भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सचिव एवं पार्टी मुखपत्र न्यू एज के संपादक शमीम फैजी ने अयोध्या विवाद पर हाल ही में आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर अपनी बेबाक राय रखी, साथ ही उन्होंने देश में मुसलमानों के वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होने और उसमें वामपंथी विफलताओं और योगदान को भी रेखांकित किया। उनसे यह सारी बातचीत की दिल्ली के स्थापित युवा स्तंभकार एवं पत्रकार महेश राठी ने।
प्र0-अयोध्या विवाद पर हाल ही में आए इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद देश में एक अलग तरह की बहस शुरू हो गई है कि यह एक अदालती फैसला नहीं बल्कि पंचायती फैसला है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
शमीम फैजी- इसमें दो बिन्दु हैं- पहला यह कि उस सम्पति के मालिकाना हक का मामला हाईकोर्ट की बेन्च के सामने था और मामले को उस दलील के आधार पर हल करने के बजाए आस्था के आधार पर हल करने का प्रयास किया गया है। इसे पंचायती फैसला कहना भी कतई ठीक नहीं है, यह धर्म निरपेक्ष संविधान के विरुद्ध आस्था को बुनियाद बना कर दिया गया फैसला है। आस्था को बुनियाद बनाकर दिए गए इस फैसले ने देश को एक थियोक्रटिस्ट स्टेट बनाने की नींव रख दी है। अब सुप्रीम कोर्ट में जाना है तो इसी पहलू को चुनौती दिया जाना चाहिए। इस फैसले को पंचायती कहने की बुनियाद जमीन को तीन हिस्सो में बाँटे जाने के कारण है। यहाँ भगवान राम को एक पार्टी माना गया है। सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को इसलिए नहीं माना गया कि उनकी अपील कुछ देर से आई थी। यदि एक तरफ कोर्ट अपील को देर से मान रहा है तो उनको हिस्सा क्यों दिया गया। आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि मालिकाना हक के मुकदमे में बँटवारे का फैसला सुनाया गया हो। यह पंचायती नहीं देश के धर्म निरपेक्ष चरित्र के खिलाफ गैर संवैधानिक फैसला है।
प्र0. आज़ाद भारत में और आज़ादी से पहले भी देश में कई आन्दोलन हुए हैं और उनका समाज व राजनीति पर प्रभाव भी रहा है। अयोध्या विवाद से जुड़कर यह जो इतनी लम्बी राजनीति हुई है समाज और राजनीति पर आप उसका क्या प्रभाव देखते हैं?
शमीम फैजी- यह सारा मामला 1986 से शुरू हुआ जब राजीव गांधी ने शाहबानो केस में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने हथियार डाले। उसके बाद उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों में अपना अकाउंट बनाए रखने के लिए एक अदालती फ्राड के जरिए विवादास्पद जगह का ताला खुलवाकर पूजा शुरू करवाई। वह राजीव गांधी ही थे जिन्होंने अयोध्या से अपने चुनावी अभियान को शुरू करते हुए रामराज्य की घोषणा कर डाली। राजीव गांधी सम्प्रदायवादी नहीं थे मगर उन्होंने साम्प्रदायिक कार्ड का इस्तेमाल किया। जिसके बाद हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायवादियों ने उनके इस कार्ड का खूब फायदा उठाया। 1990 में राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सीधा संबंध नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को लागू करने की साजिश से जुड़ा हुआ है। जब देश को नव-उदारवाद के हवाले किया जा रहा था तो देश की जनता मन्दिर-मस्जिद की बेमानी बहस में उलझी हुई थी। आज फिर से फैसला ऐसे वक्त पर आया है जब मनमोहन सिंह की सरकार अमेरिका के सामने घुटने टेक रही है। अपने असली गुनाह छिपाने के लिए मन्दिर मस्जिद विवाद को हवा दी जा सकती है। इस मसले को जिन्दा रखने के लिए समझौते के नाटक से लेकर कुछ भी किया जा सकता है। दरअसल यू0पी0 ए-1 वामपक्ष के समर्थन पर टिकी सरकार थी। वामपक्ष ने जहाँ राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना कानून बनवाने में, आर0टी0आई0 अधिनियम लागू करवाने में सरकार को बाध्य किया वहीं राजेन्द्र सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमेटी भी बनवाई थी। इन कमेटियों की रिपोर्टों के कारण मुसलमान राजनीति का एजेंडा भावनात्मक से ज्यादा आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक सवालों पर केन्द्रित हुआ। अब कोशिश यह होगी कि मुसलमान सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा को भूलकर मन्दिर-मस्जिद के भावनात्मक सवालों में उलझ जाएँ।
प्र0-बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवाद के प्रभाव के रूप में क्या आप देश में एक तरह के साम्प्रदायिक नस्लवाद का उभार भी देखते हैं?
शमीम फैजी- यह बिल्कुल साफ है कि पिछले दशक में चाहे खुलेआम दंगे न हुए हों मगर भावनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक सोच बढ़ी है। अल्पसंख्यकों में मुसलमानों की तादाद अधिक है इसीलिए खास निशाना वही हैं। राजधानी तक में मुसलमानों को मकान किराए पर देने से इंकार किया जाता है। जो पहले से मिली जुली आबादी में रहते हैं या वहाँ उनकी संपत्ति है तो कोशिश यह होती है कि वे उसे छोड़कर चले जाएँ। कोशिश यह होती है कि वे अपने-अपने पाकिस्तान में रहें, जैसा कि मुस्लिम बहुल आबादी को कहा जाता है। जमीन पर धर्म निरपेक्षता कमजोर हुई है। हालाँकि इसके लिए धर्म निरपेक्ष शक्तियाँ भी जिम्मेदार हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में हैं भाई-भाई सिर्फ एक नारा बनकर रह गया है। व्यवहार में जमीन पर यह दिखाई नहीं देता है। धर्म निरपेक्षता का एक अर्थ धर्म और राजनीति को अलग रखना भी है। मगर वामपक्ष को छोड़कर सभी पार्टियों द्वारा रमजानों में रोजा इफ्तार का नाटक क्या है? महाराष्ट्र में गणेश उत्सव व नवरात्र पूजा राजनैतिक दलों के नाम व संरक्षण में होते हैं। अब काली पूजा के नाम पर भी यही सब शुरू हो गया है। क्या धर्म का राजनीति के साथ उपयोग नहीं है।
प्र0-देश में इस साम्प्रदायिकता की राजनीति और साम्प्रदायिक सद्भाव के बिगड़ने में कांग्रेस की क्या भूमिका देखते हैं?
शमीम फैजी- अलग अलग समय पर कांग्रेस ने साॅफ्ट हिन्दुत्व का खेल खेला है। पं0 जवाहर लाल नेहरू के जमाने में कांग्रेस में ऐसा था कि जो खुलेआम हिन्दुत्ववादी थे उन तक को कैबिनेट में स्थान मिला था, जैसे गोविन्द बल्लभ पंत और श्यामा प्रसाद मुखर्जी। फिर भी पंडितजी ने कभी साम्प्रदायिकता से समझौता नहीं किया। मगर इंदिरा गांधी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। जब इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा और दिखावे का समाजवाद विफल हो गया तो वे साम्प्रदायिक भावनाओं का इस्तेमाल करने लगीं। विश्व हिन्दू परिषद तक उनके आशीर्वाद से कर्ण सिंह ने स्थापित की, हरिद्वार में भारत माता मन्दिर के उद्घाटन में वे देवरस के साथ थीं। पंजाब में सिख आतंकवाद और भिंडरवाले पर भी उनकी मेहरबानी थी। खालिस्तानी खतरे को दिखाकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ नारे दिए। यहाँ तक कहा कि देश की एकता को असली खतरा अल्पसंख्यकों से ही है। 21वीं सदी का सपना दिखाने वाले राजीव गांधी ने भी शाहबानो केस में मुस्लिम कट्टरपंथ का और बाबरी मामले पर हिन्दू कट्टरपंथ का इस्तेमाल किया। आज कांग्रेस और भाजपा दोनांे ही कई मामलों में एक सी भाषा बोलते हैं। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह पर कांग्रेस ने ढील दिखाई क्योंकि कांग्रेस को न्युक्लियर डील मामले पर भाजपा का साथ चाहिए था। राहुल गांधी आर0एस0एस0 और सिमी को एक जैसा बताते हैं, फिर सिमी पर प्रतिबंध तो आर0एस0एस0 पर क्यों नही? इसका राहुल कोई जवाब नहीं देते हैं। समझौता एक्सप्रेस से अजमेर तक दर्जनों बम काण्ड हो चुके हैं पर भारत सरकार उनकी जाँच पर संजीदा नहीं है। कांग्रेस के लिए धर्म निरपेक्षता एक मुखौटा है जब चाहे पहन लिया जब चाहे उतार दिया।
प्र0-विववादास्पद अयोध्या मामले का एक सर्वमान्य हल आप क्या देखते हैं?
शमीम फैजी- केवल सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट को देश के संविधान के मुताबिक फैसला करना चाहिए और उसे लागू करना चाहिए। बातचीत और समझौता सिर्फ उलझाने और मुद्दे को जिन्दा रखने का ही मक़सद है।
प्र0-वाम शासित राज्यों में मुसलमानों की स्थिति खासतौर पर पं0 बंगाल में काफी खराब है। राजेन्द्र सच्चर कमेटी रिपोर्ट की रोशनी में आपने भी अपनी एक किताब में इसे रेखांकित किया है। केवल सवाल उठाने से आगे भाकपा इस मसले पर क्या जरूरी कदम उठा रही है?
शमीम फैजी- पार्टी ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों के सवालों को प्रमुखता से उठाया है। केरल की अच्यूतमेनन सरकार के जमाने में अल्पसंख्यकों के हक़ों को संजीदगी से लागू किया गया। पं0 बंगाल में एक बड़ी गलती जरूर हुई है। हालाँकि भूमि सुधारों के तहत जमीन के बँटवारे में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का बराबरी से ध्यान रखा गया है, वामपंथी सरकार में उनकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा गया और राज्य में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ है। फिर भी बदकिस्मती इस बात की है कि राज्य में राजनेताओं और नौकरशाहों दोनांे का एक हिस्सा ऐसा है जो यह सोचता है कि मुसलमानों की जान माल की सुरक्षा करके उन्हें अपना वोट बैंक बनाए रखा जाए। मगर जान माल की रक्षा के अलावा उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के लिए कुछ नहीं किया गया। राजेन्द्र सच्चर कमेटी रिपोर्ट पर दो बार भाकपा ने सरकार को ज्ञापन देकर अल्पसंख्यकों के बारे में अपनी माँगें रखी हैं। हमारे ज्ञापन पर ही सरकार ने ओ0बी0सी0 आरक्षण को सात प्रतिशत से बढ़ाकर सत्रह प्रतिशत कर दिया है जिसमें मुस्लिमों को दस प्रतिशत देने का प्रावधान है। हालाँकि वामपंथी सरकार को अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
प्र0-और अब एक आखिरी सवाल, हिन्दुस्तान के मुस्लिम अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए क्या रास्ता आप देखते है? कोई रोड मैप जो उनके बेहतर भविष्य के लिए अपने दिमाग में सोचते हों?
शमीम फैजी- सच्चर कमेटी रिपोर्ट के बाद यूथ में जागरूकता आई है। दुर्भाग्य से जो मुसलमानों के स्थापित नेता हैं वे उनके वास्तविक सवालों के बजाए अरब जगत की बात करते हुए, फिलिस्तीन का रोना रोकर, अलीगढ़ और जामिया के लिए लड़ने की बात करके ही उन मुसलमानों को बहकाते हैं जो कभी अपने बच्चे को प्राथमिक शिक्षा दिलवाने की स्थिति में भी नहीं हैं। बदलाव उसी सूरत में आएगा कि मुस्लिम नौजवान अपनी पसन्द के धर्म निरपेक्ष जनवादी दलों में शामिल हों और उन दलों को मुसलमानों की सामाजिक राजनैतिक व शैक्षिक जरूरतों के अनुसार नीति निर्धारित करने के लिए मजबूर करें।
-महेश राठी
मोबाइल- 09891535484
प्र0-अयोध्या विवाद पर हाल ही में आए इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद देश में एक अलग तरह की बहस शुरू हो गई है कि यह एक अदालती फैसला नहीं बल्कि पंचायती फैसला है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
शमीम फैजी- इसमें दो बिन्दु हैं- पहला यह कि उस सम्पति के मालिकाना हक का मामला हाईकोर्ट की बेन्च के सामने था और मामले को उस दलील के आधार पर हल करने के बजाए आस्था के आधार पर हल करने का प्रयास किया गया है। इसे पंचायती फैसला कहना भी कतई ठीक नहीं है, यह धर्म निरपेक्ष संविधान के विरुद्ध आस्था को बुनियाद बना कर दिया गया फैसला है। आस्था को बुनियाद बनाकर दिए गए इस फैसले ने देश को एक थियोक्रटिस्ट स्टेट बनाने की नींव रख दी है। अब सुप्रीम कोर्ट में जाना है तो इसी पहलू को चुनौती दिया जाना चाहिए। इस फैसले को पंचायती कहने की बुनियाद जमीन को तीन हिस्सो में बाँटे जाने के कारण है। यहाँ भगवान राम को एक पार्टी माना गया है। सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को इसलिए नहीं माना गया कि उनकी अपील कुछ देर से आई थी। यदि एक तरफ कोर्ट अपील को देर से मान रहा है तो उनको हिस्सा क्यों दिया गया। आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि मालिकाना हक के मुकदमे में बँटवारे का फैसला सुनाया गया हो। यह पंचायती नहीं देश के धर्म निरपेक्ष चरित्र के खिलाफ गैर संवैधानिक फैसला है।
प्र0. आज़ाद भारत में और आज़ादी से पहले भी देश में कई आन्दोलन हुए हैं और उनका समाज व राजनीति पर प्रभाव भी रहा है। अयोध्या विवाद से जुड़कर यह जो इतनी लम्बी राजनीति हुई है समाज और राजनीति पर आप उसका क्या प्रभाव देखते हैं?
शमीम फैजी- यह सारा मामला 1986 से शुरू हुआ जब राजीव गांधी ने शाहबानो केस में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने हथियार डाले। उसके बाद उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों में अपना अकाउंट बनाए रखने के लिए एक अदालती फ्राड के जरिए विवादास्पद जगह का ताला खुलवाकर पूजा शुरू करवाई। वह राजीव गांधी ही थे जिन्होंने अयोध्या से अपने चुनावी अभियान को शुरू करते हुए रामराज्य की घोषणा कर डाली। राजीव गांधी सम्प्रदायवादी नहीं थे मगर उन्होंने साम्प्रदायिक कार्ड का इस्तेमाल किया। जिसके बाद हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायवादियों ने उनके इस कार्ड का खूब फायदा उठाया। 1990 में राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सीधा संबंध नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को लागू करने की साजिश से जुड़ा हुआ है। जब देश को नव-उदारवाद के हवाले किया जा रहा था तो देश की जनता मन्दिर-मस्जिद की बेमानी बहस में उलझी हुई थी। आज फिर से फैसला ऐसे वक्त पर आया है जब मनमोहन सिंह की सरकार अमेरिका के सामने घुटने टेक रही है। अपने असली गुनाह छिपाने के लिए मन्दिर मस्जिद विवाद को हवा दी जा सकती है। इस मसले को जिन्दा रखने के लिए समझौते के नाटक से लेकर कुछ भी किया जा सकता है। दरअसल यू0पी0 ए-1 वामपक्ष के समर्थन पर टिकी सरकार थी। वामपक्ष ने जहाँ राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना कानून बनवाने में, आर0टी0आई0 अधिनियम लागू करवाने में सरकार को बाध्य किया वहीं राजेन्द्र सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमेटी भी बनवाई थी। इन कमेटियों की रिपोर्टों के कारण मुसलमान राजनीति का एजेंडा भावनात्मक से ज्यादा आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक सवालों पर केन्द्रित हुआ। अब कोशिश यह होगी कि मुसलमान सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा को भूलकर मन्दिर-मस्जिद के भावनात्मक सवालों में उलझ जाएँ।
प्र0-बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवाद के प्रभाव के रूप में क्या आप देश में एक तरह के साम्प्रदायिक नस्लवाद का उभार भी देखते हैं?
शमीम फैजी- यह बिल्कुल साफ है कि पिछले दशक में चाहे खुलेआम दंगे न हुए हों मगर भावनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक सोच बढ़ी है। अल्पसंख्यकों में मुसलमानों की तादाद अधिक है इसीलिए खास निशाना वही हैं। राजधानी तक में मुसलमानों को मकान किराए पर देने से इंकार किया जाता है। जो पहले से मिली जुली आबादी में रहते हैं या वहाँ उनकी संपत्ति है तो कोशिश यह होती है कि वे उसे छोड़कर चले जाएँ। कोशिश यह होती है कि वे अपने-अपने पाकिस्तान में रहें, जैसा कि मुस्लिम बहुल आबादी को कहा जाता है। जमीन पर धर्म निरपेक्षता कमजोर हुई है। हालाँकि इसके लिए धर्म निरपेक्ष शक्तियाँ भी जिम्मेदार हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में हैं भाई-भाई सिर्फ एक नारा बनकर रह गया है। व्यवहार में जमीन पर यह दिखाई नहीं देता है। धर्म निरपेक्षता का एक अर्थ धर्म और राजनीति को अलग रखना भी है। मगर वामपक्ष को छोड़कर सभी पार्टियों द्वारा रमजानों में रोजा इफ्तार का नाटक क्या है? महाराष्ट्र में गणेश उत्सव व नवरात्र पूजा राजनैतिक दलों के नाम व संरक्षण में होते हैं। अब काली पूजा के नाम पर भी यही सब शुरू हो गया है। क्या धर्म का राजनीति के साथ उपयोग नहीं है।
प्र0-देश में इस साम्प्रदायिकता की राजनीति और साम्प्रदायिक सद्भाव के बिगड़ने में कांग्रेस की क्या भूमिका देखते हैं?
शमीम फैजी- अलग अलग समय पर कांग्रेस ने साॅफ्ट हिन्दुत्व का खेल खेला है। पं0 जवाहर लाल नेहरू के जमाने में कांग्रेस में ऐसा था कि जो खुलेआम हिन्दुत्ववादी थे उन तक को कैबिनेट में स्थान मिला था, जैसे गोविन्द बल्लभ पंत और श्यामा प्रसाद मुखर्जी। फिर भी पंडितजी ने कभी साम्प्रदायिकता से समझौता नहीं किया। मगर इंदिरा गांधी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। जब इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा और दिखावे का समाजवाद विफल हो गया तो वे साम्प्रदायिक भावनाओं का इस्तेमाल करने लगीं। विश्व हिन्दू परिषद तक उनके आशीर्वाद से कर्ण सिंह ने स्थापित की, हरिद्वार में भारत माता मन्दिर के उद्घाटन में वे देवरस के साथ थीं। पंजाब में सिख आतंकवाद और भिंडरवाले पर भी उनकी मेहरबानी थी। खालिस्तानी खतरे को दिखाकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ नारे दिए। यहाँ तक कहा कि देश की एकता को असली खतरा अल्पसंख्यकों से ही है। 21वीं सदी का सपना दिखाने वाले राजीव गांधी ने भी शाहबानो केस में मुस्लिम कट्टरपंथ का और बाबरी मामले पर हिन्दू कट्टरपंथ का इस्तेमाल किया। आज कांग्रेस और भाजपा दोनांे ही कई मामलों में एक सी भाषा बोलते हैं। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह पर कांग्रेस ने ढील दिखाई क्योंकि कांग्रेस को न्युक्लियर डील मामले पर भाजपा का साथ चाहिए था। राहुल गांधी आर0एस0एस0 और सिमी को एक जैसा बताते हैं, फिर सिमी पर प्रतिबंध तो आर0एस0एस0 पर क्यों नही? इसका राहुल कोई जवाब नहीं देते हैं। समझौता एक्सप्रेस से अजमेर तक दर्जनों बम काण्ड हो चुके हैं पर भारत सरकार उनकी जाँच पर संजीदा नहीं है। कांग्रेस के लिए धर्म निरपेक्षता एक मुखौटा है जब चाहे पहन लिया जब चाहे उतार दिया।
प्र0-विववादास्पद अयोध्या मामले का एक सर्वमान्य हल आप क्या देखते हैं?
शमीम फैजी- केवल सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट को देश के संविधान के मुताबिक फैसला करना चाहिए और उसे लागू करना चाहिए। बातचीत और समझौता सिर्फ उलझाने और मुद्दे को जिन्दा रखने का ही मक़सद है।
प्र0-वाम शासित राज्यों में मुसलमानों की स्थिति खासतौर पर पं0 बंगाल में काफी खराब है। राजेन्द्र सच्चर कमेटी रिपोर्ट की रोशनी में आपने भी अपनी एक किताब में इसे रेखांकित किया है। केवल सवाल उठाने से आगे भाकपा इस मसले पर क्या जरूरी कदम उठा रही है?
शमीम फैजी- पार्टी ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों के सवालों को प्रमुखता से उठाया है। केरल की अच्यूतमेनन सरकार के जमाने में अल्पसंख्यकों के हक़ों को संजीदगी से लागू किया गया। पं0 बंगाल में एक बड़ी गलती जरूर हुई है। हालाँकि भूमि सुधारों के तहत जमीन के बँटवारे में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का बराबरी से ध्यान रखा गया है, वामपंथी सरकार में उनकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा गया और राज्य में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ है। फिर भी बदकिस्मती इस बात की है कि राज्य में राजनेताओं और नौकरशाहों दोनांे का एक हिस्सा ऐसा है जो यह सोचता है कि मुसलमानों की जान माल की सुरक्षा करके उन्हें अपना वोट बैंक बनाए रखा जाए। मगर जान माल की रक्षा के अलावा उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के लिए कुछ नहीं किया गया। राजेन्द्र सच्चर कमेटी रिपोर्ट पर दो बार भाकपा ने सरकार को ज्ञापन देकर अल्पसंख्यकों के बारे में अपनी माँगें रखी हैं। हमारे ज्ञापन पर ही सरकार ने ओ0बी0सी0 आरक्षण को सात प्रतिशत से बढ़ाकर सत्रह प्रतिशत कर दिया है जिसमें मुस्लिमों को दस प्रतिशत देने का प्रावधान है। हालाँकि वामपंथी सरकार को अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
प्र0-और अब एक आखिरी सवाल, हिन्दुस्तान के मुस्लिम अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए क्या रास्ता आप देखते है? कोई रोड मैप जो उनके बेहतर भविष्य के लिए अपने दिमाग में सोचते हों?
शमीम फैजी- सच्चर कमेटी रिपोर्ट के बाद यूथ में जागरूकता आई है। दुर्भाग्य से जो मुसलमानों के स्थापित नेता हैं वे उनके वास्तविक सवालों के बजाए अरब जगत की बात करते हुए, फिलिस्तीन का रोना रोकर, अलीगढ़ और जामिया के लिए लड़ने की बात करके ही उन मुसलमानों को बहकाते हैं जो कभी अपने बच्चे को प्राथमिक शिक्षा दिलवाने की स्थिति में भी नहीं हैं। बदलाव उसी सूरत में आएगा कि मुस्लिम नौजवान अपनी पसन्द के धर्म निरपेक्ष जनवादी दलों में शामिल हों और उन दलों को मुसलमानों की सामाजिक राजनैतिक व शैक्षिक जरूरतों के अनुसार नीति निर्धारित करने के लिए मजबूर करें।
-महेश राठी
मोबाइल- 09891535484
2 टिप्पणियां:
क्या टिप्पणी, शमीम जी तो अब तक की हर सरकार , हर नेता को चाहे जिस पार्टी का हो, या हाई कोर्ट ही हो सब को हिन्दुओं का पक्षधर मानकर चल रहे हैं, जैसे मुस्लिमों की तो कुछ सुनी ही नहीं गई आज तक। वे अयोध्या पर क्या जबाव देंगे...कया वे चाहते हैं कि इसे शुद्ध मुस्लिम देश बनाना....
---क्या हाई कोर्ट का फ़ैसला संविधान विरुद्ध है
हां हाई कोर्ट का फ़ैसला संविधान विरुद्ध है.
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