-सनल इडामारूकू
जहाँ एक ओर समेले इडामरक्कू नामक तार्कितावादी, “धार्मिक विश्वासों को चोट पहॅुचाने“ के आरोप में कानूनी कार्यवाही का सामना कर रहे हंै वहीं दूसरी ओर, निर्मल बाबा पर धोखाधड़ी करने के आरोप हैं। निर्मल बाबा का दावा है कि वे दैवीय शक्तियों के स्वामी हैं। उनके कार्यक्रम 40 से अधिक टी.व्ही. चैनलों पर प्रसारित होते हैं और उनकी “कृपा“ प्राप्त करने के लिए बाकायदा पैसा भी चुकाया जाता है। निर्मल बाबा के पास आपकी और मेरी हर समस्या का दैवीय हल मौजूद है। एक स्थानीय अदालत ने पुलिस को निर्मल बाबा के विरूद्ध धोखाधड़ी का मामला दर्ज करने का आदेश दिया है। यद्यपि सेमेल इडामरक्कू और निर्मल बाबा के मामले अलग-अलग धर्मों से संबंधित हैं तथापि उनके बीच गहरा रिष्ता है।
इडामरक्कू यह साबित करने में सफल रहे कि मुंबई के इरला इलाके में, क्रास पर टंगे यीशु की मूर्ति के पैरों के बीच से निकल रही पानी की धार कोई दैवीय चमत्कार नहीं था। दूर-दूर से श्रद्धालु इस चमत्कार को देखने और दैवीय पानी का सेवन करने उस चर्च में पहँच रहे थे। इडामरक्कू ने पता लगाया कि दरअसल, चर्च के पास से बह रही एक नाली चोक हो गई थी और उसका पानी “केपिलरी एक्षन“ के जरिए ऊपर चढ़ कर मूर्ति के पैरों के बीच से बह रहा था। इडामरक्कू के अपने समुदाय के लोग उनसे बहुत नाराज हैं। उनका कहना है कि इडामरक्कू ने उनकी आस्था को चोट पहुँचाई है।
निर्मल बाबा उर्फ निर्मलजीत सिंह नरूला ने अपने जीवन की शुरूआत व्यवसायी के रूप में की। उनका धंधा चला नहीं और सन् 1970 के आसपास वे अचानक गायब हो गए। जब वे वापस लौटे तो वे दैवीय शक्तियों से लैस थे। पहले उन्होंने पैसे खर्च कर टी.वी. चैनलों पर समय खरीदा। उनके षो में शामिल श्रोताओं को अपनी समस्याओं के बारे में उनसे प्रश्न पूछने के लिये पैसे दिए जाते थे। जब धंधा चलने लगा तो लोगों से “निर्मल दरबार“ में हिस्सा लेने के लिए पैसे वसूले जाने लगे। “निर्मल दरबार“ में बाबा अपने भक्तों की समस्याओं का हल सुझाते थे और इसके बदले हजारों रूपये लेते थे। कुछ ही सालों में निर्मल बाबा अरबपति बन गए और उन्होंने करोड़ों की सम्पत्ति अर्जित कर ली।
जो लोग यीशु मसीह के पैरों से बह रहे नाली के पानी को श्रद्धापूर्वक पीते थे उन्हें उस पानी का असली स्त्रोत बताना, उनके धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुँचाना था! निर्मल बाबा से अपनी समस्याओं का हल चाहने वाले सैकड़ों लोग भी आस्था और विशवास के कारण ऐसा करते थे। अक्सर, विष्वास और अंधविश्वास के बीच की विभाजक रेखा बहुत अस्पष्ट होती है। आस्था और तार्किकता के बीच हमेशा आपसी संघ चलता रहता है। अज्ञात और अदृश्य ताकतों में विशवास और भविष्य के बारे में चिंता, अतार्किक आस्थाआने का मुख्य स्त्रोत हंै। इस आस्था के केन्द्र में है विभिन्न धर्मगुरूओं की तथाकथित दैवीय शक्तियां और दर्जनों स्वनियुक्त बाबा और भगवान। महामारियां, सूर्य एवं चन्द्रग्रहण और हमारी पृथ्वी के आकार जैसे मामलों में पिछली कुछ सदियों में आस्था का स्थान तार्किकता ने ले लिया है। आज हम में से अधिकाँश जानते हैं और मानते भी हैं कि महामारियाँ ईश्वरीय प्रकोप से नहीं फैलतीं और न ही राहू-केतू के कारण ग्रहण होते है।
इसके बावजूद, राजनीति सहित कई ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें आज भी आस्था और विशवास का बोलबाला है। राममंदिर आन्दोलन आमजनांे की आस्था के दोहन का एक उदाहरण है। शरीयत के नाम पर सड़ी-गली मान्यताओं और प्रथाओं से चिपके रहना इसका एक अन्य उदाहरण है।
गुजरे समय में प्राकृतिक घटनाओं को भी आस्था से जोड़ा जाता रहा है। यह माना जाता था कि धरती चपटी है और इस संसार की रचना ईश्वर ने की है। ये बातें सही नहीं हैं परंतु इस तरह के किसी को हानि न पहुंचाने वाले विशवास और लोगों की आस्था को सुनियोजित ढंग से एक दिशा में मोड़कर टी.वी. और मीडिया के एक हिस्से के माध्यम से इसे व्यवसाय बना कर उससे अरबोे रूपये कमाने में बहुत फर्क है। हमें यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि आज के समाज में आमजन स्वयं को अत्यन्त असुरक्षित अनुभव करते हैं और आस्था उन्हें जीवन की कठिनाईयों से जूझने की भावनात्मक ताकत देती है। इस सबके बावजूद हमें कही न कही एक रेखा खींचनी होगी। हमें यह कोशिश करनी होगी कि वैज्ञानिक सोच-जिसे बढ़ावा देने की बात हमारा संविधान भी करता है-की समाज में स्वीकार्यता बढ़े।
निर्मल बाबा के मामले में पुलिस और प्रषासन की नींद टूटी है और उनके विरूद्ध मामला दर्ज किया गया है। दूसरी ओर, समाज और राज्य को इडामरक्कू और उनके जैसे अन्य लोगों को कानून के पंजे से बचाने की कोशिश करनी चाहिए। “दूसरों की आस्था को चोट पहुँचाने“ संबंधी काूनन का इस्तेमाल इस तरह से होना चाहिए की भारतीय संविधान की तार्किक सोच को बढ़ावा देने की मंशा भी पूरी हो सके और इडामरक्कू जैसे लोगों को संरक्षण मिले। निर्मल बाबा के मामले में मीडिया को भी आत्मचिंतन करना चाहिए। आखिरकार, निर्मल बाबा को भगवान बनाने में मीडिया की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
यह कहना गलत होगा कि निर्मल बाबा की गतिविधियां धार्मिक हैं और इडामरक्कू की धर्म-विरोधी। यह मान्यता धर्म की गलत समझ पर आधारित है। हर धर्म की आत्मा है वे नैतिक सिद्धांत जिनका प्रतिपादन पैगम्बरों और अन्य धार्मिक नेताओं ने समय-समय पर किया। संस्थागत धर्म और शरीयत व कर्मकाण्डों को धर्मगुरूओं ने धर्म का हिस्सा बनाया है। इन धर्मगुरूओं के अपने निहित स्वार्थ होते हैं और वे नहीं चाहते कि आमजन तार्किक ढंग से सोचें और धार्मिक मसलों पर बहस करें। हर धर्म के पैगम्बरों ने तत्कालीन समाज में प्रचलित बुराईयों के खिलाफ संघर्ष किया। वे न्याय के लिए लड़े। उनके नाम पर जिस संस्थागत धर्म की स्थापना की गई वह बुराईयों के खिलाफ संघर्ष नहीं करता उल्टे वह बुराईयों और यथास्थितिवाद का पोशक है। वह ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना चाहता है जिसमें चन्द लोग आनंद करें और बाकी कष्ट में अपना जीवन काटें। इतिहास गवाह है कि वैज्ञानिकों और तार्किक सोच रखने वालों को धर्मगुरूओं के कोप का षिकार होना पड़ा है। गैलिलियो को इसलिए सजा दी गई थी क्योंकि उन्होंने कहा था कि धरती गोल है। जिन लोगों ने यह कहने का साहस दिखाया कि महामारियां ईश्वरीय प्रकोप का नतीजा नहीं होतीं, उन्हें जमकर प्रताडि़त किया गया।
हर धर्म का पुरोहित वर्ग तार्किक सोच का घोर विरोधी रहा है क्योंकि इससे उनके विशेषाधिकार प्रभावित होते हैं। जहां यूरोप के समाज ने अंधश्रद्धा के विरूद्ध लड़ाई में लगभग विजय प्राप्त कर ली है वहीं हम भारतीय आज भी अंधविश्वासों के मकड़जाल से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाए हैं। आधुनिक भारतीय इतिहास का कोई भी अध्येता यह जानता है कि जोएतिबा फुले, अम्बेडकर, पेरियार रामास्वामी नाईकर और भगतसिंह जैसे लोग, जो सामाजिक परिवर्तन और न्याय के हामी थे, में एक बात समान थी-उन सबकी सोच तार्किक थी। इसके विपरीत वे लोग जो सामाजिक रिश्तों को जस का तस बनाए रखना चाहते थे उन्होंने हमेशा धर्म का सहारा लिया। धर्म के नाम पर उन्होंने पहचान-आधारित मुद्दों को खोद निकाला और उनका इस्तेमाल अपने प्रभाव को बढ़ाने और अपने विरोधियों को परास्त करने के लिए किया।
हमारे देश के अधिकाँश निवासियों की मानसिकता आज भी सामन्ती है। नई अर्थव्यवस्था के उदय, उदारीकरण और वैश्वीकरण से उत्पन्न हुए असुरक्षा के भाव से भी उन्हें जूझना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में आमजनों-विशेषकर मध्यम और उच्च वर्ग-का बाबाओं की शरण में जाना स्वाभाविक है। निर्मल बाबा तो बाबाओं की फौज के मामूली सिपाही हैं। इस फौज में कई ऐसे बाबा शामिल हैं जो निर्मल बाबा से कहीं अधिक वाकपटु, बुद्धिजीवी और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्होंने विभिन्न माध्यमों से अपने अनुयायियों की बड़ी-बड़ी सेनाएं तैयार कर ली हैं। ये भगवान आस्था के सौदागर हैं। वे आस्था, चमत्कार और आध्यात्मिकता की एक ऐसी चटनी तैयार करते हैं जिसे असुरक्षा और भविष्य के प्रति संशकित मध्यमवर्गीय लोगों को चटाकर वे अपना उल्लू सीधा कर सकें। जानी-मानी समाज वैज्ञानिक मीरा नंदा अपनी पुस्तक “गाँड मार्केट“ (भगवानों का बाजार) में लिखती हैं कि पिछले तीन दशकों में इस बाजार में जबरदस्त उछाल आया है। बाबाओं और भगवानों की भीड़ से घिरा आम आदमी मानो तार्किक ढंग से सोचने की क्षमता ही खो बैठा है। इन भगवानों के अनुयायियों में शक्तिशाली राजनेता, शीर्ष अधिकारी, डाॅक्टर, जज व अरबपति व्यवसायी शामिल हैं। ये भक्त इन भगवानों को रईस और प्रभावशाली बनाते हैं। इसके विपरीत, इडामरक्कू जैसे लोगों को प्रताडि़त किया जाता है। यही दर्शाता है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा है।
जो लोग बाबाओं की चरण-वंदना करते हैं और जो इडामरक्कू जैसे लोगों के खिलाफ मुकदमें दायर करते हैं, उन्हें परखने की कसौटी यह होनी चाहिए कि उनमें से कितने अपने-अपने धर्म की नैतिक शिक्षाओं का पालन करते हैं, उनमें से कितनों को समाज में हो रहे अन्याय और अत्याचार को देखकर गुस्सा आता है, उनमें से कितने जरूरतमंदों की मदद करते हैं। इन सभी मसलों पर बाबा और भगवान कभी अपना मुंह नहीं खोलते। इस बात की महती आवश्यकता है कि हम तार्किक और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दें और निर्मल बाबा जैसे धोखेबाजों के जाल में न फँसें। जिन तथाकथित “चमत्कारों“ की व्याख्या मान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर की जा सकती है उन्हें चमत्कार मानने से हम सबको स्पष्ट इंकार कर देना चाहिए।
-राम पुनियानी
2 टिप्पणियां:
ये संघर्ष तो सदा से चलता रहा है..और चलता रहेगा.... कौन सही है कौन गलत ये तो भविष्य के गर्भ मे छिपा है...लेकिन जहाँ तक तार्किको को मुकदमों में फँसाये जाने के बात है वह चिन्ता का विषय है क्योकि उन्हें भी अपनी बात कहने का हक होना चाहिए..
ये संघर्ष तो सदा से चलता रहा है..और चलता रहेगा.... कौन सही है कौन गलत ये तो भविष्य के गर्भ मे छिपा है...लेकिन जहाँ तक तार्किको को मुकदमों में फँसाये जाने के बात है वह चिन्ता का विषय है क्योकि उन्हें भी अपनी बात कहने का हक होना चाहिए..
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