आज जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और आर्थिक संकट का समाधान नहीं हो पा रहा है। समाजवादी अर्थ तंत्र के विशेषज्ञ जोजेफ स्तालिन ने अपनी अंतिम रचना में समाजवादी अर्थतंत्र के समस्यायों के निदान के सम्बन्ध में चर्चा की थी। इस पुस्तक को जोसेफ स्तालिन के मरने के बाद पुन: प्रकाशित नहीं होने दिया गया था। इस पुस्तक का अनुवाद श्री सत्य नारायण ठाकुर ने किया है जिसके कुछ अंश: यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं। आप के सुझाव व विचार सादर आमंत्रित हैं।
-सुमन
आर्थिक बहस में भाग लेने वालों को मंतब्य-सुमन
नवम्बर 1951 की बहस से सम्बंधित आर्थिक प्रश्नों पर
1. समाजवाद में आर्थिक नियमों का चरित्र
कुछ साथी विज्ञान के नियमों के वस्तुगत चरित्र को और स्वाभकर समाजवाद के अंदर राजनैतिक अर्थतंत्र के नियमों को इंकार करते हैं। वे इस तथ्य का इंकार करते हैं कि राजनैतिक अर्थतंत्र का नियम उस विनियमित प्रक्रिया का प्रतिबिंब है जो मनुष्य की इच्छा से परे संचालित है। वे विश्वास करते हैं कि इतिहास ने सोवियत सत्ता के ऊपर जो विशेष जिम्मेदारी सौंपी है, उसे देखते हुए सोवियत राज्य और उसके नेता राजनैतिक अर्थ तंत्र के विद्यमान नियमों को विलोपित कर सकते हैं, नये नियम ग़ और बना सकते हैं।
ऐसे सभी गंभीर गलतफहमी के शिकार है। ऐसे साथी सरकार के बनाए कानूनों को वैज्ञानिक नियमों के समतुल्य मान लेने की भूल करते हैं। ये सभी प्रत्यक्षतः विज्ञान के नियमों जो प्रकृति का या समाज की वस्तुगत प्रक्रियाओं को प्रतिबंधित करते हैं, ऐसी प्रक्रियाएँ जो मानव इच्छा से परे स्वतंत्र रूप से क्रियाशील हैं, को सरकारी कानूनों, जो मानव इच्छा के अधीन बनाए जाते हैं और जिनका केवल न्यायिक महत्व है, के साथ मिलाकर भ्रांतिपूर्ण स्थिति पैदा करते हैं। लेकिन उन्हें निश्च्य ही भ्रमित नहीं होना चाहिए।
माक्र्सवाद विज्ञान के नियमों को मानता है। वैज्ञानिक नियम चाहे वे प्राकृतिक विज्ञान के हों या राजनैतिक अर्थतंत्र के, सभी ऐसी वस्तुगत प्रक्रियाओं के प्रतिरूप हैं और मनुष्य की इच्छा से परे क्रियाशील है। मनुष्य इन नियमों को जान सकता है, उन्हें पता लगा सकता है, उनका अध्यन कर सकता है, उन पर भरोसा कर सकता है और समाज के हित में उनका उपयोग कर सकता है। लेकिन उन्हें बदल नहीं सकता, उन्हें समाप्त नहीं कर सकता और न नया वैज्ञानिक नियम बना सकता है।
तो क्या इसका यह मतलब है कि प्राकृतिक नियमों की कारगुजारियों के परिणाम अर्थात प्राकृतिक शक्तियों द्वारा की गई कार्रवाइयों के परिणाम सामान्य रूप से बदले नहीं जा सकते? क्या प्रकृति की विनाशकारी शक्तियों की कार्रवाइयाँ बुनियाद की तरह सर्वथा अटल होती हैं जो मानव प्रभाव के समक्ष कभी झुकती नहीं? नहीं, ऐसा नहीं है। आकाशीय, भूगर्भीय या ऐसे अनेक क्षेत्रों को छोड़ दें, जिनके विकास नियमों को जान लेने के बाद भी मनुष्य उन्हें प्रभावित कर सकने में सर्वथा असमर्थ है, फिर भी अनेक मामलों में मनुष्य असमर्थता से काफी दूर है और वह प्राकृतिक प्रकियाओं को प्रभावित करता है। ऐसे सभी मामलों में मनुष्य प्राकृतिक नियमों को जानकर, उनका अंदाज कर, उन पर भरोसा कर, उनके बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग द्वारा प्रकृति की विनाशकारी शक्तियों की दिशा बदलकर समाज के सर्जनात्मक कार्यों में इस्तेमाल कर सकता है।
ऐसे अनेक दृष्टांतों में एक को लें। पुराने जमाने में विशाल नदियों के अनियंत्रित प्रवाह के चलते बा़ और परिणाम स्वरूप लोगों के घरों और फसलों की बर्बादी, जिनके बारे में पहले समझा जाता था कि यह दुर्जय विपदा है। मनुष्य असहाय था। लेकिन समय बीतने के साथ और जान वृद्धि के कारण जब मनुष्य ने बांध निर्माण तथा पन बिजली संयंत्र खड़ा करना सीखा तो बा़ की विभीषिका से समाज का बचाव संभव हो गया। ऐसा बचाव असंभव माना जाता था। और भी, इंसान ने प्रकृति की विनाशनी शक्ति को मोड़ना सीखा, उनका श्रंृगार कियाऐसा कहें। जल प्रवाह को समाज के हित में मोड़ा गया। खेतों की सिंचाई की गई और प्रवाह का उपयोग बिजली उत्पादन में किया गया।
क्या इसका यह अर्थ है कि इंसान ने इस तरह प्रकृति के नियमों, विज्ञान के नियमों को समाप्त कर दिया और प्रकृति के नए कानून या विज्ञान के नए नियमों का निर्माण किया? नहीं, ऐसा नहीं है। बात यह है कि वैज्ञानिक नियमों में बिना किसी बदलाव, बिना किसी उल्लंघन या उसे समाप्त किए बगैर अथवा किसी नए नियम के बनाए बगैर एक प्रक्रिया द्वारा पानी के विनाशकारी प्रवाह को बदला गया और उसे समाज के हित में इस्तेमाल किया गया। इसके विपरीत, इस प्रक्रिया को प्र्रकृति और विज्ञान के नियमों के अनुकूल अंजाम दिया गया क्योंकि प्राकृतिक नियमों का एक तनिक भी उल्लंघन पूरे मामले को उलट देता और संपूर्ण प्रक्रिया को बेकार बना देता।
यही बात आर्थिक विकास के नियमों, राजनैतिक अर्थतंत्र के नियमों, चाहे पूँजीवाद की अवधि में या समाजवाद की अवधि में, के बारे में निश्चय ही कही जाएगी। यहाँ भी प्रकृति विज्ञान की तरह आर्थिक विकास के नियम आर्थिक विकास प्रक्रिया को प्रतिबिंबित करते हुए वस्तुगत नियम हैं जो मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र परिचालित हैं। मनुष्य इन नियमों को जान सकता है, पता कर सकता है और उन पर भरोसा कर सकता है तथा समाज के हित में इस्तेमाल कर सकता है। यह भी कि कुछ विनाशकारी नियमों की दिशा में परिवर्तन कर सकता है, उसकी कार्रवाइयों के दायरे को सीमित कर सकता है और दूसरे नियमों को पूरा अवसर दे सकता है, जो सतह पर आने के लिए दबाव दे रहा है। लेकिन वह उन नियमों को विनष्ट नहीं कर सकता और न नया आर्थिक नियम बना सकता है।
प्रकृति विज्ञान के विपरीत राजनैतिक अर्थतंत्र की एक विशेषता यह होती है कि इसके नियम शाश्वत नहीं होते। इसके अधिकांश नियम इतिहास की खास अवधि में काम करते हैं और कालक्रम में इसकी जगह दूसरे नियम लेते हैं। यद्यपि ऐसे नियमों का विभाग नहीं होता, बल्कि नई परिस्थितियों में ऐसे नियमों की उपयोगिता नहीं रह जाती। नये नियमों को स्थान देने हेतु पुराने नियम दृश्य से ओझल हो जाते हैं, उन नये नियमों को स्थान देने हेतु जिन्हें मनुष्य की इच्छाओं ने नहीं बनाया है बल्कि वे नई आर्थिक स्थितियों से उभरे हैं।
॔ऐंटीड्यूहरिंग’ से ऐंगेल्स के सूत्र को उद्घृत किया जाता है जिसमें कहा गया है कि पूँजीवाद की समाप्ति और उत्पादनसाधनों के समाजीकरण के बाद मनुष्य उत्पादन साधनों पर नियंत्रण पाएगा कि सामाजिक और आर्थिक सम्बन्धों के बंधनों से मुक्त हो जाएगा और वह सामाजिक जीवन का स्वामी बन जायगा। ऐंगेल्स इस स्वतंत्रता को आवश्यकता का परिबोध ;ंचचतमबपंजपवद वि दमबमेपजलद्ध कहते हैं। इस आवश्यकता के परिबोध का क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है कि वस्तुगत नियमों ;दमबमेपजलद्ध को जान लेने के बाद मनुष्य इसका उपयोग पूरी चेतना के साथ समाज के हित में करेगा। यही कारण है कि उसी पुस्तक में ऐंगेल्स कहते हैं उसके अपने सामाजिक गतिविधियों के नियमों, जो अभी बाह्य प्राकृतिक नियमों से घिरा है और उसी का प्रभुत्व है, का उपयोग मनुष्य द्वारा पूरी चेतना के साथ किया जाएगा और इस तरह उस पर मनुष्य का प्रभुत्व होगा।’’
इस तरह हम देखते हैं कि ऐंगेल्स का सूत्र ऐसे लोगों के पक्ष में नहीं बोलता है जो यह सोचते हैं कि समाजवाद में आर्थिक नियम समाप्त किए जा सकते हैं और नए बनाए जा सकते हैं। इसके विपरीत यह नियमों की समाप्ति की मांग नहीं करता, बल्कि आर्थिक नियमों का समझने और उनके बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग की बात करता है।
यह कहा गया है कि आर्थिक नियम का चरित्र आधार मूल होता है, कि उसकी गति अपरिवर्तनीय होती है और उसके सामने समाज असहाय होता है। यह सही नहीं है। यह नियम को पूजावस्तु बनाना है और अपने को नियम का दास। ऊपर बताया गया है कि समाज नियम के सामने असहाय नहीं है, कि आर्थिक नियमों को जान लेने के बाद और उस पर भरोसा करते हुए समाज उसके कार्रवाई क्षेत्र को सीमित कर सकता है, समाज के हित में उसका उपयोग कर सकता है और उसका श्रंृगार कर सकता है। ठीक उसी तरह, जैसे प्राकृतिक शक्तियों और उनके नियमों के मामलों में ठीक उसी तरह जैसे बड़ी नदियों के उत्ताल प्रवाह के बारे में ऊपर उदाहरण दिए गए हैं।
समाजवाद के निर्माण में सोवियत सरकार की विशिष्ट भूमिका का उल्लेख किया गया है और जैसा बतया गया है कि यह विद्यमान आर्थिक नियम के समाप्त करने में और नया आर्थिक विकास नियम बनाने में समर्थ है। यह भी सच नहीं है।
सोवियत सरकार की विशिष्ट भूमिका दो परिस्थितियों में है। सोवियत सरकार को जो कुछ करना है प्रथम तो ऐसा नहीं है कि एक प्रकार के शोषण को मिटाकर दूसरे प्रकार का शोषण जारी रखा जाय, जैसा कि पहले की क्रान्तियों में हुआ। हम तो शोषण का सर्वनाश चाहते हैं। द्वितीय, देश के अंदर किसी समाजवादी अर्थतंत्र की बनी बनायी पृष्ठ भूमि के पूर्ण अभाव की स्थिति में हमें नया निर्माण करना है, कहना चाहिए बिल्कुल शून्य से।
नि:संदेह यह कठिन, दुरूह और अभूतपूर्व कर्तव्य है। तो भी सोवियत सरकार ने इसे सफलतापूर्वक पूरा किया। लेकिन इसे इस तरह पूरा नहीं किया किया विद्यमान आर्थिक नियमों को तोड़ दिया और नया बना दिया। बल्कि इसके उस आर्थिक नियम पर भरोसा किया, जिसके मुताबिक उत्पादन सम्बन्ध अनिवार्य रूपेण उत्पादन शक्तियों से मेल खाता है। उत्पादन शक्तियों का चरित्र हमारे देश में, खासकर उद्योग में सामूहिक था, किन्तू दूसरी तरफ उसके स्वामित्व का स्वरूप निजी और पूँजीवादी था। इस आर्थिक नियम पर भरोसा करके कि उत्पादन सम्बन्ध अनिवार्य रूप से उत्पादन शक्तियों के चरित्र के अनुरूप होना चाहिए, सोवियत सरकार ने इसका समाजीकरण कर दिया, इसे सम्पूर्ण जनता की सम्पत्ति बना दिया और इस तरह शोषण प्रणाली का अंत कर दिया और समाजवादी अर्थतंत्र का निर्माण किया। अगर यह नियम नहीं होता और सोवियत सरकार ने उस पर भरोसा नहीं किया होता तो यह कार्यलक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता था।
यह आर्थिक नियम कि उत्पादन सम्बन्ध अनिवार्य रूप से उत्पादन शक्तियों केचरित्र के अनुकूल होता है, पूँजीवादी देशों में लंबे समय से रास्ता आगे निकालने हेतु दबाव डाल रहा है। किन्तु रास्ता फोड़कर आगे निकल पाने में विफल रहा है, क्योंकि समाज की पुरानी शक्तियों द्वारा जबरदस्त प्रतिरोध खड़ा किया जा रहा है। यहाँ हमारे सामने एक दूसरा विशिष्ट प्रभार का आर्थिक नियम खड़ा है। प्रकृति विज्ञान के नियमों के विपरीत जहाँ नए नियमों का चलन आमतौर से स्वाभाविक प्रक्रिया है, आर्थिक क्षेत्र में नये नियमों का आविष्कार और चलन चूँकि पुरानी सामाजिक शक्तियों को हितों के प्रभावित करती हैं, इसलिए इसे सशक्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, अतएवं एक शक्ति, एक दूसरी सामाजिक शक्ति, जो उस प्रतिरोध पर काबू पा सके, की आवश्यकता होती है। हमारे देश में वह शक्ति किसानों का प्रतिनिधित्व करनी थी। इस तरह की शक्ति अन्य पूँजीवादी देशों में नहीं है। यह उस रहस्य को बताता है कि सोवियत सरकार कैसे पुरानी शक्तियों को शिकस्त देने में कामयाब हुई और क्यों हमारे देश में वह आर्थिक नियम कि उत्पादन शक्तियों के चरित्र के अनुरूप उत्पादन सम्बन्ध अनिवार्य रूप से होना चाहिए, के परिचालक का पूर्ण सुयोग मिला।
यह कहा गया है कि हमारे देश में राष्ट्रीय अर्थतंत्र के संतुलित विकास की आवश्यकता ने सोवियत सरकार के लिए पहले से मौजूद आर्थिक नियमों को बदलकर नये नियमों को लागू करना संभव कर दिया। यह बिल्कुल ही असत्य है। हमारा वार्षिक और पंचवर्षीय योजनाओं का राष्ट्रीय अर्थतंत्र के सम्यक एवं संतुलित विकास के वस्तुगत नियमों के साथ घालमेल नहीं किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय अर्थतंत्र का संतुलित विकास नियम पूँजीवाद की अराजक प्रतियोगिता नियम के विरुद्ध खड़ा होता है। यह उत्पादन साधनों के सामाजीकरण के बाद आता है जब उत्पादन में प्रतियोगिता और अराजकता के नियमों का महत्व समाप्त हो जाता है। राष्ट्रीय अर्थतंत्र के संतुलित विकास नियम के आधार पर ही समाजवादी अर्थ व्यवस्था सम्पन्न की जा सकती है। इसका अर्थ है कि राष्ट्रीय अर्थतंत्र के संतुलित विकास नियम इसकी संभावना उत्पन्न करते हैं कि हमारे योजना निकाय सामाजिक उत्पादन की सही योजना बना सके। लेकिन संभावना को यथार्थ के साथ नहीं मिलना चाहिए। ये दो भिन्न चीजें हैं। संभावना को यथार्थ में बदलने के लिए जरूरी है कि इस आर्थिक नियम का अध्ययन किया जाय, इस पर महारत हासिल की जाय, पूरे समय के साथ इसे लागू करना सीखा जाय और ऐसी योजनाएँ बनाई जाएँ जो इस नियम के तकाजों को प्रतिबंधित करें। यह नहीं कहा जा सकता है कि हमारी वार्षिक और पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी तरह इस आर्थिक नियम के तकाजों को प्रतिबिंबित करती हैं।
यह कहा गया है कि हमारे देश के समाजवाद के अंतर्गत क्रियाशील आर्थिक नियमों में कतिपय जिनमें मूल्य का नियम भी शामिल है, का रूपांतरण यहाँ तक कि पूरी तरह रूपांतरण नियोजित अर्थ व्यवस्था के आधार पर हो गया है। यह भी उसी तरह असत्य है नियमों का रूपांतरण नहीं होता। अगर उसका रूपांतरण हो सकता था तो उसे समाप्त भी किया जा सकता था और दूसरे नियमों से बदला जा सकता था। यह भी कि नियमों का रूपांतरण किया जा सकता है उस गलत फारमूले का अवशेष है कि नियमों को समाप्त किया जा सकता है अथवा बनाया जा सकता है। यद्यपि आर्थिक नियमों को रूपांतरित करने का सिद्घांत हमारे देश में काफी दिनों से प्रचलित है जिसे अब परिशुद्धता की दृष्टि से छोड़ दिया जाना चाहिए। इस या उस आर्थिक नियमों के कार्यों के दायरे को नियंत्रित किया जा सकता है, इसके विनाशकारी कार्य, निश्चय ही अगर वह विनाशकारी होने वाला है तो उससे बचा जा सकता है, किन्तु उसे न तो समाप्त किया जा सकता है और न उसे बदला जा सकता है।
उसी तरह जब हम प्राकृतिक और आर्थिक शक्तियों पर काबू पाने, उसे वश में रखने आदि की बात करते हैं तो इसका कतई अर्थ नहीं होता कि मनुष्य वैज्ञानिक नियमों का निर्माण कर सकता है या उसे समाप्त कर सकता है। इसके विपरीत, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि मनुष्य इन नियमों को खोज ले सकता है, उन्हें जान सकता है, उन पर महारत हासिल कर सकता है, पूरी समझ के साथ उन्हें लागू करना सीख करता है, समाज के हित में उनका इस्तेमाल कर सकता है और इस तरह उन्हें अपने वश में रख सकता हैं, उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकता है।
इसलिए समाजवाद के अंतर्गत राजनैतिक अर्थतंत्र के नियम वस्तुपरक होते हैं जो इस तथ्य को प्रतिबिंबित करते हैं कि आर्थिक जीवन की प्रक्रियाएँ विनियमों से प्रभासित ;संहवतमेदमकद्ध हैं और हमारी इच्छाओं से स्वतंत्र होकर संचालित हैं। जो लोग इस अवधारणा का इंकार करते हैं वे सही माने में विज्ञान का इंकार करते हैं, वे पूर्वानुमान की सभी संभावनाओं से इंकार करते हैं, और परिणाम आर्थिक गतिविधियों को दिशानिर्देश करने की संभावनाओं को भी इंकार करते हैं।
यह कहा जा सकता है कि यह सच है, सबको मालूम है, इसमें कुछ भी नया नहीं है और इसलिए आम तौर पर ज्ञात सत्यों को दोहराने में समय खर्च करना उचित नहीं है। यह सही है कि इसमें कुछ भी नया नहीं है, लेकिन यह सोचना गलत होगा कि ऐसी सच्चाइयाँ, जो आमतौर पर हमें मालूम है, को दोहराते रहना समय बर्बाद करना है, तथ्य यह है कि हमारे नेतृत्व में प्रत्येक वर्ष नए नौजवान आते हैं जो उत्कटता से हमारा सहायता करना चाहते हैं, वे अपनी योग्यता प्रमाणित करना चाहते हैं, किन्तु उन्हें माक्र्सवादी शिक्षा नहीं है, वे ऐसी सच्चाइयों को नहीं जानते हैं, जिन्हें हम अच्छी तरह जानते हैं और इसलिए वे अंधकार में भटकने को विवश हैं। ऐसे नौजवान सोवियत सरकार की विराट सफलताओं से भौंचक हैं, वे सोवियत प्रणाली की आशातीत सफलताओं से इस प्रकार चकाचौंध हैं कि वे मान बैठे हैं कि सोवियत सरकार कुछ भी कर सकती है कि कुछ भी इससे परे नहीं है कि वैज्ञानिक नियमों को भी समाप्त कर सकती है और नया नियम बना सकती है। इन कामरेडों के लिए हमें क्या करना चाहिए? माक्र्सवादलेनिनवाद में हम उन्हें कैसे दीक्षित करें? मैं मानता हूँ कि सामान्य ज्ञान की सच्चाइयों को सुशांत तरीके से दोहराना और उनकी प्रासंगिक व्याख्या नये कामरेडों की शिक्षा के सबसे अच्छे तरीकों में एक है।
क्रमश:
अनुवादक- सत्य नारायण ठाकुर
1 टिप्पणी:
शुक्रिया इस प्रस्तुति को साझा करने का .
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