आज जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और आर्थिक संकट का समाधान नहीं हो पा रहा है। समाजवादी अर्थ तंत्र के विशेषज्ञ जोजेफ स्तालिन ने अपनी अंतिम रचना में समाजवादी अर्थतंत्र के समस्यायों के निदान के सम्बन्ध में चर्चा की थी। इस पुस्तक को जोसेफ स्तालिन के मरने के बाद पुन: प्रकाशित नहीं होने दिया गया था। इस पुस्तक का अनुवाद श्री सत्य नारायण ठाकुर ने किया है जिसके कुछ अंश: यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं। आप के सुझाव व विचार सादर आमंत्रित हैं।
-सुमन
लो क सं घ र्ष !
द्वितीय विश्व युद्ध का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिफल और उसका आर्थिक सम्पूर्ण समय में फैला हुआ एकछत्र विश्व बाजार का विघटन समझा जाना चाहिए। इसने विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के आम संकट को और भी आगे गहरा कर दिया है।
द्वितीय विश्व युद्ध स्वयं ही संकट की उपज था। दोनों पूँजीवादी गठबंधनों में प्रत्येक ने, जिसने अपने सींग युद्ध में भिड़ाए के, सोचा था कि वे अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ देंगे और विश्व प्रभुत्व हासिल कर लेंगे। संकट के उबड़ने का उन्होंने यही रास्ता निकाला। संयुक्त राज्य अमेरिका ने आशा की थी कि वह इस दौर में अपने अत्यंत भयंकर प्रतिद्वंद्वी जर्मनी और जापान को कार्य परिक्यि के किल बाहर कर देगा, विदेश व्यापार और दुनिया के कच्चे माल के श्रोतों पर कब्जा कर लोग और इस तरह विश्व प्रभुत्व स्थापित कर लेगा।
किन्तु युद्ध ने इस आशा को उचित नहीं ठहराया। यह सही है कि तीनो बड़े पूँजीवादी देशों, सं0रा0अ0, ब्रिटेन और फ्रांस के प्रतियोगी के रूप में जर्मनी और जापान को कार्य परिधि से निकाल बाहर कर दिया गया। किन्तु ठीक उसी समय चीन औ अन्य योरपीय गणतंत्रों ने पूँजीवाद व्यवस्था से नाता तोड़ लिया और सोवियत संघ के साथ मिलकर पूँजीवादी शिविर के मुकाबले एक शक्तिशाली समाजवादी शिविर का निर्माण कर लिया। दो परस्पर विरोधी शिविरों के अस्तित्व का आर्थिक परिणाम यह हुआ कि संसार भर में छाया हुआ एक ध्रुव विश्व बाजार विघटित हो गया और इसलिए आज हमारे सामने दो समानांतर विश्व बाजार है जो एक दूसरे से टकराता भी है।
यह भी देखना चाहिए कि संयुक्त राज्य, ब्रिटेन और फ्रांस ने स्वयं ही, निश्चय ही स्वयं न चाहते हुए भी, नया समानांतर विश्व बाजार के बनाने और मजबूत करने में योगदान किया। उन्होंने सोवियत यूनियन, चीन, और योरपीय नवादी गणतंत्रों जो मार्शल प्लान में शामिल नहीं हुए, पर आर्थिक नाकेबंदी थोपी यह सोचते हुए कि इनका इस प्रकार गला घोंट देंगे। परिणाम यद्यपि यह हुआ कि इनका गला घोंटा नहीं गया, बकि नया विश्व बाजार मजबूत हुआ।
लेकिन बुनियादी बात निश्चय ही आर्थिक नाकेबंदी नहीं है, बल्कि तथ्य यह है कि युद्ध के सम से ही ये देश आर्थिक तौर पर आर्थिक सहयोग और परस्पर सहायता में जुड़ गये थे। इस प्रकार के सहयोग के अनुभव के साबित किया कि एक भी पूँजीवादी देश इतने प्रभावकारी दंग से सुयोग्य तकनीकी सहायता इन जनवादी गणतंत्रों को नहीं दे सकते थे। जैसा सोवियत संघ करते हैं। यहाँ विचार बिन्दु यह नहीं है कि यह सहायता यथासंभव सस्ता और अपेक्षाकृत उन्नत तकनीकी की है। मुख्य विचार बिन्दु यह है कि इस सहयता की तह में एक दूसरे को मदद करने और सबों की आर्थिक प्रगति सुनिश्चित करने की सच्ची अभिलाषा है। इसी का सुफल है इन देशों में हो रही तेज औद्योगिक प्रगति। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि औद्योगिक प्रगति की इस गति से जल्दी ही ये देश न केवल इस स्थिति में पहुँच जायेंगे कि इन्हें दूसरे देशों से आयात करने की जरूरत नहीं रह जायगी, बल्कि तब इन देशों को अपने अतिरिक्त माल की खपत के लिए बाहरी बाजार की दरकार होगी।
इसके साथ ही बड़े पूँजीवादी देशों (सं0रा0अ0, ब्रिटेन, फ्रांस) द्वारा दुनिया के श्रोतों का शोषण का दायरा ब़ेगा नहीं, बल्कि घटेगा। उनका व्यापार क्षत्र विस्तावितर नहीं होगा बल्कि सिकुड़ेगा। विश्व बाजार में बिक्री के उनके अवसर कम होंगे और उनके उद्योग उनकी क्षमता से नीचे काम करेंगे। सही में विश्व बाजार के विघटन के संदर्भ में विश्व पूँजीवाद के सामान्य संकट के गहराने का यही अर्थ है।
यह पूँजीपतियों द्वारा स्वयं ही महसूस किया जा रहा है। उनके लिए सोवियं संघ, चीन जैसे बाजारों के खाने का नुकसान सहन करना कष्ट दायक होगा। वे मार्शल प्लान, कोरिया युद्ध, उन्मत शस्थीकरण, औद्योगिक सैन्यीकरण आदि तरकों से उन नुकसानों की क्षतिपूर्ति करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह उसी प्रकार है जैसे डूबता आदमी तिनके का सहारा लेता है। इस परिस्थिति ने अर्थ शास्त्रियों के समक्ष दो प्रश्न उपस्थित कर दिये हैं :
क.क्या यह दृ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व स्तालिन द्वारा प्रतिपादित पूंजीवाद के सामान्य संकट के समय बाजार के सापेक्ष स्थाभित्व’’ का सिद्घांत आज भी मुक्ति युक्त है?
ख.क्या यह दृ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि पूंजीवाद के कमजोर पड़ने के बावजूद अपने समग्र रूप में पूँजीवादपहले की अपेक्षा तेजी से विकास कर रहा है’’ सन 1916 के बसंत में लेनिन द्वारा प्रतिपादित सिद्घांत आज भी मुक्ति युक्त है?
मैं सोचता हूं कि ऐसा नहीं हो सकता। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उत्पन्न नई परिस्थिति के मद्देनजर इन दोनो सिद्घांत (thesis) के बारे में समझा जाना चाहिए कि अब इनकी प्रमाणिकता समाप्त हो गयी है।
लेखक - जोजेफ स्तालिन
अनुवादक- सत्य नारायण ठाकुर
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