-निमन्त्रण करते हैं,
इसीलिये पथ पर ही,दुशासन चीर-हरण करते हैं!
आज बहू-बेटी संग बैठ ,टीवी पर कामुक चित्र देख रहे ,
अपनी संस्क्रति को दे तिलांजलि ,पाश्चात्य को सहेज़ रहे!
बेटी को धन-कुबेर बनने का,दिवा-स्वप्न भी हैं दिखा रही!
समाचार पढा- श्वसुर बहू संग ,रोज़ बलात्कार करता है,
धिक्कार है! क्यों नही उसका अन्तस चीत्कार करता है?
भाई-बहन के रिश्ते में भी, अब व्याभिचार हो रहा है,
पता नही कब कहां,मानव-मूल्यों का तिरस्कार हो है !
पता नही क्यों ? हम चर्चा कर रहे इस अभिशाप की,
हो सकती है यह घट्ना घर मेरे, या फ़िर आप की !
यह पीढी कहती हैं -"हर युग में ऐसा होता रहा है,
मानव पशु-कर्म करताहै,और भगवन सोता रहा है!"
वो कहती -"अजी चुप बैठिये !आपकी उम्र का तकाज़ा है
समय-सारथी संग चल रहे हैं, उसने ही यह हमें नवाज़ा है!
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरवनिकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७

मेरी आवाज सुनो ने कहा…

bahut sundar gazal...!!

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