सदियों तक नारी को उसके पहचान से दूर रखा गया सिर्फ पुरूषों की गुलाम बनाकर घर की चार-दीवारों में कैद करके आज नारी ने उस चारदीवारी से बाहर निकलकर जिम के हर टुकड़े पर कदम बढ़ाया है जहां सिर्फ पुरूषों की पहचान थी। उसने अपनी अलग पहचान बनी। हर क्षेत्र में लेकिन उसके साथ होने वाले अत्याचार का सिलसिला अभी भी थमा नहीं, नारी उत्पीड़न के मामले बढ़े भले न हों, लेकिन कम भी नहीं हुए हैं। आंकड़ो पर नजर डाले तो पता चलता है-
1- प्रत्येक चौथे मिनट पर एक महिला का उत्पीड़न।
2- प्रत्येक 15 मिनट पर एक महिला से छेड़छाड़।
3- लगभग प्रत्येक घण्टे पर एक महिला यौन उत्पीड़न का शिकार।
4- प्रत्येक 77 मिनट में एक दहेज हत्या।
5- प्रत्येक 29 मिनट में एक बलात्कार।
हालांकि महिला उत्पीड़न को रोकने के लिएि कई कानून बने, लेकिन महिलाओं के साथ होनी वाली घरेलू हिंसा के मामले रूके नहीं या यूं कहिए कि पुरूषों ने उनसे बच निकलने के रास्ते तलाश लिए। लेकिन अब जो नया ‘ घरेलू हिंसा कानून 2006 ‘ लागू हुआ है उससे उनके बच निकलने के रास्ते बन्द हो गये।
कानून लागू होने के बाद नारी उत्पीड़़न के मामलें में कमीं आएगी। इस कानून का उद्देश्य ऐसी महिलाओं को उनके घरों, बाजारों और कार्य परिवार में होने वाली शारीरिक मौखिक तथा आर्थिक प्रताड़ना से सुरक्षित करना है।
महिलाओं में जहां एक ओर अपहरण के मामलों में संलिप्तता बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर लड़कियों को अपनी बातों में फंसाकर कुछ गैंग उन्हें वैश्यावृत्ति जैसे घिनौने धन्धे में धकेल देते हैं। आंकड़ो के मुताबिक देश में 87 गैंग ऐसे हैं जिनमें लगभग 359 सदस्य लड़कियों व महिलाओं का अपहरण कर उन्हें वैश्यावृत्ति के पेशे में धकेलने में लगे हुए हैं। इन गैंग के कुछ पुरूष सदस्य बिहार, पश्चिम बंगाल, असम आदि राज्यों से गरीब व कम उम्र की लड़कियों की शादी रचाकर उपनी साथ ले जाते हैं। फिर बाद में उन्हें दिल्ली, मुम्बई व कोलकाता के कोठे पर ले जाकर ऊंची कीमत पर बेच देते हैं। देश के 6 महानगरों के प्रतिवर्ष लगभग 3500 महिलाएं लापता हो जाती हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञों के एक दल की राय रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में वर्ष 1992 में 141 महिलाएं 1998 में 2803, 1999 में 2809, 2001 में 2116 महिलाएं जबकि मुम्बई में वर्ष 2010 में 2904, 2011 में 2114 , महिलाओं की गुमशुदा होने की सूचना मिली। इसके अलावा हैदराबाद, कोलकाता, बंगलौर व चैन्नई में यह संख्या क्रमशः 265, 228, 784 और 456 रही। इन महानगरों में वर्ष 2000 में क्रमशः 289, 284, 815 और 415 महिलाएं आपता हुई, अपहरण करने वाले 87 गैंग देश में 18 राज्यों में सक्रिय हैं। इनमें से सबसे ज्यादा असम में 25 दिल्ली में 15 व महाराष्ट्र में 12 गैंग महिलाओं व लड़कियों को वैश्यावृत्ति के दलदल में धकेलने का काम कर रहे हैं। महिलाओं की घरेलू स्थिति तो अभी भी चिन्ताजनक है आज भी लाखों की संख्या में महिलाएं घरेलू हिंसा झेल रही हैं। जिनमें पढ़ी-लिखी व कामकाजी महिलाएं भी शामिल हैं, महिलाओं को कोई फैेसला लेने से पूर्व घर के पुरूष से अनुमति आज भी लेनी पड़ती है। सैकड़ों लड़कियां दहेज की बलि चढ़ाई जा रही हैं न सिर्फ निम्न वर्ग बल्कि उच्च वर्ग की कामकाजी महिलाएं भी दहेज से श्रापमुक्त नहीं है। विकास के कई पायदान चढ़ने के बाद भी हमारा समाज लड़का और लड़की के फर्क को छोड़ नहीं पाया है। कन्या भू्रण हत्या बदस्तूर जारी है तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद बेटे की चाहत में बेटियों की बलि देने का सिलसिला भी थमा नहीं जब बच्चियां गर्भ में ही सुरक्षित नहीं हैं तो बाहर क्या होगीं।
महिलाओं की घरेलू हिंसा तो और भी चिन्ताजनक है आज भी लाखों की संख्या में महिलएं घरेलू हिंसा झेल रहीं हैं। जिनमें पढ़ी-लिखी व कामकाजी महिलाएं भी शामिल हैं, महिलाओं को कोई फैसला लेने से पूर्व घर के पुरूष से अनुमति आज भी लेनी पड़ती है। सैकड़ों लड़कियां दहेज की बलि चढ़ाई जा रही है सिर्फ निम्न वर्ग बल्कि उच्च वर्ग की कामकाजी महिलाएं भी दहेज से श्रापमुक्त नहीं है। विकास के कई पायदान चढ़ने के बाद भी हमारा समाज लड़का और लड़की के फर्क को छोड़ नहीं पाया है। कन्या भ्रूण हत्या बदस्तूर जारी है तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद बेटे की चाहत में बेटियों की बलि देने का सिलसिला भी थमा नहीं जब बच्चियां गर्भ में ही सुरक्षित नहीं हैं तो बाहर क्या होगी।
2011 की जनगणना से जो तथ्य मिले हैं उनके हिसाब से 1,000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या घटकर 927 रह गई है, जिससे साबित होता है कि लड़की के प्रति आज भी समाज में वैसी ही चाह नहीं जैसी पुत्र प्राप्ति के लिए होती है। यदि यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आ सकता है, जब लड़की का अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा।
महिलाओं के प्रति अपराधिक घटनाओं में तो आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोत्तरी हुई है। 1995 से लेकर अब तक महिलाओं के साथ आपराधिक मामलों में 55 फीसदी इजाफा हुआ है। घर, स्कूल, चिकित्सालय, यात्रा हर जगह महिलाओं की सुरक्षा का सवाल उठ रहे हैं। अबोध बच्चियों के साथ आये दिन हो रहे दुष्कर्म की घटनाएं भी समाज को कलंकित कर रहीं है। विडम्बना यह है कि समाज के कई प्रावधानों के बावजूद सरकार या प्रशासन दुष्कर्म की घटनाओं पर रोक नहीं लगा पा रहे हैं, सरकारी आंकड़ो की माने तो देश के मैट्रों शहरों में एक लाख से ज्यादा महिलाएं किसी न किसी मजबूरी के तहत अपना जिस्म बेचती हैं। मुख्य रूप से इसका कारण आर्थिक गरीबी है।
अगर हम चाहते है कि स्त्री का व्यक्तित्व विकास बेहतर तरीके से हो वह पड़ लिखकर आत्म निर्भर बने और किसी भी कारण से उसे अपने चारित्रिक आदर्श से समझौता नकरना पड़े तो हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा। जब तक नारी को भोग की वस्तु समझा जाएगा तब तक नारी के अस्तित्व में फर्क आना नामुमकिन है। अगर परिवारों में लड़की के जन्म के साथ ही उसके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार शुरू कर दिया जाता है। यह भेदभाव घर में ही नहीं कार्य स्थल पर भी दिखता है। हालांकि जबकि स्वार्थ स्वयं की सिद्ध करने का मौका प्रदान किया गया। स्त्री ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की इसलिए महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना बहुत जरूरी है। उन्हें स्वतन्त्रता देनी होगी।
स्वतन्त्रता से हमारा तात्पर्य रचनात्मक प्रतिभा से है। वहीं महिलाओं को भी यह समझना होगा कि सफलता का कोई शोर्टकट नहीं होता। आजकल पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में महिलाएं भी अपनी राह से भटक कर रही हैं जो गलत है। महिलाओं के विकास के संदर्भ में जहां तक कानून की बात है तो कागजों में तो कई कानून बने है। लेकिन उनका उचित लाभ महिलाओं को कभी नहीं मिल पाया आज कानून से ज्यादा सामाजिक समर्थन और जागरूकता की जरूरत है। इस कानून की परिधि जितनी व्यापक है। इसके तेवर भी उतने ही आक्रामक हैं, हिंसा का प्रत्येक प्रतिरूप इसमें सम्मिलित किया गया है। इस कानून के तहत दोषी पाये जाने पर आरोपी को कुछ सालों की जेल की हवा तो खानी ही पड़ेगी। साथ ही अच्छा खासा जुर्माना भी भरना पड़ेगा। इतना ही नहीं अगर किसी केस से सम्बन्धित अधिकारी को अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाही अथवा आरोपी से मिला हुआ या सुरक्षा आदेश की उल्लंघन करते पाया गया तो उसे भी कम से कम एक वर्ष की सजा तथा अधिकतम 20 हजार रूपये का जुर्माना भी भरना पड़ेगा।
राष्ट्रीय अपराध सांख्यिकी की रिपोर्ट के अनुसार देश में हर देा घंटे में रेप, दो अपहरण , चार छेड़खानी और पतियों या सगे-सम्बन्धियों द्वारा सात महिलाओं को मारने-पीटने की घटनाएं घटती हैं। अपराधियों को सजा सुनाई जा सकती है। पर सबूतों के अभाव में अपराधी कानूनी चक्रव्यूह को तोड़कर बरी हो जाता है। महिलाएं सबसे अधिक इसी का शिकार आज बन रहीं हैं तो वह दहेज उत्पीड़न जो कि आगे चलकर दहेज हत्या का रूप ले लेता है, मिट्टी का तेल छिड़ककर जिन्दा जलाई गई, जलाकर मारी गई बहुओं की पीड़ा शायद समाज और कानून के कानों तक नहीं पहुंच पा रही है। इसके पीछे सबसे, बड़ा कारण यह है कि लड़कियों को उनकी ताकत और उनके अधिकारों के बारे में जानकारी ही नहीं है।
अभी भी अशिक्षा महिलाओं के लिए अभिशाप बनी हुई हैं। अशिक्षित होने के कारण उन्हें अपनी ताकत और अधिकारों का ज्ञान ही नहीं है और वे आसानी से घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं। देश में उत्पीड़न के आंकड़ों को ग्राफ बड़ा होता जा रहा है। दरअसल, दहेज एवं आसानी से यौन हिंसा का शिकार बनाए जाने की लड़कियो की विवशता ही समाज में कन्या संतान से छुटकारे की एक वजह है। यह जानते समझते हुए कि स्त्री के बिना किसी मानव समाज की कल्पना ही संभव नहीं है। कन्या भ्रूण से पिण्ड छुड़ाने की प्रवृत्ति आखिर समाज में किस भय का प्रतिफल है? यह जानना रोचक हेगा कि रोजमर्रा के जीवन में किसी सामान्य परिवार का कामकाज बिना कन्या सन्तान के नहीं चलता। देश के 46 प्रतिशत घरों में लड़कियां छोटै भाई-बहनों का संभालने में ही अपना बहुमूल्य बचपन गुजार देते हैं। केरल में 41 प्रतिशत बच्चियों का बचपन तो ऐसे ही गुजरता है। लड़कियों के प्रति भेदभाव के अध्ययन बताते हैं कि 48 प्रतिशत लड़कियां मानती हैं कि उनके माता-पिता लड़कों की अपेक्षा कम महत्व देते है। बच्चों के अत्याचार के 83 प्रतिशत मामले घरेलू होते है और इसमें ज्यादा प्रतिशत लड़कियों का ही होता है। यानि घूम- फिरकर अपने खुद के घर से लेकर पति के घर तक अत्याचार के केन्द्र में लड़कियां ही ला खड़ी की जाती है। इसी का ही नतीजा है कि लड़कियों में जहां अपनी लड़की होने में कमतरी एवं असुरक्षा का एहसास चरम पर पहुंच चुका है। स्त्री पुरूष अनुपात में बढ़ती खाई की दृष्टि से राजस्थान व पंजाब काफी ऊपर है।
राजस्थान तो अब लड़कों की शादी में अब लड़कियां ही नहीं मिल रही हैं। मगर इस मामले में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, बिहार व महाराष्ट्र में भी कोई अब पीछे नहीं है। और तो और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में 10 वर्ष के अन्दर किये गये सर्वेक्षण के अनुसार 10 वर्ष पूर्व प्रति 1000 पुरूषों के मुकाबले 940 महिलाओं की तुलना में साल बाद गिरावट आ गयी है और अब महिलाओं की संख्या 913 प्रति 1000 पुरूष हो गयी है।
यह पुरूष प्रधान समाज है और वह पुरूषों के आगे झुककर रहे और उनका सम्मान करें। इस प्रकार वह कठोर मानसिक और शारीरिक पीड़ा एक परम्परा के रूप में चलती चली जाती है, लेकिन यह सरासर गलत है। बस आवश्यकता है तो इन गलत धारणाओं से निकलकर अपनी शक्ति को पहचानने की। गांव में महिलाओं को अभी भी शिक्षा से वंचित रखा जाता है। उनका सारा जीवन चहरदीवारी में कैद रहकर खत्म हो जाता है, इन सबसे परे आज अधिकांशतः दहेज हत्या और उत्पीड़न की शिकार युवतियां हो रही हैं। जो पढ़ी-लिखी हैं और साथ ही कार्यरत भी है, अब सवाल यह उठ रहा है कि शिक्षित होते हुए भी वह कैसी बन जाती हैं, उत्पीड़न व हत्या का शिकार? हाई-प्रोफाइल सोसाइटी का हिस्सा होना, जो कि उन्हें सबकुछ सहने पर मजबूर कर देता है। बदनामी के डर से वह अन्दर ही अन्दर घुटती रहती है। पर कुछ नहीं कहतीं, क्योंकि इससे उनका नाम और औहदा दोनों प्रभावित हो सकता है। आज बड़े-बड़े घरों का यही हाल है। बाहर से देखने में सब कुछ ही सुहावना लगता है।
घरेलू हिंसा निरोधक कानूनः-
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि, ‘‘ 1995 में जब हिन्दू विवाह अधिनियम बना तब से तलाक के मामले में बाढ़ सी आ गयी है।‘‘ हालांकि यह बात गंभीरतापूर्वक नहीं कही गई थी, लेकिन यह कहने में संकोच नहीं किया जा सकता है कि इस अधिनियम के पहले स्त्रियों की स्थिति वास्तव में कमजोर थी उनका महत्व उनकी उपयोगिता पर निर्भर था।
घरेलू हिंसा
इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए प्रत्युत्तरदाता का कोई कार्य लोप, या कार्यकरण या आचरण, घरेलू हिंसा गठित करेगा यदि वह-
{क} व्यथित व्यक्ति के स्वास्थ, सुरक्षा, जीवन, अंग की या चाहे उसकी मानसिक या शारीरिक स्वास्थ की अपहानि करता है, या उसे कोई क्षति पहुंचाता है या उसे संकटापन्न करता है या उसकी एैसा करने की प्रवृत्ति है जिसके अन्तर्गत शारीरिक दुरूपयोग, लैंगिक दुरूपयोग, मौखिक और भावनात्मक दुरूपयोग और आर्थिक दुरूपयोग कारित करना भी है, या
{ख} किसी दहेज या अन्य सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति के लिए किसी विधि विरूद्ध मांग की पूर्ति के लिए उसे या उससे सम्बन्धित किसी अन्य व्यक्ति को प्रपीडित करने की दृष्टि से व्यथित व्यक्ति को तंग करता है या उसकी अपहानि करता है या उसे क्षति पहुंचाता हेै या संकटापन्न करता है या
{ग} खण्ड {क} या खण्ड {ख} में वर्णित किसी आचरण द्वारा व्यथित व्यक्ति या उससे संबंधित किसी व्यक्ति पर धमकी देने का प्रभाव रखता है, या
{घ} व्यथित व्यक्ति को, अन्यथा क्षति पहुंचाता है या उत्पीड़न करता है, या चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक हो।
घरेलू हिंसा कानून कई तरह के मामलों में स्त्रियों को मदद दे सकता है। हमारे पास ससुराल और पति पक्ष से पीडि़त होने वाली स्त्रियों का दो दहेज के कारण ही नहीं, बल्कि कई छोटी-छोटी बातों के कारण तकलीफ झेलती हैं। जिन्हें समझ में नहीं आता कि ऐसी स्थिति में क्या करें।
‘ लिव इन रिलेशनशिप ‘ में भी घरेलू हिंसा कानून महिला को वही अधिकार प्रदान करता है, जो किसी विवाहित महिला को हासिल है। यह बात भारतीय संस्कृति के संदर्भ में उचित नहीं है। इसका अर्थ यह है कि कानून ऐसे रिश्तों को मान्यता देता है जो सभ्य समाज के लिए घातक है।
घरेलू हिंसा कानून के अन्तर्गत शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना को भी हिंसा माना गया है। कोई भी पीडि़ता सीधे मजिस्ट्रेट के सम्मुख फरियाद कर सकती है और अदालत आरोपी को 3 दिन के भीतर नोटिस जारी कर सकती है।
तीस हजारी कोर्ट (दिल्ली) के अधिवक्ता पंकज कुमार कहते हैं कि अगर कोई जानबूझ कर दूसरे पर शारीरिक अत्याचार करता है तो उसे भादवि की धारा 321, 322, व 323 के तहत जेल में बन्द किया जा सकता है। भादवि का धारा 319 व 320 के तहत मामला दर्ज हो सकता है। अगर किसी को कोई गलत तरीके से नजरबन्द करके रखता है तो उस पर भादवि की धारा 339, 340 और 341 लगेगी। यदि हम संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष 2005 के आंकड़ों को देखे तो भारत में 15 से 49 साल तक उम्र वाली 70 प्रतिशत विवाहित महिलाएं मारपीट, बलात्कार की शिकार हैं। वैसे महिलाओं के लिए पुलिस विभाग में अलग से महिला अपराध सेल है। राष्ट्रीय और राज्य महिला आयेाग के अलावा पारिवारिक अदालतें भी हैं।
फिर पिता की सम्पत्ति पर बराबर के हक का भी औरतों को अधिकार है। इनके अलावा इस कड़ी में अब घरेलू हिंसा कानून 2007 भी जुड़ गया है। केन्द्र सरकार घरों में औरतों के साथ होने वाले शोषण और हिंसा के खिलाफ एक नया कानून लेकर आई है ताकि महिलाओं क लिए कानून संरक्षण का दायरा अधिक व्यापक और बलशाली बनाया जा सकता है। समय के साथ-साथ समाज बदल रहा है। लेकिन यह भी सच है कि आज भी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं। कहीं ननद अपनी भाभी को पीट रही है, तो कहीं कोई बहू अपनी सास की प्रताड़ना झेल रही है, लेकिन अब घरेलू हिंसा कानून के अमल में आने से उनके प्रति हिंसात्मक वारदातों में कमी की सम्भावना है।
भारतीय नारी अनादिकाल से अभिसप्त एवं संतृप्त चजी आ रही है। जैसे-जैसे समय बीतता गया उसकी स्थिति में सुधार तो आया परन्तु अभिसप्तता एवं संतृप्तता में वृद्धि होती गयी। वर्तमान समाज प्रगतिशीलता के रूप में देखा जाने लगा। परन्तु नारी की स्थिति में शोषण का भाव बढ़ता गया है। नारी के समबन्घ में सोच यह बन गया है कि उसका पुरूष के नीचे स्थान है। नारी की अंतर्मन से यह स्वीकार कर लिया है कि पुरूष उसके आराध्य हैं। वह पुरूष भी श्रेष्ठता को स्वीकार ली। दहेज दानव उसके अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया। अनेक अत्याचारों को स्वरूप बन गया और वह एक पुरूष की सम्पत्ति बन गयी। अनेक महिला संगठन के विरोध के परिणामस्वरूप इनकी स्थिति नहीं सुधरी।
इस जटिल स्थिति में सुधार हेतु नारी हिंसा अधिनियम 2007 आया एवं उससे नारी हिंसा में कमी आयेगी यह विश्वास समाज को होने लगा, देश के कुछ हिस्सों में पुरूष समाज परेशान किया जा रहा है। परन्तु अब नारी हिंसा अधिनियम से यह बात स्पष्ट हो गयी है कि देश की कार्य योजित महिलाएं कम से कम इस मानवीय नारी हिंसा से निजात पा लेंगी, लेकिन आंकड़ों से अभी तस्वीर बहुत साफ नहीं है। वर्तमान शोध पत्र नारी घरेलू हिंसा पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। यह भी स्पष्ट है कि देश की आधी आबादी कम से कम पुरूष गुलामी से निजात पा लेगी फिर भी भारतीय नारी घरेलू हिंसा अधिनियम का इस्तेमाल सिर्फ अपनी अस्मिता के लिए ही कर रही है। कहीं से भी पुरूष को बदनाम करने का तनिक भी भावना उसके दिल में नहीं है।
यहां पर यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि अकेले पुरूष ही नारी शोषण एवं हिंसा के लिए जिम्मेदार नहीं है। अपितु उस नारी की सास, ननद एवं देवरानी, बुआ आदि के रूप में खुद नारी ही बनकर हिंसा को बढ़ावा देती है। नारी को खुद इन रूपों में रहते हुए भी इन उपाधियों में नारी सोच बदलना होगा तभी घरेलू हिंसा अधिनियम फलित होगा।
संजय कुमार, शोध छात्र, समाजशास्त्र विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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