गुरुवार, 16 अगस्त 2012

सूखे की चपेट में फंसा देश


सूखे पर सरकारी बयानों और राहत के प्रयासों का सूखा और ज्यादा है | इसे देखकर तो यह लगता है की देश की केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारे तो एक देश की है और सूखा किसी दूसरे देश में पडा है | किसी प्रांत की सरकार ने अब तक अपने प्रांत को सूखाग्रस्त घोषित नही किया है |
देश -- प्रदेश सूखे की भयंकर चपेट में है | यह लेख लिखने तक खबरों के अनुसार प्रदेश व देश के अनेक भू-- भागो में खासकर उत्तरी हिस्सों में औसत से बहुत कम वर्षा हुई है| इसे समाचार पत्रों में औसत वर्षा का 40 प्रतिशत बताया जा रहा है | हालाकि दर -- हकीकत में यह उतनी भी नही है | किसानो ने धान की बोआई -- रोपाई का काम घटाकर एक तिहाई कर दिया है | लेकिन इस भयंकर सूखे की चिंता चर्चा केवल गाँवों में है , किसानो में है | बाकी सब चिंता मुक्त है | शहरी आबादी में चिंता है तो गर्मी की , पानी बिजली की ,कमी की | सूखे की कोई चिंता नही | सत्ता पक्ष एवं विपक्ष में बैठती रही राजनितिक पार्टियों के उच्च स्तरीय नेताओं , शासन -- प्रशासन में बैठे अधिकारियों तथा प्रचार माध्यमी स्तम्भों के यहा तो वर्षा सदाबहार चल रहा है | उनके लिए हर मौसम हर जगह ए. सी . है | इनके लिए कई दशको से खासकर पिछले दो दशको से मौसम लगातार खुशगवार बनता गया है | बेहतर से बेहतर होता गया है | कमोवेश यही स्थिति अधिकाधिक कमाई में लगे आम समाज के सुविधापरस्त मध्य वर्गियो की है | इसमें आम समाज में रहने वाले धनी व्यपारी , अधिकाधिक आमदनियो एवं सुविधाओं का उपभोग कर रहे है चिकित्सक अपेक्षा कृत छोटे स्तर के अधिकारी , उच्च स्तरीय वेतन व आमदनियो पाने वाले अध्यापक , अधिवक्ता व अन्य पेशो के ऐसे ही उच्च परन्तु आम सामाजिक हिस्से शामिल है | इनके यहा भी सालो साल सदाबहार चल रहा है | इस हिस्से का जीवन भी मौसमी मार्या उतार -- चढ़ाव से फिलहाल मुक्त है | इसके अलावा इन सभी आम व खास सामाजिक हिस्सों के उपर बैठे
धन कुबेर राष्ट्रीय व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का तो पूछना ही क्या ? उनका सूरज तो दिन रात चमक रहा है | उन्होंने अपने धन पूंजी की ताकत से देश --
दुनिया का पूरा माहौल ही अपने अनुकूल बनवा लिया है | इनके राजनितिक एवं गैर राजनितिक उच्च वर्गीय सेवक देश दुनिया की हर प्रतिकूल परिस्थितियों को धन कुबेरों के स्वार्थो हितो के अधिकाधिक अनुकूल बनाने में लगे है | इन सदाबहार हिस्सों को ही अपनी चर्चा प्रचार का प्रमुख हिस्सा मानने वाले प्रचार माध्यम जगत इन्ही को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करके स्वंय भी इस सदाबहार टोली का हिस्सा बने हुए है |इसीलिए सूखे की भयंकर स्थितियों के वावजूद सूखे पर कही कोई गंभीर चिंता चर्चा नही है | जो चर्चा है वह मौसम की है |

मानसून की बेरुखी की है | कई सालो की वर्षा व फसलो के आंकड़ो की है | लेकिन किसानो , ग्रामीणों उनके मवेशियों की खेती -- किसानी और उस पर आधारित जनजीवन की जीविकोपार्जन के संकटों की कही कोई गम्भीर चर्चा नही है | सूखे पर प्रचार माध्यमी खबरों को देख सुनकर ऐसा लगता है मानो मौसम का हाल सुनाया
जा रहा हो | जिसका कोई ख़ास मायने -- मतलब नही है उसका कोई ख़ास प्रभाव राष्ट्र व समाज के जनजीवन पर पड़ने वाला न हो | फिर इस सूखे के साथ ही सूखे पर सरकारी बयानों और राहत के प्रयासों का अभाव या सुखा और ज्यादा है | इसे देखकर तो यह लगता है की देश की केन्द्रीय सरकारे तो एक देश की है और सुखा किसी दूसरे देश में पडा है | किसी प्रांत की सरकार ने अब तक अपने प्रांत को सूखाग्रस्त घोषित नही किया है |

वस्तुत: स्थिति है भी ऐसी ही | सदाबहार हिस्सों ने इस देश की आम व्यवस्था से अपना अलगाव कर लिया है | और अपना सदाबहार देश और उसकी स्दाभारी व्यवस्था खड़ी कर ली है | इसीलिए 15 सालो में होती रही 2.5 लाख से अधिक किसानो की आत्महत्याए हमारे सदाबहार हिस्सों के लिए कोई मायने नही रखती | इस सदाबहार
हिस्से के राजनितिक , अर्थशास्त्री ,और अन्य प्रचार माध्यमी विद्वान् कृषि क्षेत्र को , उसमे लगी देश की आधी आबादी के जीवन व जीविकापार्जन को नही देखते न ही वे कृषि क्षेत्र को देश की समूची आबादी के भरण -- पोषण की अपरिहार्य आवश्यकता से जोडकर ही देखते है | बल्कि वे उसे देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखते | बल्कि वे उसे देश की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी से यानी देश के सकल घरेलू उत्पाद से देखते - नापते है | वे अपने
भाषणों , प्रचारों लेखो में इस बात को बराबर कहते रहते है की देश की आर्थिक वृद्धि व विकास के साथ अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान घटते -- घटते अब केवल 15 प्रतिशत रह गया है | उसकी जगह पर उद्योग वाणिज्य , व्यापार तथा सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ता जा रहा है | इसे आगे करके ही वे कृषि क्षेत्र को और ज्यादा उपेक्षित करने का काम करते व बढाते जा रहे है | वैसे सही बात तो यह है की कृषि क्षेत्र को योजनाबद्ध रूप में उपेक्षित करके ही अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र के योगदान को घटाया गया है | इसी के तहत कृषि क्षेत्र की सहायताओ -- योजनाओं तथा प्रोग्रामो को काटने घटाने के साथ छूटो -- अनुदानों को भी काटने घटाने का काम निरंतर किया जाता रहा है |

इन सहायताओ ,छूटो , प्रोत्साहनो को काटकर उसे बड़े व निजी उद्योगों व प्यापार के क्षेत्रो को देने का काम लगातार किया जाता रहा है | इसी के जरिये अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाया जा रहा है | सूखे के
संदर्भ में इस घटाव का एक ज्वलंत उदाहरण यह है की -- देश के 60 सालो की
आर्थिक वृद्धि व विकास और खासकर 20 सालो के तीव्र आर्थिक तकनीकी वृद्धि के वावजूद देश की 60 प्रतिशत उपजाऊ जमीन अपेक्षित सिंचाई के लिए मानसूनी वर्षा पर निर्भर है | बहुप्रचारित आधुनिक तकनीक के इस युग में तथा सडको , रेलवे लाइनों , स्टेशनों , हवाई अड्डो बन्दरगाहो
,तकनीकी वृद्धि के वावजूद देश की 60 प्रतिशत उपजाऊ जमीन अपेक्षित सिंचाई के लिए मानसूनी वर्षा पर निर्भर है | बहुप्रचारित आधुनिक तकनीक के इस युग
में तथा सडको , रेलवे लाइनों , स्टेशनों , हवाई अड्डो बन्दरगाहो आदि के रूप में अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढाचे के तीव्र विकास के इस दौर में कृषि क्षेत्र के बुनियादी ढाचे के विकास का यानी सार्वजनिक सिंचाई के विकास का
नाम तक नही लिया गया है | खासकर 25 सालो में सिंचाई व्यवस्था को किसानो के निजी साधनों के उपर ही छोड़ने का काम किया जाता रहा है | इसी लक्ष्य से १९८५ के बाद से कृषि क्षेत्र के इस बुनियादी विकास को अर्थात सार्वजनिक सिंचाई के साधनों के विकास विस्तार को धीरे -- धीरे करके काटने और छोड़ने का काम भी
लगातार किया जाता रहा है | ऐसी हालात में वर्षा कम होने या बहुत होने के फलस्वरूप खेती के सूखने 30 -- 40 प्रतिशत तक धान की रोपाई हो पाने का दोष किसे दिया जाना चाहिए ?मानसून को ? या 20 सालो से सदाबहारी बनकर किसान और किसानी को उपेक्षित करने करवाने वाके देश के धनाढ्य , उच्च एवं सुविधा भोगी हिस्सों को और उनकी सेवा में जुटी हुई केन्द्रीय प्रांतीय सरकारों को ?
2 --3 साल बाद एक दो सीजन में वर्षा न होने से सूखे की भयावह स्थिति के लिए मानसून नही बल्कि सिंचाई की सार्वजनिक उपेक्षा , बदहाली व बदइन्तजामी को ही दोषी मान व बताया जाना चाहिए | इसके लिए केन्द्रीय व प्रांतीय सत्ता सरकारों से लेकर राष्ट्र व समाज को लेकर इस धनाढ्य व उच्च हिस्सों को ही केवल दोषी नही अपितु अपराधी भी मना जाना चाहिए | इनके इस अपराध का सबूत सूखे पर इनकी चुप्पी , सूखे पर चिंताओं चर्चाओं के अभाव के रूप में स्पष्टत: देखा जा सकता है |
इसीलिए सूखे पर किसान अपने खेत व खेती के लिए स्वंय से जो कुछ कर सकता है उसे तो करेगा ही लेकिन असली मुद्दा यह है की किसान व ग्रामीण समुदाय अपने निजी साधनों पर सिंचाई की निर्भरता की जगह सरकार से सार्वजनिक सिंचाई की माँग उठाने के लिए उसे संगठित होने का प्रयास करेगा या नही ? यह किसानो के लिए महज आवश्यक ही नही बल्कि अपरिहार्य है की वे इसके लिए आगे आये | बार बार के सूखे से निजात पाने के लिए किसानो को इस दिशा में बढना ही होगा साथ ही खाद्यानो की महगाई झेल रही ग्रामीण व शहरी मजदूरों से लेकर कस्बाई व शहरी जनता को भी इस समस्या के लिए किसानो को इस अन्य न्याय स्संग्त मांगो के साथ खड़ा होना चाहिए जनसाधारण को मानसून की कमी के प्रचारों में ही फंसे रहने से अपने दिलो दिमाग को मुक्त करना होगा सचेत होना होगा |
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सुनील दत्ता ,
पत्रकार

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