( वर्तमान दौर की सत्ता सरकारों में विद्यमान छोटे - बड़े छिद्रों से बढ़ते रहे धन पूंजी के भ्रष्टाचार ने हर विधयेक व कानून को भ्रष्टाचार रोकने में नकारा साबित कर दिया है | इसलिए मांग केवल जन लोकपाल विधयेक की ही नही होनी चाहिए , बल्कि जनसाधारण के हितो में विधेयको को बनाने व लागू करने वाले जनवादी राज्य की भी होनी चाहिए | )
खबरों के अनुसार लोक पाल विधेयक का साझा मसौदा बन पाना अब मुश्किल है | क्योंकि इस विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए 6 - 7 मीटिंग करने के बाद सरकारी व नागरिक समाज के प्रतिनिधि अब इसे आगे चला पाने में असमर्थता जाहिर कर रहे है | अन्ना हजारे समेत नागरिक समाज के प्रतिनिधियों का कहना है कि सरकार उनकी दलीलों और सुझावों को सुनने के लिए तैयार नही है |सरकार के प्रतिनिधियों का कहना है कि एक दूसरे की राय में इतना अंतर है कि इसे एक साझा मसौदा का रूप देना सम्भव नही दिखाई पड़ रहा है | अत: 30 जून तक दोनों तरफ के प्रतिनिधियों द्वारा लोक पाल विधेयक के बारे में अलग -अलग मसौदा दे दिया जायगा |उन मसौदो के बारे में अंतिम फैसला केन्द्रीय मन्त्रिमंडल करेगा |सभी जानते है की समाज में खासकर राज्य की विधायिका , कार्यपालिका व न्यायपालिका के उच्च पदाधिकारियों के भष्ट्राचार पर रोक लगाने के नाम पर लोक पाल ही नही बल्कि जन लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने का बहुप्रचारित अभियान चलाया जा रहा है | इसी के लिए डेढ़ - दो माह पहले बहुचर्चित गाँधी वादी समाज सेवी कहे जाने वाले अन्ना हजारे अनशन पर भी बैठे थे |केंद्र सरकार ने जन लोकपाल विधेयक के लिए एक एक साझी कमेटी का गठन कर अनशन को समाप्त करवाया | इस कमेटी में केन्द्रीय मन्त्रिमंडल के सदस्यों के साथ नागरिक समाज के सदस्यों के रूप में अन्ना हजारे के अन्य सदस्य भी थे | ये सभी लोग नागरिक समाज के ही नही बल्कि उच्च नागरिक समाज के लोग है | इसके सदस्य देश के चर्चित हस्तिया है | केन्द्रीय मन्त्रिमंडल के सदस्यों के बारे में तो कहना ही क्या है | कमेटी में शामिल सरकारी व गैर सरकारी सदस्यों में मतभेद तो पहले से ही था |पर 6 - 7 मीटिंगों के बाद वह उभरकर सामने आ गया | इसके मतभेद का प्रचारित कारण यह भी है की गैर सरकारी नागरिक समाज के लोग इस लोक पाल के अंतर्गत प्रधान मंत्री , मुख्य मंत्री न्यायाधीश , मंत्री परिषद तथा सांसदों - विधायको समेत समूची नौकरशाही को भी लाना चाहती है , जब की सरकारी प्रतिनिधि प्रधान मंत्री व मुख्य न्यायाधीश को सांसदों को तथा वरिष्ठ नौकरशाहों को इस विधेयक से बाहर रखना चाहते है |प्रधानमन्त्री ,प्रधान न्यायाधीश और वरिष्ठ नौकरशाहों को भी जन लोकपाल विधेयक के अंतर्गत लाने का मतलब है कि राज्य की विधायिका , कार्यपालिका एवं न्यायापालिका के सर्वोच्च स्तर के लोगो को या कहिये समूचे राज को लोक पाल विधेयक के अंतर्गत लाना |
इसके औचित्य पर ,खासकर प्रधानमन्त्री व मुख्यन्यायाधीश को इसके दायरे में लाने की आवश्यकता व औचित्य पर प्रचार माध्यमो में भी चर्चा होती रही है |लोक पाल विधेयक का अंतिम मसौदा क्या बनता है | वह भी बन पाता है या नही ? फिर बनने के बाद संसद में पास हो पाता है या नही ? विधेयक की शक्ल ले पाता है या नही जैसे सवाल भविष्य के गर्त में है | लेकिन इसमें एक बात तो साफ़ है की विधेयक बनने व लागू होने के बाद भी उसका कोई ठोस व सार्थक परिणाम आने वाला नही है |इसका पहला व बुनियादी कारण तो यह है भ्रष्टाचार आधुनिक बाजारवादी समाज का अनिवार्य व अपरिहार्य हिस्सा है | यह बढ़ते वैश्वीकरण , उदारीकरण व निजीकरण के साथ विदेशी कम्पनियों के बढ़ते आगमन के साथ विदेशी पूंजी तकनीकी को दी जाती रही छूटो के साथ बढ़ता रहा है | साथ ही यह देश के धनाढ्य कम्पनियों कि बढती पूंजियो , परिसम्पत्तियो के बढ़ाव के लिए मिलती छूटो अधिकारों के साथ बढ़ता रहा है | यह सरकारों द्वारा धनाढ्य तथा उच्च हिस्सों पर पहले के थोड़े - बहुत नियंत्रण को नीतिगत रूप से हटाने - घटाने के बाद तेज़ी से बढ़ता रहा है | केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारों द्वारा 1991 से लागू की जा रही नई आर्थिक नीतियों को लागू किये जाने के बाद विधायिका , कार्यपालिका और न्यायापालिका को अधिकाधिक भ्रष्ट बनाते हुए बढ़ता रहा है |भ्रष्टाचार का यह बढावा इस बात का स्पष्ट परिलक्षण एवं प्रमाण है की वर्तमान समय के बढ़ते भष्टाचार और धनाढ्य वर्गो के निजी लाभ , निजी मालिकाने के तेज़ फैलाव - बढ़ाव में चोली - दामन का साथ है |1980 - 85 से पहले पूंजी और लाभ पर लगी नियंत्रणवादी नीतियों के चलते निजी लाभों - मुनाफो व पूंजियो का बढ़ाव धीमा था | फलस्वरूप भष्टाचार भी धीमा था | आज के मुकाबले आकार - प्रकार में छोटा भी था | लेकिन 1980 - 85 के बाद वैश्वीकरणवादी नीतियों के फलस्वरूप उद्योग _वाणिज्य - व्यापार की धनाढ्य देशी व विदेशी कम्पनिया अपने कारोबार को तेज़ी से बढाने लग गयी |इसके लिए तथा दुसरो को पछाड़ने के लिए भी वे सरकारों से ज्यादा से ज्यादा अधिकार तथा छूटे व सहायताए पाने के लिए हर तरह के भ्रष्टाचारी हथकंडे इस्तेमाल करती आ रही है | सांसदों , मंत्रियों , अधिकारियों कि अधिकाधिक मुँह भराई भी करती रही है | साफ़ बात है की इन धनाढ्य वर्गो को निजीकरणवादी , उदारीकरण , वैश्वीकरणवादी छूटे देते हुए भ्रष्टाचार वजूद को नही रोका जा सकता | न ही सफेद धन के साथ बिना टैक्स दिए या नाजायज तरीके से कमाए गये काले धन का बनना व बढना रोका जा सकता है | दुसरा प्रमुख कारण राज्य और उसके विभिन्न अंग है , जो भ्रष्टाचार को सर्वाधिक बढावा देने वाली धनाढ्य एवं उच्च कम्पनियों पर रोक लगाने , उनकी पूंजियो , लाभों पर सख्त नियंत्रण लगाने की जगह उन्हें छूट के अवसर देते रहे है |भ्रष्टाचार के विभिन्न मुद्दों के साथ तमाम मंत्रियों , अधिकारियों से लेकर न्यायाधीशो तक के नाम उछलते रहे है |आम जनता भी अपने व्यवहारिक अनुभवो से समझने लगी है की आमतौर पर सभी सत्ता लोलुप मंत्री , नेतागण , अफसर और कर्मचारी , भ्रष्टता की हर सीमा लाघते जा रहे है | कम्पनियों का पैसा खाकर भ्रष्टाचारी बनकर अब समाज को भ्रष्टाचारी बनांते जा रहे है | देश के उच्च नागरिक समाज के लोग भी अधिकाधिक धन - सम्पत्ति , पद - प्रतिष्ठा हासिल करने और बढाने में कंही से पीछे नही है |
उनके उच्च पद पेशे से लाखो रुपया माह की आमदनियो के साथ उन्हें उच्च वर्गीय शोहरत सुविधाए मिलती रही है | धनाढ्य वर्गो व सत्ता सरकार के लोगो के साथ इनके सम्बन्ध बनते व गहरे होते रहे है | इसी के फलस्वरूप पिछले बीस सालो से लागू होती रही वैश्वीकरणवादी नीतियों के विरोध में यह उच्च नागरिक समाज कभी नही खड़ा हुआ | तब भी नही खड़ा हुआ जबकि व्यापक जनसाधारण की समस्याओं के साथ चौतरफा भ्रष्टाचार की समस्याए इन नीतियों के बढ़ते चरण के साथ और ज्यादा बढती रही | ऐसी स्थिति में देश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों से सरकारी एवं गैर सरकारी उच्च संस्थाओं , व्यक्तियों से भ्रष्टाचार को दूर करने के किसी गम्भीर प्रयास की उम्मीद नही की जा सकती |ऐसी कोई उम्मीद रखना अपने आप को धोखा देना है | जन साधारण को धोखे में रखना है | इसको एक और तरीके से भी समझा जा सकता है |वह इस तरह से की लोक पाल विधेयक या जन लोक पाल विधेयक को पास करने के बाद आखिर वह लागू तो सत्ता सरकार के द्वारा ही होगा | उसके द्वारा बनाई गई संस्थाओं के जरिये ही होगा उस संस्था से व नागरिक समाज के उच्च से ही तो आयेंगे | जिनके स्वयं के भ्रष्ठाचारियो के साथ के रोज मर्रा के बढ़ते संबंधो के बारे में ख़ास कर वैशिविकरणवादी नीतियों के लागू होने के बाद से कोई शक -शुबहा करने की गुंजाइश नही है |तब क्या ऐसी किसी संस्था से भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक को ठीक से लागू करने कराने की बात सोची जा सकती है ? क्या ऐसा कोई विधेयक बढ़ते भ्रष्टाचारके लिए प्रत्यक्ष नजर आने वाली वैश्वीकरणवादी नीतियों , सुधारों को रद्द कर सकने की सिपारिश करेगा ? क्या ऐसी कोई सिपारिश उच्च नागरिक समाज से सुनाई पड़ रहा है ? यदि नही तो ऐसे विधयेक तथा ऐसी संस्थाओं से भ्रष्टाचार मिटने वाला नही है | इसके विपरीत सच बात तो यह है कि अगर ऐसी कोई संस्था बनती भी है तो वह उच्च स्तर पर व्याप्त चौतरफा भ्रष्टाचार का अंग बने बिना नही रह सकती | इसलिए लोक पाल विधेयक के मसौदे पर वाद - विवाद होने दीजिये , उसके बारे में उसे लेकर प्रचार माध्यमी चर्चाओं को सुनते जाए , लेकिन यह भी सोचिये कि बढ़ते भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा कैसे ? इस काम को आखिर करेगा कौन ? यह सवाल इसलिए खड़ा है कि राज्य के तीनो अंगो पर भ्रष्टाचारी होने का आरोप अब खुलेआम लग रहा है | नागरिक समाज के लोग ही लगा रहे है | सरकारों को चुनावी वोट व समर्थन देने के वावजूद अब देश के बहुसख्यक जन साधारण भी इस नतीजे पर पहुचते जा रहे है कि वर्तमान राज व्यवस्था इस पर अंकुश नही लगा सकती | इन स्थितियों में अब बढती जन समस्याओं के उपयुक्त समाधान के लिए तथा भ्रष्टाचार आदि पर अंकुश लगाने के लिए भी नये ढंग के राज व्यवस्था की नये ढंग के संविधान व सत्ता सरकार कि अपरिहार्य आवश्यकता आ खड़ी है | देशी व विदेशी धनाढ्य हिस्सों को छूट दर छूट देने वाली वर्तमान जनतांत्रिक राज्य की जगह उन पर नये जनवादी राज्य के निर्माण की भी अपरिहार्य आवश्यकता खड़ी हुई है | जनसाधारण के छूटो अधिकारों को बढावा देने वाले तथा भ्रष्टाचारपर अधिकाधिक अंकुश लगाने वाले राज की अर्थात जनसाधारण द्वारा संचालित व नियंत्रित जनवादी राज्य की आवश्यकता आ खड़ी हुई है | भ्रष्टाचार के सम्बन्ध के सम्बन्ध में अब मामला केवल वर्तमान सत्ता - सरकार द्वारा लागू किये जाने वाले किसी नये विधेयक का नही रह गया है | वर्तमान दौर कि सत्ता - सरकारों में विद्यमान छोटे -बड़े छिद्रों से बढ़ते रहे धन - पूंजी के भ्रष्टाचार ने हर विधेयक व कानून को रोकने में नकारा साबित कर दिया है | इसलिए मांग केवल जन लोक पाल विधेयक की नही होनी चाहिए , बल्कि जनसाधारण के हितो में विधेयको को बनाने व लागू करने वाले जनवादी राज्य की भी मांग होनी चाहिए | उसके लिए जन साधारण के व्यापक समर्थन एवं सक्रिय भागीदारी की जरूरत है ।तभी जन लोकपाल की सार्थकता है।
सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672
2 टिप्पणियां:
एक ही सवाल मन में आता है क्या हम आजाद है,समान है स्वतंत्र है ?ऐसे ही पलो में मैंने शायद इनपंक्तियो को लिखा था .....
कहते है जनतंत्र
उसके बाद जन-गण-मन
लोग आजादी पाकर आजाद थे
विश्राम की मुद्रा में
थकान थी शायद इसलिये
जिन्हें जाना था, हे राम कह
वह चले भी गये
देश अब भूखे हाथों में थी
और हम सब चीर निंद्रा में
रात जगे के बाद की नींद जो थी
माँ के कलेजे को गोली से
छलनी किया पर
सुराख दो ही बना
लहूलूहान हाथो से उसने लिखा
आर और पार
महत्वकांक्षी किस्म की नसल थी
जिन्हे पाक़ चाहिये था
एक पवित्रग्रंथ में कानून लिखा गया
पर आहुति में कानून ही डालें गये
जली गरीबी
लोभी हाथो को ढँके गये
इंसाफ की आंखो से
इसतरह अन्याय बढती नसलों को
लीलती गई है विस्फोट हुआ चींटियो सा
और चाट रहे है तलवे अबतक
कट रही है भेड बकरियों सी
निहायत जरुरी चीजे
जल रही है भूखी पेट
बदहवास आंखे लाचार
चीन की दीवार सी है
जनता और नीति के बीच सम्बंध
और सताधीन है शहंशाहे-आलम
उनके पाँव से लगकर बैठी कानून
पंडितो के पंडिताई पर ही डोलती है
और तब ताशे और ढोल पिटते है
हम और आप
शायद नींद टुटे
रोते हुये सवाल
दफन होते शब्द हर तरफ
मौत है भाषा की
गुंगे बहरो के परम्परा में
अब सुनना पसंद नही किया जाता
आज हर एक चीज
एक तरफा हुआ जा रहा है
क्षेत्रवाद दानवी रुप में
विघटन के मंत्र पढा रहा है
यह भी भूखे हाथो का षणयंत्र है
जो फैल रहा है
हर तरफ असमानतायें
खा रही मानवियता है
पाट रही है इंसानियत
पर जनतंत्र का यह मतलब तो नही था
क्या आज भी हम आजाद है
जहाँ हावी है भ्रष्टाचार !!
................आभार दत्ता जी !!
दरअसल अन्ना हज़ारे एंड क.का मतलब है कि,व्यापारी वर्ग जो लूट करता है वह निर्बाध रूप से करे उसमे कोई हिस्सा न मांगे। उस हिस्सा -मांग को रोकना ही उनका आंदोलन है ।
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