शनिवार, 30 जुलाई 2011

नवउदारवाद की प्रयोगशाला में भ्रष्टाचार भाग 1

सांची कह तो मारन धवैं
एक दशक पहले यह खतरा पहचान में आने लगा था कि अगर नवउदारवादी नीतियों के मुकाबले में खड़े होने वाले जनांदोलनों का राजनीतिकरण और समन्वयीकरण नहीं हुआ तो नवउदारवाद के दलाल - चाहे वे नेता हों, नौकरशाह हों, बु(िजीवी हों, एनजीओबाज हों, ध्र्मगुरु हों, कलाकार हों, खिलाड़ी हों - नवउदारवाद विरोध् के समस्त प्रयास को भंडुल कर देंगे। वही हो रहा है। आज के परिदृश्य में नवउदारवाद के वास्तविक विरोध्ी रहे कतिपय समूह और व्यक्ति भी राजनीति को कोसने वालों के पीछे चलते नजर आते हैं। इस पीछे चलने में अलग-अलग मुद्दों पर और क्षेत्रों में सक्रिय जनांदोलनों की एकजुटता से नवउदारवाद को पोसने वाली मुख्यधरा राजनीति के विकल्प की संकल्पना भी पीछे चली गई है। हमने अक्तूबर 2010 के ‘समय संवाद’ ‘आमने-सामने दो भारत: कौन किसके साथ’ में कहा था कि पिछले दो दशकों के संघर्ष में बाजी नवउदारवादियों के हाथ रही है। लोकपाल विध्ेयक और विदेशों में जमा काला ध्न वापस लाने के मुद्दों के इर्द-गिर्द चलने वाले भ्रष्टाचार विरोध्ी अभियान ने नवउदारवाद के पक्ष को और मजबूत किया है। यह अभियान चलाने वाले प्रकटतः या प्रच्छन्नतः नवउदारवाद के समर्थक हैं।
जनांदोलनों के पफुटकर चरित्रा और भूमिका को लेकर किशन पटनायक, जिन्होंने जनांदोलनों से और उनके बूते नई समाजवादी राजनीति विकसित करने का विचार रखा था, बहुत चिंतित रहते थे। समाजवादी जन परिषद ;सजपद्ध के गठन के दस साल बाद हरियाणा के जाखौली गांव में हुए एक शिविर में जब साथी शिवाजी गायकवाड़ ने उनसे कहा कि सजप जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय ;एनएपीएमद्ध को राजनीतिक बनाने के प्रयास में खुद अराजनीतिक हो गई है, तो किशन जी की पेशानी पर चिंता की रेखाएं और गहरी हो गई थीं। सजप और एनएपीएम का संदर्भ यहां प्रतीक स्वरूप दिया गया है। सजप जनांदोलनों को राजनीतिध्र्मी बनाने की प्रतीक राजनैतिक पार्टी के रूप में गठित की गई थी और एनएपीएम जनांदोलनध्र्मी गैर-राजनीतिक संगठन का प्रतीक है। मुख्यधरा राजनीति के बरक्स बनी छोटी पार्टियां अपनी राजनीतिक जगह बनाने में बुरी तरह असपफल सि( हुई हैं, जबकि मुख्यधरा राजनीति उत्तरोत्तर नवउदारवाद की सपफल वाहक बनती गई है।
ममता बनर्जी ने हाल में महाश्वेता देवी की उपस्थिति में कोलीकाता को लंदन बनाने का अपना वचन पूरा करने की घोषणा की है। मायावती उत्तर प्रदेश की जमीन पर अट्टालिकाओं, माॅल, एक्सप्रैस वे और पार्कों का अंबार लगा देने में जुटी हैं। बिहार के पिछड़े और ‘समाजवादी’ मुख्यमंत्राी माॅल, मल्टीप्लेक्स, पांच सितारा हस्पताल आदि बनाने के लिए जमीन लुटा रहे हैं। सीध्े प्रधनमंत्राी की बात करें। जिस देश की राजधनी में मुश्किल से एक-चैथाई आबादी के लिए नागरिक सुविधओं का बंदोबस्त है, उस देश का प्रधनमंत्राी हड़बड़ी मचाए है कि जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा आबादी को नगरों में बसा देना है। सबकी नजर में वह अभी तक के सबसे दानिशमंद और ईमानदार प्रधनमंत्राी हैं। हमारा इरादा पिफर से पूरा पिटारा खोलने का नहीं है। वह सबके सामने खुला ही है। सोए हुओं को जगाया जा सकता है, मक्कर मारने वालों का आप बार-बार आवाज देकर क्या करेंगे?
चर्चा नवउदारवाद के प्रतिरोध् की नई राजनीति नहीं खड़ी हो पाने के कारणों और कमियों तथा उन्हें दूर करने के उपायों और प्रयासों पर केंद्रित होनी चाहिए थी, लेकिन वह केंद्रित हो गई है नवउदारवाद की प्रयोगशाला में तैयार होने वाले एजेंडों और अभियानों पर। हमने मई अंक के ‘भ्रष्टाचार विरोध्: विभ्रम और यथार्थ’ शीर्षक ‘समय संवाद’ में लिखा था कि नवउदारवाद और भ्रष्टाचार के संबंध् को लेकर कोई गंभीर बहस अभियान के संचालकों की ओर से नहीं होगी। यह कोई चिंता की बात नहीं है। चिंता की बात यह है कि नवउदारवाद के विरोध् के दावेदार अपने पक्ष के गंभीर और टिकाऊ तर्क नहीं पेश कर पाए हैं। उनका विमर्श नवउदारवादियों के एजेंडे के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है।
इंडिया अगेंस्ट करप्शन के तत्वावधन में जंतर-मंतर पर आयोजित अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोध्ी अनशन, टीम हजारे के सरकार के प्रति और सरकार के अभियान के प्रति रुख की विस्तृत समीक्षा हमने मई अंक के उपर्युक्त ‘समय संवाद’ में की थी। इस आशा के साथ कि भ्रष्टाचार और उसके विरोध् में चलाया जाने वाला अभियान गंभीरतापूर्व नवउदारवादी व्यवस्था के संदर्भ में परखा जाएगा। इस लिहाज से हमने समीक्षा में कुछ सूत्रा और तर्क पेश करने की कोशिश की थी कि नवउदारवाद विरोध्ी साथी उन सूत्रों और तर्कों पर ध्यान देने और चल रही बहस में उन्हें आगे लाने का काम करेंगे। आशा हमें यह भी थी कि अभियान के संचालक सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट भी भ्रष्टाचार की समस्या पर नवउदारवाद और उसकी वाहक राजनीति के संदर्भ में विचार करना शुरू करेंगे। वह समीक्षा लिखने के बाद हमें नहीं लगा था कि जल्दी ही इस विषय पर दोबारा लिखना पड़ेगा। यह लेख हमने ‘युवा संवाद’ के जुलाई अंक के लिए तैयार किया था जो देरी होने की वजह से पत्रिका में नहीं जा पाया। इतना जल्दी दोबारा लिखने का कारण दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के विरु( रामदेव का सत्याग्रह और सरकार द्वारा उसका दमन नहीं था। हालांकि अंत में उस प्रकरण पर भी टिप्पणी की गई है।
पिछले दो दशकों से देश, पूरी दुनिया के साथ, नवउदारवाद की प्रयोगशाला में तब्दील हो गया है। आरएसएस की पिछले करीब सौ साल की कोशिशों के बावजूद जनता ने देश को सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला नहीं बनने दिया, लेकिन पूंजीवादी साम्राज्यवाद के एजेंटों ने महज 20-25 सालों में उसे नवउदारवाद की प्रयोगशाला बना डाला है। नवउदारवादी अर्थनीति से शुरू हुआ सिलसिला राजनीति, शिक्षा, भाषा, संस्कृति, कला, खेल, पत्राकारिता, ध्र्म, अध्यात्म आदि को अपनी जद में ले चुका है। सब कुछ को अंडबंड तरीके से नवउदारवादी सांचे में समायोजित किया जा रहा है। सोनिया के सेकुलर सिपाही उसमें सहायक बने हुए हैं। अपफसोस यह है कि उसमें एक स्थायी जगह हिंदुत्व की प्रयोगशाला के लिए भी तय कर दी गई है। सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों का भ्रष्टाचार विरोध्ी अभियान नवउदारवादी शिकंजे को कहीं ज्यादा गहराई में कस रहा है। यह लेख लिखने का यही मुख्य कारण है।
साथी कहते हैं कि देश गरमा रहा है, जो चाहे उसका उपयोग करलेऋ टीम हजारे और रामदेव के साथ जुटने वाले लोग नई यानी नवउदारवाद विरोध्ी राजनीति के साथ भी जुट सकते हैं, जोड़ने वाला होना चाहिए। ऐसे साथियों की सदाशयता से इनकार नहीं किया जा सकता। वे वाकई कुछ सार्थक होता देखना चाहते हैं। सबसे बड़ी बात है कि वे कापफी बिगड़ चुकी स्थिति में भी निराश नहीं होना चाहते। यह एक सकारात्मक प्रवृत्ति है। लेकिन क्या वे नहीं जानते कि यह नवउदारवादी व्यवस्था के पेटे की गरमाहट है जो उसने अपने बचाव के लिए पैदा की है? वरना नवउदारवाद की मार खाने वाले तो शुरू से संघर्ष कर रहे हैं और हताशा में आत्महत्या भी। कितने ही जुझारू लोग देश की अर्थव्यवस्था से लेकर शिक्षाव्यवस्था पर कसे नवउदारवादी शिकंजे को तोड़ने का संघर्ष चला रहे हैं। कई लोग हैं जो नवउदारवादी निजाम द्वारा संविधन की मूल आत्मा को नष्ट करने के प्रति आगाह करने में लगे हैं। उन सबका संघर्ष सीध्े राजनीतिक भी नहीं है। लेकिन हजारे और रामदेव के हिमायतियों को उनका संघर्ष साथ देने लायक नहीं लगता। नवउदारवाद के चरित्रा और प्रभावों को समझने और बताने के उद्देश्य से भारतीय भाषाओं में प्रभूत सामग्री - परचे, पफोल्डर, पुस्किाएं, पत्रिकाएं, वेब साइट - लगातार प्रकाशित हो रही है। लेकिन देश गरमाने वालों को उससे कोई सरोकार नहीं है। जाहिर है, देश को गरमाने का उनका एजेंडा अलग है। बल्कि जहां वास्तविक गरमाहट है, सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट उस पर पानी डालने की कोशिश करते हैं।
सिविल सोसायटी उपनिवेशवादी व्यवस्था कायम होने के साथ बनना शुरू हो गई थी। लेकिन वह इस कदर मुटाई पिछले करीब 25 सालों से जारी नवउदारवादी व्यवस्था के पेट में रहते हुए है, जिसमें भ्रष्टाचार भी खूब पला-बढ़ा है। अब वह भ्रष्टाचार रहित नवउदारवादी व्यवस्था चाहती है। भारत में यह कैसे संभव हो सकता है, जहां अर्थव्यवस्था केवल एक-चैथाई आबादी के लिए बनाई और चलाई जाती हो? सभी जानते हैं नवउदारवादी व्यवस्था देश की तीन-चैथाई आबादी को बाहर रख कर चलती है। नवउदारवादी आर्थिक सुधर अथवा नई आर्थिक नीतियां ज्यादा से ज्यादा 25 प्रतिशत आबादी को कवर करती हैं और लूटती समस्त संसाध्नों और श्रम को हैं। बाकियों के लिए अपने असंगठित और पफुटकर ध्ंध्े हैं या पिफर गांध्ी समेत कांग्रेसी नेताओं के नामों पर चलाई जाने वाली कतिपय ‘कल्याणकारी’ योजनाएं। उनमें भी बराबर भ्रष्टाचार होता रहता है।
पफर्ज करो एक-चैथाई आबादी की व्यवस्था में भ्रष्टाचार रोकने का पुख्ता इंतजाम हो भी जाता है तो उससे बाकी आबादी को क्या मिलने वाला है? उससे एक-चैथाई आबादी का सुकून और संपन्नता जरूर और बढ़ जाएंगे। क्या हम सिविल सोसायटी के भ्रष्टाचार विरोध्ी आंदोलन का यह अर्थ निकालें कि राजनीति, नौकरशाही और व्यापार में उच्च पदों पर आसीन हस्तियों के भ्रष्टाचार पर लगाम रहेगी तो सिविल सोसायटी, विशेषकर एक्टिविस्टों को नवउदारवादी नीतियों का पफायदा और ज्यादा मिलेगा? तनख्वाहें व भत्ते और बढ़ेंगे, एनजीओ को और पफंड मिलेगा, देश-विदेश घूमना ज्यादा सुविधजनक और आरामदेह होगा, मौजमस्ती ज्यादा हो पाएगी, बेटा-बेटी जल्दी और अच्छे से सेटल होंगे और मंहगे से मंहगा इलाज होने के बाद भी जब मौत आ ही जाएगी तो संततियों के लिए बड़ी संपत्ति छोड़ कर जाएंगे?
काला धन वापस लाकर जनता का दरिद्रय हरने की वकालत करने वाले दरअसल झांसा देते हैं। काला ध्न जमा करने वाले स्विस अथवा अन्य बैंक इस व्यवस्था का स्वीकृत हिस्सा हैं। यह व्यवस्था ध्न को काला कर सकती है, लेकिन जिन्होंने वह पैदा किया है, उन पर खर्च नहीं कर सकती। वह खद्यान्नों को बरबाद कर देगी, उनका उत्पादन घटा देगी, लेकिन भूखी और कुपोषित आबादियों को उपलब्ध् नहीं होने देगी।
आप मारें या छोड़ें, कहना होगा कि भ्रष्टाचार के विरोध् में जो देश गरमा रहा है, उसकी सच्चाई यही है। पिछले तीन दशक से ज्यादा की छोटी-मोटी राजनीतिक सक्रियता के अनुभव पर हमारा मानना है कि भ्रष्टाचार विरोध् का यह अभियान वास्तव में राजनीति के विरोध् का अभियान है। अमेरिका से भारत तक नवउदारवाद स्वतंत्रा राजनीति की इजाजत नहीं देता। बराक ओबामा को राष्ट्रपति बने दो साल हुए हैं। अगला चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने रिकाॅर्ड ध्न इक्ठ्ठा कर लिया है। अमेरिका में यह चल सकता है, लेकिन भारत में स्वतंत्रा राजनीति का न रहना, भारत का ही न रहना हो जाएगा। नवउदारवाद की प्रयोगशाला में अर्थनीति के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य, भाषा, कला, साहित्य, संस्कृति, यहां तक कि नागरिक-बोध् और जीवन-मूल्यों को भी नवउदारवादी मोल्ड में ढाला जा रहा है। अगर राजनीति भी उसी मोल्ड में ढल में जाएगी तो नवउदारवाद का प्रयोग पूरा हो जाएगा। अलबत्ता तो नवउदारवाद के समर्थकों को कोई समस्या नजर नहीं आती, लेकिन जब मंहगाई, बेरोजगारी, बीमारी, कुपोषण, विस्थापन, किसानों व छोटे व्यावसायियों की आत्महत्याओं की खबरें और रपटें आती हैं, वे नवउदारवादी नीतियों को नहीं, उन्हें निर्णायक और त्वरित गति से लागू न कर पाने वाली सरकारों, राजनीति और राज्य को दोष देते हैं।
राजनीति से नफरत का आलम
पिछले दिनों दिल्ली में खूनी दरवाजे के पास शहीदी पार्क में जेपी की मूर्ति के साए में आयोजित एक सभा में टीम हजारे के एक प्रमुख नुमाइंदे स्वामी अग्निवेश के राजनीति और लोकशक्ति पर विचार सुनने को मिले। अवसर कुछ साथियों द्वारा पटना से दिल्ली तक की गई संपूर्ण क्रांति संकल्प यात्रा के समापन का था। अग्निवेश ने राजनीति को बुरा ही बुरा और लोकशक्ति को अच्छा ही अच्छा बताया। अपने मुंह मिया मिठ्ठू बनते हुए खुद को और भ्रष्टाचार विरोध्ी अभियान के संचालक अपने साथियों को लोकशक्ति का सच्चा प्रतिनिध् िऔर भ्रष्टाचार विरोध्ी अभियान को सच्चा लोकशक्ति अभियान घोषित किया। बिना किसी संदेह के, गोया लोकशक्ति रसगुल्ला हो, उठाया और गप से खा लिया। जैसे इस देश में लोकशक्ति की पहचान, परिभाषा और साध्ना का कोई विमर्श और इतिहास न रहा हो।
लोकशक्ति के गुणगान में गांध्ी का हवाला जरूर दिया जाता है। नवउदारवाद की प्रयोगशाला में गांध्ी को ऐसी गरीब गाय बना दिया गया है जिसकी रस्सी खींच कर कोई भी अपने खूंटे से बांध् लेता है - मनमोहन सिंह-सोनिया गांध्ी से लेकर अन्ना-रामदेव तक। हमने आपको बताया था कि भ्रष्टाचार विरोध्ी अभियान में ध्न से लेकर प्रचार तक की व्यवस्था करने वाले अरविंद केजरीवाल अभियान की एक सक्रिय हस्ती किरण बेदी की नजर में छोटे गांध्ी हैं। नरेंद्र मोदी का गांध्ी-प्रेम अक्सर प्रकट होता रहता है। उन्होंने जो गुजरात बनाया है उसकी प्रेरणा वे गांध्ी को मानते हैं। अन्ना हजारे को अपने प्रशंसा-पात्रा के रूप में सबसे पहले नरेंद्र मोदी शायद इसीलिए याद आए!
नवउदारवाद की प्रयोगशाला में गांध्ी की एक अलग प्रतिमा गढ़ी जा रही है। वरना क्या कारण है कि सरेआम संविधन और पद की जिम्मेदारी और मानव मर्यादा को ध्ता बता कर हजारों निर्दोष नागरिकों की हत्या कराने वाले नरेंद्र मोदी के प्रशंसक अन्ना हजारे को गांध्ीवादी कहा और लिखा जा रहा हैे? और गांधवादी चुप ही नहीं, समर्थन में हैं। गांध्ी की रट लगाने वाले सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट कभी लोहिया का नाम नहीं लेते। शायद वे गांध्ीवादियों की चैथी कोटि का नामकरण होने से डरते हैं जो नवउदारवाद की प्रयोगशाला में गढ़ कर उनके रूप में सामने आई है। हालांकि संभावना नगण्य है, पिछड़ा-राज आने पर ये लोग लोहिया को भी लपेट सकते हैं और दलित-राज आने पर अंबेडकर को। क्या इस जमात को थेथर गांध्ीवादी कहा जा सकता है?
अग्निवेश ने भी अपने भाषाण में गांध्ी का हवाला दिया कि वे उन्हीं का काम आगे बढ़ा रहे हैं। इन महानुभावों की नजर में वही लोकशक्ति है जो उनके आह्नान पर जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पहुंचती हैऋ कपिल सिब्बल के चुनाव-क्षेत्रा में जनमत संग्रह करवाती है और टीवी-अखबारों में जन लोकपाल विध्ेयक के पक्ष में ताल ठोकती है। नवउदारवाद की प्रयोगशाला में लोकशक्ति का आधर और मायने बदल गए हैं। जिन्हें नवउदारवादी सुरक्षा कवच प्राप्त है वे ही लोकशक्ति हैं। उन्हें रेहड़ी नहीं लगानी पड़ती, कचरा नहीं बीनना पड़ता, उनके बच्चे ढाबों पर बर्तन नहीं मांजते, उनकी औरतें कई-कई घरों में झाड़ू-पोंछा-बर्तन नहीं करतीं, उन्हें मलमूत्रा सपफाई, कमरतोड़ पफुटकर मजदूरी, कारीगरी, किसानी आदि नहीं करनी पड़ती। नवउदारवाद के सुरक्षा कवच के भीतर ध्न के स्रोतों की कमी नहीं रहती क्योंकि देश के संसाध्नों की लूट में उनका कम-बत्ती हिस्सा तय है। उनके सब काम सरते हैं क्योंकि उनकी आपस में सघन नेटर्विंकग है। वे अंग्रेजी बोलते हैं या आगे चल कर बोलेंगे। लाख कर्ज हो जाए वे आत्महत्या की बात नहीं सोचते। उनकी जवानी का आलम कि चालीस और पचास पार करने पर भी वे युवा कहलाते हैं और युवाशक्ति को निर्देशित करते हैं।

प्रेम सिंह
(क्रमश:)

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