बनारस के मकान
.....................बनारस के मकानों पर कुछ लिखने से
पहले एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ | मेरा मकसद यह नही है की बनारस में कहा
,किस मुहल्ले में कितने किराए पर ,कौन -सा मकान या फ़्लैट खाली है अथवा
बिकाऊ है ,इन सब बातो की रिपोर्ट पेश करू | काफी जोर -शोर के साथ अगर तलाश
की जाए तो भगवान मिल जायेंगे ,पर नौकरी और मकान नही | आजकल इन बातो का ठेका
अखबारों के विज्ञापन मैनजरो ने और हथुआ कोठी के रेंट कंट्रोलर साहब ने ले
रखा है |आपके दिमाग में यह ख्याल पैदा हो गया हो की आपका भी बनारस में 'इक
बंगला बने न्यारा ' और इस मामले में मैं आपकी मदद करूंगा (मसलन मकान बनवाने
के नाम पर सरकार से किस प्रकार कर्ज लिया जा सकता है ,यह सब तिकड़म
बताउंगा ) तो आप को गहरा धोखा होगा | मैं तो सिर्फ बनारस के मकानों का भूगोल
और इतिहास बताउंगा |अब आप शायद चौके की मकानों का भूगोल -इतिहास कैसा ? मकान माने मकान |चाहे वह बम्बई में हो या बनारस में | लेकिन दरअसल बात यह नही है | मकान माने महल भी हो सकता है और झोपड़ी भी हो सकती है | बम्बई में एक मकान अपने लिए जितनी जमीन घेरता है ,बनारस में उतनी जमीन में पचास मकान बन सकते है | यह बात अलग है की बम्बई के एक मकान की आबादी बनारस के पचास मकान के बराबर है |
दूसरी जगह आप मकान देखकर मकान मालिक के बारे में अंदाजा लगा सकते है | मसलन वह बड़ा आदमी है ,सरकारी अफसर है ,दूकान दार है ,जमीदार है ,अथवा साधारण व्यवसायी है | लेकिन बनारस के मकानों की बनावट के आधार पर मकान -मालिक के बारे में कोई राय कायम करना जरा मुश्किल काम है |
मान लीजिये आपने एक मकान देखा ,जिसमे मोटर रखने का गैरेज भी है | खामख्वाह यह ख्याल पैदा हो ही जाएगा की मकान मालिक बड़े शान से रहता है | रईस आदमी है |लेकिन जब आपकी उससे मुलाक़ात हुई तो नजर आया ,गलियों में 'रामदाना के लडुवा,पइसा में चार ' की चलती फिरती दूकान खोले है | राह चलते की शक्ल देखकर आपने नाक सिकोड़ ली ,पर वही आदमी शहर का सबसे सज्जन और कई मकानों का मालिक निकला | इसके विरुद्ध टैक्सी पर चलने वाले सफारी का सूट पहने सज्जन खपरैल के मकान में किराए पर रहते मिलेंगे |
बनारस में अन्नपूर्णा मन्दिर की बगल में राममंदिर के निर्माता श्री पुरुषोत्तम दास खत्री जब बाहर निकलते थे तब उनके एक पैर में बूट और दूसरे में चप्पल रहता था | बाहर से भव्य दिखने वाला महल भीतर से खंडहर हो सकता है और बाहर से कण्डम दिखने वाला मकान भीतर महल भी हो सकता है | इसीलिए बनारस के मकानों का भूगोल -इतिहास जानना जरूरी है |
भूगोल ........................
अगर
आपने आगरे का स्टेशन बाजार ,लाहौर का अनारकली ,बम्बई का मलाड ,कानपुर का
कलक्टरगंज ,लखनऊ का चौक ,इलाहाबाद का दारागंज ,कलकत्ते का नीमतल्ला घाट और
पुरानी दिल्ली देखा है तो समझ लीजिये उनकी खिचड़ी बनारस में है | हर माडल के
,हर रंग के और ज्युमेट्री के हर अंश -कोण के मकान यहा है | बनारस धर्मिक
दृष्टि से और एतिहासिक दृष्टि से दो भागो में बटा हुआ है |धार्मिक दृष्टि
से केदार खंड ,विश्वनाथ खंड और एतिहासिक दृष्टि से भीतरी महाल और भरी अलंग
| प्राचीन काल में लोग गंगा किनारे बसना अधिक पसंद करते थे ताकि टप से गंगा
में गोता लगाया और खट से घर के भीतर |सुरक्षा -की सुरक्षा और पुन्य मुनाफे
में |नतीजा यह हुआ की गंगा किनारे आबादी घनी हो गयी | आज तो हालत यह है की
भीतरी महाल शहर का नग न होकर पूरा तिलस्म -सा बन गया है |बहुत मुमकिन है
'चन्द्रकान्ता ' उपन्यास के रचयिता बाबू देवकीनंदन खत्री को भीतरी महाल के
तिलस्मो से ही प्रेरणा मिली हो |काश !उन दिनों इम्प्रुमेंट ट्रस्ट होता ,तो हमारे बाप -दादे मकान बनवाने के नाम पर हमारे लिए तिलस्म न बनाते | छड़ी सडको को तंग गलियों का रूप न देते | यदि इम्प्रुमेंट ट्रस्ट जैसी संस्था उन दिनों बनारस में होती तो संभव था बनारस लन्दन या न्यूयार्क जैसा न सही ,मास्को अथवा मेलबोर्न जरुर बन जाता |बुजुर्गो का कहना है की काशी की तंग गलिया और ऊँचे मकान मैत्री भावना के प्रतीक है |भूत-प्रेत की नगरी में लोग पास -पास बसना अधिक पसंद करते थे ताकि वक्त जरूरत पर एक दूसरे की मदद कर सके | मसलन ,आज किसी के घर आटा नही है तो पडोस से हाथ बदाकर माँग लिया ,रुपया उधार माँग लिया ,नया पकवान बना है तो कटोरे में रखकर पडोसी को दे दिया ,कोई सामान मंगनी में मांगना हुआ अथवा सूने घर का केलापन दूर करने के लिए अपने -अपने घर में बैठे -बैठे गप्प लडाने की सुविधा की दृष्टि से भीतरी महाल के मकान बनाये गये है | इससे लाभ यह होता है की चार -पांच मंजिल नीचे न उतरकर सब काम हाथ बढाकर सम्पन्न कर लिए जाते है | कही -कही पड़ोसियों का आपस में इतना प्रेम बढ़ गया की गली के उपर पुल बनाकर आने -जाने का मार्ग भी बना लिया गया है | यही वजह है की भीतरी महाल के मकानों में चोरी की घटनाए नही होती | इस इलाके में रहना गर्व की बात मानी जाती है | बनारस के अधिकाश:रईस -सेठ और महाजन इधर ही रहते है | बाकी कुली - कबाड़ी और उच्क्को के लिए बाहरी अलंग है | लेकिन जब से बनारस की सीमा वरुणा -असी की सीमा को तोडकर आगे बढ़ गयी है | भले ही गर्मी में शिमले का मजा मिले ,पर आधुनिक युग के लोग उधर रहना पसंद नही करते |
इसका मुख्य कारण है यातायात के साधनों में कमी | आधी रात को आपके यहा बाहर से कोई मेहमान आये अथवा सपत्नी बाढ़ बजे रात -गाडी से सफर के लिए जाना चाहे तो बक्सा बीवी के सर पर और बिस्तर स्वंय पीठ पर रखकर सडक तक आइये ,तब कही रिक्शा मिलेगा | भीतरी महाल में रात को कौन कहे ,दिन में भी कुली नही मिलते | गलिया इतनी तंग है की कोई भी गाडी भीतर नही जाती |दुर्भाग्यवश आग लगने अथवा मकान गिरने की दुर्घटना होने पर तत्काल सहायता नही मिलती | हाँ ,यह बात अलग है की मरीज दिखाने के लिए डाक्टरों को ले जाने में सवारी का खर्च नही देना पड़ता |जिस प्रकार एक ही शक्ल के दो आदमी नही मिलते ,ठीक उसी प्रकार बनारस के दो मकान एक ढंग के नही है | कोई छ: मंजिला है तो उसकी बगल एक मंजिला मकान भी है | किसी मकान में काफी बरामदे है तो किसी में एक भी नही है | भीतरी महाल के मकानों का निचला हिस्सा सीलन ,अन्धकार और गंदगी से भरा रहता है
पुराने जमाने में बाप -दादों के पास धुआधार पैसा रहा ,औलाद के लिए एक महल बनवा गये | बेचारे औलाद की हालत यह है की राशन की दूकान में गेंहू तौल रहा है | उसे इतनी कम तनख्वाह मिलती है की मरम्मत कराना तू दूर रहा दीपावली पर पूरे मकान की सफेदी तक नही करा पाता |
बनारस में छोटे -बड़े सभी किस्म के म्कान्दारो की इज्जत एक -सी है | कोई बड़ा मकान वाला छोटे मकान वाले की ओर उपेक्षा की दृष्टि से नही देखता |
यहा तक की बड़े मकान में रहने वाले अपने मकान से पड़ोस के छोटे मकान झाकर कुछ नही देख सकते | अगर आपने ऐसी गलती की तो दूसरे दिन पूरा परिवार लाठी लेकर आपके दरवाजे पर आ डटेगा ,और सबसे पहले तो शब्दकोश के तमाम शब्दों के द्वारा आपका स्वागत करेगा | अगर आप ताव में आकर बाहर चले आये तो खैरियत नही | इसके बाद भले ही आप 100 पर फोन कीजिये ,थाने में रिपोर्ट लिखवाइए और दावा कीजिये | छोटे मकान -मालिको की इस हरकत से आज -कल लोगो ने उंचा मकान बनवाना छोड़ दिया है | बनारस में दुसरो के मकान में झाकना शराफत के खिलाफ काम समझा जाता है |
एक कानून है --हक सफा | अन्य शहरों में यह कानून लागू है या नही ,यह तो नही मालूम ,पर बनारस में इस कानून के जरिये कमजोर पडोसी को परेशान किया जा सकता है | अगर कोई कमान बेच रहा है तो उसे अपने पीछे ,अगल बगल तीनो को इत्त्लाक्र उनसे सलाह लेकर बेचना होगा | वह चुपचाप यह काम नही कर सकता अन्यथा अडगा लगा देने पर वह मकान किसी भी कीमत में नही बिक सकता ..............................
काशी कितना प्राचीन है ,यह तो राम जाने | लेकिन यहा का प्रत्येक मुहल्ला इतिहास से सम्बन्धित है और प्रत्येक मकान ऐतिहासिक है | इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है की सरकार ने जिन मकानों को महत्वपूर्ण समझा है उनके लिए आदेश दिया है की वे मकान गिरने न पावे ,अगल -बगल ,इधर -उधर चारो तरफ से चांड लगाकर उन्हें गिरने से रोका जाए | आज अधिकाश मकान इस हुकम के कारण अपनी जगह पर खड़े है , उन्हें गिरने से रोका जाए | बनारस के दस प्रतिशत मकान जिन्हें नीद आ रही थी ,चांड लगवाने के कारण सुरक्षित है |
कुछ भाई लोगो के मकान इस किस्म के है की अगर उनके तीनो तरफ का मकान गिर जाए तो उनका मकान नगा हो जाएगा | कहने का मतलब पडोसी के मकान से ही भाई साहब अपना काम चला लेते है और उनके दबाव में इनके मकान का लिफाफा खड़ा है | बनारस का प्रत्येक मुहल्ला ऐतिहासिक है | मसलन जब दाराशोख यहा पढने आया था तब जहा ठहरा उसका नाम दारानगर हो गया | औरंगजेब आया तो औरंगाबाद बसा गया | नबाब सआदतअली खा बनारस में आकर जहा ठहरे उस स्थान का नाम नबाबगंज हो गया | बुल्ला सिंह डाकू के नाम पर बुलानाला महाल बस गया | मानमंदिर ,मीरघाट ,राजघाट और तुलसीघाट के बारे में सभी जानते है | डाक्टर सम्पूर्णानन्द के मतानुसार अगस्तकुंडा में महामुनि अगस्त्य रहते थे | इस प्रकार देखा जाए तो बनारस का प्रत्येक स्थान पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है | चेतगंज मुहल्ला चेतसिंह के नाम पर बसा तब जगतसिंह को अपने नाम पर मुहल्ला बसाने की सूझी | नतीजा यह हुआ की सारनाथ के धर्मराजिक स्तूप को उखाडकर उन्होंने जगतगंज मुहल्ला बसा डाला |कुछ लोग कहते है ,इसे जगतसिंह ने नही बसाया है ,वे सिर्फ यहा रहते थे |यह मुहल्ला तो बौद्धकालीन वाराणसी की बस्ती है | अब इसका ठीक-ठीक निर्णय तभी हो सकता है जब जगतगंज को खुदवाकर उसकी जांच पुरातत्व वाले करे | बनारस में तीन किस्म के मकान बने है |पथ्थर के बने मकान बौद्धकाल के बाद के है; लखवरिया ईटोवाले मकान बौद्ध युग के पूर्व से मुगलकाल तक के है |नमबरिया ईटो के बने मकान ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर 14अगस्त सन 1947 ई. तक बने है | आजकल नमबरिया ईटो की साइज नौ गुणा साढ़े चार इंच की हो गयी है | इस साइज की ईटो के बने मकान कांग्रेसी शासनकाल के है |
यद्यपि काशी में मुहल्ले और मकान काफी है ,पर हवेली साढ़े तीन ही है | महल कई है | हवेलियों में देवकीनंदन की हवेली ,काठ कि ह्वेली ,कश्मीरीमल की हवेली और विश्वम्भरदास की हवेली काशी में प्रसिद्ध है | इनमे आधी हवेली कौन है ,इसका निर्णय आजतक नही हुआ | पांडे हवेली को हवेली क्यों नही माना जाता ,यह बताना मुश्किल है ,जब की इस नाम से भी एक मुहल्ला बसा हुआ है | यदि आपको भ्रमण का शौक है और पैसे या समय के अभाव से समूचा हिन्दुस्तान देखने में असमर्थ है तो मेरा कहना मानिए ,सीधे बनारस चले आइये | यहा हिन्दुस्तान के सारे प्रांत मुहल्ले के रूप में आबाद है |हिन्दुओं के तैतीस करोड़ देवता काशी वास करते मिलेंगे ,गंगा उत्तर वाहिनी है ,तिलस्मी मुहल्ला है ,ऐतिहासिक मकान है और जो कुछ यहा है ,वह दुनिया के सात पर्दे में कही नही है | बनारस दर्शन से भारत दर्शन हो जाएगा | यहा एक से एक दिग्गज विद्वान् और प्रकांड पंडित है |प्रत्येक प्रांत का अपना -अपना मुहल्ला भी है | बंगालियों का बंगाली टोला ,मद्रासियो तथा दक्षिण भारतीयों का हनुमान घाट ,केदार घाट पंजाबियों का लाहोरिटोला,गुजरातियों का सुतटोला , मारवाड़ियो की नंदनसाहू गली ,कन्नडियो का अगस्तकुंडा ,नेपालियों का बिन्दुमाधव,ठाकुरों का भोजुवीर ,राजपूताने के ब्राह्मणों की रानीभवानी गली ,सिंधियो का लाला लाजपतराय नगर ,मराठियों का दुर्गाघाट,बालाघाट ,मुसलमानों का मदनपुरा अलईपूर ,लल्लापुर और काबुलियो का नयी सडक -बेनिया मुहल्ला प्रसिद्ध है |इसके अलावा चीनी ,जापानी ,सिहली ,फ्रांसीसी ,भूटानी ,अंग्रेज और अमेरिकन भी यहा रहते है | सारनाथ में बौद्धों की बस्ती है तो रेवड़ी तालाब पर हरिजनों की |व्यवसाय के नाम पर भी अनेक मुहल्ले आबाद है |
बनारस की चौपाटी
काशी को दुनिया से न्यारी कहा जाता है और यह सारा
'न्यारापन ' बनारसी चौपाटी -दशाश्वमेध घाट पर खीच आया है ,यह निस्संदेह कहा
जा सकता है |जो बम्बई की चौपाटी की चाट खा आये है ,उन्हें दशाश्वमेध घाट की चौपाटी कहते ज़रा झिझक होती है |ऐसे लोगो को असली बनारसी 'गदाई ' के विशेषण से युक्त करने में कभी कोई संकोच नही होगा |किसी बनारसी को अगर बम्बई में छोड़ दिया जाए तो वह अपने को 'पागल 'समझने को विवश हो जाएगा बस कुछ ही दिनों में | बम्बई में पाश्चात्य चमक भले ही हो ,पर भारतीयता की झलक तो अपने बनारस में ही मिलती है| खैर |
यह निश्चित मन से स्वीकारा जा सकता है की बम्बई की चौपाटी का दशाश्वमेध घाट से कोई मुकाबला नही | एक में बाजारू सौन्दर्य है तो दूसरे में शाश्वत |
मुलाहजा फरमाइए ---
सुबह होते ही ,घाट पर मालिश का बाजार गरम हो जाता है | बनारसी के लिए स्नान के पूर्व मालिश का वही महत्व है ,जो आधुनिको के लिए स्नो करीम -पाउडर का | एक रुपया की दक्षिणा में कपड़ो की चौकीदारी ,स्नानोपरांत आईने -कघी की व्यवस्था से लेकर तिलक लगाने तक की सेवा आप यहा उपस्थित घाटिये से ले सकते है | ब्राह्मण का आशीर्वाद फ़ोकट में मिल जाएगा | जरा सामने निगाह उठाइये तो गंगा की छाती पर धीरे -धीरे उस पार की ओर सरकती नौकाये आपका ध्यान तुरंत आकर्षित कर लेंगी | बनारस के 'गुरु 'और रईस शहर में भले मॉल -त्यागना अपराध समझते है ,सो उस पार निछ्द्द्म में निपटान को जाते हुए बनारसी की दिव्य छटा से आपकी आत्मा तृप्त हो जायेगी | ये निपटान -नौकाये ,अधिकतर पर्सनल होती है और इनका दर्शन शाम को भी किया जा सकता है |
स्नानार्थियो में कम -से कम सत्तर परसेंट महिलाये होती है ,इसलिए कुछ बीमार किस्म के 'आँख -सकते 'भी दिखाई पड़ेंगे | बनारस की महिलाये जरा मर्दानी किस्म की होती है ,सो ऐसे बीमारों की कत्तई परवाह नही करती |
अस्सी और वरुणा -संगम के मध्य में होने के कारण यहा से सम्पूर्ण बनारस की परिक्रमा आप कर सकते है ,इसलिए की काशी का 'रस 'यहा के घाटो में ही सन्निहित है | अब घाट से उपर आइये और देखिये की बनारस कितना कंगाल है ---सडक पर अपनी गृहस्थी जमाए भिखमंगो को देखकर स्वाभाविक है की बनारस के प्रति आपका आइडिया खराब हो जाए , यह अनभिज्ञता और भ्रम का परिणाम है |काशी के भिखमंगो की माली हालत आफिस में कलम रगड़ने वाले सफ़ेद पोश बाबुओं से उन्नीस नही होती | मरने के बाद उनके लावारिस गुदड़ के अन्दर से सरकार को अच्छी -खासी आमदनी हो जाती है | एक बार चितरंजन पार्क के पास एक बूढी भिखारिन जब मरी तब उसके गुदड़ से सात सौ अठ्ठासी रूपये साधे तेरह आने की मोती रकम प्राप्त हुई थी | मेरे कहने का यह मतलब नही की आप उन्हें 'छिपा रईस ' समझ कर उनका जायज हक़ हड़प कर ले | भीख माँगा उनका पेशा है और पेशे का सम्मान करना आपका धर्म है |
शाम को इस बनारसी चौपाटी का वास्तविक सौन्दर्य दिख पड़ता है | कराची की फैश्नप्र्स्ती ,लाहौर की शोखी ,बंगाल की कलाप्रियता ,मद्रास की शालीनता ,गुजरात -महाराष्ट्र सब उमड़ पड़ता है यद्यपि दशाश्वमेध का क्षेत्र बहुत ही सीमित है तथापि गागर में सागर का समा जाना आप खूब अनुभव कर लेंगे |
विश्वनाथ गलिवाली नुक्कड़ से सिलसिलेवार स्थित तीन रेस्तरा आपको सर्वाधिक आकर्षित करेंगे | उनके अनुचर मोची से लेकर श्रीमान तक को बिना किसी भेदभाव के भाईसाहब ,चचा ,दादा ,और बहन जी आदि पुनीत संबोधनों से निहाल कर देंगे :भले ही आपकी जेब में एक कप चाय तक की कीमत न हो |
उपयुक्त तीनो जलपान घरो का ऐतिहासिक महत्व है | बनारस के इकन्नी ब्रांड से लेकर रूपये ब्रांड तक के साहित्यकार ,शाम को इन्हें अपने आगमन से पवित्र करना अपना कर्तव्य समझते है |थोड़ा प्रयत्न करे तो घाट के किसी अँधेरे कोने में साहित्यकारों की मण्डली किसी गम्भीर साहित्य की समस्या में उलझी मिल जायेगी |
यो काशी का ऐसा कोई साहित्यकार आपको नही मिलेगा जो दशाश्वमेध में न जमता हो | अनेक साहित्यक वादों का प्रसार और उनके आपरेशन का थियेटर भी दशाश्वमेध ही है | अधिकतर साहित्य की गोष्ठिया भी यही आयोजित होती है
घाट पर शाम को धर्मो की जो धारा लहराती है ,वह अन्यत्र दुर्लभ ही है | कथावाचक रामायण ,महाभारत ,चैतन्य चरितावली ,भागवत आदि की पुनीत कथा से वातावरण को गमका देते है |
इस स्थान की प्रशंसा भारतीयों ने की ही है ,दूसरे देशवालो ने भी इसका गुणगान किया है | प्रसिद्ध पर्यटक श्री जे.बी .एस .हाल्डेन की पत्नी ने कहा है की मुझे यह जगह न्यूयार्क से अच्छी लगती है | एक रुसी पर्यटक ने इसे पेरिस से सुन्दर नगरी कहा है | विश्व स्वास्थ्य संघ के एक अधिकारी ने इसे सारे जहा से अच्छा स्थल माना है | मेरे एक मित्र ,जो लन्दन गये हुए है ,उन्होंने जब स्वेज नहर का दृश्य देखा तब उन्हें बनारस के घाटो के दृश्य याद आ गये | प्राचीन काल में दशाश्वमेध का नाम 'रूपसरोवर 'था | इसके बगल में घोड़ा घाट है | पहले इसका नाम गऊघाट था | काशी की गाये यहा पानी पीने आती थी | गोदावरी -गंगा का संगम -स्थल आज घोड़ाघाट बन गया है | त्रेता युग में दिवोदास ने यहा दस अश्वमेध यज्ञ करवाए थे ,तभी से इस स्थान का नाम दशाश्वमेध घाट हो गया है | आज भी उपर द्शाश्व्मेधेश्वर की मूर्ति है | शायद ही ऐसी कोई राजनितिक पार्टी होगी जिसकी सभा इस घाट पर न हुई हो |खासकर सन 42 के आन्दोलन के पूर्व सभी उपद्रव इसी घाट से प्रारम्भ किए जाते थे | शहर का प्रत्येक जलूस इसी स्थान से सज -धजकर चलता है | शहर की सबसे बड़ी सत्ती (तरकारी बाजार )यही है और महामना मालवीय ने हरिजन -शुद्धि का आन्दोलन इसी घाट से प्रारम्भ किया था | अब प्रदेश के मुखिया की कृपा से इस घाट का पुननिर्माण शुरू हुआ है | निर्माण करे समाप्त हो जाने पर यह निश्चित है की यह स्थान काशी का सर्वाधिक आकर्षक केद्र्स्थल बन जाएगा | बम्बइया चौपाटी को मात देने के लिए उत्तर प्रदेशीय सरकार ने भी एक मार्व्लेस प्लान तैयार करने का निश्चय किया है | राजघाट -सारनाथ सडक के पुल के फाटक बंद करके वरुणा नदी से विशाल ज्झिल निर्मित होगी |शांत वातावरण में इस झील में जल- विहार कितना मनोरम होगा अनुमान ही मन में स्फुरण भर देता है |
बनारस की सीढ़िया
रांड ,सांड ,सीढ़ी ,सन्यासी |
इनसे बचे तो सेवे काशी ||
पता नही ,कब किस दिलजले ने इस कहावत को जन्म दिया की काशी की यह कहावत अपवाद के रूप में प्रचलित हो गयी | इस कहावत ने काशी की सारी महिमा पर पानी फेर दिया | मुमकिन है की उस दिलजले का इन चारो से कभी वास्ता पडा हो और काफी कटु अनुभव हुआ हो | खैर जो हो , पर सत्य है की काशी आनेवालों का इन चारो से परिचय हो ही जाता है | फिर भी आश्चर्य का विषय यह है की काशी आनेवालों की संख्या बढती जा रही है और जो एक बार यहा आ बसता है ,मरने के पहले टलने का नाम नही लेता ,जबकि पैदा होने वालो से कही अधिक श्मशान में मुर्दे जलाए जाते है | यह भी एक रहस्य है |
इन चारो में सीढ़ी के अलावा बाकी सभी सजीव प्राणी है | बेचारी सीढ़ी को इस कहावत में क्यों घसीटा गया है ,समझ में नही आता| यह सत्य है की बनारस की सीढ़िया (चाहे वे मन्दिर ,मस्जिद ,गिजाघर अथवा घर या घाट -किसी की क्यों न हो ) कम खतरनाक नही है ,लेकिन यहा की सीढियों में दर्शन और आध्यात्म की भावना छिपी हुई है | ये आपको जीने का सलीका और जिन्दगी से मुहब्बत करने का पैगाम सुनाती है | अब सवाल है की कैसे ? आँख मूंदकर काम करने का क्या नतीजा होता है ,अगर आपने कभी ऐसी गलती की है ,तो आप स्वंय समझ सकते है | सीढ़िया आपको यह बताती रहती है की आप नीचे की जमीन देखकर चलिए ,दार्शनिको की तरह आसमान मत देखिये ,वरना एक अरसे तक आसमान मैं दिखा दूंगी अथवा कजा आई है -जानकर सीधे शिवलोक भिजवा दूंगी | काशी की सीढ़िया चाहे कही की क्यों न हो ,न तो एक नाव की है और न उनकी कोई बनावट में कोई समानता है ,न उनके पथ्थर एक ढंग के है ,न उनकी उंचाई -निचाई एक सी है ,अर्थात हर सीढ़ी हर ढंग की है | जैसे हर इंसान की शक्ल जुदा -जुदा है ,ठीक उसी प्रकार यहा की सीढ़िया जुदा -जुदा ढंग से बनाई गयी है | काशी की सीढियों की यही सबसे बड़ी खूबी है | अब आप मान लीजिये सीढ़ी उपर है ,नीचे तक गौर से सारी सीढ़िया आपने देख ली और एक नाप से कदम फेकते हुए चल पड़े ,पर तीसरी पर जहा अनुमान से आपका पैर पढ़ना चाहिए नही पडा ,बल्कि चौथी पर पड़ गया | आगे आप ज़रा सावधानी से चलने लगे तो आठवी सीढ़ी अंदाज से कही अधिक नीची है ,ऐसा अनुभव हुआ | अगर उस झटके से अपने को बचा सके तो गनीमत है ,वरना कुछ दिनों के लिए अस्पताल में दाखिल होना पडेगा | अब आप और भी सावधानी से आगे बड़े तो बीसवी सीढ़ी पर आपका पैर न गिरकर स्थ पर ही पड़ जाता है और आपका अंदाजा चुक जाता है | गौर से देखने पर आपने देखा यह सीढ़ी नही है चौड़ा फर्श है |
खतरनाक सीढ़िया क्यों ?
अब सवाल यह है की आखिर बनारस वालो ने
अपने मकान में ,मन्दिर में ,या अन्य जगह ऐसी खतरनाक सीढ़िया क्यों बनवाई
?इसमें क्या तुक है ? तो इसके लिए आपको जरा काशी का इतिहास उलटना होगा
| बनारस जो पहले सारनाथ के पास था ,खिसकते -खिसकते आज यहा आ गया है | यह कैसे
खिसककर आ गया ,यहा इस पर गौर करना नही है | लेकिन बनारस वालो में एक ख़ास
आदत है ,वह यह की वे अधिक फैलाव में बसना नही चाहते ,फिर गंगा ,विश्वनाथ
मन्दिर और बाजार के निकट रहना चाहते है | जब भी चाहा दन से गंगा में गोता
मारा और उपर घर चले आये | बाजार से सामान खरीदा ,विश्वनाथ -दर्शन किया ,चटघर
के भीतर | फलस्वरूप गंगा के किनारे -किनारे घनी आबादी बस्ती गयी | जगह
संकुचित ,पर धूप खाने तथा गंगा की बहार लेने और पड़ोसियों की बराबरी में
तीन -चार मंजिल मकान बनाना भी जरूरी है | अगर सारी जमीन सीढ़िया ही खा
जायेगी तो मकान में रहने की जगह खा रहेगी ? फलस्वरूप ऊँची -नीची जैसे पथ्थर
की पटिया मिली , फिट कर दी गयी -लीजिये भैया जी की हवेली तैयार हो गयी
| चूँकि बनारसी सीढियों पर चढने -उतरने के आदि हो गये है ,इसलिए उनके लिए ये
खतरनाक नही है ,पर मेहमानों तथा बाहरी अतिथियों के लिए यह आवश्यक है |
.............................. ..........काशी के घाट
..
विश्व की आश्चर्य वस्तुओं में बनारस के घाटो को क्यों नही शामिल किया गया -- पता नही ,जब की दो मील लम्बे पक्तिवार घाट विश्व में किसी नदी -तट पर कही नही है | ये घाट केवल बाढ़ से बनारस की रक्षा नही करते ,बल्कि काशी के प्रमुख आकर्षण केंद्र है | जैन ग्रंथो के अध्ययन से पता चलता है की प्राचीन काल में काशी के घाटो के किनारे -किनारे चौड़ी सड़के थी ,यहा बाजार लगते थे | वर्तमान घाटो की निर्माण -कला देखकर आज भी विदेशी इंजीनियर यह कहते है की साधारण बुद्धि से इसे नही बनाया गया है | रामनगर ,शिवाला ,दशाश्वमेध ,पंचगंगा ,और राजघाट का निर्माण पानी के तोड़ को दृष्टि में रखते हुए किया गया है ताकि रामनगर तट से धक्का खाकर शिवाला में नदी का पानी टकराए ,फिर वह से दशाश्वमेध से मोर्चा ले ,पंचगंगा और अन्त में राजघाट से टक्कर ले और फिर सीढ़ी राह ले | इस कौशलपूर्ण निर्माण का एक मात्र श्रेय राजा बलवंत सिंह को है ,जिन्होंने अपने समकालीन राजाओं की सहायता से बनारस को बाधो से मुक्ति दिला दी ,अन्यथा अन्य शहरों की तरह बनारस को भी बाढ़ बहा ले जाती |
घाटो की सीढियों की उपयोगिता
सीढियों का दृश्य काशी के घाटो में ही देखने को मिलता है चूँकि काशी नगरी गंगा की स्थल से काफी ऊँचे धरातल पर बसी है इसलिए यहा सीढियों की बस्ती है | काशी के घाटो को आपने देखा होगा ,उन पर टहले भी होंगे | लेकिन क्या आप बता सकते है की केदारघाट पर कितनी सीढ़िया ?
सिंधिया घाट पर कितनी सीढिया है ? शिवाले से त्रिलोचन तक कितनी बुर्जिया है ? साफालाने लायक कौन सा घाट अच्छा है ? आप कहेंगे की यह बेकार का सरदर्द कौन मोल ले |
लेकिन जनाब ,हरिभजन से लेकर बीडी बनाने वालो की आमसभा इन्ही घाटो पर होती है | हजारो गुरु लोग इन घाटो पर साफा लगाते है ,यहा कवि- सम्मलेन होते है ,गोष्ठिया करते है ,धर्मप्राण व्यक्ति सराटा से माला फेरते है ,पण्डे धोती की रखवाली करते है ,तीर्थयात्री अपने चदवे साफ़ करवाते है | यहा भिखमंगो की दुनिया आबाद रहती है और सबसे मजेदार बात यह है की घर के उन निकलुओं को भी ये घाट अपने यहा शरण देते है ,जिनके दरवाजे आधीरात को नही खुलते | ये घाट की सीढिया बनारस का विश्रामगृहहै ,झा सोने पर पुलिस चालान नही करेगी | नगरपालिका टैक्स नही लेगी और न कोई आपको छेड़ेगा | ऐसी है बनारस की सीढिया |
-सुनील दत्ता
विश्व की आश्चर्य वस्तुओं में बनारस के घाटो को क्यों नही शामिल किया गया -- पता नही ,जब की दो मील लम्बे पक्तिवार घाट विश्व में किसी नदी -तट पर कही नही है | ये घाट केवल बाढ़ से बनारस की रक्षा नही करते ,बल्कि काशी के प्रमुख आकर्षण केंद्र है | जैन ग्रंथो के अध्ययन से पता चलता है की प्राचीन काल में काशी के घाटो के किनारे -किनारे चौड़ी सड़के थी ,यहा बाजार लगते थे | वर्तमान घाटो की निर्माण -कला देखकर आज भी विदेशी इंजीनियर यह कहते है की साधारण बुद्धि से इसे नही बनाया गया है | रामनगर ,शिवाला ,दशाश्वमेध ,पंचगंगा ,और राजघाट का निर्माण पानी के तोड़ को दृष्टि में रखते हुए किया गया है ताकि रामनगर तट से धक्का खाकर शिवाला में नदी का पानी टकराए ,फिर वह से दशाश्वमेध से मोर्चा ले ,पंचगंगा और अन्त में राजघाट से टक्कर ले और फिर सीढ़ी राह ले | इस कौशलपूर्ण निर्माण का एक मात्र श्रेय राजा बलवंत सिंह को है ,जिन्होंने अपने समकालीन राजाओं की सहायता से बनारस को बाधो से मुक्ति दिला दी ,अन्यथा अन्य शहरों की तरह बनारस को भी बाढ़ बहा ले जाती |
घाटो की सीढियों की उपयोगिता
सीढियों का दृश्य काशी के घाटो में ही देखने को मिलता है चूँकि काशी नगरी गंगा की स्थल से काफी ऊँचे धरातल पर बसी है इसलिए यहा सीढियों की बस्ती है | काशी के घाटो को आपने देखा होगा ,उन पर टहले भी होंगे | लेकिन क्या आप बता सकते है की केदारघाट पर कितनी सीढ़िया ?
सिंधिया घाट पर कितनी सीढिया है ? शिवाले से त्रिलोचन तक कितनी बुर्जिया है ? साफालाने लायक कौन सा घाट अच्छा है ? आप कहेंगे की यह बेकार का सरदर्द कौन मोल ले |
लेकिन जनाब ,हरिभजन से लेकर बीडी बनाने वालो की आमसभा इन्ही घाटो पर होती है | हजारो गुरु लोग इन घाटो पर साफा लगाते है ,यहा कवि- सम्मलेन होते है ,गोष्ठिया करते है ,धर्मप्राण व्यक्ति सराटा से माला फेरते है ,पण्डे धोती की रखवाली करते है ,तीर्थयात्री अपने चदवे साफ़ करवाते है | यहा भिखमंगो की दुनिया आबाद रहती है और सबसे मजेदार बात यह है की घर के उन निकलुओं को भी ये घाट अपने यहा शरण देते है ,जिनके दरवाजे आधीरात को नही खुलते | ये घाट की सीढिया बनारस का विश्रामगृहहै ,झा सोने पर पुलिस चालान नही करेगी | नगरपालिका टैक्स नही लेगी और न कोई आपको छेड़ेगा | ऐसी है बनारस की सीढिया |
-सुनील दत्ता
आभार विश्वनाथ मुखर्जी '' बना रहे बनारस से ""
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें