जानी-मानी समाजशास्त्री मीरा नंदा ने फ्रंटलाइन में 4-17 जुलाई, 2009 अंक में छपे इस लेख में दिखाया है कि किस तरह भारत की शासन व्यवस्था गले तक ब्राह्मणवादी कीचड़ में लिथड़ी हुई है. इसके साथ-साथ उन्होंने यह भी दिखाया है कि किस तरह सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए शिक्षा और खास कर उच्च शिक्षा में ब्राह्मणवादी मूल्यों और व्यवहारों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. तरह-तरह के पाखंडी बाबाओं और पुरोहितों-देवताओं के इस दौर में किस तरह वित्त पूंजी और ब्राह्मणवादी हिंदू फासीवाद गले में गले डाले विकास कर रहे हैं, मीरा नंदा के इस आलेख में देखा जा सकता है. बर्बरता के विरुद्ध ब्लॉग से. अनुवाद: अमर
मानद विश्वविद्यालय का दर्ज़ा प्राप्त कई शैक्षिक संस्थान हिन्दू कर्मकाण्डों के खुदरा व्यापारियों के लिये आपूर्ति की महत्वपूर्ण कड़ियों की भूमिका निभा रहे हैं। भारत में जो बाज़ार के लिए फ़ायदेमंद है वही देवताओं के लिये भी फ़ायदेमंद सिद्ध हो रहा है। भारतीय मध्यवर्ग अपनी भौतिक सम्पदा में वृद्धि के अनुपात में ही ‘पूजा’ और ‘होम’ में भी उत्तरोत्तर वृद्धि करना आवश्यक और अनिवार्य समझता है। हर वाहन की ख़रीद के साथ पूजा होती है; ठीक वैसे ही जैसे ज़मीन के छोटे-से टुकड़े पर भी किसी निर्माण से पहले ‘भूमि-पूजन’ अनिवार्य होता है। और हर पूजा के साथ एक ज्योतिषाचार्य और एक वास्तुशास्त्री भी जुड़ा ही रहता है। और हर प्रतिष्ठित ज्योतिषाचार्य और वास्तुशास्त्री को कम्प्यूटर चलाना और अंग्रेज़ी बोलना तो आना ही चाहिए ताकि वह अपनी बातों को ‘वैज्ञानिक’ ढंग से प्रस्तुत कर सके।
भारत के लगातार फलते-फूलते ‘देवताओं’ के बाज़ार को देख कर एक प्रश्न सहज ही दिमाग़ में आता है- ये मॉडर्न दिखने वाले पुजारी, ज्योतिषाचार्य, वास्तुशास्त्री, और अन्य कर्मकाण्डी दुकानदार आख़िर आ कहां से रहे हैं? सभी तरह के धार्मिक कर्मकाण्डों के लिए 21वीं सदी के हिन्दुओं की इस अनन्त मांग के लिए कर्मकाण्डी पुरोहितों की आपूर्ति आख़िर होती कहां से है? मानद विश्वविद्यालय हमेशा से ही पारम्परिक गुरुकुलों और वैदिक पाठशालाओं से लेकर घरों, मन्दिरों, दफ़्तरों, दुकानों, और बड़े-बड़े कॉरपोरेट बोर्डरूमों और अनिवासी भारतीयों तक फैली इस भारतीय मध्यवर्गीय शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निभाते रहे हैं। ये विश्वविद्यालय, जिनमें से अधिकांश करदाताओं के पैसे से चलते हैं, अपने डिप्लोमा और डिग्रियों के द्वारा सक्रिय रूप से हिन्दू पुरोहित-कर्म का एक आधुनिक संस्करण तैयार कर रहे हैं और उसे मध्यवर्ग के लिए एक आर्थिक रूप से सुविधाजनक रोज़गार के रूप में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने माध्यमिक स्तर से आगे की शिक्षा में ज्योतिष और कर्मकाण्ड को सम्मिलित करने के 2001 के अपने एक कुख्यात निर्णय से पहले से ही मौजूद उन संस्कृत संस्थाओं को एक नया जीवन-दान दे दिया जिन्हें विश्वविद्यालय का दर्ज़ा प्राप्त था। साथ ही भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चे की सरकार ने मानद विश्वविद्यालयों का एक ऐसा नेटवर्क तैयार कर दिया जो हिन्दू पुरोहितों के प्रशिक्षण के लिए लगातार प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सहायक बना हुआ है। अब भाजपा चाहे अगले कई वर्षों तक भी राजनीतिक सत्ता से दूर रहे फिर भी सत्ता में रहते समय इसने जो संस्थागत ढांचा तैयार कर दिया था वह परम्परागत हिन्दू ज्ञान-विज्ञान को बढ़ावा देने के इसके उद्देश्य की पूर्ति करता रहेगा। 2001 में जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च शिक्षा में ज्योतिष शास्त्र को शामिल करने का निर्णय लिया तब तक अपने ज्योतिष और कर्मकाण्ड सम्बन्धी पाठ्यक्रम के लिए जाने माने तीन अखिल भारतीय संस्थानों को मानद विश्वविद्यालय की मान्यता मिल चुकी थी। वे संस्थान हैं- श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली, राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ,तिरुपति, और गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार।
इन संस्थानों की विशेषज्ञता शास्त्रीय ज्ञान के बारे में है जिसमें ज्योतिष, पौरोहित्य और योग के उच्चतर पाठ्यक्रम भी शामिल हैं- वेद-वेदांग के नियमित पाठ्यक्रम के एक भाग और विशिष्ट डिप्लोमा या सर्टीफ़िकेट पाठ्यक्रमों के रूप में भी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (और तदोपरान्त उच्चतम न्यायालय) द्वारा ज्योतिष पाठ्यक्रम को हरी झण्डी दिखाये जाने के बाद से इनका अच्छा-ख़ासा विस्तार देखने में आया। उदाहरण के लिए श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ ने 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के दौरान ही अपने ज्योतिष विभाग के लिए नये उपकरण ख़रीदे और एक जन्म-कुण्डली बैंक स्थापित किया। ज्योतिष और पौरोहित्य में अंश-कालिक डिप्लोमा और सर्टीफ़िकेट कार्यक्रमों को प्रारंभ करके भी इसने अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार किया। पर यह तो पानी पर तैरते हिमशैल का शिखर मात्र था।
मई, 2002 में नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संस्कृति संस्थान (आर एस एस) को विश्वविद्यालय की मान्यता मिली। यह पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था (स्थापना-1970) जो लम्बे समय से प्राचीन संस्कृत पाण्डुलिपियों और संस्कृत विद्वानों के संरक्षण के कार्य में लगी हुई थी अब नये पाठ्यक्रम बनाने, नये कोर्स प्रारम्भ करने और नई डिग्रियां प्रदान करने के लिए अधिकृत कर दी गई। इसके दसों कैम्पसों (इलाहाबाद, पुरी, जम्मू, त्रिचूर, जयपुर, लखनऊ, श्रिंगेरी, गरली, भोपाल, मुम्बई) को भी विश्वविद्यालयों के समकक्ष होने की मान्यता मिली हुई है अर्थात उनमें से प्रत्येक (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पहले से ही परम उदार दिशा-निर्देशों के दायरे के अन्तर्गत) नये पाठ्यक्रम तैयार करने और डिग्रियां और डिप्लोमा प्रदान करने के लिये अधिकृत है। संस्थान इन कैम्पसों और नई दिल्ली और तिरुपति के उपरोक्त विद्यापीठों की गतिविधियों को समेकित करने के लिए केन्द्रक की भूमिका निभाता है। ग़ैर सरकारी गुरुकुलों और वैदिक पाठशालाओं को अनुदान और वित्तीय सहायता देना इसके कार्यभारों में से एक है। संस्कृत डिग्री धारकों के लिए रोज़गार के अवसर बेहतर करने के लिये संस्थान ज्योतिष और कर्मकाण्ड से जुड़े पाठ्यक्रमों के लिये छात्र वृत्तियां भी देता है। इसी सन्दर्भ में उन दो संस्थाओं को अभी हाल में ही ‘योग विश्वविद्यालय’ की मान्यता दिये जाने का उल्लेख भी आवश्यक है जो सीधे-सीधे ज्योतिष और कर्म-काण्ड से तो नहीं जुड़े हैं परन्तु फिर भी पुजारियों की अनवरत आपूर्ति सुनिश्चित करने में जिनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। वे संस्थाएं हैं- बेंगलुरु स्थित स्वामी विवेकानन्द योग अनुसन्धान संस्था जिसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने 2001 में मान्यता प्रदान की थी, और मुंगेर फ़ोर्ट, बिहार स्थित बिहार योग भारती जिसे 2000 में विश्वविद्यालय के समकक्ष होने की मान्यता मिली।
पुरोहित-प्रशिक्षण संस्थानों के इस उलझे हुए ताने-बाने में दो और धागे भी हैं। केन्द्र सरकार उज्जैन स्थित महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान को वित्तपोषित करती है जो देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उगती ग़ैर सरकारी वैदिक पाठशालाओं और गुरुकुलों को मान्यता और धन उपलब्ध कराने वाली संस्था के रूप में कार्य करता है। इन गुरुकुलों का मानकीकरण और उदीयमान पुरोहितों के लिए परीक्षाएं आयोजित करना इस संस्था के कार्यभारों में से हैं। इस संस्था से मान्यता मिलना गुरुकुलों की दुकान चलाने के लिए माने रखता है।
पूर्वोक्त मानद विश्वविद्यालयों के अलावा भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुमोदित राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों की एक श्रेणी है जिसमें मध्यप्रदेश स्थित महर्षि महेश योगी का विश्वविद्यालय और रामटेक, महाराष्ट्र स्थित कवि कुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय शामिल हैं। इन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से विश्वविद्यालय की पदवी स्थापना के पश्चात नहीं मिली अपितु इनकी तो स्थापना ही इनके प्रान्तीय विधान-मण्डलों द्वारा अपने आप में सम्पूर्ण विश्वविद्यालयों के रूप में की गई थी और बाद में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्रदान कर दी गई।
महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय की स्थापना कांग्रेस मुख्यमन्त्री दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में 1995 में राज्य विधानमण्डल के सर्वसम्मत प्रस्ताव द्वारा की गई थी। ऐसा महेश योगी को मध्य प्रदेश के अपने धरतीपुत्र के रूप में सम्मानित करने के लिए किया गया था। यह संस्था सभी तरह के वैदिक ज्ञान में पीएच-डी आदि उच्च शैक्षिक उपाधियों का स्रोत बन चुकी है। इसके अनेक स्नातकों ने आगे चल कर कई मुनाफ़ा कमाने वाले उद्योग स्थापित किये और/या वास्तुशास्त्रियों, ज्योतिषियों, रत्नशास्त्रियों इत्यादि के तौर पर अकादमियों की स्थापना की।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की मान्यता प्राप्त ये राज्य-स्तरीय विश्वविद्यालय और योग विश्वविद्यालय देश भर में जहां-तहां उगते छोटे-मोटे गुरुकुलों और वैदिक पाठशालाओं के लिए अन्तिम सीढ़ी की भूमिका निभाते हैं। इनमें से कई पौरोहित्य पाठशालाएं छोटे-छोटे साधनहीन लड़कों (लड़कियां निषिद्ध हैं) को प्रवेश देकर उन्हें पारम्परिक कर्मकाण्ड का प्रशिक्षण देते हैं। पर क्योंकि वे अकादमिक डिग्रियां प्रदान करने के लिये अधिकृत नहीं हैं अतः वे अपने छात्रों को किसी भी ऐसे मानद या मान्यताप्राप्त राज्य-स्तरीय विश्वविद्यालय में भेज देते हैं जिसकी विशेषज्ञता योगिक अथवा वैदिक विज्ञानों में हो जिनके दायरे में मोटे तौर पर ज्योतिष से लेकर योग तक सभी कुछ आ जाता है। इससे पुजारियों और कर्मकाण्डियों के रूप में देश-विदेश के बाज़ारों में उनके विद्यार्थियों की ‘मार्केटेबिलिटी’ बेहतर हो जाती है।
ये सही है कि संस्कृत की शिक्षा का हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डों से गहरा सम्बन्ध है और कई बार दोनों को अलग-अलग करना कठिन होता है। यज्ञ या पूजा संस्कृत की डिग्री प्राप्त करने के लिये यजुर्वेद के अध्ययन का एक प्रायोगिक पहलू मात्र है। परन्तु संस्कृत में लिखे धार्मिक साहित्य के अध्यापन और कर्मकाण्डों के अध्यापन के बीच में कोई सीमारेखा खींचने का प्रयास करने के स्थान पर भारतीय शिक्षा व्यवस्था ठीक विपरीत दिशा में मुड़ गई है। यह संस्कृत और हिन्दू दर्शन की शिक्षा की आड़ में जनता के पैसे और संसाधनों का उपयोग हिन्दू कर्मकाण्डों को बढ़ावा देने के लिए कर रही है।
अगर भारत अपने सार्वजनिक संसाधन मानद विश्वविद्यालयों के माध्यम से बहुमत के धर्म को प्रोत्सहित करने में झोंकता है तो क्या वह ख़ुद को एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य कह सकता है?
shabhar hashiya।blogspot।in/
2 टिप्पणियां:
हज़ार वर्षों की गुलामी....हजारों वर्षों का अंधविश्वास...हर चमकती चीज़ को सोना मान लेने की मानसिकता....किसी भी धार्मिक मुद्दे पर खामोशी...यही होना है, यही होता रहेगा क्योंकि सरकार में बैठे लोग भी तो मंत्रमुग्ध हैं.
Achha shashakt vishleshan.
DHANYAVAD
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