बुधवार, 7 मार्च 2012
मानव सभ्यता की धुरी हैं हमारे खेत-1
किसान हमारे समाज की आर्थिक और सामाजिक धुरी हैं। नव्य आर्थिक उदारीकरण के दौर में उस पर सबसे ज्यादा हमले और अत्याचार हुए हैं जो मीडिया में अमूमन नहीं आते। किसान की खबर तब ही आती है जब वहाँ हिंसा हो। यदि आंदोलन चल रहा है और कोई हिंसा नहीं घटती तो वह खबर नहीं बनती। किसान के सामान्य जीवन में जब कुछ अघटित घटता है तो मीडिया और राजनैतिकदलों को उसकी सुध आती है। जब कहीं से किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगती हैं तो प्रषासन हरकत में आता है और फिर सहायता कार्य की मीडिया बाइट्स आनी आरंभ हो जाती हैं। इससे एक तदर्थ कम्युनिकेशन बनता है। गहराई में जाकर देखें तो मीडिया उसके साथ समाज और राजनीति का कम्युनिकेशन नहीं बनाना चाहता।
किसान को कभी मीडिया से लेकर राजनैतिक दलों तक ने स्थाई एजेण्डा नहीं बनाया। एक जमाने में कुछ राज्यों में खासकर केरल और पष्चिम बंगाल में भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करते समय यह देखा गया कि राजनीति से लेकर समाज के स्तर तक किसान प्रधान एजेण्डा था, लेकिन नव्य आर्थिक उदारीकरण के आने के बाद किसानों की आत्महत्या की खबरों के उद्घाटन के बाद सारा मामला नए सिरे से चर्चा के केन्द्र में आता है। केन्द्र सरकार ने 5 दषक बाद पहली बार किसानों की कर्जमाफी का राष्ट्रीय एलान किया। इससे करोड़ों किसानों के 80 हजार करोड़ के बैंक कर्ज माफ कर दिए गए। किसान समस्या के कई स्तर हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला है नीति के स्तर पर, केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियाँ। दूसरा है किसान और कारपोरेट पूँजीवाद का अन्तरसंबंध। तीसरा है मीडिया, किसान और आम जनता का रुख।
केन्द्र की नीतियाँ-
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू0पी0ए0 सरकार का किसानों के प्रति विद्वेषपूर्ण रवैय्या है। सरकार की सबसे खतरनाक बात यह है कि “किसान संकट में हैं”, यह बात नीति के रूप में वह नहीं मानती। देष के विभिन्न इलाकों में दो लाख से ज्यादा किसानों ने कर्ज से परेषान होकर आत्महत्याएँ की हैं। इसके बावजूद केन्द्र सरकार “किसान संकट में है“ यह मानने को तैयार नहीं है।
किसी राज्य से यदि किसानों की आत्महत्या की खबरें आती हैं और मीडिया में हंगामा आरंभ होता है तो केन्द्र सरकार सक्रिय हो जाती है और प्रभावित क्षेत्र के लिए तत्काल आर्थिक पैकेज की घोषणा कर दी जाती है। क्षेत्र या जिला आधारित इस तरह के आर्थिक पैकेज की घोषणा का अर्थ यह है कि प्रभावित क्षेत्र के किसान जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह समस्या खासतौर पर उसी क्षेत्र से सम्बंधित है, इसे राष्ट्रीय समस्या या व्यापक समस्या के रूप में न देखा जाए। लोकल समस्या के रूप में देखा जाए।
किसान की समस्या को मीडिया कभी पूरी और निरंतर खबर नहीं बनाता। मीडिया मसले को कुछ इस तरह उछालता है कि श्रोताओं को वह मात्र बैंक या सूदखोर के कर्ज की समस्या लगे और उसे वह कानून व्यवस्था की समस्या बना देता है। किसी भी तरह नियमित एजेण्डा बनाकर कवरेज नहीं देता।
केन्द्र सरकार का मानना है कि किसान की समस्या तो मात्र उत्पादन की समस्या है। उसके माल के सही रख रखाब की समस्या है। केन्द्र सरकार किसान की समस्या को किस रूप में देखती है उसका आदर्ष नमूना है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 11वीं पंचवर्षीय योजना में प्रत्येक जिले को प्रति वर्ष 10 करोड़ रूपये की सहायता की घोषणा करना, और संसद से लेकर अन्य मंचों पर अतिरिक्त तौर पर 25 हजार करोड़ रूपये की आर्थिक सहायता राषि की घोषणा करना। इस सहायता राषि से किसानों के आर्थिक जीवन में कोई खास सुधार आने वाला नहीं है।
केन्द्र सरकार की नीतियों का मूल लक्ष्य है कृषि क्षेत्र में 4 फीसदी विकास दर बनाए रखना। वह विकास दर के प्रति आसक्त है और विकासदर के प्रति उसकी आसक्ति ने बीमारी की शक्ल ले ली है। सारी चीजें कृषि विकास दर को सामने रखकर की जा रही हैं। केन्द सरकार मानकर चल रही है यदि कृषि में 4 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेते हैं तो बाकी किसी समस्या से घबराने की जरूरत नहीं है। विकास दर ही परम लक्ष्य है।
किसान के लिए आज सबसे संकट यह है कि किसानी करना घाटे का सौदा हो गया है। किसानी से किसान परिवार का पेट पालना संभव नहीं रह गया। किसानी को कैसे मुनाफे और किसान की गुजर-बसर का कार्य व्यापार बनाया जाए इस ओर हमारे योजनाकारों का ध्यान नहीं गया। किसी भी राज्य सरकार ने यह दर्षाने की कोषिष नहीं की है कि किसानी को कैसे लाभ का क्षेत्र बनाया जाए।
सवाल उठता है किसानी घाटे का सौदा क्यों है ? सन् 2002-03 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों के हिसाब से देष में 4 हैक्टेयर से कम की जमीन के स्वामित्व वाले 96.2 फीसदी किसान हैं। किसानों में मात्र 3.8 फीसदी किसान हैं जो अपने गुजर-बसर लायक ठीक से कमा-खा लेते हैं। बाकी किसान परिवारों को घाटे में खेती करनी पड़ती है।
सच यह है खेती में किसानों की लागत ज्यादा लगती है और उससे आय कम होती है। चूँकि किसान के पास विकल्पों का अभाव होता है और उसकी प्रकृति अचल होती है अतः वह संकट की अवस्था में भी खेती और गाँव के साथ अपना मोह नहीं तोड़ पाता और किसी तरह लस्टम पस्टम गुजारा कर लेता है। सरकार के द्वारा घोषित फसल का खरीद मूल्य कभी भी उसे लाभ नहीं देता। प्रत्येक फसल के बाद उसके ऊपर कर्जा होता है। परेशानियों का भयानक दबाब होता है।
-डा जगदीश्वर चतुर्वेदी
क्रमश:
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