इस तरह हमारा माल का उत्पादन सामान्य किस्म का नहीं है। यह विशेष किस्म का माल उत्पादन है। यह बगैर पूँजीपतियों के ऐसे माल का उत्पादन है जिसका संबंध मुख्य रूप से सम्बन्ध समाजवादी उत्पाकद को (राजकीय, सामूहिक फार्म, सहकारिता) की आवश्यक सामग्रियों से है, जिनका कार्य क्षेत्र व्यक्तिगत उपभोक्ता सामानों की किस्मों तक सीमित है जो स्पष्टतः पूँजीवादी उत्पादन की ओर नहीं जा सकता, क्योंकि दोनो क्षेत्रों को इस तरह बनाया गया है कि ये दोनों मिलकर समाजवाद उत्पादन को विकसित और सुदृ़ करेंगे।
इसलिए ऐसे साथी भी पूर्णतः गलत फहमी में है जिनका आरोप है कि चूँकि सामजवादी समाज का अवसान नहीं हुआ है (अर्थात साम्यवादी अवस्था नहीं उत्पन्न हुई है-अनु0) इसलिए माल के उत्पादन के चलते हम पूँजीवादी चरित्र की सभी आर्थिक श्रेणियों का पुनरोदय करने को बाध्य होंगे, जैसेमाल के रूप में श्रम शक्ति, अतिरिक्त मूल्य, पूँजी, पूँजीवाद मुनाफा, मुनाफा का सामान्य दर, इत्यादि। ऐसे साथी पूँजीवादी माल उत्पादन को हमारे माल उत्पादन के साथ मिला देते हैं और विश्वास कर लेते हैं कि जब कभी माल का उत्पादन होगा तो वह पूँजीवादी उत्पादन ही होगा। वे यह महसूस नहीं करते कि हमारा माल का उत्पादन मूल रूप से पूँजीवादी माल उत्पादन से भिन्न है।
और भी, मैं सोचता हूँ कि मार्क्स के "कैपिटल" से लिए गए कुछ दृष्टिकोणों को छोड़ दिया जाना चाहिए। जैसे मार्क्स जहाँ पूँजीवाद का विश्लेषण, वहाँ लिखी गई कुछ बातों को बनावटी तरीके से समाजवादी सम्बन्धों पर चिपका दिया गया है। मैं बताऊंगा ऐसे दृष्टिकोणों में कुछ हैं आवश्यक’ और अतिरिक्त मूल्य’, आवश्यक’ और अतिरिक्त उत्पादन’ मार्क्स पूँजीवाद का विश्लेषण इस रूप में करते हैं कि मजदूर वर्ग के शोषण की जड़ें अतिरिक्त मूल्य को उजागर किया जा सके। मजदूर वर्ग को, जिन्हें उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिया गया है, सैद्घांतिक और वैचारिक हथियार से लैश किया जा सके ताकि वह पूँजीवाद के जुए को उतार फेंके। यह स्वाभाविक है कि माक्र्स ने जिन दृष्टिकोणों का इस्तेमाल किया वह पूर्ण रूप से पूँजीवादी सम्बन्धों पर लागू होता है। किन्तु उन्हीं बातों को इस समय लागू करन के बारे में बोलना आश्चर्यजनक है जब मजदूर वर्ग न केवल सत्ता और उत्पादन के साधनों से वंचित नहीं है, बल्कि वह इसके विपरीत सत्ता पर कब्जा किये है और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण करता है। श्रम शक्ति को माल के रूप में समझना और मजदूरों को खरीदना’ (hising) जैसी बात करना अब हमारी व्यवस्था में बेतुका है क्योंकि यहाँ मजदूर वर्ग को उत्पादन साधनों का स्वयं स्वामी है, स्वयं अपने को खरीदता है और स्वयं अपनी श्रम शक्ति बेचता है। इसी तरह आवश्यक’ और अतिरिक्त श्रम’ की बात करना भी आश्चर्यजनक है क्योंकि हमारे यहाँ यह मजदूरों द्वारा उत्पादन ब़ाने के लिए समाज को दिया जाने वाला योगदान है। शिक्षा की उन्नति के लिए, जन स्वास्थ्य को मजबूत करने के लिए, सुरक्षा संगठन के लिए मजदूर योगदान करते हैं जो न केवल मजदूर वर्ग के लिए, जो आज सत्ता में है, बल्कि पूरे देश के लिए और यहाँ तक कि मजदूरों और उसके परिवारों की व्यक्तिगत जरूरतों के लिए भी मजदूर अपना श्रम खर्च करता है।
यह उल्लेखनीय है कि "गोथा कार्यक्रम की आलोचना’’ में मार्क्स जब पूँजीवाद की जाँच पड़ताल नहीं, बल्कि साम्यवादी समाज की प्रथम अवस्था का वर्णन कर रहे थे तो मार्क्स ने श्रम को उत्पादन ब़ाने के लिए, शिक्षा और जन स्वास्थ्य के लिए, प्रशासन खर्च के लिए, लोक निर्माण आदि के लिए समाज के प्रति किया गया योगदान के रूप में स्वीकार किया है और इसे उन्होंने उसी प्रकार आवश्यक माना है जैसे मजदूर वर्ग की उपभोक्ता जरूरतों की आपूर्ति के लिए श्रम खर्च किया जाता है।
मैं सोचता हूँ कि हमारे अर्थ शास्त्रियों को चाहिए कि इस विसंगति को समाप्त करें जो पुराने दृष्टिकोणों और हमारे देश की नई परिस्थितियों के बीच है। पुराने विचारों के स्थान पर नए दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो नई परिस्थितियों से मेल खाते हैं।
हम इस विसंगति को कुछ समय के लिए सह सकते थे, किन्तु अब समय आ गया है कि इसे समाप्त करें।
क्रमश:
अनुवादक- सत्य नारायण ठाकुर
इसलिए ऐसे साथी भी पूर्णतः गलत फहमी में है जिनका आरोप है कि चूँकि सामजवादी समाज का अवसान नहीं हुआ है (अर्थात साम्यवादी अवस्था नहीं उत्पन्न हुई है-अनु0) इसलिए माल के उत्पादन के चलते हम पूँजीवादी चरित्र की सभी आर्थिक श्रेणियों का पुनरोदय करने को बाध्य होंगे, जैसेमाल के रूप में श्रम शक्ति, अतिरिक्त मूल्य, पूँजी, पूँजीवाद मुनाफा, मुनाफा का सामान्य दर, इत्यादि। ऐसे साथी पूँजीवादी माल उत्पादन को हमारे माल उत्पादन के साथ मिला देते हैं और विश्वास कर लेते हैं कि जब कभी माल का उत्पादन होगा तो वह पूँजीवादी उत्पादन ही होगा। वे यह महसूस नहीं करते कि हमारा माल का उत्पादन मूल रूप से पूँजीवादी माल उत्पादन से भिन्न है।
और भी, मैं सोचता हूँ कि मार्क्स के "कैपिटल" से लिए गए कुछ दृष्टिकोणों को छोड़ दिया जाना चाहिए। जैसे मार्क्स जहाँ पूँजीवाद का विश्लेषण, वहाँ लिखी गई कुछ बातों को बनावटी तरीके से समाजवादी सम्बन्धों पर चिपका दिया गया है। मैं बताऊंगा ऐसे दृष्टिकोणों में कुछ हैं आवश्यक’ और अतिरिक्त मूल्य’, आवश्यक’ और अतिरिक्त उत्पादन’ मार्क्स पूँजीवाद का विश्लेषण इस रूप में करते हैं कि मजदूर वर्ग के शोषण की जड़ें अतिरिक्त मूल्य को उजागर किया जा सके। मजदूर वर्ग को, जिन्हें उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिया गया है, सैद्घांतिक और वैचारिक हथियार से लैश किया जा सके ताकि वह पूँजीवाद के जुए को उतार फेंके। यह स्वाभाविक है कि माक्र्स ने जिन दृष्टिकोणों का इस्तेमाल किया वह पूर्ण रूप से पूँजीवादी सम्बन्धों पर लागू होता है। किन्तु उन्हीं बातों को इस समय लागू करन के बारे में बोलना आश्चर्यजनक है जब मजदूर वर्ग न केवल सत्ता और उत्पादन के साधनों से वंचित नहीं है, बल्कि वह इसके विपरीत सत्ता पर कब्जा किये है और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण करता है। श्रम शक्ति को माल के रूप में समझना और मजदूरों को खरीदना’ (hising) जैसी बात करना अब हमारी व्यवस्था में बेतुका है क्योंकि यहाँ मजदूर वर्ग को उत्पादन साधनों का स्वयं स्वामी है, स्वयं अपने को खरीदता है और स्वयं अपनी श्रम शक्ति बेचता है। इसी तरह आवश्यक’ और अतिरिक्त श्रम’ की बात करना भी आश्चर्यजनक है क्योंकि हमारे यहाँ यह मजदूरों द्वारा उत्पादन ब़ाने के लिए समाज को दिया जाने वाला योगदान है। शिक्षा की उन्नति के लिए, जन स्वास्थ्य को मजबूत करने के लिए, सुरक्षा संगठन के लिए मजदूर योगदान करते हैं जो न केवल मजदूर वर्ग के लिए, जो आज सत्ता में है, बल्कि पूरे देश के लिए और यहाँ तक कि मजदूरों और उसके परिवारों की व्यक्तिगत जरूरतों के लिए भी मजदूर अपना श्रम खर्च करता है।
यह उल्लेखनीय है कि "गोथा कार्यक्रम की आलोचना’’ में मार्क्स जब पूँजीवाद की जाँच पड़ताल नहीं, बल्कि साम्यवादी समाज की प्रथम अवस्था का वर्णन कर रहे थे तो मार्क्स ने श्रम को उत्पादन ब़ाने के लिए, शिक्षा और जन स्वास्थ्य के लिए, प्रशासन खर्च के लिए, लोक निर्माण आदि के लिए समाज के प्रति किया गया योगदान के रूप में स्वीकार किया है और इसे उन्होंने उसी प्रकार आवश्यक माना है जैसे मजदूर वर्ग की उपभोक्ता जरूरतों की आपूर्ति के लिए श्रम खर्च किया जाता है।
मैं सोचता हूँ कि हमारे अर्थ शास्त्रियों को चाहिए कि इस विसंगति को समाप्त करें जो पुराने दृष्टिकोणों और हमारे देश की नई परिस्थितियों के बीच है। पुराने विचारों के स्थान पर नए दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो नई परिस्थितियों से मेल खाते हैं।
हम इस विसंगति को कुछ समय के लिए सह सकते थे, किन्तु अब समय आ गया है कि इसे समाप्त करें।
क्रमश:
अनुवादक- सत्य नारायण ठाकुर
आज जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और आर्थिक संकट का समाधान नहीं हो पा रहा है। समाजवादी अर्थ तंत्र के विशेषज्ञ जोजेफ स्तालिन ने अपनी अंतिम रचना में समाजवादी अर्थतंत्र के समस्यायों के निदान के सम्बन्ध में चर्चा की थी। इस पुस्तक को जोसेफ स्तालिन के मरने के बाद पुन: प्रकाशित नहीं होने दिया गया था। इस पुस्तक का अनुवाद श्री सत्य नारायण ठाकुर ने किया है जिसके कुछ अंश: यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं। आप के सुझाव व विचार सादर आमंत्रित हैं।
-सुमन
-सुमन
2 टिप्पणियां:
यह पुस्तक कहाँ मिलेगी?
सुंदर अभिव्यक्ति है| आज समाज को वास्तव में समाजवादी विचारों की आवश्यकता है |
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