शनिवार, 25 जून 2011

लोकतंत्र का हमदर्द नहीं, तेल का लुटेरा

पिछले करीब चार महीने से पश्चिम एशिया में चल रही उथल-पुथल से दो नतीजे निकल रहे हैं। एक यह कि अरब देशों की जनता परिवर्तन चाहती है, खुद मुख्तारी की चाहत उसे बार-बार सड़कों पर आने के लिए प्रेरित कर रही है। दूसरा यह कि अमरीका अपनी और अपने क्षेत्रीय सूबेदारों की पूरी ताकत से अरब जनता की आकांक्षाओं को कुचल रहा है। इसी से जुड़ा निष्कर्ष यह भी है कि लोकतंत्र, मानवाधिकारों और मानवीय सहायता का अमरीकी राग भेडि़ए के मुँह से राम-राम से अधिक कुछ नहीं।
पिछले फरवरी में ट्यूनीशिया में जनअसंतोष की आग जिस तरह भड़की, और उसके बाद एक के बाद एक अरब देशों में फैलने लगी, उसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। उसके लिए 1500 साल पीछे चलते हैं। पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) के काल में और खासतौर से 632 में उनके निधन के बाद जिस तरह इस्लाम फैला, उससे पहले या बाद में किसी धर्म का फैलाव उस गति से नहीं हुआ। महज दो साल में येरूशलम पर मुसलमानों का कब्जा हो गया। विराट और वैभवशाली फारसी साम्राज्य ध्वस्त हो गया। 639 और 642 के बीच मिस्र पर इस्लाम का झण्डा फहराने लगा। आने वाले वर्षों में उत्तरी अफ्रीका, स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस और यूनान के बड़े इलाके पर मुसलमान छा गए। उस समय के पतनशील समाज इस्लाम की चुम्बकीय शक्ति से खिंचे बिना नहीं रह सके।
उसके बाद अब परिवर्तन की हवाएँ अरब वादियों और रेगिस्तानों में चल रही हैं। शाहों, सुल्तानों और तानाशाहों की कुर्सियाँ हिलने लगी हैं। इसकी शुरुआत हुई फरवरी में त्यूनीशिया से। एक फल विक्रेता के आत्मदाह की घटना ने जंगल में चिनगारी का काम किया। प्रायः इस्लाम को तलवार से जोड़ने का प्रचार होता है, लेकिन त्यूनीनिशया की जनता ने नितांत गांधीवादी तरीके से बेनअली का तख्ता पलट दिया। त्यूनीशिया की देखा-देखी मिस्र की जनता भी सड़कों पर आ गई। निहत्थी, अहिंसक मिस्री जनता ने अमरीका, इस्राइल ओर यहूदी धन कुबेरों की लाॅबी के चहेते मुबारक को उखाड़ फेंका। जनशक्ति का सैलाब इतना प्रचंड था कि अमरीकी इशारे पर चलने वाले फौजी कमांडर मुबारक के पक्ष में हस्तक्षेप का साहस नहींे कर पाए। मुबारक को भागना पड़ा और अब मिस्री इस्टैबलिशमेंट अपनी खाल बचाने के लिए उन्हें सजाए मौत देने पर विचार कर रहा है। मुबारक तो गए, जिन्हें अली बाबा कहा जा रहा है। 40 चोरों की हुकूमत बदस्तूर बनी हुई है। मिस्र पर फौज का राज चल रहा है और फौज की निष्ठा अमरीका के साथ है। जिस लोकतंत्र और सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए लाखों मिस्री सड़कों पर आए, वह फिलहाल पीछे छूट चुका है। चुनाव हुए भी तो उसके नतीजे पूर्व निर्धारित होंगे।
त्यूनीशिया और मिस्र के बाद यमन, बहरीन और लीबिया में सुगबुगाहट शुरू हुई। यमन मंे कम, बहरीन और लीबिया में अमेरिका का गंदा खेल खुलकर सामने आया। पहले यमन करीब दो दशक पहले तक यमन दो संप्रभु देशों उत्तरी और दक्षिणी यमन में बँटा हुआ था। दक्षिणी यमन पर अंग्रेजों का अधिकार लम्बे समय तक रहा। उससे पहले उत्तरी यमन आजाद हुआ। उत्तरी यमन पर सऊदी अरब, ब्रिटेन और अमरीका का प्रभाव रहा। दक्षिणी यमन ने माक्र्सवादी रास्ता अख्तियार किया। वहाँ सोवियत संघ और अन्य कम्युनिस्ट देशों से सहायता आने लगी। एक-एक कर यूरोपीय देशों में कम्युनिस्ट सरकारों का पतन होने लगा और सोवियत संघ स्वयं विघटित हो गया तो यमन कहाँ तक बचता। विलय के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। यमन के राष्ट्रपति सालेह की अलोकप्रियता जग जाहिर है। एक-दो बार कुर्सी छोड़ देने का संकेत भी वे दे चुके हैं, लेकिन वास्तव में उनके हटने के आसार नहीं है। यमन में अलकायदा की खासी मौजूदगी बताई जा रही है। यह सालेह के लिए आॅक्सीजन सिद्ध हो रही है। सऊदी अरब और अमरीका चाहते हैं कि सालेह बने रहें। सालेह के बाद उत्पन्न होने वाली स्थिति उन्हें परेशान कर रही है। असुरिक्षत सऊदी शाह और उनका संरक्षक अमरीका अलकायदा से निपटने में जनता का सहयोग नहीं लेना चाहते हंै। सच्चाई यह है कि उन्हें अलकायदा से ज्यादा जनता से भय है।
अमरीकी पाखण्ड का वीभत्सतम चेहरा दिखाई पड़ा बहरीन में, हालाँकि बहरीन शिया बहुल है और उस पर सरकार है सुन्नियों की, लेकिन जब बहरीनी जनता ने प्रदर्शन शुरू किया तब शिया-सुन्नी विवाद जैसी कोई चीज नहीं थी। कभी इशारे से कभी खुलकर ये भावनाएँ बाद में भड़काई गईं। सेक्युलर आन्दोलन को शिया-सुन्नी के चश्मे से देखा जाने लगा। हालत बिगड़ने लगी तो सऊदी अरब ने बहरीन में सेना तैनात कर दी। सऊदी अरब और अमरीका ने बहरीन में लोकतंत्र को पहले राउण्ड में पराजित कर दिया। सऊदी अमरीकी एकजुटता का कारण यह है कि दोनों देश लोकतंत्र के लिए यथास्थिति नहीं तोड़ना चाहते। सऊदी निजाम लोकतंत्र का, सिद्धांत के तौर पर विरोध करता है और अमरीका की लोकतंत्र की परिभाषा सुविधानुसार बनती-बिगड़ती रहती है। बहरीन में अमरीका का नौसैनिक अड्डा है। वहाँ की पुलिस और सेना में पाकिस्तानियों की अच्छी-खासी संख्या है।
बहरीन की शाही सरकार को भरोसा है कि वह करीब 10 लाख की आबादी में 70 फीसदी शियों को नियंत्रित करने मंे सफल रहेगी। सऊदी सैनिक हस्तक्षेप ने अल्पसंख्यक सरकार को मजबूती प्रदान की है। बहरीनी सेना की निष्ठा जनता नहीं, सरकार के प्रति है। मिस्र और त्यूनीशिया की सेनाओं में आम नागरिक था और इस तरह वे जनता के दबाव में थीं।
बहरीन में सऊदी अरब को खतरा जनता से है। वह नहीं चाहता कि सऊदी जनता भी अपने शाहों के खिलाफ उठ खड़ी होने के लिए प्रेरित हो। अगर बहरीन में लोकतंत्र आया तो सरकार शियों की बनेगी। वह सरकार सऊदी प्रभाव को नहीं स्वीकार करने वाली। बल्कि उस पर शिया ईरान का वर्चस्व कायम हो सकता है। दूसरा परिणाम यह हो सकता है कि बहरीन में शियों की जीत से सऊदी अरब के शियों का हौसला बढ़े। यह तय है कि लोकतंत्र की लड़ाई फतह करने के बाद बहरीनी अवाम बहुत सारे फैसले अपनी मर्जी से करेंगे। अमरीकी नौसैनिक अड्डे का वजूद खतरे में पड़ सकता है। कर्नल नासिर का मिस्र हो या कद्दाफी का लीबिया, अरब देशों में जब-जब पश्चिम परस्त शाहों, तानाशाहों का राज खत्म हुआ है, ब्रिटिश अमरीकी अड्डे भी खत्म हुए है। अमरीका लोकतंत्र की खातिर बहरीन में अपने अड्डे को खतरे में नहीं पड़ने देगा।
अमरीका और उसके साथी देशों का सबसे हिंसक रूप दिखाई पड़ा लीबिया में। उसकी मदद कर रहे हैं क्षेत्रीय सूबेदार। सबसे पहले 22 सदस्यीय अरब लीग ने प्रस्ताव पास किया कि कद्दाफी के विरोधियों तक मानवीय सहायता पहुँचाने और नागरिकों को नुकसान से बचाने के लिए लीबिया पर कद्दाफी की वायुसेना की उड़ाने रोकी जाएँ। बहरीन में जनता को फौजी बूटों से कुचलने वालों के दिल में लीबियाई जनता के लिए इस कदर प्यार पैदा हो गया। जिन अरब शासकों के हाथ अपनी ही जनता के खून से रँगे हुए है, उन्होंने लीबिया के अवाम को बचाने के लिए ‘नो फ्लाई जोन’ घोषित करने का अभियान चला दिया। इसी के आधार पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव नं0 1793 पास किया, जिसमें कद्दाफी के नियंत्रण से बाहर वाले इलाकों के नागरिकों की लीबियाई वायुसेना से रक्षा के लिए ‘नो फ्लाई जोन’ स्थापित करने का निश्चय व्यक्त किया गया। यह प्रस्ताव एक राय से नहीं पास हुआ। दो स्थाई सदस्यों रूस और चीन के साथ भारत, जर्मनी और ब्राजील ने भी अनुपस्थिति दर्ज कराई।
इस आपत्तिजनक प्रस्ताव का एजेण्डा सीमित था- नागरिकों की रक्षा के लिए ‘नो फ्लाई जोन’ की स्थापना। अर्थात अगर लीबियाई सरकार के विमान पूर्वी क्षेत्र में जमे कद्दाफी विरोधियों पर बमबारी करेंगे या मानवीय सहायता पहुँचने से रोकेंगे तो उन्हें ऐसा नहीं करने दिया जाएगा। लेकिन प्रस्ताव पास होने के तुरन्त बाद अमरीका, फ्रांस और ब्रिटेन ने ‘मानवीय सहायता’ की नकाब उतार फेंकी और कुछ दिन बाद ही कद्दाफी के ठिकानों पर बमबारी शुरू हो गई। ‘नो फ्लाई जोन‘ से बढ़ कर राजधानी त्रिपोली में कद्दाफी के आवास और अन्य स्थानों पर बम गिराए जाने लगे और अब सत्ता परिर्वतन पर जोर दिया जा रहा है। यह सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में नहीं था। यह लक्ष्य है अमरीका और उसके पिछलग्गुओं का। इन पिछलग्गुओं के चेहरे देखिए। सबसे पहले जिन 6 सदस्यों वाली जी0सी0सी0 (गल्फ कोआपोशन कौंसिल) ने कद्दाफी के खिलाफ झण्डा उठाया था, उसके सदस्य हैं सऊदी अरब, बहरीन, कतर, ओमान और संयुक्त अरब अमीरात। अमरीका के इन संरक्षित देशों का लोकतंत्र और मानवाधिकारों से दूर दराज का कोई रिश्ता नहीं है। जी0सी0सी0 के बाद अरब लीग ने प्रस्ताव पास किया। उसमें एकता नहीं थी। अरब लीग के महासचिव मूसा सऊदी लाइन पर नहीं चल रहे थे। उन्हें डरा धमका कर खामोश कर दिया गया।
लीबिया में सामरिक हितों ने मानवाधिकारों और निर्दाेष नागरिकों के लिए चिंता पैदा की। लीबिया दुनिया का 16वाँ सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है। अफ्रीकी उत्पादकों में उसका स्थान तीसरा है। अफ्रीकी महाद्वीप मंे तेल का सबसे बड़ा भण्डार लीबिया के पास है। उसके कुल तेल का 85 प्रतिशत निर्यात यूरोप को होता है। तेल के ज्यादातर स्रोत पूर्वी लीबिया मंे हैं, जहाँ कद्दाफी विरोधियों का प्रभाव है। ये दौलत मानवाधिकारों के लिए प्रेम पैदा कर रही है। अमरीकी प्रतिनिधि सभा की प्राकृतिक संपदा समिति के प्रभावशाली सदस्य एडवर्ड मर्की ने एक इण्टरव्यू में कहा, ‘‘हम तेल की वजह से लीबिया मंे हैं।’’ सीनेटर जेम्स बेब भी इसी तरह की बात कह चुके हैं। लीबिया मंे कद्दाफी की जगह किसी कठपुतली शासक को बहाल करने की कोशिशों का सबब यह है कि कद्दाफी सऊदी अरब के वर्चस्व को स्वीकार नहीं करते। कद्दाफी अरब जगत में सऊदी शासकों के नेतृत्व में चल रहे अमरीकी शतरंजी खेल को बाधित करते रहें हैं। सऊदी रियालों की मोहताजी से पूरी तरह मुक्त, स्वतंत्र आर्थिक आधार वाले कद्दाफी की सिफत ही यह है कि वह अमरीका व सऊदी अरब का मोहरा नहीं बन सकते।
एक नया नासिर या सालादीन बनने की महत्वाकांक्षाओं ने कद्दाफी को आयरिश रिपब्लिकन आर्मी, जर्मनी की रेड आर्मी, उग्रवादियों और क्रान्तिकारी फलस्तीनियों का संरक्षक बनने, मिस्र, सीरिया और त्यूनीशिया के साथ महासंघ बनाने और परमाणु ताकत हासिल करने के लिए प्रेरित किया। जिसके लिए उन्होंने अपनी ही तरह के लफ्फाज जुल्फिकार अली भुट्टो और फिर बेनजीर भुट्टो से दोस्ती की, अमरीका व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं वाले स्वप्नजीवियों को पसंद नहीं करता।
लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए अमरीका की कपटपूर्ण अविश्वसनीय नीति अरब जगत मंे कई बार सामने आ चुकी है। इराक पर प्रथम अमरीकी आक्रमण के बाद सद्दाम हुसैन ने हजारों कुर्दों को रासायनिक अस्त्रों से मार डाला। तब कुर्दों के लिए कोई नहीं तड़पा। सी0आई0ए0 ने सद्दाम हुसैन को पाला-पोसा, उसका ईरान के खिलाफ इस्तेमाल किया और फिर फाँसी दे दी। इराक में भी तेल के कुओं पर काबिज होने की साजिश थी। एक दिलचस्प वाकि़या याद आता है। इराक की राजधानी बगदाद में अमरीकी सेना के पहुँचने के समय लूट-पाट का दौर चल रहा था। अमरीका ने उसे नहीं रोका। अमरीकी सेना ने सबसे पहले तेल मंत्रालय पर नियंत्रण स्थापित किया। इराक से लगे ईरान में भी अमरीका यही खेल खेल रहा था। मुसद्दिक का तख्ता पलट दिया गया क्योंकि उन्होंने तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था। मुसद्दिक की जगह शाह पहलवी को पदस्थ किया गया। करीब 25 साल तक ईरान मंे शाह की अमरीका परस्त सरकार रही। 1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई इस्लामी क्रान्ति उस सरकार को लील गई।
कथित इस्लामी आतंकवाद का चर्चा अक्सर होता है। पिछले 30 वर्षों में इसका मुख्य पोषणकर्ता अमरीका ही है। लोकतंत्र की तरह आतंकवाद के प्रति भी अमरीका नाकाबिले एतबार है। जिस ओसामा बिन लादेन को मार कर अमरीका फूला नहीं समा रहा, वह अफगानिस्तान में सोवियत विरोधी फौजी कार्रवाई में अमरीका का ही हमसफर था। यकीन नहीं होता कि आतंकवाद को शिकस्त देने के लिए अमरीका ने ओसामा को खत्म किया।
ओसामा सी0आई0ए0 और आई0एस0आई0 के बीच रिश्तों की पूरी कहानी तभी सामने आ पाएगी, जब वुडवर्ड जैसा कोई अमरीकी पत्रकार गोपनीय दस्तावेजों तक पहुँच जाए, मियाद पूरी होने पर सभी दस्तावेज प्रकाशित कर दिए जाएँ या विकीलीक्स कुछ कमाल कर दें। क्या आई0एस0आई0 का ओसामा की मौजूदगी से नावाकि़फ रहना वाकई मुमकिन है? क्या सी0आई0ए0 को अभी तक नहीं मालूम था कि ओसामा कहाँ छिपा हुआ है? राष्ट्रपति ओबामा को पुनर्निर्वाचन में मदद करने के लिए अब ओसामा को मारा गया? ओबामा की अफगान नीति पर अमल के रास्ते को आसान करने के लिए यह कार्रवाई की गई? अमरीका नाक बचा कर अफगानिस्तान से निकल सके, इसलिए यह महान उपलब्धि प्रदर्शित की गई? क्या आई0एस0आई0 ने वास्तव में कार्रवाई में सी0आई0ए0 की सहायता नहीं की?
ये सारे सवाल इसलिए उठ रहें हैं कि 11 सितम्बर 2001 को अमरीका पर हमले के पहले अमरीका को एक मौका मिला था, जब वह ओसामा को मार या पकड़ सकता था। लेकिन वह खामोश रहा। पाकिस्तानी पत्रकार अमीर-मीर अपनी किताब ‘द ट्रू फेस आॅफ जेहादीज: इनसाइड पाकिस्तान्स नेटवर्क ऑफ़ टेरर’’ में लिखते हैं, ‘पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों को हैरत है कि 11 सितम्बर 2001 के हमले के एक साल पहले जब सुनहरा मौका आया, तब सी0आई0ए0 ने ओसामा को क्यों नहीं पकड़ा। तब अलकायदा का बीमार चीफ आपरेशन कराने क्वेटा से दुबई स्थित अमरीकी हास्पिटल गया था। वहाँ ओसामा ने एक सी0आई0ए0 अधिकारी से भी भेंट की थी। फ्रांसीसी दैनिक ‘ ल फिगारो’ में छपी एक रिपोर्ट को उद्धृत करते हुए पाकिस्तानी खुफिया सूत्रों का कहना है कि तब तक ओसामा दुनिया के सबसे वाण्टेड आतंकवादियों की सूची में आ चुका था। ओसामा 4 से 14 जुलाई 2000 तक दुबई के अस्पताल में रहा।
‘ल फिगारो’ की रिपोर्ट के मुताबिक क्वेटा से दुबई पहुँचने के बाद बिन लादेन को अस्पताल ले जाया गया। उनके साथ व्यक्तिगत डाक्टर और वफादार सहयोगी (यह अमन अलजवाहिरी हो सकते हैं, लेकिन सूत्र पूरे भरोसे से यह नहीं कह रहे), चार बाडीगार्ड और एक पुरूष, अल्जीरियाई नर्स को अस्पताल ले जाया गया। बिन लादेन के अस्पताल में रहने के दौरान उनके पारिवारीजन और प्रमुख सऊदी उनसे मिलने आए। एक स्थानीय सी0आई0ए0 एजेंट को, जिसे दुबई में अनेक लोग जानते हैं, हाॅस्पिटल के लिफ्ट से ओसामा के रूम की ओर जाते देखा गया। कुछ दिन बाद सी0आई0ए0 एजेंट ने कुछ दोस्तों के सामने डींग मारी कि मैं तो ओसामा से मिल कर आ रहा हूँ, अधिकृत सूत्रों का कहना है कि 15 जुलाई को ओसामा के क्वेटा रवाना होने के बाद इस सी0आई0ए0 एजेंट को मुख्यालय बुला लिया गया।
इस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिल पाया है कि अमरीका ने मोस्ट वाण्टेड ओसामा पर तब हाथ क्यों नही डाला? अमरीका इस आतंकवादी सरगना को छुट्टा छोड़े रख कर किन सामरिक उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहता था? अब जब उसे मार दिया गया है, क्या वे उद्देश्य पूरे हो चुके हैं?
आज अमरीका सुप्रीम पावर है। उसके अतंर्राष्ट्रीय व्यापारिक और सामरिक हित हैं। दुनिया भर में उसकी फौजी मौजूदगी है। उसकी कंपनियों का साम्राज्य है। लोकतंत्र, मानवाधिकार आतंकवाद, अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग की परिभाषा इन हितों के अनुरूप की जाती है।

-प्रदीप कुमार
मो0 09810944447

5 टिप्‍पणियां:

अग्निमन ने कहा…

see it in inqlaab.com also

SANDEEP PANWAR ने कहा…

ऐसी जानकारी मिली जो कही और से सम्भव नहीं थी।

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

अमरीकी पाखण्ड का वीभत्सतम चेहरा दिखाई पड़ा बहरीन में,
Nice post.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सत्य वचन।

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विलुप्‍त हो जाएगा इंसान?
ब्‍लॉग-मैन हैं पाबला जी...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

vicharniy sarthak lekh.

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