बुधवार, 9 नवंबर 2011

इसरार भाई के संग वे दिन

मजाज़ की बहन हमीदा सलीम की जुबानी
इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन।
भोर भये मन्दिर आयी है, आई नहीं है माँ लायी है।
वक्त से पहले जाग उठी है, नींद भी आँखों में भरी है।
ठोडी तक लट आयी हुई है, यूँही सी लहराई हुई है।
आँखों में तारों की चमक है, मुखडे पे चाँदी की झलक है।
कैसी सुन्दर है क्या कहिए, नन्ही सी एक सीता कहिए।
धूप चढे तारा चमका है, पत्थर पर एक फूल खिला है।
चाँद का टुकडा, फूल की डाली, कमसिन सीधी भोली-भाली।
कान में चाँदी की बाली है, हाथ में पीतल की थाली है।
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है, पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है।
कैसी भोली और सीधी है, मन्दिर की छत देख रही है।
माँ बढकर चुटकी लेती है, चुफ-चुफ हँस देती है।
हँसना रोना उसका मजहब, उसको पूजा से क्या मतलब।
खुद तो आई है मन्दिर में, मन में उसका है गुडया घर में।

मजाज लखनवी की नज्मे जितनी बुलंद है , उनकी जाती जिन्दगी उतनी ही त्रासद पूर्ण रही है | मजाज की कविता उर्दू के तरक्कीपसंद साहित्य में एक महत्वपूर्ण मुकाम रखती है | मजाज की जन्मशती पर उनकी छोटी बहन ; हमिदा सालिम ' के शब्दों में मजाज के शरुआती दिनों की यादे सहेज रहे है।

आपा के बाद जगन भाई थे यानी इसरारुल हक मजाज |वे १९ अक्तूबर १९११ ई0 में मुबारक - सलामत की सदाओं के दरम्यान नबीखाने की सहदरी में फदा हुए |उनसे डेढ़ - दो साल बड़ा बच्चा खत्म हो चुका था , इसलिए बहुत मन्नो -मुरादों से पाले गये |मोहरम की सातवी को फकीर बनाए जाते , फिर सदवी को पायक | एक कान में मन्नत का बुन्दा डाला गया , जो सात साल की उम्र में अजमेर जाकर उतारा गया | छीक भी आ जाती तो सदके उतरते | नौ साल के हुए थे कि जवान भाई का नागहानी इन्तिकाल हो गया | घर पर कयामत टूट पड़ी | माँ और पानी दीवानगी कि हद तक उनके तहफ्फुज़ में लग गई | मजाल था कि बेटा अकेले घर से भाहर कदम निकाले | एक नौकर साए की तरह साथ रहता था | बाहर जाते तो वापसी तक माँ की आँखे दरवाजे पर होती | कोई सुबह ऐसी न गुजरती कि माँ ने उनकी जिन्दगी के लिए दो रक अत शुक्राने के न पढ़े हो | होने को तो दो बेटे थे इसरार भाई और असान भाई , माँ कि ममता सब ही के लिए होती है | लेकिन इसरार भाई के साथ उनकी वाबस्ती ममता कि हदों को भी पार कर गई थी | ऐसा लगता था वही कायनात का मेहवर हैं | ये तो अपनी जाती कशिश थी , वरना हम सब में रकाबत का जज्बा पैदा होना नागुजीर था | माँ ने उनकी परवरिश में कितनी राते जाग कर गुजार दी , इसका अंदाजा यु हो सकता है कि उनकी उर्फियत जग्गन होने की वजह तसिम्या ये थी कि रात को खुद भी जागते थे और माँ को भी जगाते थे , जिन्दगी कि इजतिराबी कैफियत शायद कुछ ऐसी फितरी खुसूसियत थी , जो जिन्दगी के आखरी सांस तक उनके साथ रही | इसरार भाई और आपा कि उम्र में काफी फासला था | उन दोनों के दरम्यान खुर्दी -बुजुर्गी का रिश्ता था | मैं बहुत छोटी थी , लिहाजा मेरी तरफ मोहब्बत और शफकत का रवैया |अलबत्ता बीच के तीन इसरार भाई , अंसार भाई , और साफिया आपा उपरतले के थे | उन तीनो में छीन - झपट , छेड़ - छाड़ और कभी - कभी मारपीट की भी नौबत आ जाती थी | हर वक्त माँ के सामने उन तीनो के मुकदमे पेश होने पर फैसला इसरार भाई के हक में होता | अगर मामला अब्बा के सामने पेश होता तो सिर्फ वो ही थे जो गैर -जानिबदार रहते थे |इसरार भाई ने अब्बा के साथ हमेशा रिवायती अदब व लिहाज़ रखा | उनके सामने कभी सिगरेट न पी | यहा तक कि तरन्नुम के साथ कलाम सुनाने से भी गुरेज करते थे |इसरार भाई बचपन से शोख व शरीर और जहीन थे |खेलकूद में आगे , उधमबाज़ी में मुमताल , शरारत और शोखी के साथ - साथ तबीयत में एक तरह की सादगी और मासूमियत भी थी ,साथ ही साथ लाउबालीपन भी |हमारे एल चचा उन्हें सिड़ी और उनकी के नामो से मुखातिब करते थे |जमीनदाराना माहौल में जो उंच - नीच का माहौल था , उससे वे बिलकुल बेनियाज़ थे | घर के काम करने वाले लडको के साथ उनका गहरा याराना था | गुल्ली - डंडे के दौर से निकले टी हाकी और क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी रहे | अगरचे घर के तालादाद पंलग उनकी लांग जम्प की नज्र हुए तो दूसरी तरफ शतरंज जैसे दिमाग लगाने वाले खेल में भी माहिर थे | कैरमबोर्ड की गोटो का दमभर में सफाया हो जाता था और हम मुह फाड़े देखते रह जाते थे | हर तफरिही से दिलचस्पी , हर खेल में माहिर , किसे मालूम था , कि जिन्दगी के सबसे अहम खेल में जहा दिल कि बाज़ी लगती हैं , ऐसी मात खायेंगे , ऐसी चोट खायेंगे कि चकनाचूर होकर रह जायेंगे |किस्मत को क्या कहिये मोहब्बत के मैदान में कदम बढाया तो उस मैदान की तरफ जहा दाखिला ममनुअ था |नज्र उठाई तो ऐसी हस्ती की तरफ जिसको पाना नामुमकिन !आज भी आम्सान पर बादल देखकर अपने बचपन का सावन याद आ जाता हैं | क्स्ताती जिन्दगी में बरसात का यह महीना हम लडकियों के लिए बहुत अहमियत रखता था | हमारी सावन की तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती थी | लाल और हरी चुन्दरिया रंगरेजो से रंगवाई जाती थी | मनिहारने रंग - बिरंगे शाहाने टोरियों में सजाकर घर पहुचाती थी |घर - घर झूले पड़ते थे , पकवान तले जाते | लडके - लडकियों के साथ बुजुर्ग भी बहैसियत तमाशाई उस तफरीह में शरीक होते |हमारे घर में भी सावन बहुत जोर - शोर से मनाया जाता था | इन्तिजामात में इसरार भाई मय अपने दोस्तों के आगे - आगे होते | कोठरियों से झूले का तख्ता निकालना , मोटो रस्सी दस्तयाब करना और कुए के पास नीम के दरख्त में झूला डालना उन्ही की जिम्मेदारी थी |मुआवजे में हम लडकियों को उनको पींगों का हक देना होता था |ये पीगे ऊँची से ऊँचीतर होती जाती और हमारे बेसुरे सावन गीत भयानक चीखो में तबदिल हो जाते साथ - साथ पींगे मारने वालो के फलक -शिगाफ कहकहे| वे शोर उस वक्त रुकता जब कोई बुजुर्ग बाहर निकलकर डांट-डपटकर हालात को काबू में लाता |हम हडकुलिह्या पकाते तो मिठास चखने के बहाने हमारी मीठे चावलों की हाड़ी आधी से ज्यादा खाली हो जाती | हमारी गुडिया और गुड्डे की शादी में वे क़ाज़ी का रोल अख्तियार कर लेते | ' गाजर , मुली ,गोभी का फूल - बोल गुडिया तुझे निकाह कबूल '|कहते - कहते हमारी गुडिया की चोटी उनके हाथ में होती और वह गरीब उनके हाथ में नाचती नज्र आती |हम उनसे रुठते भी भला कैसे , अपना ही नुक्सान था |
हंडकुलियों के लिए गुड , चावल , अनाज की कोठरियों से और गुडिया के कपड़ो के लिए कतरने माँ की उची कार्निसो पर रखी हुई बुगचियो से हम तक उन्ही की मदद से पहुचती थी | शरीर से बेखबर होने के साथ - साथ पढाई में भी बहुत तेज़ थे | हिसाब में होशियार , लिखाई मोती जैसी साफ़ - सुथरी , ड्राइंग बहुत अच्छी , मिनटों में हम बच्चो के लिए सादा कागज़ पर पेन्सिल की मदद से सुबुक -रफ्तार घोड़ा और माइल बा परवाज चिड़िया तैयार हो जाती थी | हमेशा अच्छे तालिबईलगो में शुमार हुआ |इबित्दाई तालीम रुदौली के मखदुमिया और लखनऊ के अमीनाबाद स्कूल में हुई | हाई स्कूल में फर्स्ट क्लास लाये | पढने के साथ - साथ पढाने का भी सलीका रखते थे |मुझ जैसे बदशौक इनसान को , जिसका मौलवी साहब के चाटे के बाद पढाई से बिलकुल दिल उठ गया हो , राह पर लाना उन्ही का काम था | जाने यह हम दोनों के दरम्यान जज्बाती बंधन की दें थी या उनका पढाने का ढंग कि मैं पढाई जैसे खुश्क मशगले की तरफ फिर मेल हो सकी |उर्दू , अंग्रेजी , हिसाब सब कुछ तो उन्होंने मुझे पढाया | मेरी पढाई की बागडोर अगर उन्होंने अपने हाथ में न ली होती तो जाने मेरी जिन्दगी किस राह पर होती | खानदान की अपनी दूसरी हमउम्र लडकियों की तरह घर की महदूद दुनिया में घुटी - घुटी सी जिन्दगी में गुजार रही होती | सफिया आपा भी उनसे हिसाब और अंग्रेजी में कभी - कभी मदद लेती थी, लेकिन खात्मा बहसोमुबाहिसे पर होता था | रुझान और दिलचस्पियो के लिहाज़ से सफिया आपा उनसे बहुत करीब थी , लेकिन महज इस वजह से कि वो लडकी हैं उनके दबाव में आने पर अपने को रजामंद नही कर पाती थी | उन दोनों की लड़ाइयो में में डांट बेचारी सफिया आपा को सुननी पडती | कहने को तो कहा जाता कि छोटी हो लेकिन यह बात दबी -छुपी रखी जाती कि तुम लडकी हो | उस माहौल में भला लडकी लडके का क्या मुकाबला , वह भी ज्ज्ग्न भिया जैसी लाडली औलाद से | इसरार भाई ने हम बहनों का साथ हर मोड़ पर दिया और हर आड़े -तिरछे मौके पर काम आये | लडकिया सोलह - सत्रह साल कि हो जाए और उनके हाथ पीले न हो | ऐसा लगता था जैसे पूरा कुनबा ही उस गरीब के बोझ तले दबा हुआ हो | बड़े होने के नाते सफिया आपा हि उस मुसीबत का शिकार रही | उलटा - सीधा कोई भी रिश्ता आटा , ख्वाह तहसीलदार हो ख्वाह लम्बा - तगड़ा थानेदार , माँ और मशिवरे का रिश्तेदारों की ख्वाहिशे होती थी कि फज्र से अदायगी हो ही जाए तो बेहतर |हमारे ये भाई आड़े आते , माँ को रिश्ते कि नामौजुनियत का अहसास दिलाते | जब भाई अख्तर की तरफ ध्यान से पयान आया तो उन्होंने रिश्ते की मुनासिबत की हिमायत की |वे सफिया आपा की ख्वाहिश से बाखबर थे | इसके वावजूद मुझे याद हैं उन्होंने सफिया आपा से कहा था ,'मिजाज बहुत जिन्नाती हैं सोच लो '|मुझे यकीन है कि वे भाई अख्तर कि जिन्दगी कि पेचीदगियो , फातिमा बहन के साथ उनके तालुकात से जरुर वाफिक रहे होंगे |आखिर को वो भाई अख्तर के करीबी दोस्त थे , लेकिन सफिया आपा के फैसले और ख्वाहिश का एहतराम करते हुए उन्होंने इस बात कि भनक हम लोगो के कानो तक नही पहुचने दी | माँ - बाप पर बेटी कितनी ही भारी क्यों न हो इतनी दूभर भी नही होती कि वे उसे जानते - बुझते , बकौल भाई अख्तर की रिश्ते की एक बहन के , उसे ज़िंदा मक्खी निगलने देते |

कलेजा फुक रहा है और जबाँ कहने से आरी है,
बताऊँ क्या तुम्हें क्या चीज यह सरमाएदारी है,
यह वह आँधी है जिसके रो में मुफलिस का नशेमन है,
यह वह बिजली है जिसकी जद में हर दहकान का खरमन है
यह अपने हाथ में तहजीब का फानूस लेती है,
मगर मजदूर के तन से लहू तक चूस लेती है
यह इंसानी बला खुद खूने इंसानी की गाहक है,
वबा से बढकर मुहलक, मौत से बढकर भयानक है।
न देखें हैं बुरे इसने, न परखे हैं भले इसने,
शिकंजों में जकड कर घोंट डाले है गले इसने।
कहीं यह खूँ से फरदे माल व जर तहरीर करती है,
कहीं यह हड्डियाँ चुन कर महल तामीर करती है।
गरीबों का मुकद्दस खून पी-पी कर बहकती है
महल में नाचती है रक्सगाहों में थिरकती है।
जिधर चलती है बर्बादी के सामां साथ चलते हैं,
नहूसत हमसफर होती है शैतान साथ चलते हैं।
यह अक्सर टूटकर मासूम इंसानों की राहों में,
खुदा के जमजमें गाती है, छुपकर खनकाहों में।
यह गैरत छीन लेती है, हिम्मत छीन लेती है,
यह इंसानों से इंसानों की फतरत छीन लेती है।
गरजती, गूँजती यह आज भी मैदाँ में आती है,
मगर बदमस्त है हर हर कदम पर लडखडाती है।
मुबारक दोस्तों लबरेज है इस का पैमाना,
उठाओ आँधियाँ कमजोर है बुनियादे काशाना।

सरमाएदारी / मजाज़ लखनवी

उर्दू पुस्तक 'शोरिशे दौरा ' के अनुवाद 'यादे ' (अ0 परवेज गौहर ) से साभार ,
प्रकाशक :प्रकाशन संस्थान , दरियागंज , नई दिल्ली - २


प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान 6 नवम्बर 2011

प्रस्तुति
सुनील दत्ता

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