आज दुनिया भर में जमीन और इसके नीचे दबे संसाधन उस जमीन पर फलते फूलते जनजीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से लगे सिंगरौली से लेकर भारत के अन्य राज्यों के साथ-साथ अफ्रीका और लैटिन अमेरिका आदि के कई देश जो प्राकृतिक संसाधनों के मामले में धनी हैं, सभी जगह ऐसी ही दमनकारी ‘विकास‘ नीतियाँ हावी हो चुकी हैं। इन सभी जगहों पर इन ‘विकासपरक‘ योजनाओं का क्रियान्वयन पुलिस के माध्यम से कराया जाना यह इंगित करता है कि ये योजनाएँ जिन क्षेत्रों में संचालित की जा रही हैं, वहाँ के स्थानीय विकास से इनका कोई लेना देना नहीं है। ‘ऊर्जा राजधानी‘ सिंगरौली में पैदा होती बिजली और अन्य कीमती पदार्थों का उपभोग तो देश का संपन्न वर्ग कर रहा है, जब कि इसके लिए सारे त्याग स्थानीय निवासियों के जिम्मे पर डाल दिया गया है। भारत के गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट, जो कि इन्टरनेट पर पढ़ी भी जा सकती है, इस कटु सच्चाई को स्वीकारती तो है, पर बड़ी ही बेशर्मी से इसे न्यायोचित भी ठहराती है। यह रिपोर्ट कहती है:-
“पीढि़यों से अपनी जमीन पर रहने वाले परिवारों के लिए अपनी जगह से उजाड़े जाने और बिल्कुल ही किसी नई अपरिचित जगह पर भेज दिए जाने से ज्यादा बुरा और दर्दनाक कोई और सपना नहीं हो सकता। परिवारों को बिल्कुल ही ऐसे व्यवसाय का विकल्प देने से ज्यादा दुखदाई कुछ और नहीं हो सकता, जो व्यवसाय उन्होंने पहले कभी न किया हो। फिर भी उन्हें विस्थापित होना पड़ेगा, क्योंकि वे परिवार जिस जमीन पर हैं, उसकी आवश्यकता विकास कार्यों के लिए है, और इन्हीं विकास कार्यों से आम लोगों की सम्पन्नता और देश की प्रगति संभव हो पाएगी। अतः विस्थापित होने वाले लोग अपने समुदाय और राष्ट्र हित में एक महान त्याग कर रहे हैं। विस्थापित स्वयं कठिनाई और दबाव में एक अनिश्चित भविष्य झेलते हैं ताकि दूसरे लोग आर्थिक रूप से बेहतर और खुशी से रह पाएँ।”
एक बडे़ समुदाय की कीमत पर मुट्ठी भर लोगों को सुविधाएँ पहुँचाना, केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में जारी औपनिवेषिक गतिविधियों के केंद्र में है। अफ्रीका के साथ-साथ सभी लैटिन अमेरिकी देषों में जारी प्रभावशाली वर्ग के द्वारा मूल निवासियों के शोषण को बढ़ावा देने वाली और संसाधनों की लूट को बढ़ावा देने वाली यह प्रक्रिया द्वितीय विश्व युद्ध में बुरी तरह से टूट चुके यूरोप को दुबारा मजबूत करने के लिए अपनाई गई प्रक्रियाओं का ही नतीजा है। यूरोप को दुबारा संगठित करने के लिए जो कोशिशें की गईं उन्होंने ही वल्र्ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का गठन किया। आज इन्हीं वित्तीय संस्थानों के निर्देशन में और उन्हीं के द्वारा वित्तपोषित ये योजनाएँ ‘विकसित‘ देशों में उपजे संसाधनों के संकट का हल ‘विकासशील‘ देशों में खोजने की कोशिश कर रही हैं। इन योजनाओं के वैश्विक विस्तार और इन के पीछे इतने बड़े वित्तीय संस्थानों का होना यह बताते हैं कि स्थानीय सरकारों पर इन योजनाओं के क्रियान्वयन का कितना ज्यादा दबाव है। इन्हीं दबावों के चलते, और इनके इशारों पर नाचते हुए स्वयं भी मलाई के भागीदार बनने का लालच, भारत समेत इन तमाम सरकारों को जन सरोकारों से दूर कर पूँजीपतियों के सरपरस्ती के लिए मजबूर कर दिया है। यह महज संयोग नहीं है कि 26 जनवरी को भारत के राष्ट्रपति के द्वारा बाँटे गए गैलेंट्री अवार्ड ज्यादातर उन क्षेत्रों में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों के हिस्से में आए जहाँ आज के दौर में भारतीय राज्य का क्रूरतम चेहरा दिखता है। मसलन, गैलेंट्री अवार्ड की इस लिस्ट में वह पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग भी शामिल है जिसने छत्तीसगढ़ की आदिवासी प्राथमिक शिक्षिका को माओवाद के आरोप में हिरासत में रख कर उसका यौन शोषण किया और उसके गुप्तांगों में पत्थर ठूंस कर वीभत्स यातनाएँ दीं।
अंत में, सिंगरौली के सन्दर्भ में सवाल यह उठता है कि विभिन्न शहरों के लिए बिजली की निर्बाध आपूर्ति कर के जिसने शहरों को रौशनी से भर दिया है, उसी सिंगरौली के अँधेरे को दूर करना हमारे देश के लिए हाशिये का प्रश्न क्यों बना हुआ है? अगर सिंगरौली वनवासी, आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के बजाय एक ‘एलिट‘ अथवा ‘सभ्रांत‘ वर्ग की बहुलता का क्षेत्र होता, तो भी क्या आजादी के इन 65 वर्षों में इस कदर अनदेखी का शिकार होता?
-रवि शेखर
मो0:- 09369444528
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
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