चाहता था
आ बसे माँ भी
यहाँ, इस शहर में।
पर माँ चाहती थी
आए गाँव भी थोड़ा साथ में
जो न षहर को मंजूर था न मुझे ही।
न आ सका गाँव
न आ सकी माँ ही
शहर में।
और गाँव
मैं क्या करता जाकर!
पर देखता हूँ
कुछ गाँव तो आज भी ज़रूर है
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका।
माँ आती
बिना किए घोषणा
तो थोड़ा बहुत ही सही
गाँव तो आता ही न
शहर में।
पर कैसे आता वह खुला दालान, आंगन
जहाँ बैठ चारपाई पर
माँ बतियाती है
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से।
करवाती है मालिश
पड़ोस की रामवती से।
सुस्ता लेती हैं जहाँ
धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़कर
किसी लोक गीत की ओट में।
आने को तो
कहाँ आ पाती हैं वे चर्चाएँ भी
जिनमें आज भी मौजूद हैं खेत, पैर, कुएँ और धान्ने।
बावजूद कट जाने के कालोनियाँ
खड़ी हैं जो कतार में अगले चुनाव की
नियमित होने को।
और वे तमाम पेड़ भी
जिनके पास
आज भी इतिहास है
अपनी छायाओं के।--दिविक रमेश
5 टिप्पणियां:
आपकी माँ हमारे दिल में बस गई ! श्रेष्ठ अभिव्यक्ति ! बधाई !
आपकी माँ हमारे दिल में बस गई ! श्रेष्ठ अभिव्यक्ति ! बधाई !
dil ko chhoo lene wali rachna
मर्मस्पर्शी रचना
लाजवाब
हृदय से आभारी हूं।
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