गुरुवार, 30 अगस्त 2012

मुसलमानों के सम्बन्ध में भ्रांतियां






एक अलग तरह की हिंसा




भारत एक शताब्दी से भी अधिक समय से विभाजनकारी साम्प्रदायिक हिंसा का दंश झेल रहा है। इस प्रकार की हिंसा को बढ़ावा देने में अंग्रेज सरकार की ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक संगठनों को भरपूर प्रोत्साहन और फलने-फूलने की आजादी दी। ये साम्प्रदायिक संगठन, जो मुख्यतः हिन्दुओं और मुसलमानों के थे, एक-दूसरे के समुदायों के विरूद्ध घृणा फैलाने के अनवरत अभियान में जुट गए और इससे साम्प्रदायिक हिंसा ने हमारे देश में जडें पकड़ लीं. इस हिंसा में अब तक लाखों जानें जा चुकी हैं और इसका इस्तेमाल साम्प्रदायिक ताकतें अपने राजनैतिक हितसाधन के लिए करती रही हैं।

जैसे-जैसे यह हिंसा एक निश्चत स्वरूप ग्रहण करती गई, इसकी कुछ विशेषताएं उभरने लगीं। यद्यपि हर दंगा दूसरे दंगे से भिन्न होता है तथापि सभी में कुछ समानताएं भी होती हैं। स्वतंत्रोत्तर भारत में हुए दंगों की जांच के लिए नियुक्त न्यायिक व अन्य जांच आयोगों की रपटों और असगर अली इंजीनियर, पाल ब्रास व आशुतोष वार्षणेय जैसे अध्येताओं द्वारा किए गए अध्ययनों से यह सामने आया है कि भारत के बहुवादी स्वरुप को नष्ट करने वाल्रे ये सभी दंगे एक सांचे में ढले से लगते हैं.

इन अध्ययनों से यह भी सामने आया है कि हमारे राजनेताओं एवं प्रशासनिक व पुलिस आधिकारियों की दंगों के दौरान व उनके बाद अत्यंत संदेहास्पद व कभी कभी निंदनीय भूमिका रही है. स्वतंत्र भारत में सन १९६१ के जबलपुर दंगों से लेकर हाल में राजस्थान (गोपालगढ़) और उत्तरप्रदेश के कुछ इलाकों में हुई हिंसा तक, यह साफ दिखता है कि सांप्रदायिक हिंसा सुनुयोजित ढंग से कराई जाती है और राज्य तंत्र इसे रोकने में असफल रहता है.

इस हिंसा के मूल में है अल्पसंख्यकों के सम्बन्ध में समाज में व्याप्त मिथक व पूर्वाग्रह. और जो समाज की सामूहिक सोच है, वही उन लोगों की सोच भी है जिन पर दंगों पर नियंत्रण करने के जिम्मेदारी है. हमारा समाज मुसलमानों को अपराधियों, आतंकवादियों व हिंसक प्रवृत्ति के असामाजिक तत्वों के रूप में देखता है. यद्यपि सांप्रदायिक हिंसा को दो समुदायों के बीच हिंसक टकराव के रूप में देखा-समझा जाता है तथापि भारत में हाल के कुछ वर्षों में दंगों में केवल अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता रहा है. मुसलमानों की तरह, ईसाईयों के बारे में भी मिथक आम हैं. यह माना जाता है कि ईसाई जोर-जबरदस्ती, लोभ-लालच व धोखाधड़ी से हिंदुओं को ईसाई बनाते हैं.

हिंसा के शिकार हुए लोगों का धर्मं के आधार पर वर्गीकरण करने पर अत्यंत दुखद चित्र सामने आता है. दंगों में मारे जाने वालों में ९० प्रतिशत मुसलमान होते हैं जबकि भारत की आबादी में उनका प्रतिशत (जनगणना २०११) केवल १३.४ है. पुलिसकर्मी भी मुसलमानों के सम्बन्ध में कई भ्रांतियां पाले रहते हैं. उनका मानना है कि मुसलमानों को केवल लाठी-गोली से नियंत्रण में रखा जा सकता है.

मुंबई में हाल में हुआ दंगा, एक सामान्य दंगा नहीं था. उसका चरित्र सामान्य दंगों से एकदम भिन्न, बल्कि शायद उलट था और इसमें आशा की एक किरण भी छुपी हुई है -- इस आशा की कि भारत में हिंसा के विरोध में सकारात्मक शक्तियां उभर कर सामने आएँगी.

गत १२ अगस्त को, रजा अकादमी और कुछ अन्य मुस्लिम संगठनों ने मुंबई के आजाद मैदान में मुसलमानों की भरी भीड़ इकट्ठा की. इसके लिए मस्जिदों में ऐलान भी किये गए. पुलिस और आयोजकों का अनुमान था कि कुछ हजार लोग आएंगे परन्तु, ५०,००० से अधिक लोग आजाद मैदान पहुँच गए. जो लोग वहां पहुचे, वे पहले से ही म्यांमार और असम में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा से नाराज और दुखी थे. उर्दू मीडिया के एक हिस्से ने ऐसा माहौल बना दिया था मानो पूरी दुनिया में मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं. इन अतिशयोक्तिपूर्ण खबरों के चलते, पहले से ही स्वयं को घोर असुरक्षित महसूस कर रहे लोगों के समक्ष भडकाऊ भाषण दिए गए और उन्हें नकली फोटो दिखाए गए. मीडिया पर यह आरोप लगाया गया कि वह असम और म्यांमार की खबरों को पर्याप्त महत्व नहीं दे रहा है. गडबडी आजाद मैदान में जुटी भारी भीड़ ने शुरू नहीं की. गडबडी शुरू की ५००-१००० हथियारबंद मुसलमानों की भीड ने, जिसने पुलिसकर्मियों पर हमला बोल दिया. महिला पुलिसकर्मियों के साथ बदसलूकी की गयी और टीवी चैनलों की ओ. बी. वैनों में आग लगा दी गयी. यहाँ तक तो यह दंगा वैसा ही था जैसे कि आम दंगे होते हैं. परन्तु इसके बाद जो कुछ हुआ, वह पहले के दंगों से एकदम भिन्न था. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मुसलमानों का निशाना हिंदू नहीं वरन मीडिया और पुलिस थी.

आम दंगों से भिन्न जो पहली चीज हुई वह थी पुलिस कमिशनर अरूप पटनायक का व्यव्हार. श्री पटनायक, जिन्होंने मुंबई के १९९२-९३ के दंगे देखे हैं, ने अपने आदमियों से संयम बरतने को कहा. यही नहीं, अत्यंत साहस का प्रदर्शन करते हुए वे मंच पर जा पहुंचे और भीड़ से अपील की कि सन १९९२-९३ एक बार फिर न दोहराया जावे, इसलिए वे शांति बनाये रखें. भीड़ शांतिपूर्वक मैदान के दुसरे छोर से बाहर निकल गयी और मुसलमानों का जो समूह वहां हिंसा करने के इरादे से आया था, उसपर न्यूनतम बल का इस्तेमाल कर काबू पा लिया गया. केवल दो लोग मरे गए और ५० घायल हुए. पटनायक की नेतृत्व क्षमता और उनके संयम की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है. पुलिसकर्मियों ने भी, उन्हें उकसाने की हर संभव कोशिश के बावजूद, धैर्य से काम लिया. पुलिसकर्मी हिंसा के शिकार हुए थे, उसके बावजूद पुलिस ने कमर के ऊपर अंधाधुंध गोलियाँ चला कर भीड़ को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं किया. मुसलमानों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां भी नहीं कीं गयीं और केवल उन युवकों को पकड़ा गया जो मौके पर खींची गयी विडियो फिल्म में हिंसा करते हुए दिख रहे थे. आधुनिक तकनीकी का यह इस्तेमाल स्वागतयोग्य है.

इस घटनाक्रम का एक अन्य सराहनीय पहलू था मोहल्ला समितियों की भूमिका, जिसकी अपेक्षित चर्चा नहीं हुई. मोहल्ला समितियां, जिनका गठन १९८३ के भिवंडी दंगों के बाद, एक बहादुर पुलिस आधिकारी सुरेश खोपडे की पहल पर किया गया था, विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच सेतु का काम कर रहीं हैं. इस घटना के बाद वे सक्रिय हुईं और शांति स्थापित करने में मदद की. यह शायद पहली बार हुआ कि पुलिस व समाज की समझदारी के चलते किसी दंगे पर आधे घंटे में नियंत्रण पा लिया गया.

इस घटना ने सांप्रदायिक हिंसा कानून की आवश्यकता को एक बार फिर रेखांकित किया है ताकि पुलिस अपना काम ठीक से करे, सरकार पूर्वाग्रहों से मुक्त हो और सब मिल कर हिंसा को नियंत्रित करने में सार्थक भूमिका निभाएं.

-राम पुनियानी


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