गांधी और बराक ओबामा: संबंध् की पड़ताल
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा गांधी के भारी प्रशंसक हैं। हाल की अपनीभारत की यात्रा के दौरान उन्होंने गांधी और विशेषकर उनके अहिंसा दर्शन की प्रशस्ति की।
साथ ही गांधी के प्रति अपनी निष्ठा का इजहार किया। वे मुंबई और दिल्ली दोनों जगह
गांधी स्थलों पर गए। संसद में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने यहां तक कहा कि गांध्ी
नहीं होते तो वे अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं हो सकते थे। ओबामा गांध्ी को अपना रोल
माॅडल बताते रहे हैं। वे गांध्ी से इस कदर अभिभूत हैं कि पिछले साल वर्जीनिया प्रांत के
के अरलिंगटन शहर में वेपफील्ड हाई स्कूल में एक छात्रा द्वारा पूछे जाने पर कि वे किस
जीवित अथवा दिवंगत हस्ती के साथ डिनर करना चाहेंगे तो ओबामा ने गांधी का नाम
लिया। अपने एक भाषण में यह कह कर कि ‘‘अमेरिका की जड़ें महात्मा गांधी के भारत
में हैं’’, वे अपने देश की नियति को भी गांध्ी के साथ जोड़ चुके हैं। गांधी को अपने और
अमेरिका के साथ जोड़ने के बाद वे विश्व के साथ जोड़ते हुए कहते हैं, ‘‘महात्मा गांधी ने
पूरी दुनिया में पिछली कई पीढ़ियों से लोगों को प्रेरित किया है।’’ ओबामा गांधी की
सार्वभौमिक सार्थकता देखते हैं और उन्हें मानवता का मसीहा मानते हैं।
कहना न होगा कि गांध्ी को पूरी दुनिया में नाम का यश खूब मिला है। इस मामले
में वे शायद आधुनिक युग के किसी भी चिंतक और नेता से ज्यादा खुशनसीब हैं। उन्हें
दुनिया में सामान्य से लेकर हर क्षेत्रा के विशिष्ट नागरिकों तक प्रायः सभी जानते हैं। बीसवीं
शताब्दी के शुरुआत से उन पर लिखा जाना शुरू हो गया था जो अभी तक जारी है।
हालांकि, जैसा कि अक्सर सभी प्रसिद्धि पाने वालों के साथ होता है, गांधी की प्रशस्ति के
महाकाव्य में एक अध्याय गांधी की निंदा का भी शुरू से रहा है। इस अध्याय में भारत से
लेकर पाकिस्तान और दक्षिण अप्रफीका से लेकर यूरोप-अमेरिका तक गांध्ी को पाखंडी
;प्रफाडद्ध बताने के ‘प्रमाण’ दिए जाते हैं। गांध्ी के क्रूर और कामी आचरण से लेकर उन्हें
नस्लवादी और यु( भड़काने वाला ‘सि(’ किया जाता है। गांधी को दलितों को गुलाम
बनाने की साजिश रचने वाला मान कर दलित अस्मिता के उन्नायकों में गांधी-निंदा का
सतत पाठ चलता है। भारत के हिंदूवादियों को गांधी से इस कदर घृणा है कि उनकी हत्या
को वे वध् ;जो राक्षस का किया जाता हैद्ध कहते हैं।
नीयत निंदा करने की हो तो तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा और उनका एकतरपफा इस्तेमाल
किया जाता है। महत्ता पाने वाली सभी हस्तियों के साथ ऐसा होता है। निंदक ईश्वर और
उनके पुत्रों-पैगंबरों को भी नहीं छोड़ते हैं। निंदकों को कितने ही सुस्पष्ट और सशक्त
ज्ञानात्मक तथा संवेदनात्मक तर्क दे दिए जाएं, वे हठपूर्वक अपने पक्ष पर डटे रहते हैं। उसी
तरह जैसे प्रशंसक कमियां और कमजोरियां बताए जाने के बावजूद प्रशंसा-पात्रा की प्रशंसा
से तनिक भी विरत नहीं होते हैं। किसी भी हस्ती की प्रशस्ति और निंदा के बीच गंभीर
आलोचना भी सामने आती है। आलोचना जरूरी है, आधुनिक काल के विचारकों और
विचारों के बारे में और भी जरूरी, ताकि व्यक्तित्व और विचारों में अकाल जड़ता न आ
जाए। गांध्ी की भी समय-समय पर कुछ अच्छी आलोचना सामने आती रही है, जिसमें
उनकी शक्ति और सीमा दोनों का आकलन होता है। यह हो सकता है कि एक आलोचक
केवल शक्ति की बात करता हो और दूसरा केवल सीमाओं की और तीसरा दोनों पक्षों को
सामने लाए। कहना न होगा कि आलोचनात्मक उद्यम में आलाचकों की शक्ति और सीमा
भी प्रकट होती है। गांध्ी के आलोचकों को प्रशंसक निंदक और निंदक प्रशंसक समझते हैं।
इसीलिए दोनों आलोचित गांध्ी में से अपने काम की सामग्री ही निकालते हैं। ऐसा न करके
वे तथ्यों की जानकारी और विश्लेषण की रोशनी में प्रशंसक और निंदक की कोटि से बाहर
आकर खुद गांधी के आलोचक बन सकते हैं। आधुनिकता का यही तकाजा है।
आधुनिकता के तकाजे को अनदेखा करके प्रशसंक और निंदक अपने-अपने ‘ध्र्म’
पर डटे रहते हैं तो देखना होगा कि प्रशंसक और निंदक में किसका महत्व ज्यादा है? हमें
लगता है कि प्रशंसक के मुकाबले निंदक का महत्व ज्यादा होता है। संतों ने निंदक को
नजदीक रखने को कहा है। किशन पटनायक ने अपने एक लेख का शीर्षक ‘गांध्ी की
निंदा अवश्य होनी चाहिए’ दिया तो हम चैंके थे। लेख 1994 में ‘सामयिक वार्ता’ में छपा
था और अब उनके लेखों की पुस्तक ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ ;राजकमल प्रकाशन,
2000द्ध में संकलित है। इस लेख में मायावती द्वारा की गई गांध्ी-निंदा से कुछ आलोचना
निकालने की कोशिश की गई है। उसी पुस्तक में उनका एक और लेख ‘गांध्ी का पाखंड’
संकलित है जो 1977 में लिखा गया था। इस लेख में गांध्ी-निंदकों द्वारा प्रचलित पाखंड
शब्द में से आलोचना के कुछ सूत्रा निकालने की कोशिश है। यहां हम लेखों पर चर्चा नहीं
कर रहे हैं। हमने हवाला इसलिए दिया है कि प्रशंसा से ज्यादा निंदा में आलोचना की
सामग्री हो सकती है।
पाकिस्तान से प्रकाशित ‘संडे मेल’ अखबार ने 5 नवंबर 2010 के संपादकीय में
‘प्रमाण’ सहित गांध्ी-निंदा की है। अखबार ने यह संपादकीय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक
ओबामा की भारत यात्रा के दौरान गांधी-प्रशंसा की प्रतिक्रिया में लिखा है। हम यहां उन
प्रमाणों का उल्लेख नहीं कर रहे हैं, न ही स्पष्टीकरण दे रहे हैं जो अखबार ने उ(ृत किए
हैं। अखबार ने चिंता जताई है कि ओबामा भी गांधी को महान बताने के भारत के प्रचार
का शिकार हो गए हैं। हालांकि अखबार को यह पता नहीं है कि ओबामा लंबे समय से
गांध्ी के प्रशंसक हैं और उसका आधर, जैसा कि हम आगे देखेंगे, भारत का प्रचार नहीं
है। अखबार यह भी नहीं जानता कि भारत गांधी-निंदा का सबसे बड़ा गढ़ है। बहरहाल,
अखबार गांध्ी के मुकाबले जिन्ना को लेकर आया है। अखबार की नीयत कुछ रही हो,
इससे कुछ लोगों को गांध्ी और जिन्ना दोनों को जानने-समझने की प्रेरणा मिल सकती है।
कम से कम उन ‘प्रमाणों’ की जांच की इच्छा हो सकती है जो अखबार ने दिए हैं। उस
कवायद में गांधी और जिन्ना का कोई अच्छा आलोचक बन सकता है। कुछ पाठक ओबामा
के गांधी-प्रेम की तह में भी जाने की कोशिश कर सकते हैं।
आइए बराक ओबामा की गांधी-प्रशंसा का अर्थ निकालने का प्रयास करें। कसौटी
वही रखते हैं - क्या ओबामा की भूरि-भूरि गांधी-प्रशंसा उन्हें गांध्ी का अच्छा आलोचक
बनाती है, बना सकती है? क्या ओबामा की गांधी-प्रशंसा पर पफूल बरसाने वाले भारत के
नेता, मीडिया वाले, बुद्धिजीवी, गांधीवादी गांधी के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि अपना सकते
हैं? उनमें वैसी इच्छा उत्पन्न हो सकती है? ओबामा की गांधी-प्रशंसा की पड़ताल में हम
गांधी के सिद्धांतो की कसौटी नहीं लगाने जा रहे हैं। हालांकि यह ध्यान दिलाना चाहते हैं
कि गांधी सामाजिक-राजनीतिक काम करते हुए यह ध्यान रखते थे कि लोगों पर ताम-झाम
भारी न पड़े। अपने काफिले सहित ओबामा और भारत में उनकी अगवानी करने वाले
शासक वर्ग का ताम-झाम मिल कर लोगों पर इस कदर भारी था कि उसमें कुछ बहुत बड़े
लोग ही दिख पा रहे थे।
ओबामा की गांध्ी-प्रशंसा का एक निश्चित ऐतिहासिक आधर है। ऐसा नहीं है कि
उन्होंने बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आने पर गांध्ी-प्रशंसा की रूढ़ि निभाई हो। पहले का
तो हम ज्यादा नहीं जानते लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के दौरान और बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति
उन्होंने गांधी के व्यक्तित्व और अहिंसक दर्शन की कई अवसरों पर प्रशंसा की है। कारण
है कि अमेरिका में अश्वेतों के नागरिक अध्किारों के लिए किए गए आंदोलन पर गांध्ी के
सत्याग्रह का प्रभाव रहा है। शुरू में उल्लिखित स्कूल के छात्रों से वार्तालाप करते हुए
ओबामा कहते हैं, ‘‘मुझे उनसे बड़ी प्रेरणा मिलती है। उन्होंने डॉ. मार्टिन लूथर किंग को
प्रेरित किया, अगर भारत में अहिंसक आंदोलन नहीं हुआ होता तो हो सकता है आप लोग
नागरिक अध्किारों के लिए चला वैसा ही अहिंसक आंदोलन संयुक्त राज्य में नहीं देख
पाते।’’
हालांकि ओबामा ने उल्लेख नहीं किया है लेकिन डाॅ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के
पहले बीस के दशक के एक अप्रफीकी-अमरीकी असा रेंडोल्पफ पिफलिप पर गांध्ी के
सत्याग्रह का प्रभाव था। वे नागरिक अध्किार आंदोलन और मजदूर आंदोलन के नेता थे
जिन्हें अप्रफीकी-अमरीकी गांध्ी भी कहा गया था। उनके बाद डाॅ. किंग पर गांध्ी का प्रभाव
रहा ही है। ओबामा अप्रफीकी-अमरीकी दास समुदाय से नहीं हैं, उनकी पत्नी मिशेल दास
समुदाय से आती हैं, लेकिन उनके राष्ट्रपति चुने जाने में नागरिक अध्किार आंदोलन की
विरासत का योगदान है। इस लिहाज से उनका यह कहना सही ठहरता है कि उनका
अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने में गांध्ी की निर्णायक भूमिका है। एक दशक पहले
अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भी भारतीय संसद को संबोध्ति करते हुए कहा था कि
गांध्ी के अहिंसा दर्शन ने अमेरिका में नस्ली भेदभाव की समस्या को शांतिपूर्वक सुलझाने
में मदद की।
कहने का आशय यह है कि पिता की तरपफ से अश्वेत समुदाय का होने के नाते
ओबामा पर भी गांध्ी का प्रभाव पड़ा है। वे अपने को गांध्ी का कर्जदार मानते प्रतीत होते
हैं। ऐसा लगता है गांध्ी के मामले में उनकी प्रभाव-प्रवणता श्र(ा की हद तक जा पहुंची
है। हो सकता है राष्ट्रपति बन जाने पर यह श्र(ाभाव उमड़ कर आया हो। लेकिन गांध्ी के
प्रति श्र(ाभाव के बावजूद वे गांध्ी के अनुयायी नहीं हैं। वे डाॅ. किंग के अनुयायी भी नहीं
हैं। गांध्ी या डाॅ. किंग का अनुयायी अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं हो सकता। डाॅ. किंग केवल
अश्वेतों के नागरिक अध्किारों के लिए लड़ने वाले अप्रफीकी-अमरीकन नहीं थे। वे
अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध्ी थे, यह हम ओबामा के चुनाव जीतने के वक्त ‘समय
संवाद’ में लिख चुके हैं।
ओबामा से गुरु गांध्ी का शिष्य होने की अपेक्षा करना गलत होगा। ओबामा पर
गांध्ी का प्रभाव परोक्ष रूप से है। गांध्ी के साथ रहने वाले नेहरू उनके शिष्य नहीं हो
पाए। किसी राजपुरुष का गांध्ी का शिष्य होना अभी बाकी है और मानवता के सामने
दरपेश बड़ी चुनौती है। ओबामा के गांध्ी-प्रेम की आलोचना करने वाले गांध्ी के स्वराज्य,
राज्य, सत्ता, सरकार, विकास आदि विचारों और प्रतिरोध् की अहिंसक कार्यप्रणाली की
कसौटी लागू करते हैं। यह निरर्थक कवायद है जो कुछ हद तक ओबामा पर अपने पहले
लेखों में हमने भी की है। यह उस आध्ुनिक पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता का दौर है जिसे
गांध्ी ने शैतानी कहा था और उसका विकल्प पेश किया था। जब उस विकल्प को ओबामा
के आलोचक मौका देने को तैयार नहीं हैं, भले उनमें माक्र्सवादी से लेकर गांध्ीवादी तक
हों, तो अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रतिष्ठान के शीर्ष पर बैठे ओबामा से कैसे अपेक्षा की जा
सकती है कि वे गांध्ीवादी कसौटी पर खरे उतरेंगे?
अपने चुनाव में ओबामा ने गांध्ी का उल्लेख किया। लेकिन उन्होंने वोट मांगते वक्त
गांध्ीवादी सि(ांतों अथवा मूल्यों का जिक्र नहीं किया। उन्होंने अमेरिकावासियों को मंदी से
निकाल कर उन्हें उनका पहले-सा जीवन-स्तर प्रदान करने का वादा किया। सादगी न चुनाव
प्रचार में थी, न विचार में। राज्य के केंद्रीकृत विशाल ढांचे को गांध्ी स्वराज्य यानी मनुष्य
की स्वतंत्राता के लिए दमनकारी मानते थे। ओबामा यह जानते होंगे, लेकिन उन्होंने
शक्तिशाली अमेरिकी राज्य की शक्ति को वैसा ही बनाए रखने का प्रण नागरिकों से किया।
आज भी वे वही कर रहे हैं। अपफगानिस्तान और इराक में जो पहले से चल रहा है वह
और ताकत से जारी है ही, हाल में नेटो कमांडरों ने पाकिस्तान की सीमा में घुस ड्रोन
हमले बढ़ाने का निर्णय किया है।
ओबामा ने ‘अमेरिका के शत्राुओं’ के खिलापफ अहिंसक संघर्ष चलाने की बात कभी
नहीं चलाई। वह उनके दिमाग में भी शायद ही कभी आती हो। भारत की संसद में दिए
भाषण में ओबामा ने गांध्ी के आखिरी आदमी का कोई जिक्र नहीं किया। उनका भाषण
मनमोहन सिंह के लोगों को संबोध्ति था जिनका प्रगाढ़ संबंध् वे अमेरिका के साथ बनाना
चाहते हैं। गांध्ी से प्रभावित कोई व्यक्ति डरा हुआ नहीं हो सकता। ओबामा के साथ उनकी
सुरक्षा के लिए आया लाव-लश्कर उनके गांध्ीवादी नहीं होने की हकीकत को बच्चों के
सामने भी जाहिर कर देता है।
कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति गांध्ी के अहिंसा दर्शन में विश्वास नहीं कर सकता। न
विचार के स्तर पर न अमल के स्तर पर। बल्कि हथियार और बाजार के दो पहियों पर
हांकी जाने वाली आज की दुनिया में किसी राष्ट्राध्यक्ष से गांधी के सिद्धांतो के पालन की
अपेक्षा नहीं की जा सकती। उसके लिए मानवता को अभी लगता है लंबा इंतजार करना
होगा। अफ़सोस यह है कि तब तक मानवता का, और बाकी जीवधरियों का भी, बड़ा
हिस्सा तबाह और समाप्त हो चुका होगा।
यहीं से एक बारीक धगा निकलता नजर आता है। विशेष ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के
अलावा ओबामा का गांध्ी को बड़ा मान देने का एक अन्य कारण पूंजीवादी साम्राज्यवाद
की बलि चढ़ने वाले मानवता के समूहों के प्रति उनके बचे सदस्यों की रिणशोध् की भावना
लगती है जो उन्हें गांध्ी तक खींच ले जाती है। ओबामा, हो सकता है गांध्ी की मापर्फत,
यानी उनके प्रति प्रेम और श्र(ा रख कर, अपने उन असंख्य पुरखों का कर्ज उतारते हों
जिन्हें पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने पशुवत प्रताड़ित किया और विरोध् करने पर मौत के घाट
उतार दिया। लोहिया ने लिखा है कि दुनिया के सताए गए लोग गांध्ी की हत्या पर रोए
और शोकाकुल हुए थे। गांधी ओबामा की भावनात्मक जरूरत हैं।
ओबामा की गांधी-प्रशंसा का ऐतिहासिक आधर और जेनुइन कारण होने के बावजूद
वे न अपने तईं, न अमेरिकी सत्ता-प्रतिष्ठान में गांध्ी का उपयोग कर सकते हैं। ओबामा की
गांधी-प्रशंसा प्रसवित नहीं हो सकती। यहां तक कोई समस्या नहीं है। दरअसल, गांध्ी
आधुनिक सभ्यता में एक ऐसी उपस्थिति हैं जो सत्ता के गलियारों के बाहर पीड़ित मानवता
को आज भी सांत्वना देती भटकती है। यह कहती हुई कि जीत अंत में सत्य की होती है,
होगी। समस्या यह है कि ओबामा की गांधी-प्रशंसा गांधी को उसी आधुनिक सभ्यता की
वैधता का हथियार बना देती है जिसके खिलापफ गांधी का संघर्ष था। ओबामा साम्राज्यवादी
प्रतिष्ठान के शीर्ष पुरुष हैं। उनकी प्रशंसा सामान्य गांधी-प्रशंसकों से कहीं ज्यादा
गांधी-विनाशक हो सकती है। ‘‘अमेरिका की जड़ें गांधी के भारत में हैं’’ कह कर राष्ट्रपति
यह संदेश देने में सपफल होते हैं कि अमेरिका और भारत एक-दूसरे के सगे हैं। यह भारत
के मौजूदा शासक वर्ग के लिए महानतम अभीप्सित संदेश है। लेकिन इसमें आधुनिक
सभ्यता के विद्रूप उत्तराध्किारी अमेरिका के साथ गांधी को जोड़ा गया है। यह तथ्य और
विचार दोनों स्तर पर गलत है। गांधी का आधुनिक सभ्यता में समायोजन आधुनिक सभ्यता
को मजबूत और गांधी को कमजोर करता जाता है।
अब थोड़ी चर्चा भारत के शासक वर्ग की करते हैं। अकेले पफारवर्ड ब्लाक के
सांसदों ने ओबामा के संसद में दिए गए भाषण का बहिष्कार किया। वे बधई के पात्र हैं।
हालांकि ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है कि उनके अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोध् की
विचारधरा में गांध्ी का कोई स्थान है। एक बसपा सांसद ने ओबामा को अंबेडकर की
‘व्हाट गांधी एंड कांग्रेस हेव डन फॉर अनटचेबल्स’ किताब दी। वे ओबामा द्वारा कतिपय
भारतीय हस्तियों के साथ अंबेडकर का नाम लेने से भी उत्साहित हुए होंगे। किताब देने के
पीछे उनकी मंशा रही होगी कि ओबामा पर चढ़ा गांधी-प्रेम का भूत उतर कर
अंबेडकर-प्रेम का भूत चढ़ जाए। हो सकता है ओबामा वह किताब कभी पढ़ लें। उससे
निश्चित ही उनका गांध्ी के प्रति भारतीय संदर्भ में एक आलोचनात्मक रवैया विकसित हो
सकता है। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि किताब देने वाले सांसद पर ओबामा की
गांधी-प्रशंसा का कोई प्रभाव पड़ा होगा? यानी वे गांधी-निंदक से गांध्ी के आलोचक बनने
की दिशा में बढ़ने की सोचते होंगे? कम्युनिस्ट सांसदों ने ओबामा का भाषण सुना और
सराहा। उनमें से एक नेता ने गांधी-प्रशंसा के संदर्भ में भाषण की प्रशंसा की। देखना होगा
कि उनकी तरपफ से गांधी की नई आलोचना कब और किस रूप में सामने आती है? ज्यादा
संभावना यही है कि भाषण पर अपनी प्रतिक्रिया के बाद वे भूल गए होंगे।
हमें ये कुछ सकारात्मक संदर्भ लगे जिनका हमने जिक्र कर दिया। बाकी शासक वर्ग
के नुमाइंदों, जिन्हें ओबामा से इंटरेक्ट करने का मौका मिला, और सरकारी व मठी
गांध्ीवादियों के व्यवहार में हमें ओबामा की गांधी-प्रशंसा के संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय
कुछ नहीं लगता है। बहुतों के लिए, गांधी-निंदकों समेत, गांधी-प्रशंसा ओबामा द्वारा की
जाने के चलते स्वीकार्य थी। मनी भवन के अध्किारी कामदार की बातें सुन कर ऐसा लगा
कि वे न गांध्ी को सही जानते हैं, न ओबामा को।
हमको लिख्यो है कहा ...
जगन्नाथदास रत्नाकर की रचना ‘उद्धव शतक’ में उ(व कृष्ण की पाती लेकर
गोकुल में आते हैं तो कृष्ण के विरह में तड़पती गोपियों उन्हें घेर लेती हैं। सभी एक साथ
जानना चाहती हैं कि उद्धव उनके लिए मथुरा से क्या संदेश लेकर आए हैं। गोपियों की
उत्कंठा की एक बानगी देखिए: ‘उझकि उझकि पद कंजन के पंजन पै, पेखि पेखि पाती
छाती छोहन छबै लगी। हमको लिख्यो है कहा हमको लिख्यो है कहा, हमको लिख्यो है
कहा कहन सबै लगी’।। एशिया के दौरे पर निकले ओबामा के पहले भारत आने के
समाचार से शासक वर्ग उद्धव की गोपियों से भी ज्यादा बेहाल हो उठा। आखिर, दूत नहीं,
साक्षात कृष्ण चले आए! चारों तरपफ ओबामा-ओबामा की पुकार मच गई। सभी पूछने लगे,
‘ओबामा की झोली में हमारे लिए क्या है, हमारे लिए क्या है?’
जनता की नजर से यह सच्चाई छिपा ली गई कि ओबामा झोली भरने आए हैं। यह
सच्चाई केवल इसलिए नहीं छिपाई गई कि ओबामा जो झोली भर कर जाएंगे उसमें से यहां
के शासक वर्ग को हिस्सा-पत्ती लेना है, बल्कि इसलिए भी कि जनता को यह न पता चल
जाए कि अपने देश के नागरिकों को मंदी और बेरोजगारी से उबारने के लिए वहां का
राष्ट्रपति किस कदर दुनिया में भागा घूम रहा है। अगर उसने नागरिकों की समस्याएं दूर
नहीं की तो सत्ता से उसका पत्ता सापफ हो जाएगा।
पुराने जमानों में किसी चक्रवर्ती राजा की ऐसी धक और धज नहीं होती होगी जैसी
अमेरिका के राष्ट्रपति की होती है। ओबामा की कुछ ज्यादा ही रही। अमेरिका में उनकी
यात्रा पर खर्च को लेकर विवाद उठ गया। यह आरोप लगा कि ओबामा की यात्रा पर 2008
मिलियन डालर का भारी-भरकम खर्च किया गया है। व्हाइट हाउस ने इस आंकड़े को
अशियोक्तिपूर्ण बताया। जो भी हो, दुनिया का ध्न-संसाध्न खींचना है और रौब-दाब कायम
रखना है तो कापिफला भारी-भरकम और शानो-शौकत वाला होना चाहिए। ओबामा की खूबी
यह रही कि इस सबके साथ गांधी-प्रशंसा का राग भी निभा ले गए।
भारत का शासक वर्ग ओबामा के प्रति संपूर्ण समर्पित हो गया। जो मंत्री-मुख्यमंत्री
नागरिक जीवन में शासन का आतंक पफैलाते हुए नागरिक जीवन को रौंदते चले जाते हैं,
उन्हें समर्पण से पूर्व ओबामा के अमलों को अपना पहचान-पत्रा दिखाना पड़ा। व्यापारियों,
नेताओं, जनरलों, नौकरशाहों, पत्राकारों, बु(िजीवियों, सेलीब्रेटियों - सबको ओबामा में सब
कुछ उच्च कोटि का लगा। कमी बस पाकिस्तान को खरी-खोटी नहीं सुनाने की महसूस की
गई। वह ओबामा ने सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट दिए जाने की वकालत करके पूरी कर
दी। सारा शासक वर्ग जैसे नशे में झूमने लगा। हालांकि विकीलीक्स के खुलासे से पता
चला कि अमेरिका की विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन कहती हैं कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा
परिषद में स्थायी सीट पाने का स्वनियुक्त दाावेदार है। यानी अमेरिका ने इस विषय में अभी
निर्णय नहीं किया है। लेकिन भारत का ‘आशावादी’ शासक वर्ग विकीलीक्स के खुलासे से
अर्थ निकाल लेगा कि अब तो बराक ओबामा अपनी बाम रखने के लिए सीट सुनिश्चित
करेंगे ही। बहरहाल, इस बार सांसदों ने ओबामा से हाथ मिलाने के लिए बिल क्लिंटन के
वक्त जैसी आपा-धपी नहीं मचाई। इसमें शायद रंग का कुछ भेद रहा हो!
पूरे सत्ता प्रतिष्ठान ने एकमुश्त एक संदेश दिया: जो करेगा अमेरिका करेगा। और
अमेरिका सब भला करेगा। अमेरिका हमेशा भला करता है। किसी को अमेरिका का किया
कहीं कुछ बुरा लगता है तो उसे जानना चाहिए कि वह बुरा भले के लिए ही होता है।
भारत का भला न जाने कब का हो जाता, अगर वह रूस के चक्कर में नहीं पड़ता। कोई
बात नहीं। अमेरिका बड़ा कृपानिधन है। देर से आने का बुरा नहीं मानता। परिस्थितियां पूरी
तरह पक चुकी हैं। भला भी पूरा होगा।
इस परिदृश्य का समाजशास्त्राीय विवेचन करें तो कह सकते हैं कि शासक वर्ग में
जो अगड़ा सवर्ण है वह पूरा गुलाम बन चुका है और शूद्र पूरा पिछलग्गू। दलित दोनों को
पीछे छोड़ने की दौड़ लगा रहा है। ऐसे माहौल में नवउदारवादी संपादक-पत्राकार, बु(िजीवी,
कलाकार, खिलाड़ी कोई पीछे नहीं रहना चाहते। अमेरिका का नाम आते ही नवउदारवादी
पत्राकार पूरे रंग में आ जाते हैं। यहां तो साक्षात अमेरिका आया हुआ था। ‘इंडियन एक्सप्रैस’
ने ओबामा के गांध्ी-प्रेम को सबसे ज्यादा विज्ञापित किया। ऐसा नहीं है कि अखबार की
टीम को गांधी से कोई प्रेम है। उसके एक लेखक भानुप्रताप मेहता दो साल पहले तीस
जनवरी के अंक में लिख चुके हैं कि गांधी चुक चुका था, लिहाजा उनकी हत्या नहीं होती
तो छिछालेदर होती। अखबार में ओबामा के गांधी-प्रेम का विज्ञापन समाजवाद की निंदा के
लिए किया गया। अखबार का संपादक, जो एक ब्रोकर भी है, मुखपृष्ठ पर निकल आता है
और बताता है, ‘अमेरिका के साथ बराबर का सौदा हुआ है।’ गुलाम दिमाग बराबर हो जाता
है!
जो सौदे और दावतें हुईं, कोई कह सकता है यह उसी गांध्ी का देश है, ओबामा ने
जिनके गुणगान की झड़ी लगाए रखी? हमें स्कूल के बच्चों के साथ ओबामा का वह
वार्तालाप याद आ रहा था जिसमें ओबामा ने गांधी के साथ खाना खाने की इच्छा व्यक्त
की थी। गांधी का चुनाव बताने के बाद उन्होंने बच्चों से हंस कर कहा, ‘‘भोजन सचमुच
में थोड़ा-सा होगा, वे ढेर सारा नहीं खाते थे।’’ कोई कह सकता है इस देश के संविधन
की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द लिखा हुआ है और सरकारों के लिए कुछ नीति-निर्देशक
तत्व हैं? सौदों, दावतों और मौजमस्ती को देख कर कोई कह सकता है इस देश की अस्सी
प्रतिशत गरीब जनता बीस रुपया रोज पर गुजारा करती है? लोकतंत्रा का गुणगान और उस
पर विमर्श करने वाले नहीं पूछते तो गरीब क्या पूछ पाएगा कि यह कौन-सी नीति है और
कैसा लोकतंत्रा? लेकिन वे तो ज्यादातर ‘विमर्श-विनोद’ में मगन हैं।
भूख है, बेरोजगारी है, बीमारी है, कुपोषण है, मृत्यु है, आत्महत्याएं हैं - लेकिन
गुलाम और पिछलग्गू दिमाग अमेरिका के पीछे कमर कस कर खड़ा हो चुका है। पूछ रहा
है, ‘हमारे लिए क्या, हमारे लिए क्या’? उसके लिए दुनिया माने अमेरिका है। भारत माने
भी अमेरिका है। भारत को अमेरिका बनना ही होगा। अमेरिका बनते ही सबके लिए सब
ठीक हो जाएगा। यकीन न हो तो जिनके लिए बन चुका है, उन्हें देख लो। आंखों के
सामने हैं। वृ(ि दर और नरेगा मिल कर सब और सबको पार लगा देंगे। कहने का आशय
यह है कि ओबामा के गांध्ी-प्रेम का एक वास्तविक आधर है, लेकिन भारत का शासक
वर्ग गांध्ी को लेकर निपट पाखंडी है। इस स्थिति और चरित्रा को बयान करने के लिए लिए
कम से कम हमारे पास कोई शब्द नहीं है।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे
ध्यान दिया जा सकता है जो लोग ओबामा आगमन पर भारत को अमेरिका बना रहेथे, अपने भ्रष्टाचारी चरित्रा और व्यवस्था को बिल्कुल भूले हुए थे। हालांकि ओबामा के
आने के पहले राष्ट्रमंडल खेलों में खुला भ्रष्टाचार हो चुका था। वह होता रहा और सरकार
देखती रही। जैसा कि हमने आपको बताया था, प्रधानमंत्री कार्यालय ने राष्ट्रमंडल खेलों के
भ्रष्टाचार के मामले को दबाने की कोशिश की थी। हाल के 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले में तो
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को दबाने के आरोप में प्रधनमंत्राी को ही तलब कर
लिया है। हाल में ग्लोबल पफाइनांसियल इंटेग्रिटी संस्था की एक रपट आई है कि आजादी
के समय से 2008 तक देश 462 बिलियन डालर काला धन बाहर जा चुका है। रपट यह
भी बताती है कि उसमें से 68 प्रतिशत राशि 1991 यानी नई आर्थिक नीतियां लागू होने के
बाद बाहर गई है।
लेकिन आपने देखा होगा ‘ईमानदार’ प्रधनमंत्राी के चेहरे पर कोई भाव नहीं रहता।
शिकन का तो सवाल ही नहीं। वे निरपेक्ष भाव से वृद्धि-दर का मंत्रा बोलते रहते हैं।
भ्रष्टाचार पर उनका मुंह कभी नहीं खुलता। अलबत्ता राजा की पीठ वे जरूर थपथपाते हैं।
हर्षद मेहता से लेकर अब तक उन्हें भ्रष्टाचारियों से कोई परेशानी नहीं होती। बल्कि उनके
साथ वे सबसे ज्यादा सुविध अनुभव करते हैं। हमने आपको कहा था कि मनमोहन सिंह
अभी तक के सबसे क्रूर प्रधानमंत्री हैं। वे अभी तक के सबसे भ्रष्ट वित्तमंत्री जमा
प्रधानमंत्री भी सिद्ध होंगे, अगर कोई अभी तक का सारा ब्यौरा जुटा कर सामने रखे। कल
आवास रिण घोटाला सामने आया है। देश के संसाध्नों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचने
और हथियारों की खरीद में जो वारे-न्यारे होते है, उसकी बानगी बीच-बीच में मिलती
रहती है। यह भी सामने आ चुका हे कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायध्ीश बड़ी
संख्या में भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।
जो तर्क पहले गरीबी के लिए दिया जाता था, अब भ्रष्टाचार के लिए दिया जाता है।
प्रधानमंत्री कहते हैं भ्रष्टाचार और क्रोनी पूंजीवाद पूरी दुनिया को परेशान किए है। गरीबी
स्थायी और स्वीकृत हो गई है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में शासक वर्ग का रवैया भ्रष्टाचार को
स्थायी और स्वीकृत बनाने का है। सुब्रमण्यम स्वामी प्रधानमंत्री को कौरवों के पाप छिपाने
वाला भीष्म पितामह कहते हैं। यह शासक वर्ग की आपसी शब्दावली है। वरना वे कहते
कि प्रधानमंत्री देश में भ्रष्टाचार के नए अध्याय के लेखक हैं।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का कहना है कि प्रधानमंत्री भ्रष्टाचारियों के साथ खड़े
हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कहती है प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के लिए नैतिक रूप से जिम्मेदार
हैं। मुख्यधरा पार्टियों का कहा मीडिया में छपता है। जबकि प्रधनमंत्राी भ्रष्टाचार के जनक
और भ्रष्टाचारियों के नेता हैं। रतन टाटा का गुस्सा समझ में आता है जो कहते हैं कि
प्रधानमंत्री को कोई दोष नहीं देना चाहिए और हर सौदे में घोटाला नहीं देखना चाहिए,
वरना राष्ट्र का निर्माण कैसे होगा? लेकिन कम से कम वामपंथी पार्टियों की जिम्मेदारी
बनती है कि वे देश की मेहनतकश जनता को सच्चाई बताएं।
जब प्रधनमंत्राी कहते हैं कि यह कड़ी चुनौती का समय है तो इसी अर्थ में कि
गरीबी के साथ भ्रष्टाचार को भी साथ लेकर चलना कड़ी चुनौती का काम है। उन्हें इस
चुनौती को पूरा करने का पूरा विश्वास है। संदेश सापफ है। आगे-आगे देश में भ्रष्टाचार और
गहरा पैठेगा। इसलिए करने के लिए कमर कस लो। संकेत पर्याप्त स्पष्ट हो चुके हैं। शिक्षा
और स्वाथ्य सहित किसी क्षेत्रा में विदेशी पूंजी के खिलापफ मत बोलो, बहुराष्ट्रीय कंपनियों
के संसाध्न लुटाने के खिलापफ मत बोलो, पिफर चाहे जितना भ्रष्टाचार करो। बल्कि अब
छोटे भ्रष्टाचार गिनती में नहीं आएंगे।
मनमोहन सिंह के ‘आदर्श’ भारत का यह नक्शा है। सोनिया के सेकुलर सिपाही
उसमें रंग भरने का काम करते हैं। सोनिया के सेकुलर सिपाहियों को मनमोहन सिंह के
वारिस और अपने भावी नेता पर भरोसा जरूर होगा जो कहता है युवा राजनीति में आएं तो
भ्रष्टाचार खत्म होगा। लेकिन उन्हें अपने नेता से उदारीकरण के पहले सबसे बड़े भ्रष्टाचारी
हर्षद मेहता की उम्र पूछनी चाहिए। स्टैंप घोटाले का नायक तेलगी, सत्यम कंप्यूटर घोटाले
का नायक रामलिंगम, 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले का नायक राजा और करोड़ों रुपया झोंक कर
चुनाव जीतने वाले ‘युवा तुर्क’ भ्रष्टाचार की कला में भले ही वरिष्ठ हों, उम्र में युवा हैं।
आध्ुनिक सभ्यता का यह मलबा है जो भारत के शासक वर्ग ने पिछले 60 सालों
में जमा किया है। पिछले 20 सालों में देश के मलबाकरण में अत्यंत तेजी आई है। शासक
वर्ग ने गांधी को इस मलबे में मिलाने की शुरू से कोशिश है। इध्र के वर्षों में यह
कोशिश तेज हुई है। यह परिघटना गांध्ी की ताकत और कमजोरी दोनों को दर्शाती है।
लगता यही है अभी लंबे समय तक गांधी की एक दुर्निवार उपस्थिति बनी रहेगी। गांधी की
आलोचना बड़ती जाएगी तो आधुनिक सभ्यता के मलबे से मुक्ति की संभावना बनी रहेगी,
एक वैकल्पिक सभ्यता की भी।
प्रेम सिंह
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