सोमवार, 17 सितंबर 2012

संविधान की मान-मर्यादा का हनन

(भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 124ए में संशोधन आवश्यक)

       भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संसद सदस्य डी0 राजा ने राज्य सभा में एक निजी सदस्य बिल पेश कर भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 124ए में संशोधन की मांग की है।
    हमारा देश एक गणतंत्र है और भारत का संविधान देश का मूलभूत कानून है। सभी अन्य कानूनों एवं सभी विधेयकों को संविधान की मूलभूत स्थितियों के अनुसार होना आवश्यक है, चाहे वह भारतीय दण्ड संहिता हो या क्रिमिनल प्रोसिजर कोड हो या कोई अन्य कानून। सभी कानूनों को आवश्यक तौर पर संविधान की मूलभूत स्थितियों के अनुकूल होना होता है क्योंकि संविधान ही देश का मूल कानून है।
संविधान नागरिकों को कुछ मूल्यवान मूलभूत अधिकार प्रदान करता है। हमारा संविधान हमें अभिव्यक्ति का अधिकार, विरोध व्यक्त करने का अधिकार और सरकार का विरोध करने का अधिकार जैसे अधिकार प्रदान करता है। संविधान सरकार की आलोचना करने, सरकार का विरोध करने पर कोई रोक नहीं लगाता, चाहे वह सरकार किसी भी पार्टी या गठबंधन की हो। नागरिकों को सरकार की आलोचना करने, सरकार का विरोध करने और सरकार के विरुद्ध काम करने का मूलभूत अधिकार है। जब वे समझें कि सरकार हटनी चाहिए तो वे सरकार को हटा भी सकते हैं। यह हमारे नागरिकों को संविधान द्वारा दिया गया मूलभूत अधिकार है। पर मैं पाता हूँ कि इसमें एक अंतर्विरोध है। भारतीय संविधान की मूलभूत पोजीशनों और भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 124ए के बीच अंतर्विरोध है।
     भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 124ए कहती है कि, ‘‘जो भी व्यक्ति शब्दों से, वे लिखित हों या बोले गए हैं, या संकेतों से, या दृश्यमान निरूपण (रिपे्रजेंटेशन), या अन्यथा भारत में कानून से स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना करता है या पैदा करने की कोशिश करता है या सरकार के प्रति अनुरागहीनता भड़काता है या भड़काने की कोशिश करता है उसे आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी, जिसमें जुर्माना भी लग सकता है, या तीन साल का कारावास और उसके साथ जुर्माना लग सकता है।’’।
    असल में भारतीय दण्ड संहिता का एक लम्बा इतिहास है। इसे उपनिवेशी दौर में अंग्रेजी सरकार ने बनाया था। इस कानून में कानून एवं व्यवस्था मामलों, 1947 में स्वाधीनता से पहले के ब्रिटिश भारत के विरुद्ध राजद्रोह से जुड़े मामलों के बारे में धाराएँ थीं। उन धाराओं के तहत अनेक स्वतंत्रता सेनानियों पर मुकदमे चलाए गए, जिन्हें आज राष्ट्र महान व्यक्तियों महान देशभक्तों के रूप में सम्मानित करता है।
धारा 124ए को अंगे्रज बादशाहत ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद 1898 के कानून 4 के जरिए दण्ड संहिता में जोड़ा था।
    जिस कानून को अंग्रेजों ने किसी मत, आलोचना, तर्क को दबाने के लिए इस्तेमाल किया उसे स्वाधीन भारत में भी इस्तेमाल किया गया। यह कानून आज भी मौजूद है। स्वाधीनता के बाद भारत की एकता एवं अखण्डता को अस्थिर करने के लिए अनेक आंतरिक एवं बाहरी खतरे पैदा हुए जिनके लिए अनेक विशेष कानून बनाए गए और उनका इस्तेमाल हुआ। ऐसे विशेष कानूनों के मौजूद होने के बावजूद हाल के अरसें में धारा 124का दुरुपयोग और इस्तेमाल हुआ है। हाल के अरसे में आलोचना के प्रति निम्न सहिष्णुता स्तर के मद्देनजर यह आवश्यक समझा गया है कि धारा 124ए को भारतीय दण्ड संहिता 1860 से हटा दिया जाए। यही कारण है इस संशोधन बिल को लाने का।
    जब मैं इस बिल को ला रहा हूँ तो इसके पीछे संदर्भ है। छत्तीसगढ़ में ऐसे अनेक लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं को-जो आदिवासी लोगों के उत्थान के लिए कार्य कर रहे थे इस बिल का निशाना बनाया गया और इसके तहत जेलों में डाला गया। डाॅ. विनायक सेन का मामला हम जानते हैं। उन्हें जमानत मिल गई है, पर उनके साथ ये होना ही क्यों चाहिए था? बुनियादी मुद्दा है। केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं कई अन्य राज्यों में भी जनता की समस्याओं को बुलंद करने वाले जनआंदोलनों एवं व्यक्तियों के विरुद्ध भी इस धारा का बार-बार दुरुपयोग हुआ है। यहाँ तक कि हरिणाया एवं पंजाब राज्यों में खेत मजदूरों के अधिकारों, दलितों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों को भी इस धारा का निशाना बनाया गया है। कुडनकुलम (तमिलनाडु) में जो लोग परमाणु प्लांट का विरोध कर रहे हैं उन्हें भी इस   धारा के तहत निशाना बनाया जा रहा है। क्या यह उचित है? मैं सरकार की कई नीतियों से सहमत नहीं, सरकार की आलोचना करता रहता हूँ, सरकार की जनविरोधी एवं प्रतिगामी नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ और जनता का आह्वान करता रहता हूँ कि इस सरकार को हटाया जाना चाहिए, इसे हराया जाना चाहिए तो क्या मेरे विरुद्ध 124ए का इस्तेमाल किया जाए। इस कानून के मुताबिक 124ए को मेरे विरुद्ध इस्तेमाल किया जा सकता है और मुझे जेल में डाला जा सकता है।
    यह समझना होगा कि सरकार की आलोचना करना, उसका विरोध करना एक बात है और राष्ट्रत्व (नेशनहुड) के विरुद्ध काम करना एक अलग बात है । हम विभिन्न राजनैतिक पार्टियों से संबंधित हो सकते हैं, हमारी राजनैतिक विचारधारा अलग हो सकती है पर राष्ट्र-राष्ट्र है। राष्ट्र के निर्माण के संबंध में हमारी सोच अलग हो सकती है। मैं सरकार की विचाराधारात्मक या राजनैतिक स्थितियों से सहमत नहीं।  सरकार नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों पर जिस आक्रमकता से चल रही है मैं उससे सहमत नहीं। मेरा विचार है कि सरकार राष्ट्र की आर्थिक सम्प्रभुता को कमजोर कर रही है और इस प्रकार राष्ट्र की राजनैतिक सम्प्रभुता को कमजोर कर रही हैं मुझे सरकार पर उँगली उठाने का अधिकार है, सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने का अधिकार है। हमारे यहाँ चुनाव होते हैं और जो जीत जाता है वह सरकार बनाता है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार चूँकि निर्वाचित हुई है अतः कोई उस पर उंगली नहीं उठा सकता, कोई सरकार की आलोचना नहीं कर सकता, या किसी को भी सरकार के विरुद्ध आन्दोलन नहीं करना चाहिए। चूँकि राष्ट्र के निर्माण में अलग-अलग सोच हैं, अतः अपने ही नागरिकों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124ए का प्रयोग नहीं होना चाहिए।
    अंग्रेज तो स्वाधीनता आन्दोलन को कुचलना चाहते थे, ब्रिटिश राज के विरुद्ध किसी भी विरोध और विरोधी कार्रवाई को कुचलना चाहते थे। अतः उन्होंने भारतीय दण्ड संहिता में इस धारा को शामिल किया। पर स्वाधीनता के छह से अधिक दशक गुजर जाने के बाद भी हम इसी धारा को इस्तेमाल करना जारी रखे हुए हैं यह अत्यंत शर्मनाक बात है। हमें सचमुच विचार करना चाहिए कि इस धारा को क्यों रखा जाए।
    सारे देश पर नजर डालें क्या हो रहा है। हर स्थान पर आदिवासी लोग संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें उनकी रोजी-रोटी से वंचित किया गया है। जमीन से उनके प्राकृतिक संबंध खत्म कर दिए गए हैं। उन्हें अकल्पनीय यातनाओं और मुसीबतों का शिकार बनाया जाता है। यदि कोई उनके कल्याण के लिए आगे आता है तो वह राष्ट्रविरोधी कैसे हो सकता है। यह तो समझा जा सकता है कि आप उसे सरकार विरोधी कहें पर उसे आप राष्ट्र विरोधी कैसे कह सकते हैं?
    आज देखने में यह आ रहा है कि यदि कोई सरकार की परमाणु नीति पर उँगली उठाए या परमाणु प्लांटो का विरोध करे तो राज्य की मशीनरी उसके विरुद्ध 124ए का इस्तेमाल करती है और उसे जेल में डाल देती है। सामान्यतः 124ए का, राजद्रोह के आरोप का इस्तेमाल अकेले नहीं किया जाता। इसके साथ भारतीय दण्ड संहिता की अन्य धाराएँ जैसे धारा 121 (भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ना), धारा 123 (षड्यंत्र करना), धारा 153ए (धर्म, नस्ल, जन्मस्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता पैदा करना), यहाँ तक कि गैर कानूनी कार्यकलाप निरोधी कानून (अनलाफुल एक्टिविटिज प्रिवेंशन एक्ट) की धारा 7 को भी इस्तेमाल किया जाता है। यही कारण है कि मैंने समझा कि समय आ गया है कि संसद इस समस्या का नोट ले, इस पर विचार करे और हम अपनी सामूहिक बुद्धिमŸाा के जरिए भारतीय दण्ड संहिता में संशोधन करें। ऐसे अनेक मामले हैं जहाँ दलित अस्पृश्यता के विरुद्ध और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और कुछ दलित कार्यकर्ताओं को धारा 124ए के तहत जेलों में डाल दिया गया।
    अगर आप इस धारा के तहत मामलों के आँकड़ों में जाएँ तो पता चलेगा कि इसका इस्तेमाल अधिकांशतः उन कार्यकर्ताओं और संगठनों के विरुद्ध किया गया है जो बुनियादी तौर पर हमारी जनता के सबसे गरीब लोगांे-दलितों आदिवासियों एवं अन्य कमजोर तबकों के बीच काम कर रहे हैं। अनुभव यही रहा है। मैं सरकार से पूछता हूँ एक बात बताये। क्या आपने कभी किसी आर्थिक अपराधी पर 124ए के तहत मुकदमा चलाया है, किसी कारपोरेट को इस धारा के तहत जेल भेजा है? आप इन्हें छूट देते हैं कि राष्ट्र को लूटें, काले धन के रूप मंे विदेशों में पैसा जमा कराएँ। सरकार में कोई दम, कोई राजनैतिक इच्छाशक्ति है तो इन पर 124ए लगाए। क्या आपने कभी इन लोगों पर राजद्रोह की धारा के तहत मुकदमा चलाया है? राजद्रोह की धारा इन लोगों के लिए नहीं है। जो लोग गरीबों एवं शोषित लोगों के उत्थान के लिए समर्पित होकर काम कर रहे हैं उन्हें कुचलने के लिए राजद्रोह की धारा है। देश में आज काले धन की बड़ी चर्चा हो रही है। विदेशी बैंकों में काला धन किसने जमा कराया है? सरकार को पता है। क्या आपने इस धारा का इस्तेमाल उनके विरुद्ध कार्रवाई के लिए किया है? देश में टैक्स चोरी, बहुत बड़ी मात्रा में टैक्स चोरी होती है। सरकार को पता है। क्या आपने कभी बड़े टैक्स चोरों के विरुद्ध इस  धारा का इस्तेमाल किया है? रिपोर्ट हैं और सरकार जानती है, हर कोई जानता है कि लोग देश को और जनता को धोखा देने के लिए सरकार की नीतियों को जान बूझकर मैनीपुलेट करते हैं और बड़े पैमाने पर दौलत जमा कर लेते हैं। क्या सरकार ने कभी उनके विरुद्ध इस धारा के इस्तेमाल की बात सोची है? यह धारा तो उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल होती है जो जनता के कल्याण के लिए संघर्ष करते हैं।
    मेरा सरकार पर आरोप है कि इस धारा को दण्ड संहिता में रखकर सरकार संविधान के प्रावधानों की मान मर्यादा बनाए रखने में विफलता की दोषी है। इस धारा के विरुद्ध देश भर में आवाजें उठ रही हैं और सरकार उस पर ध्यान नहीं दे रही है। मैं सदन के सभी तबकों से अपील करता हूँ कि वे राजनैतिक भेदभाव भुलाकर इस मुद्दे पर विचार करें।  
-डी0 राजा

3 टिप्‍पणियां:

virendra sharma ने कहा…





Virendra Kumar SharmaSeptember 16, 2012 9:06 PM
कैग नहीं ये कागा है ,जिसके सिर पे बैठ गया ,वो अभागा है

Dr. shyam gupta ने कहा…
शर्माजी.... ये जो नेता संसद में बैठे हैं ..कहाँ से आये हैं ..क्या इंद्र ने भेजे हैं संसद में या किसी अन्य लोक के हैं....
---- ये सब आपके(आप-हम-जनता जनार्दन) बीच से ही आये हुए हैं... आप ही हैं... आप ने ही अपनी बेगैरती या अकार्यकुशलता, अकर्मण्यता, या लालच से पैसे लेकर भेजे हैं संसद में....अतः ये आप की ही भाषा व कर्म अपनाए हुए हैं....
--- लोकतंत्र में प्रजा ही राजा होती है...राजा बनाने-चुनने वाली ...यथा राजा तथा प्रजा ..अतः मंत्री जैसे हैं प्रजा का ही दोष है, हमारा दोष है, सबका दोष है, आपकी आचरण-संहिता का दोष है .....
---- विरोध नेताओं का कीजिये, आचारण हीनता का कीजिये , आप के बीच जो भ्रष्टता, अनाचारिता पल रही है उसका कीजिये ...देश व उसके प्रतीकों का नहीं ....
----नियम से ऊपर कोई नहीं है...
शनिवार, सितम्बर 15, 2012
Dr. shyam gupta ने कहा…
"शासन ने देश को स्वाभिमान विहीन कर दिया है .यह बात व्यक्ति के अपने दर्द की बात है व्यभि चारी मंत्री को उसे माननीय कहना पड़ता है..."

---शासन तो प्रजातंत्र में जनता के हाथ में है.. अपने लालच में वह स्वयं स्वाभिमान विहीन है...
---औपचारिकतावश कहते समय आप मंत्री नाम के व्यक्ति को माननीय नहीं कहते अपितु मंत्री संस्था को, जो देश का गौरवयुक्त पद है, माननीय कहा जाता है.... इसमें कोई अनुचित बात नहीं है...यह मर्यादा है ...
---- ६५ सालों में यह सब नेताओं ने नहीं तोड़ा अपितु आपकी अनंत आकांक्षाओं , पाश्चात्य नक़ल की आकांक्षा ...तेजी से अमीर बनाने की आकांक्षा ...ने व्यक्ति मात्र को तोड़ा-मरोड़ा है ..और ये नेता भी व्यक्ति ही हैं....
----यह सब पर उपदेश ..वाली बात है ...


क्या कहना है इस पर वीरू भाई का ?

डॉ .श्याम गुप्त जी किसी बात को हम खींच कर उस सीमा तक नहीं ले जाना चाहते जहां पहुँच कर तर्क भी तर्क न रहे .यह इस व्यवस्था की मजबूरी है कि हमें चुनना पड़ता है .हम निगेटिव वोट तो दे नहीं सकते .सरकार जाति के अन्दर भी उपजाति ,वर्ण ,वर्ग भेद के आधार पर समाज को बाँट कर वोट का अधिकार लेती है .वोट कब्ज़ियाती है .

क्या जनता वोट न दे ?जिनको ये पद दिए जातें हैं ,उनके पद की गरिमा कहती है वह पद के अनुकूल उठें .अतीत चाहे उनका कैसा भी रहा हो .अचानक से भी आप अध्यापक बन गएँ हैं तो अब अध्यापक के कर्म और दायित्व के अनुरूप उठो .

गुंडे को भी पगड़ी दी ज़ाती है तो वह उसे पहनने के बाद लोक लाज रखता है .आत्म संकल्प लेता है अब मैं ऐसी हरकत नहीं करूंगा .

डॉ .श्याम गुप्ता हम आत्म निंदा क्यों करें ?सारा दोष खुद पे क्यों मढ़े? आप कहना चाहते हैं जिन लोगों ने इन नेताओं को चुना है उनके सभी के हाथ काले थे .भाई साहब जब कोयला ही सामने रखा हो तो वह हीरा कैसे बन जाएगा .कोयला ही चुना जाएगा .अब तो चुना हुआ कोयला सोचे उसे हीरा कैसे बनना है .

इस सिस्टम में तो डाकू भी चुने जातें हैं तब क्या वह सांसद बनने के बाद भी डाका डालते रहें .जिसे बड़ा पद मिल जाता है उसे लोक लाज की मर्यादा रखनी चाहिए .

इस तरह का तर्क जो आप कर रहें हैं वह कुतर्क होता है जनता को ही दोषी ठहरा रहें हैं .

यकीन मानिए हम असीम के वकील नहीं है .असीम के पीछे पड़ने की बजाय आप ऐसा काम करो कि आपके द्वारा चुना हुआ व्यक्ति कोयला चोर न बने .
सजा तो इन रहबरों को होनी चाहिए
वीरू भाई आपने जो भी लिखा सब सत्य है..यही होरहा है आजकल...

virendra sharma ने कहा…

इस मुद्दे पे हम राजा का पूर्ण समर्थन करतें हैं धारा १२४ /१२४ए को हटाया जाए .इस आलेख के लिए सुमन जी बधाई .
कैग नहीं ये कागा है ,जिसके सिर पे बैठ गया ,वो अभागा है
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2012/09/blog-post_2719.html

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

कल 20/09/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

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