सोमवार, 1 अगस्त 2011

नवउदारवाद की प्रयोगशाला में भ्रष्टाचार भाग 3

कुछ साथियों को इंडिया अगेंस्ट करप्शन के भरष्टाचार विरोधी अभियान से लोकतंत्र संवर्द्धन होता नजर आता है। सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों का इच्छित और प्रचारित सर्वशिक्तमान लोकपाल कोरा वैधानिक नहीं है। उसकी निर्मिती में भारतीयों की एक दिन सब को ठीक कर देने वाले तानाशाह के आने की दमित इच्छा की भी भूमिका है। जिसे साथी लोकतंत्र संवर्द्धन बता रहे हैं वह तानाशाही मनोवृत्ति का पोषण भी सिद्ध हो सकता है। नवउदारवादी और संप्रदायवादी राजनीति को पुष्ट करने वाले गैरराजनीतिक प्रयासों से भरष्टाचार मिटने वाला नहीं है। भरष्टाचार नहीं मिटेगा तो लोगों की समस्याएं और गुस्सा ब़ते जाएंगे। फिर एक दिन सीधे राजनीति से या फौज से एक तानाशाह आकर खुद को ‘देशपाल’ घोषित कर सकता है।
आज कड़क लोकपाल बनाने के लिए सत्यागरह से जनमत संगरह तक करने में शामिल लोग उसके साथ हो सकते हैं। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ ने भरष्टाचार को निमूर्ल कर देने के वादे के साथ फौजी तानाशाही कायम की थी। मुशर्रफ की कई साल की तानाशाही के बावजूद पाकिस्तान में भरष्टाचार ब़ता गया, लोकतंत्र कमजोर होता गया और आतंकवाद ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। भरष्टाचार विरोधी जिस तरह से राजनीति से नफरत का माहौल बना रहे हैं और नवउदारवादी नीतियों से देश की आबादी और संसाधनों को बचाने के दावेदार जनांदोलनकारी समूह और व्यिक्त भी राजनीति से परहेज बरतने की अपनी प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करने को राजी नहीं हैं, तानाशाही का खतरा बना रहना है। उदारीकरण की तानाशाही तो पिछले दो दशकों से देश में चल ही रही है। गांधी के देश में गांधी का नाम लेकर कहा जा रहा है कि राजनीति तो होती ही बेईमानी और भरष्टाचार का ख्त्रोल है, जिससे कोई उम्मीद नहीं रखी जानी चाहिए। बताया जा रहा है कि देश में दलाल भले कितने ही हो जाएं, राजनीतिक कार्यकर्ता एक भी नहीं होना चाहिए; होने चाहिए केवल सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट। आश्चर्य होता है तानाशही के इस खतरनाक डिजाइन में साथी लोकतंत्र संवर्द्धन देख रहे हैं!
राजनीति विरोध के इस माहौल में संविधान और लोकतंत्र में विश्वास करने वाले सामान्य नागरिक अगर मुख्यधारा राजनीति को ही ज्यादा पसंद करें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। बल्कि राजनीति विरोधियों के मुकाबले उनकी नागरिक चेतना ज्यादा सार्थक कही जाएगी। मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों में ईमानदार सदस्य अथवा समर्थक बड़ी संख्या में होते हैं। हालांकि अपनी ही पार्टियों में उनकी पेश नहीं पड़ती, फिर भी उनकी भूमिका राजनीति विरोधियों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। लोकतंत्र की अंतर्निहित खूबियों, गत्यात्मकता (डायनेमिक्स) और विभिन्न दबावों के चलते नवउदारवाद को स्वीकरने और चलाने वाली मुख्यधारा राजनीति उसके दुष्प्रभावों पर कुछ ब्रेक का काम करती चलती है। इसीलिए एक आशा यह बनती है कि स्थापित दलों के भीतर भी नवउदारवाद विरोधी राजनीति की गुंजाइश बन सकती है।
कायर सत्यागरही और दमनकारी सरकार
पक्ष चाहे सरकार का हो या सिविल सोसायटी एक्टिविश्टों का, भरष्टाचारविरोध को लेकर दिल्ली में पिछले कुछ महीनों से जो दृश्य जारी है उसमें संगति कम और बेतुकापन ज्यादा दिखाई देता है। उससे भरष्टाचार मिटने वाला नहीं है। बातबात पर और पहले ही दिन से आमरण अनशन पर बैठ जाने और सरकार या सिविल सोसायटी एक्टिविश्टों द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक के कानून बन जाने से भरष्टाचार पर लगाम भी नहीं कसी जा सकेगी। इस हकीकत के कई उदाहरण भरष्टाचार विरोधी अभियान के दौरान ही देखने को मिलते हैं। उनमें एक उदाहरण राष्ट्रमंडल ख्त्रोलों में हुए भरष्टाचार का है। राष्ट्रमंडल ख्त्रोलों का आयोजन पूरी तरह से भरष्टाचार का ख्त्रोल बन जाने पर भी देश के प्रधानमंत्री से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री तक चुप्पी मारे रहे। जब घड़ा ख्त्रोल होने से पहले ही फूट गया तो प्रधानमंत्री ने डेमेज कंट्रोल के लिए आननफानन में जांच के लिए शुंगलु समिति नियुक्त की। शुंगलु समिति की रपट में दिल्ली की मुख्यमंत्री और राज्यपाल की भूमिका पर सीधे सवाल उठाए गए हैं। वैसे भी इतना बड़ा और खुला घोटाला मुख्यमंत्री और राज्यपाल की आंख बचा कर हो ही नहीं सकता था।
लेकिन दिल्ली मुख्यमंत्री ने शुंगलु समिति की रपट की ही जांच करा डाली है। होना तो यह चाहिए था कि शुंगलु समिति का गठन करने वाले प्रधानमंत्री को रपट आने के तुरंत बाद मुख्यमंत्री और राज्यपाल की भूमिका पर जांच बिठानी चाहिए थी। आप गौर कर लें, भरष्टाचार का यह ख्त्रोल और उस पर लीपापोती इंडिया अंगेस्ट करप्शन की नाक नीचे हुआ है। कई नागरिक संगठनों और छोटी राजनीतिक पार्टियों ने राष्ट्रमंडल ख्त्रोलों के भरष्टाचार के विरुद्ध शुरू से अंत तक आवाज उठाई। (देख्त्रों, ‘ये देश हे लूटने वालों का’, ‘युवा संवाद’ सितंबर 2010) लेकिन इंडिया अंगेस्ट करप्शन के बांकुरे विरोध के किसी भी मंच अथवा स्थल पर नहीं पहुंचे। न ही अपने मंच से कोई विरोध किया। क्या वे बता सकते हैं उनका लोकपाल इस मामले में क्या करेगा? स्पैक्ट्रम 2 घोटाले में फंसे डी राजा ने अदालत में बयान दिया है कि जो हुआ पीएम, एफएम, केबिनेट और टेलकॉम मंत्रालय के आला अधिकारियों की जानकारी और सहमति से हुआ। टीम हजारे का लोकपाल किसकिस को फांसी पर च़ाएगा? कांगरेस राजा के बयान को आरोपी का बयान कह कर खारिज कर सकती है, लेकिन कौन नहीं जानता मामला अगर एफडीआई का हो तो सहमति होगी, भले ही उसमें संवैधानिक प्रावधानों का कितना भी उल्लंघन और कितना भी भरष्टाचार होता हो। जैसे अमेरिकी राष्अ्रपति के आने पर भारत की सुरक्षा व्यवस्था निरर्थक हो जाती है, उसी तरह एफडीआई के आने पर भारतीय संविधान निरर्थक हो जाता है। एफडीआई और भरष्टाचार नाभिनाल जुड़े हैं।
सगुण विरोध की जगह केवल निगुर्ण विरोध निरी हवाबाजी है, और हवाबाजी से भरष्टाचार नहीं मिट सकता। लाख बचाने की कोशिशों के बावजूद किसी डी राजा या किसी कलमाडी के फंस जाने पर जिन भले लोगों को भरष्टाचार से मुक्ति मिलती नजर आने लगती है, उन्हें गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा कि अगर भरष्टाचार मिटाना है तो उसके लिए वास्तव में क्या करना होगा। वह कर्तव्य नवउदारवादी लूट पर कायम शाइनिंग इंडिया के ‘आदर्श’ पर तय नहीं किया जा सकता। उसके बाहर छूटे भारत के यथार्थ से वह तय होगा। मुक्तिबोध ने पूछा था, ‘कामरेड आपकी पॉलिटिक्स क्या है?’ तय तो होना चाहिए आप किस जमीन पर खड़े होकर बहस कर रहे हैं।
गांधी ने हिंसा, विगरह और शोषण से गरस्त आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था में दमन और अत्याचार का प्रतिकार करने और अंततः उसे बदलने के उद्देश्य से दक्षिण अप्रीका में सत्यागरह के तरीके का संधान किया था। देश की आजादी के संघर्ष में उन्होंने सत्यागरह और सिविल नाफरमानी के तरीके का उपयोग किया; गोकि आजादी के संघर्ष में सशस्त्र और भूमिगत क्रांतिकारी तरीके भी उपयोग में लाए गए थे और बलिदान की कसौटी पर उनकी सार्थकता कम नहीं थी। खुद गांधी ने 1942 में ‘करो या मरो’ का नारा दिया था जिसमें देश के हर नागरिक से उपनिवेशवादी सत्ता के जुझारू प्रतिरोध का आह्वान था। आजाद भारत में डॉ़ राममनोहर लोहिया ने गांधी की अन्याय के प्रतिकार की सत्यागरह और सिविल नाफरमानी की कार्यप्रणाली को दुनिया की अभी तक की सबसे बड़ी क्रांति बताया।


प्रेम सिंह
मोबाइल: 09873276726
(क्रमश:)

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