
अमरीकी टी.वी. चैनलों और समाचार माध्यमों के मुताबिक, इस खबर के बाद से अमरीका में जश्न का माहौल है। यही नहीं, ब्रिटेन से लेकर आस्ट्रेलिया तक के प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों की ओर से खुशी और बधाई के सन्देश चैनलों पर गूँज रहे हैं।
भारतीय न्यूज चैनल भी अमरीकी प्रतिष्ठान के हवाले से आ रही खबरों को पूरे उत्साह के साथ दोहराने में लगे हैं। हमेशा की तरह विजेता के बतौर अमरीकी वीरता और पराक्रम की कहानियाँ मिर्च मसाला लगाकर सुनाई जा रही हैं। इस सबके बीच सिर्फ अब यही बाकी बच गया है कि मारे गए ओसामा की छाती पर पैर रखे और हाथों में बंदूक लिए ओबामा की तस्वीरें नहीं दिखाई गई हैं।
लेकिन सच बात यह है कि कहानी बहुत सरल और सीधी है। न्यूज चैनलों पर मत जाइए, उनका तो काम है कि कहानी में सनसनी, सस्पेंस और ड्रामा डालने के लिए एक से एक पेंच और ट्विस्ट घुसाएँ।
यह ठीक है कि ओसामा बिन लादेन मारा गया, लेकिन उसका यह अंत पहले दिन से ही तय था। सच तो यह है कि अगर वह अब तक जिन्दा था तो इसकी वजह भी यह थी कि उसे और उससे भी ज्यादा उसके नाम के आतंक को खुद अमरीका ने जिन्दा रखा था। आखिर यह “जिहादी आतंकवाद” के खिलाफ “वैश्विक युद्ध” का सवाल था।
अमरीका को ओसामा के नाम और आतंक की जरूरत कई कारणों से थी। ओसामा को पकड़ने और अल कायदा को खत्म करने के नाम पर अफगानिस्तान पर हमला किया गया। इसके लिए उसे बहुत बहाना नहीं बनाना पड़ा। साथ ही, पाकिस्तान में घुसपैठ बढ़ाने का मौका मिला। इसके साथ ही मध्य एशिया में पैर जमाने को जगह मिली। इराक पर हमले के लिए जमीन तैयार करने में बहुत कसरत नहीं करनी पड़ी।
साफ है कि इस सबके लिए ओसामा का जिन्दा रहना बहुत जरूरी था। वैसे भी अमरीका बिना एक वैश्विक दुश्मन के नहीं रह सकता है। इस दुश्मन के नाम पर ही अमरीकी सैन्य औद्योगिक गठजोड़ का खरबों डालर का कारोबार चलता है। आश्चर्य नहीं कि अमरीका ने शीत युद्ध के बाद ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की फर्जी सैद्धांतिकी के आधार पर ओसामा बिन लादेन के रूप में एक वैश्विक दुश्मन खड़ा किया।
अन्यथा यह सच किससे छुपा है कि ओसामा और उसके साथियों को जेहाद के नारे के साथ खड़ा करने में अमरीका की सबसे बड़ी भूमिका थी? लेकिन अब अमरीका को ओसामा की जरूरत नहीं रह गई थी। न सशरीर और न ही आतंक के एक प्रतीक के रूप में, कारण यह कि अब अमरीका अफगानिस्तान से सम्मानजनक तरीके से निकलना चाहता है। वह यह लड़ाई नैतिक रूप से ही नहीं बल्कि सैन्य तौर पर भी हार रहा था।
ओबामा ने बहुत पहले ही घोषित कर दिया था कि उनकी प्राथमिकता अफगानिस्तान की लड़ाई को जल्दी से जल्दी जीतकर वहाँ से बाहर निकलना है। लेकिन पिछले तीन सालों में यह साफ हो चुका था कि अमरीका अफगानिस्तान में जीतने नहीं जा रहा है। उल्टे उसे और खासकर नाटो के सैनिकों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा था। सबसे बड़ी बात अमरीका को यह भी लगने लगा था कि अफगानिस्तान से कुछ खास मिलने वाला भी नहीं है। मतलब न वहाँ तेल है और न ही कोई और बेशकीमती खनिज, फिर वहाँ रुकने से क्या फायदा? लेकिन अमरीका को वहाँ से निकलने के लिए ‘जीत’ जरूरी थी। यह ‘जीत’ इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि अगले साल अमरीका में राष्ट्रपति के चुनाव हैं। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कुछ महीनों से ओबामा की लोकप्रियता लगातार ढलान पर थी। उनके दोबारा जीत के लिए कुछ ड्रामैटिक होना जरूरी था। इसके लिए ओसामा बिन लादेन से उम्दा प्रत्याशी और कोई नहीं था।
जाहिर है कि ओबामा की ‘जीत’ के लिए लादेन का मरना जरूरी था, और लादेन मारा गया। कहानी खत्म, बच्चों बजाओ ताली!
-आनन्द प्रधान
मो0:- 09818305418
भारतीय न्यूज चैनल भी अमरीकी प्रतिष्ठान के हवाले से आ रही खबरों को पूरे उत्साह के साथ दोहराने में लगे हैं। हमेशा की तरह विजेता के बतौर अमरीकी वीरता और पराक्रम की कहानियाँ मिर्च मसाला लगाकर सुनाई जा रही हैं। इस सबके बीच सिर्फ अब यही बाकी बच गया है कि मारे गए ओसामा की छाती पर पैर रखे और हाथों में बंदूक लिए ओबामा की तस्वीरें नहीं दिखाई गई हैं।
लेकिन सच बात यह है कि कहानी बहुत सरल और सीधी है। न्यूज चैनलों पर मत जाइए, उनका तो काम है कि कहानी में सनसनी, सस्पेंस और ड्रामा डालने के लिए एक से एक पेंच और ट्विस्ट घुसाएँ।
यह ठीक है कि ओसामा बिन लादेन मारा गया, लेकिन उसका यह अंत पहले दिन से ही तय था। सच तो यह है कि अगर वह अब तक जिन्दा था तो इसकी वजह भी यह थी कि उसे और उससे भी ज्यादा उसके नाम के आतंक को खुद अमरीका ने जिन्दा रखा था। आखिर यह “जिहादी आतंकवाद” के खिलाफ “वैश्विक युद्ध” का सवाल था।
अमरीका को ओसामा के नाम और आतंक की जरूरत कई कारणों से थी। ओसामा को पकड़ने और अल कायदा को खत्म करने के नाम पर अफगानिस्तान पर हमला किया गया। इसके लिए उसे बहुत बहाना नहीं बनाना पड़ा। साथ ही, पाकिस्तान में घुसपैठ बढ़ाने का मौका मिला। इसके साथ ही मध्य एशिया में पैर जमाने को जगह मिली। इराक पर हमले के लिए जमीन तैयार करने में बहुत कसरत नहीं करनी पड़ी।
साफ है कि इस सबके लिए ओसामा का जिन्दा रहना बहुत जरूरी था। वैसे भी अमरीका बिना एक वैश्विक दुश्मन के नहीं रह सकता है। इस दुश्मन के नाम पर ही अमरीकी सैन्य औद्योगिक गठजोड़ का खरबों डालर का कारोबार चलता है। आश्चर्य नहीं कि अमरीका ने शीत युद्ध के बाद ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की फर्जी सैद्धांतिकी के आधार पर ओसामा बिन लादेन के रूप में एक वैश्विक दुश्मन खड़ा किया।
अन्यथा यह सच किससे छुपा है कि ओसामा और उसके साथियों को जेहाद के नारे के साथ खड़ा करने में अमरीका की सबसे बड़ी भूमिका थी? लेकिन अब अमरीका को ओसामा की जरूरत नहीं रह गई थी। न सशरीर और न ही आतंक के एक प्रतीक के रूप में, कारण यह कि अब अमरीका अफगानिस्तान से सम्मानजनक तरीके से निकलना चाहता है। वह यह लड़ाई नैतिक रूप से ही नहीं बल्कि सैन्य तौर पर भी हार रहा था।
ओबामा ने बहुत पहले ही घोषित कर दिया था कि उनकी प्राथमिकता अफगानिस्तान की लड़ाई को जल्दी से जल्दी जीतकर वहाँ से बाहर निकलना है। लेकिन पिछले तीन सालों में यह साफ हो चुका था कि अमरीका अफगानिस्तान में जीतने नहीं जा रहा है। उल्टे उसे और खासकर नाटो के सैनिकों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा था। सबसे बड़ी बात अमरीका को यह भी लगने लगा था कि अफगानिस्तान से कुछ खास मिलने वाला भी नहीं है। मतलब न वहाँ तेल है और न ही कोई और बेशकीमती खनिज, फिर वहाँ रुकने से क्या फायदा? लेकिन अमरीका को वहाँ से निकलने के लिए ‘जीत’ जरूरी थी। यह ‘जीत’ इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि अगले साल अमरीका में राष्ट्रपति के चुनाव हैं। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कुछ महीनों से ओबामा की लोकप्रियता लगातार ढलान पर थी। उनके दोबारा जीत के लिए कुछ ड्रामैटिक होना जरूरी था। इसके लिए ओसामा बिन लादेन से उम्दा प्रत्याशी और कोई नहीं था।
जाहिर है कि ओबामा की ‘जीत’ के लिए लादेन का मरना जरूरी था, और लादेन मारा गया। कहानी खत्म, बच्चों बजाओ ताली!
-आनन्द प्रधान
मो0:- 09818305418
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ड्रामा द ग्रेट डिक्टेटर्स
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