शुक्रवार, 17 जून 2011

वाम की पराजय और बुद्धिजीवियों की भूमिका

पश्चिम बंगाल में इस बार विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चा बुरी तरह हार गया। देशभर में इस पराजय को लेकर गंभीर मंथन चल रहा है। ज्यादातर लोग जो पश्चिम बंगाल के बाहर रहते हैं वे इस पराजय को सही ढंग से समझ नहीं पा रहे हैं। स्वयं वामपंथी संगठनों में विभ्रम की स्थिति है। कायदे से इस पराजय का वामदलों को गंभीरता के साथ मूल्यांकन करना चाहिए। पहली बार ऐसा हुआ है कि पूरे राज्य में चुनाव के दौरान हिंसा की इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़कर मतदान पूरी तरह शांतिपूर्ण रहा है। यह स्वयं में इस बात का संकेत है कि 34 सालों के वामशासन में कानून-व्यवस्था की स्थिति किस तरह खराब हुई है।
पश्चिम बंगाल में जब प्रचार कार्य प्रारम्भ हुआ था तो यह साफ लग रहा था कि इस बार वाम मोर्चा चुनाव नहीं जीत पाएगा। आम जनता तकरीबन मन बना चुकी थी परिवर्तन का नारा आम लोगों के दिलो-दिमाग में बैठ गया था। आम लोगों में वामदलों की साख गिरी है। दूसरी ओर मीडिया का चौतरफा वाम विरोधी प्रचार अभियान चल रहा है। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव की तुलना में वाम का जनाधार और भी घटा है।
सवाल उठता है कि इतनी बुरी तरह वाम मोर्चा पराजित क्यों हुआ? इसका प्रधान कारण है वामदलों का सच बोल पाना। वामदलों की कार्यप्रणाली में असत्य घुस आया है। पार्टी और प्रशासन की कार्यप्रणाली में असत्य का वर्चस्व इस कदर बढ़ गया कि सही और गलत में अंतर खत्म हो गया है। सन् 2006 में वाम मोर्चे ने उन्नत वाम मोर्चा के नारे के आधार पर विधानसभा चुनाव जीता था और उस समय तीन-चैथाई बहुमत हासिल किया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद पार्टी और प्रशासन में बनी हुई गड़बडि़यों को दुरूस्त करने के बजाय राज्य प्रशासन को पार्टी वर्चस्व के मातहत कर दिया गया प्रशासनिक निष्पक्षता खत्म हो गई। प्रशासन पंगु होकर रह गया। प्रशासनिक निष्पक्षता, सक्रियता, संवाद और पारदर्शिता का अभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला गया। राज्य में धीरे-धीरे आलोचनात्मक लोकतांत्रिक सामाजिक परिवेश संकुचित होता चला गया और आज स्थिति इस कदर भयावह हो उठी है कि वामपंथी कतारों में दरारें गई हैं। वामपंथ के प्रति आस्थाएँ डगमगाने लगी हैं। जो वामपंथी हैं वे शर्मिन्दगी महसूस करने लगे हैं। सन् 2006 में विधानसभा चुनाव के मौके पर जो वायदे किए गए उनमें से एक भी वायदा वाम सरकार पूरा नहीं कर पाई। सन् 2006 की जीत ने वामदलों में अहंकार पैदा किया और आम जनता के साथ अलगाव बढ़ता चला गया।
पिछले दिनों अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह 4 दिन आमरण अनशन किया और उसका अहर्निश टीवी चैनलों से व्यापक प्रचार हुआ उसने वामदलों के भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बना दिया। इस बार के
विधानसभा चुनाव में वामदलों के लिए भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं था। वे ममता बनर्जी के रेल मंत्रालय की अक्षमताओं का ही रोना रोते रहे। जबकि रेल मंत्रालय का राज्य से कोई लेना-देना नहीं था। इसके विपरीत ममता बनर्जी ने वामदलों और खासकर सी0पी0आई0एम0 के भ्रष्टाचार को व्यापक मुद्दा बनाया। कम्युनिस्ट भ्रष्ट होते हैं यह बात आम लोगों के मन में बिठाने में वे सफल रही हैं। माकपा के भ्रष्ट कैडर, दबंगई और उत्पीड़न को व्यापक कवरेज के साथ पेश किया। फलतः अन्य सभी मसले हाशिए पर चले गए। विगत 34 सालों में देश के अन्य शहरों में जिस तरह के तेज परिवर्तन घटित हुए हैं, विकास हुआ है, वैसे परिवर्तन पश्चिम बंगाल में दूर-दूर तक नजर नहीं आते। एक अच्छे प्रशासन का आदर्श नमूना पेश करने में राज्य प्रशासन असफल रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, परिवहन, बिजली, पानी आदि के क्षेत्र में लगातार गिरावट आई है। राज्य का प्रत्येक क्षेत्र में स्तर गिरा है। यह स्थिति तब हुई है जब वाममोर्चे को तकरीबन दो-तिहाई बहुमत से शासन का अवसर मिला था। आर्थिक तौर पर राज्य के माली हालात ठीक नहीं हैं। ऐसी स्थिति में आम लोगों और बुद्धिजीवियों में असंतोष का फूट पड़ना स्वाभाविक है।
हमारे यहाँ जनतंत्र है, पार्टीतंत्र नहीं है। समाज को पार्टीतंत्र के आधार पर चलाने का खामियाजा सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी भोग रही है। वहाँ पर कम्युनिस्ट पार्टी को अब कोई देखना पसंद नहीं करता। सोवियत संघ में कोई प्रतिवादी जन आन्दोलन नहीं था और कम्युनिस्ट पार्टी अपने ही अन्तर्विरोधों और आपसी कलह में खत्म हो गई। पार्टी को बुनियादी तौर पर अपने दल के वर्चस्व के बजाय संविधान के अनुसार निष्पक्ष प्रशासन संचालन के तंत्र को विकसित करना चाहिए। आज स्थिति यह है कि जो व्यक्ति पार्टी के साथ नहीं है अथवा पार्टी के इशारे पर काम नहीं करता उसको तरह-तरह से अपमानित और उपेक्षित किया जाता है। सामाजिक अछूत की तरह उससे व्यवहार किया जाता है। यह फासीवादी कार्यप्रणाली का संकेत है।
वाममोर्चे और खासकर मा00पा0 को अपनी असफलता के लिए बहाने नहीं खोजने चाहिए। माकपा की सबसे बड़ी कमजोरी है जनतंत्र को आत्मसात कर पाना। जनतंत्र का वे इस्तेमाल और सत्ता प्राप्ति के लिए दुरूपयोग करना जानते हैं किंतु लोकतांत्रिक व्यवहार, कार्यपद्धति, मूल्यों और संरचनाओं को वे अपने व्यवहार में लागू करने में असफल रहे हैं। पार्टी की कतारों में ऊपर से नीचे तक असहिष्णुता, संवेदनहीनता और स्वैराचार बढ़ा है। मसलन् सूचना अधिकार कानून के तहत कोई भी सूचना राज्य का कोई भी विभाग मुहैय्या नहीं कराता। पार्टी आदेश के बिना थानों में एफ0आई0आर0 तक दर्ज नहीं होती।
वाम मोर्चे की पराजय के कारणों को लेकर वामदलों को तदर्थ ढ़ंग से निष्कर्ष निकालने से बचना चाहिए। साथ ही स्टीरियोटाइप समीक्षा और मुहावरों में सोचना बंद कर देना चाहिए। मसलन्, जनता से वाम मोर्चा कट गया था, यह स्टीरियोटाइप कथन है, वे कौन से कारण और घटनाएँ हैं जिनके कारण जनता से अलगाव पैदा हुआ? वे कौन सी गलतियाँ हैं और वे कौन लोग हैं जिनकी कार्यप्रणाली ने वाम मोर्चे को आम जनता से काट दिया, इन सबकी पहचान की जानी चाहिए। ममता बनर्जी की जीत साधारण जीत नहीं है। इससे कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए गंभीर परिणाम निकल सकते हैं। पश्चिम बंगाल में मा00पा0 यदि तदर्थ ढंग से सोचती है और पराजय के सतही निष्कर्ष निकालती है तो यह कम्युनिस्ट आंदोलन की कु-सेवा होगी। गाँवों में वाम मोर्चे की पराजय के पीछे दो बड़े कारण हैं, पहला, विकास योजनाओं का आधे-अधूरेमन से क्रियान्वयन दूसरा, गाँवों में कंगारू अदालतों की मानवाधिकार हनन की बढ़ती हुई घटनाएँ और पार्टी की दबंगई का आतंक। इन दो घटनाओं ने गाँवों में वाम मोर्चे को व्यापक क्षति पहुँचाई है। बुनियादी तौर पर वाम मोर्चा विगत 34 सालों में मानवाधिकारचेतना पैदा करने में असफल रहा और आम जीवन में नागरिक अधिकारों को उसने राजनैतिक बहस का मुद्दा ही नहीं बनने दिया। मानवाधिकारों की अवज्ञा में राज्य प्रशासन और पार्टीतंत्र जिस तरह सक्रिय रहा है उसने राज्य में कम्युनिस्ट आंदोलन के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। कम्युनिस्ट आंदोलन के भारत में प्रसार के लिए जरूरी है कि कम्युनिस्ट पार्टियाँ यह महसूस करें और मानें कि भारत में लोकतंत्र है और लोकतांत्रिक संस्थानों में व्यक्तिगत पहलकदमी और
मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता बेहद जरूरी है। पश्चिम बंगाल में 34 साल एक छत्र शासन करने के बाद भी मा00पा0 और अन्य वामदलों में मानवाधिकारों के प्रति सचेतनता नहीं बढ़ी है। नागरिक समाज के मुद्दे केन्द्र में नहीं पाए हैं। पुराने समाजवादी ढंग से देखने और सोचने का तरीका नहीं बदला है। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल तक शासन करने के बाद भी वामदल अपनी न्यूनतम लोकतांत्रिक साख नहीं बचा पाए हैं। इसी प्रसंग में वामपंथी बुद्धिजीवियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। वामपंथी बुद्धिजीवियों को पार्टी नीतियों की रक्षा के नाम पर असत्य बोलने से बचना चाहिए।
बुद्धिजीवी सत्य भक्त होता है। राष्ट्र, राष्ट्रीयता, दल, विचारधारा आदि का भक्त नहीं होता। सत्य के प्रति आग्रह उसे ज्यादा से ज्यादा मानवीय और संवेदनशील बनाता है। सत्य और मानवता की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में तपकर ही बुद्धिजीवी अपने सामाजिक अनुभवों को सृजित करता है। कालजयी रचनाएँ दे पाता है। जनता के बृहत्तर तबकों की सेवा कर पाता है, सारे समाज का सिरमौर बनता है।
बुद्धिजीवी गतिशील और सर्जक होता है। वह मानवीय चेतना का रचयिता है। बुद्धिजीवी स्वभावतः लोकतांत्रिक होता है, लोकतंत्र ही उसकी आत्मा है। लोकतंत्र की आत्मा के बिना बुद्धिजीवी होना संभव नहीं है। लोकतंत्र के उसूलों के साथ समझौता करना उसकी प्रकृति के विरुद्ध है। लोकतांत्रिक मूल्य, लोकतांत्रिक संविधान, लोकतांत्रिक संरचनाओं में उसकी आस्था और विश्वास ही उसकी सम्पदा है यदि वह इनमें से किसी के भी साथ दगाबाजी करता है अथवा लोकतंत्र के रास्ते से जरा भी विचलित होता है तो उसे गंभीर कष्ट उठाने पड़ते हैं। साथ ही समाज को भी कष्ट उठाने पड़ते हैं। बुद्धिजीवी का सत्य के साथ किया गया समझौता सामाजिक दगाबाजी है।
यह दुर्भाग्य है कि हम दगाबाज बुद्धिजीवी और ईमानदार बुद्धिजीवी में अंतर भूल गए हैं। ईमानदार बुद्धिजीवी वह है जो अपने अंदर के सत्य और न्यायबोध को बेधड़क, निस्संकोच भाव से व्यक्त करता है। यह ऐसा बुद्धिजीवी है जो अपने सत्य को अर्जित करने के लिए किसी भी किस्म के भौतिक लाभ के जंजाल में नहीं फँसता। किसी भी किस्म का प्रलोभन उसे सत्य की अभिव्यक्ति से रोकता नहीं है, वह निडर भाव से न्याय के पक्ष में खड़ा रहता है। अपने जीवन के व्यावहारिक कार्यों की पूर्ति के लिए सत्य का दुरुपयोग नहीं करता। सत्य के लिए जोखिम उठाता है, सत्य पर दाँव लगाता है, यहाँ तक कि सत्य के लिए बलि चढ़ जाता है। तरह-तरह के उत्पीड़न और उपेक्षाओं को सहता है। वह हमेशा राज्य के विपक्ष में रहता है और यथास्थितिवाद का विरोध करता है।
यह सच है कि किसी भी किस्म का बड़ा परिवर्तन अथवा क्रांति बगैर बुद्धिजीवियों के हस्तक्षेप के नहीं हुई है। यह भी सच है कि किसी भी किस्म की प्रतिक्रांति भी बगैर बुद्धिजीवियों की भूमिका के नहीं हुई है। बुद्धिजीवीवर्ग ही किसी आंदोलन के माता-पिता, और बेटी -बेटा, पड़ोसी और मित्र होता है। बुद्धिजीवी की समाज में विशिष्ट भूमिका होती है उसे शक्लविहीन पेशेवराना रूपों में संकुचित करने की जरूरत नहीं है। वह अपने वर्ग का सक्षम सदस्य होता है, अपने कार्य-व्यापार में समर्थ होता है। व्यक्ति के तौर पर बुद्धिजीवी संदेश को अभिव्यक्त करता है, संदेश को बनाने या धारण करने की उसके पास फैकल्टी होती है जिसे वह अभिव्यक्ति देता है। यह अभिव्यक्ति उसके एटीट्यूट्स, दार्शनिक नजरिए के साथ-साथ जनता में व्यक्त होती है।
रुढि़यों और कठमुल्लेपन से लड़े बिना बुद्धिजीवी अपनी भूमिका नहीं निभा सकता। ये रुढि़याँ और कठमुल्लापन किसी भी तरह के हों, बुद्धिजीवी कभी भी इन्हें चुनौती दिए बगैर अपनी सामाजिक भूमिका अदा नहीं कर सकता। इसबार विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर वाम बुद्धिजीवियों ने ममता बनर्जी का साथ दिया है। पहलीबार वामपंथी बुद्धिजीवियों ने व्यापक स्तर पर वामपंथी कठमुल्लेपन और रुढि़वादिता को चुनौती दी है। पहलीबार वामपंथी चिन्तन के सर्वसत्तावादी रुझानों को निशाना बनाकर सवाल किए हैं, इससे बुद्धिजीवीवर्ग में वामपंथी कठमुल्लापन कमजोर होगा। इससे स्वतंत्रता और न्याय के लक्ष्य को अर्जित करने, उसके लिए संघर्ष की भावना नए सिरे से जन्म लेगी। पुरानी वामपंथी प्रतिबद्धता के मानक टूटेंगे और प्रतिबद्धता के मानक के तौर पर मानवाधिकारों की स्वीकृति पैदा होगी। स्वतंत्रता और न्याय को प्रतिष्ठा मिलेगी। पुराने किस्म की वामपंथी प्रतिबद्धता विचारधारा और वर्ग विशेष के हितों से बँधी थी, यह बंधन और प्रतिबद्धता संकुचित और एकायामी थी। इसमें मानवता और मानवाधिकारों का बोध नहीं था। वह पार्टी बोध से संचालित प्रतिबद्धता थी। जबकि नए किस्म की प्रतिबद्धता का आधार स्वतंत्रता और न्याय है। यह बहुआयामी प्रतिबद्धता है। स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर जब लिखेंगे अथवा संघर्ष करेंगे तो पुराने सभी विमर्श उलट-पलट जाएँगे। पुरानी वामपंथी प्रतिबद्धता जिन्दगी की अधूरी सच्चाई को सामने लाती है। जबकि स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर निर्मित यथार्थ ज्यादा व्यापक, वैविध्यपूर्ण, जटिल और मानवीय होता है।
वामपंथी बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता की मुश्किल यह है कि वे अंदर कुछ बोलते हैं और बाहर कुछ बोलते हैं। प्राइवेट जीवन में, पार्टी के अंदर बुद्धिजीवी कुछ बोलता है और बाहर कुछ बोलता है। उसके प्राइवेट और सार्वजनिक में भेद रहता है। यह उसके जीवन और विचार का दुरंगापन है। बुद्धिजीवी के विचारों और नजरिए में दुरंगापन नहीं पारदर्शिता होनी चाहिए। जब आप सार्वजनिक जीवन में सार्वजनिक सवालों से दो चार होते हैं तो उस समय प्राइवेट जैसी कोई चीज नहीं होती। उस समय बुद्धिजीवी पब्लिक या जनता का बुद्धिजीवी होता है, जनता के बुद्धिजीवी की भूमिका अदा करता है। बुद्धिजीवी का काम यह नहीं है कि अपनी ऑडिएंस को संतुष्ट करने वाली, आनंद देने, मजा देने वाली बातें कहे। इसके विपरीत बुद्धिजीवी का काम है अप्रिय सत्य का उद्घाटन करना, ऐसी बात को कहना जिसे ऑडिएंस नापसंद करती है। इसी अर्थ में बुद्धिजीवी किसी किसी नजरिए का समाज में प्रतिनिधित्व करता है। सभी किस्म की बाधाओं के बावजूद अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करता है। बुद्धिजीवी जब सामाजिक प्रतिनिधित्व करता है तो उसे प्रतिबद्धता, जोखिम, साहस से काम लेना होता है और असुरक्षा का सामना करना होता है।
बुद्धिजीवी कभी भी घरेलूपन के साथ सामंजस्य नहीं बिठाता। भाई-चारे और मित्रता के नाते स्वतंत्रता और न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को त्यागता नहीं है। बुद्धिजीवी का सामान्य स्वभाव यही होता है कि वह साफतौर पर कहता है वह क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता। बुद्धिजीवी अपने कर्म के जरिए स्वतंत्रता पैदा करता है। वह मैलोड्रामा के जरिए स्वतंत्रता पैदा नहीं कर सकता।

-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मो0 09331762360

1 टिप्पणी:

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

का.चतुर्वेदी का यह लेख यथार्थ पर आधारित है और इससे सबक लेने की आवश्यकता है.मैंने 'क्रान्तिस्वर'पर "भारत में कम्युनिज्म कैसे कामयाब हो?"शीर्षक लेख में चुनावों के तुरंत बाद सुझाव दिए थे जिनसे हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं.

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