यहाँ हमें तमिलनाडु से लेकर उड़ीसा, बंगाल तक के मज़दूर गाँवों में देखने को मिले। सन् 2009 में ही केरल में न्यूनतम वेतन तीन सौ रुपये से ज़्यादा था (जो वाकई मज़दूर को मिलता भी था) इसलिए अच्छी मज़दूरी के आकर्षण में दूर-दूर के मज़दूरों का वहाँ आना सहज भी था। लेकिन 2007-08 में ही अमरीका से शुरू हुए आर्थिक मंदी के दौर ने अरब और खाड़ी के देशों पर भी असर डालना शुरू कर दिया था। केरल के बहुत सारे नौजवान खाड़ी के देशों में प्लंबर, पेंटर, ड्राइवर और होटलों में वेटर, कुक जैसे कुशल और अर्ध कुशल श्रेणी के कामों में लगे हुए हैं। आर्थिक संकट ने खाड़ी के देशों को यूरोप और अमरीका से आने वाले पर्यटकों से होने वाली आमदनी को प्रभावित किया, नतीजतन अनेक लोगों की नौकरियाँ ख़त्म हुईं। नौकरियाँ गँवाकर घर लौटे केरल के ग्रामीण नौजवानों ने खेतों में किए जाने वाले अनेक कामों को खुद करना शुरू कर दिया जिससे केरल में बाहरी मज़दूरों की माँग में भी कमी आई। हालाँकि यह असर घातक नहीं थे लेकिन फिर भी इसने राज्य की अर्थव्यवस्था के लगातार गैर आनुपातिक रूप से गल्फ-मनी पर बढ़ती निर्भरता के खतरों से आगाह तो किया ही।
खेती से पलायन-विस्थापन और राज्य
एक तरफ़ यह पलायन और विस्थापन है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से राज्य की कोई भूमिका नज़र नहीं आती लेकिन इन मामलों में भी राज्य अपनी योजना की नाकामी और श्रम बाज़ार की असंगत प्रक्रियाओं में उसके सार्थक हस्तक्षेप की कमी से पल्ला नहीं झाड़ सकता। दूसरी तरफ़ उस विस्थापन और पलायन के दिनोदिन बढ़ते उदाहरण हैं जिनमें राज्य ख़ुद सक्रिय भूमिका निभाता हुआ आम लोगों को विस्थापन और पलायन के लिए मजबूर कर रहा है। कानून की मनमानी व्याख्याएँ कर या नए दमनकारी कानून बनाकर और हर तरह के विरोध पर पुलिस की बंदूक तानकर भारतीय राज्य लोकतंत्र के मामले में अमरीका से होड़ ले रहा है। पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के बदले और भी जनविरोधी नया क़ानून लाने की कोशिश, उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर कुडनकुलम, जैतापुर, कलिंगनगर, दादरी, पोस्को, नियमगिरि, भट्टा पारसौल, नर्मदा घाटी, रायगढ़, प्लाचीमाड़ा, नंदीग्राम, और तमाम जगहों पर लोगों ने अपनी ज़मीनें छीनने और उजाड़े जाने की राज्य की कोशिशों के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ी और लड़ रहे हैं।लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि भारत में औसत जोत का आकार घटकर 1.06 हेक्टेयर रह गया है जो एक परिवार का पेट पालने के लिए काफ़ी नहीं। दूसरी तरफ़ ज़मीन की सीलिंग बढ़ाने के लिए हर राज्य में क़ानून बदले जा रहे हैं। हज़ारों हेक्टेयर की खेती करने के लिए काॅर्पोरेट घरानों को बुलाया जा रहा है। सामूहिक खेती की बात तो दूर, लोग अब भूमि सुधार की माँग भी भूलते जा रहे हैं। और यह तो औसत है। असल में तो बिहार, केरल और बंगाल में चैथाई हेक्टेयर से भी छोटी जोतें बहुतायत में हैं। इतनी कम ज़मीन पर संसाधनहीन ग़रीब किसानों द्वारा खेती करने से किसी भी तरह उनकी उपज इतनी नहीं हो सकती कि वे सिर्फ़ खेती के ही सहारे जी सकें। नतीजतन, खेती उनके लिए आमदनी का मुख्य ज़रिया नहीं रह जाती और जैसे ही उन्हें वाजिब लगते दाम मिलते हैं, वे खेती से किनारा कर लेते हैं।
ग़रीब ग्रामीण आबादी दो तरह के विस्थापन झेल रही है। एक तो भौगोलिक जिसमें लोग रोज़गार की तलाश में और जि़ंदा रहने के जतन में एक जि़ले से दूसरे जि़ले या एक राज्य से दूसरे राज्य जाते हैं, कभी मौसमी तौर पर कभी स्थायी तौर पर।
एक अन्य किस्म का विस्थापन हो रहा है जिसमें वे खेती के क्षेत्र से ही विस्थापित हो रहे हैं। वे खेती के क्षेत्र को छोड़ शहरों-महानगरों में मौजूद तमाम किस्म के असंगठित रोज़गारों का हिस्सा बन रहे हैं। वे आज रिक्शा चला रहे हैं, रेहड़ी लगा रहे हैं, फेरी लगा रहे हैं, सिक्योरिटी गार्ड बन रहे हैं, सब्ज़ी बेच रहे हैं, हम्माली कर रहे हैं, इमारतें बना रहे हैं, और कल उस रोज़गार से भी बेदख़ल हो रहे हैं। वे खेती से और गाँवों से बाहर शहर में आ गए हैं, जहाँ वहीं के बंद कारखानों के बेरोजगार मज़दूरों की पहले से ही इतनी भीड़ है कि इनके लिए हाशियों पर भी जगह नहीं। न रूपक में और न ही यथार्थ में। झाबुआ, धार, रतलाम जैसे आदिवासी बहुल इलाक़ों से जो आदिवासी रोज़गार की तलाश में क़रीबी राज्य गुजरात में काँच और गेत पत्थरों के कारखानों में काम करने जाते हैं, वे वहाँ से एकाध साल में ही सिलिकोसिस की मौत लेकर लौटते हैं। अब तक हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं लेकिन त्रासदी यह है कि जिसके घर का एक सदस्य उसी सिलिकोसिस का शिकार हुआ, विकल्प के अभाव में उसी घर से दूसरा, जानते-बूझते उसी काम के लिए जाता है।
-विनीत तिवारी
क्रमश:
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