पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उठे भूमि अधिग्रहण विरोध के बवन्डर से सर्वाधिक प्रभावित जिले गौतम बुद्ध नगर और अलीगढ़ में एक जनमत सर्वेक्षण कराया गया है | इसकी सूचना हिन्दी दैनिक " आज " के 18 जुलाई के अंक में कृषि समस्याओं के विशेषग्य, लेखक श्री देवेद्र शर्मा द्वारा दी गयी है | पूरी संभावना है कि सर्वेक्षण किसानो व ग्रामीणों हिस्सों द्वारा नही बल्कि शहरी बौद्धिक हिस्सों द्वारा किया गया है | इस सर्वेक्षण के अनुसार 48 % से अधिक किसान अपनी जमीन बेचने के इच्छुक बताये गये है | सर्वेक्षण के नतीजो को लेखक ने लिखा है कि , सभी लोग इस अवसर के ताक में है कि उन्हें अपनी जमीन के अच्छे दाम मिल जाए | इससे कई वर्ष पूर्व " नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन " ने अपने सर्वेक्षण से यह नतीजा निकाला था कि 42 % से अधिक किसानो ने बेहतर विकल्प मिलने पर कृषि से अपना नाता तोड़ने कि मंशा जताई है | विशेषज्ञ लेखक ने किसानो के खेती के प्रति बढती उदासीनता व निराशा का कारण बढ़ते कृषि संकटो में बताया हुआ है | फिर स्वंय भी इसी नतीजे पर पहुचे है कि " अधिकाश जगहों पर किसान बेहतर दाम मिलने पर अपनी भूमि को बेचने के इच्छुक दिखाई दे रहे है | क्योकि इस जमीन से इन्हें ज्यादा आमदनी नही है | किसान खेती के काम से मुक्त होना चाहते है | क्योंकि खेती उनके लिए लम्बे समय तक लाभ का सौदा नही रह सकती है |
हालाकि अपने लेख में उन्होंने किसानो में बढ़ रहे घाटे के साथ - साथ विश्व बैंक और उसके समर्थक अर्थशास्त्रियो कि भी आलोचना किया है | क्योंकि ये अर्थशास्त्री जमीन जैसे कीमती संसाधनों को किसानो के हाथ से निकाल कर बिल्डरों , डेवलपरो , उद्योगपतियों को देने की वकालत कर रहे है | इस आलोचना में भी उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि " किसानो पर सफलता के साथ एक छाप छोड़ दिया गया है कि भूमि अधिग्रहण अपरिहार्य और अवश्यम्भावी है | ...........इस लेख में व्यक्त किए गये विचार उस या उन किसानो के पक्ष जो किसानो के पक्ष में सरकारों की किसान विरोधी नीतियों कि आलोचनाये करते रहते है | विडम्बना यह है कि ऐसे विशेषग्य भी अधिग्रहण के विरोध को किसानो द्वारा बेहतर मूल्य पाने के विरोध के रूप में ही प्रस्तुत कर रहे है | जबकि खुद विशेषग्य लेखक ने पहले के और बाद के सर्वेक्षणों के जरिये 42 % से 48 % तक के किसानो द्वारा जमीन छोड़ देने तथा जमीन बेचने कि बात कि है | साफ़ बात है कि इस सर्वेक्षण से भी येही नतीजा निकलता है कि अभी भी बहुमत किसान अपनी जमीन बेचना नही चाहते | लेकिन तब यह कहना कैसे ठीक है कि अधिकाश जगहों पर किसान बेहतर दाम मिलने पर अपने भूमि को बेचने के इच्क्षुक दिखाई देते है | यह तो किसानो के अल्प मत ( जो सर्वेक्षण में दिए गये 48 % या 42 % से भी निश्चित कम होगी ) कि राय को बहुमत बनाकर पेश कर देना है |फिर पहले के सर्वेक्षण के अनुसार 42 % किसानो ने बेहतर विकल्प मिलने पर खेती छोड़ देने कि बात कही है | लेकिन भूमि का कोई मुआवजा खेती जैसे स्थाई एवं उत्पादक संसाधन का बेहतर विकल्प तो हरगिज़ नही है | फिर यह ग्रामीण घर , आवास , रहन - सहन का बेहतर विकल्प भी नही है | इसे किसान व अन्य ग्राम वासी बेहतर जानते है | इसके वावजूद यदि वे मुआवजा लेकर जमीन छोड़ दे रहे है तो उसका मूल कारण जमीन से मोहभंग होना नही है | बल्कि सत्ता व कानून का यह भय है कि जमीन का सर्वेसर्वा मालिक सरकार है | अत: अगर वे मुआवजा नही भी लेंगे तो सरकार उनकी जमीन अन्तत: ले लेंगी | हम यह नही कहते कि गावो का कोई किसान अपनी जमीन नही बेचना चाहता | नही यह बात नही है | किसानो या कहिये जमीन के मालिको का एक ऐसा हिस्सा जरुर है जो खेतिया करने में पहले से ही रूचि नही लेता या बहुत कम लेता है |उसी के साथ शहरों में जाकर बेहतर आमदनियो वाले पदों , प्रतिष्ठाओ पर बैठा हुआ एक तबका भी खड़ा हो गया है , जो गावो से अपने संबन्धो को खत्म कर रहा है या खत्म कर चुका है | उसे अपनी जमीन का बेहतर मुआवजा लेने पाने कि ही लालच है | जमीन बचाने कि कोई लालच नही है | लेकिन येही बात गाव में रहने वाले और खेती किसानी करने वाले बहुतायत किसानो के बारे में नही कही जा सकती | बेशक , खेती के बढ़ते संकटो ने उसे खेती के प्रति हतोत्साहित किया है | पर किसी दूसरी जगह भी आशा का दीप नही जगमगा रहा है | कोई बेहतर विकल्प नही मिलने जा रहा है | ऐसे में किसान हिमायती विशेषज्ञ लेखक के द्वारा व्यक्त किए गये विचार केवल यह इशारा दे रहे है कि अब किसानो के हिमायती विद्वान बुद्धिजीवी भी किसानो का पक्ष छोड़ रहे है | किसानो के भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध आन्दोलन को बल प्रदान करने कि जगह उसे प्रकारान्तरसे कमजोर कर रहे है ........ उचित नही है।
सुनील दत्ता
पत्रकार
हालाकि अपने लेख में उन्होंने किसानो में बढ़ रहे घाटे के साथ - साथ विश्व बैंक और उसके समर्थक अर्थशास्त्रियो कि भी आलोचना किया है | क्योंकि ये अर्थशास्त्री जमीन जैसे कीमती संसाधनों को किसानो के हाथ से निकाल कर बिल्डरों , डेवलपरो , उद्योगपतियों को देने की वकालत कर रहे है | इस आलोचना में भी उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि " किसानो पर सफलता के साथ एक छाप छोड़ दिया गया है कि भूमि अधिग्रहण अपरिहार्य और अवश्यम्भावी है | ...........इस लेख में व्यक्त किए गये विचार उस या उन किसानो के पक्ष जो किसानो के पक्ष में सरकारों की किसान विरोधी नीतियों कि आलोचनाये करते रहते है | विडम्बना यह है कि ऐसे विशेषग्य भी अधिग्रहण के विरोध को किसानो द्वारा बेहतर मूल्य पाने के विरोध के रूप में ही प्रस्तुत कर रहे है | जबकि खुद विशेषग्य लेखक ने पहले के और बाद के सर्वेक्षणों के जरिये 42 % से 48 % तक के किसानो द्वारा जमीन छोड़ देने तथा जमीन बेचने कि बात कि है | साफ़ बात है कि इस सर्वेक्षण से भी येही नतीजा निकलता है कि अभी भी बहुमत किसान अपनी जमीन बेचना नही चाहते | लेकिन तब यह कहना कैसे ठीक है कि अधिकाश जगहों पर किसान बेहतर दाम मिलने पर अपने भूमि को बेचने के इच्क्षुक दिखाई देते है | यह तो किसानो के अल्प मत ( जो सर्वेक्षण में दिए गये 48 % या 42 % से भी निश्चित कम होगी ) कि राय को बहुमत बनाकर पेश कर देना है |फिर पहले के सर्वेक्षण के अनुसार 42 % किसानो ने बेहतर विकल्प मिलने पर खेती छोड़ देने कि बात कही है | लेकिन भूमि का कोई मुआवजा खेती जैसे स्थाई एवं उत्पादक संसाधन का बेहतर विकल्प तो हरगिज़ नही है | फिर यह ग्रामीण घर , आवास , रहन - सहन का बेहतर विकल्प भी नही है | इसे किसान व अन्य ग्राम वासी बेहतर जानते है | इसके वावजूद यदि वे मुआवजा लेकर जमीन छोड़ दे रहे है तो उसका मूल कारण जमीन से मोहभंग होना नही है | बल्कि सत्ता व कानून का यह भय है कि जमीन का सर्वेसर्वा मालिक सरकार है | अत: अगर वे मुआवजा नही भी लेंगे तो सरकार उनकी जमीन अन्तत: ले लेंगी | हम यह नही कहते कि गावो का कोई किसान अपनी जमीन नही बेचना चाहता | नही यह बात नही है | किसानो या कहिये जमीन के मालिको का एक ऐसा हिस्सा जरुर है जो खेतिया करने में पहले से ही रूचि नही लेता या बहुत कम लेता है |उसी के साथ शहरों में जाकर बेहतर आमदनियो वाले पदों , प्रतिष्ठाओ पर बैठा हुआ एक तबका भी खड़ा हो गया है , जो गावो से अपने संबन्धो को खत्म कर रहा है या खत्म कर चुका है | उसे अपनी जमीन का बेहतर मुआवजा लेने पाने कि ही लालच है | जमीन बचाने कि कोई लालच नही है | लेकिन येही बात गाव में रहने वाले और खेती किसानी करने वाले बहुतायत किसानो के बारे में नही कही जा सकती | बेशक , खेती के बढ़ते संकटो ने उसे खेती के प्रति हतोत्साहित किया है | पर किसी दूसरी जगह भी आशा का दीप नही जगमगा रहा है | कोई बेहतर विकल्प नही मिलने जा रहा है | ऐसे में किसान हिमायती विशेषज्ञ लेखक के द्वारा व्यक्त किए गये विचार केवल यह इशारा दे रहे है कि अब किसानो के हिमायती विद्वान बुद्धिजीवी भी किसानो का पक्ष छोड़ रहे है | किसानो के भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध आन्दोलन को बल प्रदान करने कि जगह उसे प्रकारान्तरसे कमजोर कर रहे है ........ उचित नही है।
सुनील दत्ता
पत्रकार
1 टिप्पणी:
जमीनें बेचने से ये किसान तो अपंग ही होंगे क्योंकि यह उनके शरीर का सौदा है। कुछ पैसे लेकर जमीन बेचकर, चाहे पैसे अधिक ही क्यों न हों, स्थाई सम्पत्ति का सौदा हो जाएगा और पैसे रहेंगे कितने दिन? ठगे जाएंगे अधिकांश किसान। सरकारों ने ठगने के लिए सुन्दर चोला पहना है इन बातों से।
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