आयोजकों की असली मंशा और उसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के साझे को लेकर हम कोई टिप्पणी फिलहाल नहीं करना चाहते। अपने को अभियान की समीक्षा तक ही सीमित रखते हैं। लेकिन जल्दी ही वह घड़ी आ सकती है जब हकीकत खुलने पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उद्वेलित हुए लोग अपने को ठगा हुआ महसूस करें। भले ही हमारे कुछ साथी कहें कि देश इस कदर गरमा गया है कि ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे अखबार कितना भी पंक्चर करने की कोशिश कर लें, अब यह आंदोलन रुकने वाला नहीं है।
हमने यह भी सोचा कि भारत का नागरिक समाज, राजनैतिक निरक्षरों की भीड़ बनता जा रहा है। वह तमाशा दर तमाशा में जीता है और एक तमाशा बन कर रह गया है। अलग-अलग क्षेत्रों में अन्यथा प्रतिभाशाली माने जाने वाले नागरिक समाज के ज्यादातर नुमाइंदे, राजनैतिक चेतना से लगभग शून्य नजर आते हैं। उनमें संविधान, कानून और प्रशासन के गहरे जानकार भी शामिल हैं। हम आगे देखेंगे कि उनकी राजनैतिक समझदारी, अगर कोई है, घूम-फिर कर उसी ‘बुरी’ राजनीति से अनुशासित होती है, जिसके बरक्स अपने को अराजनैतिक बता कर वे गौरवान्वित अनुभव करते हैं। टी0वी0, ट्वीटर और फेसबुक पर अभियान का अंध-समर्थन करने वाले ‘राजनीति विरोधियों’ में शायद ही किसी ने समर्थन की तेजी के साथ विधेयक के दोनों मसौदों का अध्ययन करके अपना मत बनाया हो। हजारे की मीडिया प्रदत्त छवि पर ही वे रीझ गए। जैसे आयोजकों का सरकार पर दबाव था कि पहले जन लोकपाल विधेयक स्वीकार करो और उसी का कानून बनाओ, उसी तरह समर्थकों का हल्ला था कि बिना किसी किंतु-परंतु के अभियान का समर्थन करो और भ्रष्टाचारियों को मिटाओ। ऐसे में उनसे भ्रष्टाचार की जटिल समस्या पर गंभीरतापूर्वक सोचने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती।
आगे बढ़ने से पहले हम बता दें, इस अभियान के बारे में हम आशावादी नहीं हैं। अलबत्ता उसकी समीक्षा जरूर करना चाहते हैं। एक अपेक्षा भी करते हैं कि अभियान के साथ अथवा बाद, भ्रष्टाचार की जटिल समस्या पर देश में गंभीर चिंतन और चर्चा शुरू हो जाए। यह 1968 में सोचे गए लोकपाल विधेयक से भी पहले से लंबित काम है, जो भारत के नागरिक समाज को करना है। किशन पटनायक ने 1988 के अपने एक लेख ‘भ्रष्टाचार की पड़ताल’ में लिखा है, ‘‘आजादी के बाद से सबसे अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है। गरीबी, बेरोजगारी, महँगाई, सीमा सुरक्षा या क्रिकेट से भी अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है। देश का कोई भी वर्ग नहीं है जो इससे विचलित नहीं है। फिर भी हमारे बुद्धिजीवियों ने इसको एक खोज का विषय नहीं बनाया।’’ (भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि, पृ. 175, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006) यह अफसोस की बात है कि चार दिन के अनशन के बाद, आरोप-प्रत्यारोपों को जाने दें, नागरिक समाज के नुमांइदों में जो धाराप्रवाह बहस चल रही है, किशन पटनायक के ही शब्द लें, वह ‘‘भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसके कारण तथा प्रतिकार से संबध्ति’’ नहीं है। (वही) भारत में भ्रष्टाचार, कानून तोड़ कर ही नहीं होता, कानून को गच्चा देकर भी होता है। देश के संसाधनों की लूट को सरकारें कानूनी जामा पहना देती हैं। गैट से लेकर विदेशी विश्वविद्यालय कानूनों तक कानूनी भ्रष्टाचार का सिलसिला दशकों से अक्षुण्ण चल रहा है। गजानन माधव मुक्तिबोध साठ के दशक में लिखते हैं, ‘‘बुजुर्गों ने, सत्ताधारियों ने, समाजसंचालकों ने, आर्थिक शक्ति से संपन्न वर्गों ने, समाज के प्रत्येक स्तर पर प्रकट और अप्रकट, सूक्ष्म और स्थूल, भ्रष्टाचार का विधान कर रखा है। इस भ्रष्टाचार के कई रूप हैं। कभी वह कानून के रूप में प्रकट होता है, कभी कानून की आड़ में गैर-कानूनी रूप में। कानून या नियम तोे आर्थिक शक्ति से संपन्न प्रभावशाली लोगों की सुविधा के लिए हैं।’’ (एक साहित्यिक की डायरी, पृ. 34-35, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1989) मुक्तिबोध का जिक्र हमने साभिप्राय किया है। उन्होंने अपनी महाकाव्यात्मक कविता ‘अँधेरे में’ में शासकवर्ग के एकजुट भ्रष्टाचारी चरित्र और चेहरे का अंतर्बाह्य स्पष्ट रूप में दिखाया है। उस चरित्र और चेहरे में मुक्तिबोध के बाद, खासकर पिछले दो दशकों में, जिस तेजी से निखार आया है, उसी तेजी के साथ वह भ्रष्टाचार के खिलाफ ताल ठोंक रहा है। अपने भ्रष्टाचार विरोध की ‘सच्चाई’ पर एक शब्द भी आलोचना का नहीं सुनना चाहता। पलटवार कर आलोचकों को भ्रष्टाचारी ताकतें बताता है। उसका यह आत्मविश्वास गौरतलब है। यहाँ एक बार फिर हम किशन पटनायक को उद्धृत करना चाहेंगे। अप्रैल 2001 के अपने ‘असहाय सत्य’ लेख में वे लिखते हैं, ‘‘उदारीकरण भ्रष्टाचार की शुरुआत नहीं करता है, लेकिन जब उदारीकरण के द्वारा विकासशील समाज के सारे स्वास्थ्य-प्रदायक तंतुओं को कमजोर कर दिया जाता है तब भ्रष्टाचार न सिर्फ बढ़ता है बल्कि नियंत्रण के बाहर हो जाता है। भारत में उदारीकरण का यह चरण आ चुका है। जब अधिकांश नागरिकों के जीवन में भविष्य की अनिश्चितता आ जाती है, चंद लोगों के लिए धनवृद्धि और खर्चवृद्धि की सीमा नहीं रह जाती, वर्गों और समूहों के बीच की गैर-बराबरियाँ निरंतर बढ़ती जाती हैं, सार्वजनिक संपत्तियों को बेचने की छूट मिल जाती है, उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को देश के बाहर से निर्देश लेने होते हैं, जायज तरीकों से मिलने वाली आय और नाजायज कमाई की मात्रा में आकाश-पाताल का अंतर होता है, तब भ्रष्टाचार को रोकेगा कौन?’’ (राजनीति पर एक दृष्टि, पृ. 194) जैसा उत्साह और आशा भ्रष्टाचार विरोधी दर्शा रहे हैं, बल्कि कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी ‘जनजागरण’ ने लोकतंत्र संवर्द्धन की दिशा भी दिखा दी है, उसे यथार्थ मानें तो किशन पटनायक को विभ्रम का शिकार मानना होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। ग्रामीण रोजगार, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जंगल का अधिकार आदि कानून और कार्यक्रमों के बावजूद, न देश के संसाधनों की लूटपाट में कमी आई है, न शिक्षा के निजीकरण-बाजारीकरण की मुहिम में। बल्कि पूँजीवादी-उपभोक्तावादी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जाने के रास्ते और लक्ष्य उत्तरोत्तर स्पष्ट होते गए हैं। साथ में यह भी कि पूँजीवादी उपनिवेशवाद के दौर में शुरू किया गया मानव आबादियों के सफाए का सिलसिला अगले सौ-एक सालों में अपनी पूर्णता हासिल कर लेगा। ‘सर्वाइवल आॅफ फिटेस्ट’ अब प्राकृतिक सिद्धांत न होकर साभ्यतिक सिद्धांत बन चुका है।
16 अप्रैल 2011 के ‘इकाॅनाॅमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ (ई0पी0डब्ल्यू0) में वी कृष्ण अनंत का अभियान के समर्थन में ‘लोकपाल बिल कैंपेनः डेमोक्रेटिक एण्ड कंस्टीट्यूशनल’ लेख छपा है। आश्चर्य है ई0पी0डब्ल्यू0 जैसी गंभीर पत्रिका में इतना सपाट लेख प्रकाशित हुआ है। सी0बी0आई0 के पूर्व निदेशक आर0के0 राघवन का लेख ‘हजारे मूवमेंट एंड दि डेल्ही ड्रामा’ 22 अप्रैल के ‘दि हिंदू’ में आया है। लेख हजारे के समर्थन में प्रवचन और उद्बोधन की शैली में लिखा गया है। यह अक्सर होता है कि अखबारों में कुछ लेख पदनामों की ‘मेरिट’ पर छपते हैं। जैसे 21 अप्रैल के ‘इंडियन एक्सप्रैस’ में शीला दीक्षित के बेटे और उसी नाते सांसद संदीप दीक्षित का भ्रष्टाचार पर लेख प्रकाशित हुआ है। भ्रष्टाचार का खेल सिद्ध हो चुके काॅमनवैल्थ खेलों के वे बीचो बीच थे फिर भी भ्रष्टाचार पर उनका प्रवचन छपा है।
सरसरी तौर पर देखने से ही लग जाता है कि राघवन साहब का लेख उनके पदनाम और ‘दि हिंदू’ की अभियान-समर्थक लाइन के चलते छपा है। लेख हमें इसलिए रोचक लगा कि एक तो उसमें नेक (गुड) और बद (बैड) की दो आत्यंतिक कोटियाँ बनाई गई हैं। आधुनिक-पूर्व युगों में भी नेकी-बदी का ऐसा कड़ा विभाजन नहीं होता था, लेकिन राघवन उत्तर-आधुनिक युग में व्यक्तियों और प्रसंगों को स्याह-सफेद खाँचों में रख कर देख रहे हैं। लेख में, जाहिर है, हजारे और अभियान के समर्थकों को अच्छा ही अच्छा बताया गया है। संयुक्त समिति के दो सदस्यों पर ‘कीचड़ उछालने’ वाले तो बद हैं ही, हजारे, संयुक्त समिति के किसी अन्य सदस्य, अभियान, विधेयक, यहाँ तक कि मीडिया को किसी भी रूप में प्रश्नांकित करने वाले भी बदी की कोटि में डाले गए हैं।
रोचकता की दूसरी बात हमें यह लगी कि भारत के ज्यादातर अफसरान के भीतर अपनी श्रेष्ठता और परिपूर्णता पर रीझा हुआ एक तानाशाह बैठा होता हैे, जो मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई की लूट से मिली सुख-सुविधाओं पर फला-फूला होता है। जैसे अफसर पूरा ठीक होता है और सबको ठीक कर देता है, उसी तरह का प्रक्षेपण राघवन ने हजारे में किया है- उनकी निगाह में वे नीतिमयता के एकमात्र स्तंभ हैं और उनका जन लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार के रावण को फूँक देने वाला अचूक बाण। राघवन को राजनैतिक दखल बिल्कुल नहीं चाहिए। हजारे के उस कथन पर कि जन लोकपाल कानून संसद ही बनाएगी और वे उसे मानेंगे, राघवन ने उन्हें आगाह किया है कि सांसदों-विधायकों का भरोसा बिल्कुल न करें। उनकी यह आशा ‘अनरियलिस्टिक’ है कि सांसद-विधायक जन लोकपाल कानून का समर्थन करेंगे। नौकरशाहों की तानाशाही से तनी गर्दन नेताओं के सामने ही झुकती है। पहले अंग्रेजों के सामने झुकती थी। राघवन सेवा में रहते हुए राजनीति और नेताओं के खिलाफ नहीं बोल पाए। वे अब हजारे के बहाने अपना राजनीति और नेता-द्वेष निकाल रहे हैं।
प्रेम सिंह
क्रमश:
हमने यह भी सोचा कि भारत का नागरिक समाज, राजनैतिक निरक्षरों की भीड़ बनता जा रहा है। वह तमाशा दर तमाशा में जीता है और एक तमाशा बन कर रह गया है। अलग-अलग क्षेत्रों में अन्यथा प्रतिभाशाली माने जाने वाले नागरिक समाज के ज्यादातर नुमाइंदे, राजनैतिक चेतना से लगभग शून्य नजर आते हैं। उनमें संविधान, कानून और प्रशासन के गहरे जानकार भी शामिल हैं। हम आगे देखेंगे कि उनकी राजनैतिक समझदारी, अगर कोई है, घूम-फिर कर उसी ‘बुरी’ राजनीति से अनुशासित होती है, जिसके बरक्स अपने को अराजनैतिक बता कर वे गौरवान्वित अनुभव करते हैं। टी0वी0, ट्वीटर और फेसबुक पर अभियान का अंध-समर्थन करने वाले ‘राजनीति विरोधियों’ में शायद ही किसी ने समर्थन की तेजी के साथ विधेयक के दोनों मसौदों का अध्ययन करके अपना मत बनाया हो। हजारे की मीडिया प्रदत्त छवि पर ही वे रीझ गए। जैसे आयोजकों का सरकार पर दबाव था कि पहले जन लोकपाल विधेयक स्वीकार करो और उसी का कानून बनाओ, उसी तरह समर्थकों का हल्ला था कि बिना किसी किंतु-परंतु के अभियान का समर्थन करो और भ्रष्टाचारियों को मिटाओ। ऐसे में उनसे भ्रष्टाचार की जटिल समस्या पर गंभीरतापूर्वक सोचने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती।
आगे बढ़ने से पहले हम बता दें, इस अभियान के बारे में हम आशावादी नहीं हैं। अलबत्ता उसकी समीक्षा जरूर करना चाहते हैं। एक अपेक्षा भी करते हैं कि अभियान के साथ अथवा बाद, भ्रष्टाचार की जटिल समस्या पर देश में गंभीर चिंतन और चर्चा शुरू हो जाए। यह 1968 में सोचे गए लोकपाल विधेयक से भी पहले से लंबित काम है, जो भारत के नागरिक समाज को करना है। किशन पटनायक ने 1988 के अपने एक लेख ‘भ्रष्टाचार की पड़ताल’ में लिखा है, ‘‘आजादी के बाद से सबसे अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है। गरीबी, बेरोजगारी, महँगाई, सीमा सुरक्षा या क्रिकेट से भी अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है। देश का कोई भी वर्ग नहीं है जो इससे विचलित नहीं है। फिर भी हमारे बुद्धिजीवियों ने इसको एक खोज का विषय नहीं बनाया।’’ (भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि, पृ. 175, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006) यह अफसोस की बात है कि चार दिन के अनशन के बाद, आरोप-प्रत्यारोपों को जाने दें, नागरिक समाज के नुमांइदों में जो धाराप्रवाह बहस चल रही है, किशन पटनायक के ही शब्द लें, वह ‘‘भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसके कारण तथा प्रतिकार से संबध्ति’’ नहीं है। (वही) भारत में भ्रष्टाचार, कानून तोड़ कर ही नहीं होता, कानून को गच्चा देकर भी होता है। देश के संसाधनों की लूट को सरकारें कानूनी जामा पहना देती हैं। गैट से लेकर विदेशी विश्वविद्यालय कानूनों तक कानूनी भ्रष्टाचार का सिलसिला दशकों से अक्षुण्ण चल रहा है। गजानन माधव मुक्तिबोध साठ के दशक में लिखते हैं, ‘‘बुजुर्गों ने, सत्ताधारियों ने, समाजसंचालकों ने, आर्थिक शक्ति से संपन्न वर्गों ने, समाज के प्रत्येक स्तर पर प्रकट और अप्रकट, सूक्ष्म और स्थूल, भ्रष्टाचार का विधान कर रखा है। इस भ्रष्टाचार के कई रूप हैं। कभी वह कानून के रूप में प्रकट होता है, कभी कानून की आड़ में गैर-कानूनी रूप में। कानून या नियम तोे आर्थिक शक्ति से संपन्न प्रभावशाली लोगों की सुविधा के लिए हैं।’’ (एक साहित्यिक की डायरी, पृ. 34-35, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1989) मुक्तिबोध का जिक्र हमने साभिप्राय किया है। उन्होंने अपनी महाकाव्यात्मक कविता ‘अँधेरे में’ में शासकवर्ग के एकजुट भ्रष्टाचारी चरित्र और चेहरे का अंतर्बाह्य स्पष्ट रूप में दिखाया है। उस चरित्र और चेहरे में मुक्तिबोध के बाद, खासकर पिछले दो दशकों में, जिस तेजी से निखार आया है, उसी तेजी के साथ वह भ्रष्टाचार के खिलाफ ताल ठोंक रहा है। अपने भ्रष्टाचार विरोध की ‘सच्चाई’ पर एक शब्द भी आलोचना का नहीं सुनना चाहता। पलटवार कर आलोचकों को भ्रष्टाचारी ताकतें बताता है। उसका यह आत्मविश्वास गौरतलब है। यहाँ एक बार फिर हम किशन पटनायक को उद्धृत करना चाहेंगे। अप्रैल 2001 के अपने ‘असहाय सत्य’ लेख में वे लिखते हैं, ‘‘उदारीकरण भ्रष्टाचार की शुरुआत नहीं करता है, लेकिन जब उदारीकरण के द्वारा विकासशील समाज के सारे स्वास्थ्य-प्रदायक तंतुओं को कमजोर कर दिया जाता है तब भ्रष्टाचार न सिर्फ बढ़ता है बल्कि नियंत्रण के बाहर हो जाता है। भारत में उदारीकरण का यह चरण आ चुका है। जब अधिकांश नागरिकों के जीवन में भविष्य की अनिश्चितता आ जाती है, चंद लोगों के लिए धनवृद्धि और खर्चवृद्धि की सीमा नहीं रह जाती, वर्गों और समूहों के बीच की गैर-बराबरियाँ निरंतर बढ़ती जाती हैं, सार्वजनिक संपत्तियों को बेचने की छूट मिल जाती है, उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को देश के बाहर से निर्देश लेने होते हैं, जायज तरीकों से मिलने वाली आय और नाजायज कमाई की मात्रा में आकाश-पाताल का अंतर होता है, तब भ्रष्टाचार को रोकेगा कौन?’’ (राजनीति पर एक दृष्टि, पृ. 194) जैसा उत्साह और आशा भ्रष्टाचार विरोधी दर्शा रहे हैं, बल्कि कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी ‘जनजागरण’ ने लोकतंत्र संवर्द्धन की दिशा भी दिखा दी है, उसे यथार्थ मानें तो किशन पटनायक को विभ्रम का शिकार मानना होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। ग्रामीण रोजगार, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जंगल का अधिकार आदि कानून और कार्यक्रमों के बावजूद, न देश के संसाधनों की लूटपाट में कमी आई है, न शिक्षा के निजीकरण-बाजारीकरण की मुहिम में। बल्कि पूँजीवादी-उपभोक्तावादी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जाने के रास्ते और लक्ष्य उत्तरोत्तर स्पष्ट होते गए हैं। साथ में यह भी कि पूँजीवादी उपनिवेशवाद के दौर में शुरू किया गया मानव आबादियों के सफाए का सिलसिला अगले सौ-एक सालों में अपनी पूर्णता हासिल कर लेगा। ‘सर्वाइवल आॅफ फिटेस्ट’ अब प्राकृतिक सिद्धांत न होकर साभ्यतिक सिद्धांत बन चुका है।
16 अप्रैल 2011 के ‘इकाॅनाॅमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ (ई0पी0डब्ल्यू0) में वी कृष्ण अनंत का अभियान के समर्थन में ‘लोकपाल बिल कैंपेनः डेमोक्रेटिक एण्ड कंस्टीट्यूशनल’ लेख छपा है। आश्चर्य है ई0पी0डब्ल्यू0 जैसी गंभीर पत्रिका में इतना सपाट लेख प्रकाशित हुआ है। सी0बी0आई0 के पूर्व निदेशक आर0के0 राघवन का लेख ‘हजारे मूवमेंट एंड दि डेल्ही ड्रामा’ 22 अप्रैल के ‘दि हिंदू’ में आया है। लेख हजारे के समर्थन में प्रवचन और उद्बोधन की शैली में लिखा गया है। यह अक्सर होता है कि अखबारों में कुछ लेख पदनामों की ‘मेरिट’ पर छपते हैं। जैसे 21 अप्रैल के ‘इंडियन एक्सप्रैस’ में शीला दीक्षित के बेटे और उसी नाते सांसद संदीप दीक्षित का भ्रष्टाचार पर लेख प्रकाशित हुआ है। भ्रष्टाचार का खेल सिद्ध हो चुके काॅमनवैल्थ खेलों के वे बीचो बीच थे फिर भी भ्रष्टाचार पर उनका प्रवचन छपा है।
सरसरी तौर पर देखने से ही लग जाता है कि राघवन साहब का लेख उनके पदनाम और ‘दि हिंदू’ की अभियान-समर्थक लाइन के चलते छपा है। लेख हमें इसलिए रोचक लगा कि एक तो उसमें नेक (गुड) और बद (बैड) की दो आत्यंतिक कोटियाँ बनाई गई हैं। आधुनिक-पूर्व युगों में भी नेकी-बदी का ऐसा कड़ा विभाजन नहीं होता था, लेकिन राघवन उत्तर-आधुनिक युग में व्यक्तियों और प्रसंगों को स्याह-सफेद खाँचों में रख कर देख रहे हैं। लेख में, जाहिर है, हजारे और अभियान के समर्थकों को अच्छा ही अच्छा बताया गया है। संयुक्त समिति के दो सदस्यों पर ‘कीचड़ उछालने’ वाले तो बद हैं ही, हजारे, संयुक्त समिति के किसी अन्य सदस्य, अभियान, विधेयक, यहाँ तक कि मीडिया को किसी भी रूप में प्रश्नांकित करने वाले भी बदी की कोटि में डाले गए हैं।
रोचकता की दूसरी बात हमें यह लगी कि भारत के ज्यादातर अफसरान के भीतर अपनी श्रेष्ठता और परिपूर्णता पर रीझा हुआ एक तानाशाह बैठा होता हैे, जो मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई की लूट से मिली सुख-सुविधाओं पर फला-फूला होता है। जैसे अफसर पूरा ठीक होता है और सबको ठीक कर देता है, उसी तरह का प्रक्षेपण राघवन ने हजारे में किया है- उनकी निगाह में वे नीतिमयता के एकमात्र स्तंभ हैं और उनका जन लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार के रावण को फूँक देने वाला अचूक बाण। राघवन को राजनैतिक दखल बिल्कुल नहीं चाहिए। हजारे के उस कथन पर कि जन लोकपाल कानून संसद ही बनाएगी और वे उसे मानेंगे, राघवन ने उन्हें आगाह किया है कि सांसदों-विधायकों का भरोसा बिल्कुल न करें। उनकी यह आशा ‘अनरियलिस्टिक’ है कि सांसद-विधायक जन लोकपाल कानून का समर्थन करेंगे। नौकरशाहों की तानाशाही से तनी गर्दन नेताओं के सामने ही झुकती है। पहले अंग्रेजों के सामने झुकती थी। राघवन सेवा में रहते हुए राजनीति और नेताओं के खिलाफ नहीं बोल पाए। वे अब हजारे के बहाने अपना राजनीति और नेता-द्वेष निकाल रहे हैं।
प्रेम सिंह
क्रमश:
4 टिप्पणियां:
आपने बड़े विवेक पूर्ण तरीके से अपनी बात कहने का प्रयास किया खेद है कि आम जनता ऐसे विवेक पूर्ण लेखो को न्समझने तैया है न पढ़ने । लोकतंत्र के जादुई श्ब्दो मे लपेटा हुआ तंत्र किस कदर अहसाय हो चुजा हैइसकी बानगी आज देखी जा सकती ऐ टाईंम बाउंड बिल की अपेक्षा रखने वाले शासन तंत्र की मजबूरियो को समझने तैयार नही और बाबा की असफ़लता का मजा ले चुकी सरकार शायद इसे भी किचल दे या टाल दे पर मूल सवाल आज जनता मे फ़ैले विद्रोह का है मानसिकता आज विरोध की है और इसी तर्ज पर हर हर महादेव चिल्लाते लोग भी घूं रहे है और जय भीं भी मंदिर मे मिली एक लाख करोड़ की संपत्ती काला हिंदु खाये पर सरकार के पास न जाये की बात चल ही रही है क्या आपको नही लगता कि आपकी लेखनी समसामयिक नही है देश हित किसमे है सरकार पर समझौते का दबाव बनाने मे या कुतर्को से विद्वता दिखाने मे बात को समझें कि ये असंतोष कम कैसे होगा और लोकतंत्र को अपनी गलतियों का खामियाजा भी भुगतना ही होगा लोकपाल देख देख जीवन भर याद रहे कि अति सर्वत्र वर्ज्येत
हमने यह भी सोचा कि भारत का नागरिक समाज, राजनैतिक निरक्षरों की भीड़ बनता जा रहा है। वह तमाशा दर तमाशा में जीता है और एक तमाशा बन कर रह गया है। अलग-अलग क्षेत्रों में अन्यथा प्रतिभाशाली माने जाने वाले नागरिक समाज के ज्यादातर नुमाइंदे, राजनैतिक चेतना से लगभग शून्य नजर आते हैं। उनमें संविधान, कानून और प्रशासन के गहरे जानकार भी शामिल हैं। हम आगे देखेंगे कि उनकी राजनैतिक समझदारी, अगर कोई है, घूम-फिर कर उसी ‘बुरी’ राजनीति से अनुशासित होती है, जिसके बरक्स अपने को अराजनैतिक बता कर वे गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
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Sahmat.
हिंदी ब्लॉग जगत में अपेक्षाकृत कम लाभदायक या रददी लेख ज़्यादा प्रशंसा और ध्यान पा रहे हैं, यह एक हक़ीक़त है।
नए ब्लॉगर्स की अनदेखी करना भी यहां की परंपरा है और रचनात्मक काम के बारे में जुगाली करना तो यहां आम है लेकिन वास्तव में उन्हें इसकी ख़ाक भी चिंता नहीं है। आपकी पोस्ट पर मेरी 2nd टिप्पणी का होना यही बताता है।
इसके बावजूद आप आगे बढ़ रहे हैं। यही आपकी सफलता है।
जो लोग अपने दिल की ख़ुशी के लिए ब्लॉगिंग कर रहे हैं, उन्हें जाने दीजिए और आप लोगों की भलाई में लगे रहें।
आपकी पोस्ट इन ब्लॉगर्स की हक़ीक़त सदा उजागर करती रहेगी।
शुक्रिया !
आपकी इस उत्कृष्ट प्रवि्ष्टी की चर्चा आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!
आपने सच्चाई को उजागर करती लेख्श्रन्ख्ला के माध्यम से जन-जागरण का कर्तव्य पूर्ण किया है.अब जनता का फर्ज है उसकी भावना को समझ कर फैसला करे.
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