मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

क्रान्तिधर्मी चेतना का शायर: फैज

हमारा इस बात में दृढ़ विश्वास है कि साहित्य बहुत गहराई से मानवीय नियति के साथ जुड़ा है। स्वतत्रंता और राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के बिना साहित्य का विकास संभव नहीं है, उपनिवेशवाद और नस्लवाद का समूल नाश साहित्य की सृजनात्मकता के संपूर्ण विकास के लिए बेहद जरूरी है।
उपर्युक्त विचार क्रान्तिधर्मी चेतना के शायर फै़ज अहमद ‘फ़ैज’ के हैं। यह विचार उन्होंने सन् 1983 में ताशकन्द में आयोजित एफ्रो एशियाई लेखक संघ की रजत जयन्ती के अवसर पर व्यक्त किए थे, जो उनके व्यक्तित्व और तदनुरूप कृतित्व पर ज्यों का त्यों चस्पा की जा सकती है क्योंकि उनके जीवन और रचना में फाँक बेहद कम है।
सन् 2011 जहाँ हिन्दी साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले कतिपय महत्वपूर्ण लेखकों अज्ञेय, शमशेर, नागार्जन प्रभृत के शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है वहीं पर हिन्दी-उर्दू जगत में समान रूप से समादृत और लोकप्रिय शायर फै़ज़ और मज़ाज़ जैसी शख्सियतों को विभिन्न हलकों में शिद्दत के साथ याद किया जा रहा है।
फिलवक़्त उर्दू-हिन्दी अनुवादक के रूप में ख्याति प्राप्त विद्वान शकील सिद्दीकी द्वारा संपादित पुस्तक ‘फैज अहमद ‘फैज’ शख्स और शायर (पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस लि0 नई दिल्ली, मूल्य रू0 80/00) पर कुछ विचार।
यूँ तो फैज के आकर्षक चित्र से युक्त पुस्तक पढ़ने के क्रम में ज्यों ही पहले पन्ने का साक्षात्कार होता है, ‘हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे। इक खेत नहीं, एक देश नहीं, सारी दुनियाँ माँगंेगे।’ संपादक का, शायर फैज के प्रति उनका प्रतिबद्ध प्रगतिशील दृष्टिकोण का ऐलान कहा जा सकता है। जिसे अन्तिम पृष्ठ पर उसे पूरे का पूरा छापा गया है। बेशक! उनकी शायरी का यह एक रंग और अहम हिस्सा है। किन्तु फैज सिर्फ इतना ही नहीं और भी कुछ हैं, जो इसमे नहीं है। उनकी शायरी के वे हिस्से, शेड्स कम महत्वपूर्ण नहीं जिसमें उन्होंने अपने समाज से पे्रम, मोहब्बत और तमाम वैयक्तिक जज्बातों को शेरों के रूप मंे व्यक्त किया है, किन्तु यह बात बहस तलब है।
इससे बेहतर बात यह है कि शकील सिद्दीकी ने अपनी इस संपादित पुस्तक में शायर फैज को उनकी सम्पूर्णता मंे, पूरी जीवन्तता के साथ उन्हें पकड़ने का सराहनीय प्रयास किया है। जहाँ एक ओर इस मंे उन्होंने उनकी 38 गजलों, नज्मों, शेर और तरानों को संकलित कर उनकी शायरी के कमोबेश सभी महत्वपूर्ण पहलुओं से पाठक को उनका परिचय कराने का प्रयत्न किया है वहीं पर उन्होंने उनके व्याख्यान (जिसका एक हिस्सा ऊपर उद्धृत है) वक्तव्य, आत्मकथ्य, उनकी पत्नी एलिस फैज तथा उनकी पुत्री सलीका हाशमी का साक्षात्कार, भीष्म साहनी, शमीम फैजी और यासिर अरफात के लेखों के जरिए उनके संघर्षशील जुझारू व्यक्तित्व को समझने के साथ उनकी शायरी की बनावट और बुनावट तथा वैचारिकी को समझने में काफी मददगार साबित हुए हैं। इसे समझने के लिए लेखक के आत्मकथ्य का देखना जरूरी है।
‘शुरू मंे ख़याल हुआ हम क्रिकेटर बन जाएँ, फिर जी चाहा उस्ताद बन जाएँ। रिसर्च करने का शौक था। अन्ततः उस्ताद बनकर अमृतसर चले गए। हमारी जिन्दगी का शायद सबसे खुशगवार जमाना अमृतसर का ही था। मजदूरों में काम शुरू किया। सिविल लिबर्टीज की एक अंजुमन बनी तो उसमें काम किया।’
यह कथन यह सिद्ध करता है कि उनकी आशाओं, आकांक्षाओं के अनुरूप उन्हें जिन्दगी नसीब न हो सकी। इसका मलाल भी कहीं निश्चय ही उन्हें रहा होगा जो उनकी शायरी के पहले दौर में अभिव्यक्ति पा सका है। मजदूरों में काम, संघर्ष जद्दोजहद, तरक्की पसंद संगठनों के साथ उनके नजरिये को अपनाकर उन्होंने समाज और देश की जनता के लिए अपना जीवन और अपनी शायरी को समर्पित किया था। यही उनकी महानता है। शायद इसीलिए भीष्म साहनी ने ‘यादे फैज’ में लिखा है कि एक कवि की रचना धर्मिता और उसी ऊँचाई की उसकी संगठन व संचालन क्षमता उसकी व्यावहारिक बुद्धि का परिचायक है।
आज के दौर में फैज को आम फहम बनाने में उनके व्यक्तित्व का यह पहलू भी कम अहम नहीं है। इसके लिए उनके प्रारंभिक उद्धरण पर ध्यान देना ही पर्याप्त होगा कि उन्होंने उपनिवेशवाद, नस्लवाद और विभिन्न देशों में बढ़ रहे साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का, विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर, अपनी शायरी के माध्यम से पुरजोर विरोध किया है। कदाचित शकील सिद्दीकी ने ‘फैज-अवाम के अरमानों सपनों का शायर’ में सच ही कहा है कि फ़ैज़ ने एक साथ जुल्म व नाइंसाफी के खिलाफ उठ खडे़ होने तथा दर्द के बढ़ते जाने को शैलीब्रेट तथा उनसे नई ऊर्जा हासिल करने का हौसला दिया है। जिसका परिणाम उन्हें देश निकाला के रूप में भुगतना पड़ा। वे भारत की शरण में आए, यदि वह हिस्सा भी पुस्तक का अंग बनता तो पुस्तक भारतीय जन आंकाक्षाओं के अनुरूप ज्यादा स्वागत योग्य होती। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शकील सिद्दीकी जैसे विद्वान ने भी उनके गद्य और संपादन कला के प्रति दूसरों की तरह चुप्पी ही साधी है। एक रस्म अदायगी भरा काम ही उनका यह कहा जाएगा। अगर इस उपमहाद्वीप में लोकप्रियता की बात हो तो दावे के साथ यह कहना कठिन है कि वे मिर्जा गालिब या कुर्रतुल ऐन हैदर के समकक्ष हैं किन्तु इतना निश्चित ही कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में एक बेहद जरूरी समझे जाने वाले शायर हैं।

-महन्त विनय दास
मो0: 9935323168 (समीक्षक)

2 टिप्‍पणियां:

SANDEEP PANWAR ने कहा…

शुभ दीपावली,

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

जब पीपुल्स भी महँगी किताबें छापने लगा है, उस समय यह किताब एक अच्छा संकेत है…फ़ैज पर छापने के लिए उसे शुक्रिया और आपको बताने के लिए…

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