शनिवार, 27 अगस्त 2011

क्या आधुनिक बाज़ार व्यवस्था जनसाधारण की विरोधी नही है ?

हम आधुनिक युग में जी रहे है | आधुनिक युग की बाज़ार व्यवस्था में जी रहे है | क्योंकि हमारे भोजन - वस्त्र , घर - मकान , सिक्षा - इलाज़ की सभी बुनियादी जरूरते बाज़ार से जुड़ने पर ही मिल पाती है और फिर छोटे - बड़े लाभ - मुनाफे कमाना तो बाज़ार व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा है और यही बाज़ार व्यवस्था का वास्तविक लक्ष्य भी है | वर्तमान सामाजिक - व्यवस्था को बाज़ार व्यवस्था क्यों कहा जा रहा है ? इसका एकदम सीधा जबाब है की इस सामाजिक व्यवस्था में राष्ट्र व् समाज के सभी लोगो को खरीद - बिक्री की प्रक्रिया से जुड़ना लाजिमी है | कुछ भी पाने के लिए कुछ बेचना और खरीदना जरूरी है | कुछ बेचे बिना कोई भी कुछ खरीद नही सकता | उदाहरण के लिए मजदूर को अपना भोजन , कपड़ा खरीदने के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचना जरूरी है .अपरिहार्य है | किसानो को अपनी खेती के लियेतथा अपने कपड़े -लत्ते तथा दूसरी जरुरतो के लिए अपने कृषि उत्पाद को या अपने किसी सदस्य की श्रम शक्ति को बेचना जरूरी है | येही स्त्थिति तमाम छोटे उत्पादकों की है |
इसके अलावा, चिकित्सा , शिक्षा तथा कानून व न्याय के क्षेत्र के लोगो के लिए भी जरूरी है की वे पहले अपनी बौद्धिक क्षमता को बेचने लायक बने| इसके लिए विभिन्न क्षेत्रो का सिक्षा ज्ञान हासिल करे | फिर अपने शिक्षा ज्ञान का बिक्री - व्यापार करे | चाहे उसका नौकरी के जरिये वेतन आदि के रूप में मूल्य पाए या फिर अपने निजी काम धंधे के जरिये उसका व्यापार करे| अपनी सेवा का कम या ज्यादा मूल्य पाए और फिर उससे अपने जीवन को संसाधनों , सुविधाओं को खरीदे |व्यापारियों , उद्योगपतियों के मालो , सामानों की बिक्री से लाभ - मुनाफे के लिए आवश्यक ही है की वे अपने मालो , सामानों की बिक्री बाज़ार बढाये | इसी लक्ष्य से उत्पादन विनिमय को संचालित करे| यही वह हिस्सा है , जो बाज़ार - व्यवस्था का प्रबल हिमायिती है | उसका संचालक है |इसे आप इस तरह भी कह सकते है कि जंहा व्यापारी , उद्योगपति नही है या छोटे स्तर के है तो वंहा बाज़ार व्यवस्था नही है |अगर कंही व्यापारी व उद्योगपति अत्यंत छोटे स्तर के है तो इस बात का सबूत है कि अभी वंहा छोटे - मोटे बाज़ार तो है , पर बाज़ार व्यवस्था भी नही है | उदाहरण ---- आज से 100 - 200 साल पहले भारतीय समाज में खासकर ग्रामीण समाज में लोगो के आवश्यकताओ कि पूर्ति ग्रामीण समाज में कौजुद श्रम विभाजन से ही पूरी हो जाती थी | किसी ख़ास सामान के लिए ही उन्हें बाज़ार जाना पड़ता था |लेकिन आधुनिक बाज़ार व्यवस्था के आगमन के साथ बाज़ार का यानी खरीद - बिक्री केंद्र का विकास नगर , शहर , कस्बे से होता हुआ हर चट्टी - चौराहे तक फ़ैल गया है | हर आदमी खरीद - बिक्री कि प्रक्रिया से जुड़ गया है और अधिकाधिक जुड़ता जा रहा है |आधुनिक युग कि बाज़ार व्यवस्था ने हर किसी कि महत्ता महानता को चीन लिया है , कयोंकि हर तरह का हुनर , ज्ञान , अनुभव , बिकाऊ माल बन गया है | उसे पाने का लक्ष्य मालो , सामानों कि तरह ही उसकी खरीद - फरोख्त बन गया है |आज कोई आश्चर्य नही कि , मनुष्य का मूल्य उसके गुणों के आधार पर नही बल्कि खरीद - बिक्री कि क्षमता के आधार पर किया जा रहा है |इस बाज़ार व्यवस्था का अनिवार्य फ्लू यह भी है कि यदि किसी के पास बेचने के लिए कुछ भी नही है या जिसका श्रम - सामान बिकाऊ नही है तो उसके जीने का अधिकार भी नही है |फिर तो वह किसी के सहारे या फिर भीख - दान अथवा ठगी , चोरी के जरिये ही जीवन जी सकता है |बाज़ार व्यवस्था के वर्तमान दौर के विकास में यही हो रहा है |आधुनिक आर्थिक व तकनिकी विकास के दौर में साधारण श्रम और साधारण उत्पादन कि बाज़ार में मांग घटी जा रही है | या तो उनकी बिक्री ही नही हो पा रही है , या फिर उनका मूल्य इतना कम है कि उससे न तो उपभोग के सामानों को खरीदकर श्रम शक्ति का पुनरुत्पादन किया जा सकता है और न ही बढ़ते लागत के चलते उन साधारण मालो , सामानों का ही पुन: उत्पादन किया जा सकता है | साधारण मजदूरों , किसानो सीमांत व छोटे किसानो, दस्तकारो तथा छोटे कारोबारियों कि येही स्थिति है| वे बाज़ार में टूटते जा रहे है |
चूँकि वर्तमान दौर कि बाज़ार व्यवस्था विश्व - बाज़ार व्यवस्था का एक अंग है | इसका संचालन व नियंत्रण देश - दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से कर रहे है | उसे वे अपने जैसे लोगो के लिए या फिर अपने सेवको के लिए बाज़ार व्यवस्था को बदल रहे है |आम आदमी को उससे भाहर करते जा रहे है |बेकार , बेरोजगार , संकटग्रस्त होकर जीने और मरने के लिए छोड़ते जा रहे है |क्या यह बाज़ार व्यवस्था जनसाधारण के जीवन- यापन कि उसके बुनियादी हितो कि विरोधी नही है ? क्या जनहित में देश व समाज कि व्यवस्था में जनसाधारण कि आवश्यकतानुसार बदलाव अनिवार्य , अपरिहार्य नही हो गया है ?क्या इस देश के लोगो को इस्पे सोचना नही चाहिए ..............!!

सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672

3 टिप्‍पणियां:

संध्या आर्य ने कहा…

बिल्कुल है इसके दुष्परिणाम दिखने लगे है
आभार !!

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

निश्चय ही बाजार व्यवस्था जन-विरोधी है।

mamta bharti ने कहा…

सही कहा आप ने आज मनुष्य का मूल्य उसके गुणों के आधार पर नही बल्कि खरीद - बिक्री कि क्षमता के आधार पर किया जा रहा है .इस पर हर इन्सान को गहराई से सोचने की जरुरत है .धन्यवाद !!!

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