मुझे ठीकठीक याद नहीं कि वह साल और तिथि क्या थी जब मैं दिल्ली जा कर पिपुल्स पब्लिशंग हाउस (पीपीएच) में उसके हिन्दी संपादकीय विभाग में सहायक के रूप में भत्तीर हुआ था। मगर, यह बात 25 वर्ष के ऊपर की तो है ही। हालांकि का॰ अनिल राजिमवाले के बुलावे पर मैं दैनिक जनयुग को ज्वॉयन करने की उम्मीद में दिल्ली गया था। लेकिन मेरे वहां पहुंचने पर का॰ अनिल ने मुझे फुसलाते हुए सीधे पीपीएच में धकेल दिया। मैं खिन्न तो बहुत था परंतु जब उन्होंने बताया कि पीपीएच हिन्दी विभाग के सम्पादक हैं प्रख्यात माक्र्सवादी आलोचक डा॰ रामविलास शर्मा के छोटे भाई का॰ रामशरण मुंशी’ तो मेरी सारी खिन्नता जाती रही । मैं रोमांचित हो उठा कि का॰ पी.सी.जोशी के जमाने से ही पीपीएच के हिन्दी सम्पादकीय विभाग को संभालने वाले और हिन्दी साहित्य के एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण माक्र्सवादी आलोचक के अनुज का॰ मुंशी के नेतृत्व में मुझे काम करने का अवसर मिलेगा।
मुझे याद है जिस दिन का॰ अनिल ने मुझे पीपीएच ले जाकर का॰ मुंशी से मिलवाया था और मेरा यह कह कर परिचय करवाया कि यह बिहार के कवि कन्हैया के पुत्र हैं तो मुंशी जी ने पूरी वात्सल्यता के साथ मेरी पीठ पर थपकी दे डाली। आज जब का॰ अरूणा के कहने पर दिल्ली से फोन पर मेरी बेटी ने मुंशी जी की मृत्यु की खबर सुनायी तो लगा जैसे मेरी पीठ की सारी तंतुएं लगभग 25 वर्ष पूर्व की उस वाल्सल्य भरी थपकियों के आभास से पुनः स्पंदित होने लगी हैं। वे सारे लंबे क्षण मेरी आंखों के सामने यकायक साकार होने लगे जिन्हें मैंने मुंशी जी की अभिभावकतुल्य देखरेख में गुजारे थे तथा लेखन और संपादन कला की बारकियों पर अपनी पकड़ बनाने की कवायद शुरू की थी।
का॰ मुंशी की संपादकीय टीम में हम चार लोग थे का॰ चंदना झा जो अभी बिहार में किसी कॉलेज की प्रि्रंसिपल हैं, का॰ अरूणा जो अभी महिला समाज के केन्द्रीय कार्यालय में कार्यरत हैं और पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की सदस्य हैं, का॰ यश चौहान जो हिन्दी के यशस्वी रचनाकार कवि हैं तथा मैं स्वयं। हम चारों प्रायः समवयस्क थे और मुंशी जी हमसे उम्र में लगभग दुगुनेपितातुल्य। उन दिनों पीपीएच का हिन्दीअंग्रेजी संपादकीय विभाग आज के मुकाबले पूरे उरूज पर था। मुंशी जी हिन्दी संपादकीय विभाग संभालने के अलावा पीपीएच पार्टी ब्रांच के सचिव भी हुआ करते थे संभवतः पीपीएच के मुंबई में रहने के दिनों से ही। इस नाते मुंशी जी की व्यस्तता देखते ही बनती थी। वे जब संपादकीय विभाग में बैठे किसी पांडुलिपि को संवारने सुधारने के काम में पूरे तल्लीन हुए होते तभी प्रेस का कोई साथी अपनी समस्या को लेकर उनके सामने एकदम से आ खड़ा होता। मुंशी जी चेहरे पर बिना कोई खीज भाव लाये पांडुलिपि समेट कर उस साथी के साथ चल पड़ते। उसी तरह जब वे मैनेजमेंट के लोगों से किसी गंभीर विचार विमशर में डूबे हुए होते तो संपादकीय के हम कोई साथी दौड़ पड़ते उन्हें बुला ले आने के लिए कि फोन पर या विभाग में कोई लेखक या अनुवादक उनसे बातचीत की खातिर प्रतीक्षारत हैं। इस दोहरे दायित्व के भारी दबाव को झेलते हुए मुंशी जी यूं तो अपने स्वभाव से हमेशा नमनीय बने रहें मगर उनके शरीर ने इसे और अधिक झेलने से इंकार करना शुरू कर दिया था।
वे रहते भी बहुत दूर थे। घर से पीपीएच आने में घंटा भर से ऊपर तो लग ही जाता था। दो एक बार हम उनके घर जा चुके थे। एक बार की मजेदार घटना है। वे गंभीर बीमार हो कर घर में ही रह रहे थे। मैं और का॰ चंदना झा उन्हें देखने गये थे। उसी बीमारी में हमने का॰ मुंशी के व्यक्तित्व में एक कवि और संस्कृतिकर्मी के गहरे रूप का दशर्न भी किया। उस दिन उन्होंने हमें अपनी कुछ कविताएं सुनायीं तो मुंबई के दिनों में इप्टा से जुड़े कुछ दिग्गज कलाकारों के बारे में एक से एक दिलचस्प संस्मरण भी सुनाये। पर पता नहीं क्यों मेरे एक दो बार कुरेदने के बावजूद वे अपने बड़े भाई डा॰ रामविलास शर्मा के बारे में कुछ खास बताने से कतराते रहें। अपनी बारी खत्म होने के बाद उन्होंने हम दोनों से भी कुछ सुनाने को कहा। मैंने अपने पिता की दो एक कविताएं सुना दीं। उन्हें मालूम था कि का॰ चंदना झा गाती बहुत बिया हैं तो उन्होंने गाने की फर्माइश कर दीं। चंदना झा को न जाने क्या सूझी कि वह निर्गुण गा बैठी ........... चार कहार मिल डोलियां उठावें।’’ गाना सुनकर मुंशी जी विहंस उठे। मगर हम दोनों जब उनके घर से बाहर निकले तो देर तक इस बात पर माथापच्ची करते रहे कि बीमारी की इस गंभीर अवस्था में कबीर का यह भजन मुंशी जी को सुनाना उचित था कि नहीं! बहरहाल, मुंशी जी ने कुछ ही दिनों के बाद कुछ ठीकठाक होकर ऑफिस आना शुरू कर दिया था।
पीपीएच ने हिन्दी प्रकाशन के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया था। अनुवाद की वैसी श्रेष्ठता और उत्कृष्ट अनुवादकों की वैसी टीम उस समय के बड़े से बड़े प्रकाशकों के यहां भी देखना प्रायः दुर्लभ था। पीपीएच के प्रकाशन में हिन्दी का जो विपुल और उत्कृष्ट साहित्य देखने को मिलता है उसमें अनुवादित पुस्तकों की ही मात्रा सर्वाधिक है। हिन्दी संपादकीय विभाग का दायित्व मुख्यतः सोवियत प्रकाशन के अंगे्रजी पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद को संपन्न करने कराने का ही था। अनुवाद वैसे भी एक बेहद जटिल और धैर्य की मांग वाला कार्य होता है। मगर, उससे भी कही अधिक दुरूह कार्य उन अनुवादों में मौलिकता और भाषा के सहज सौंदर्य का रंग भरने का होता है जो शुद्धतः एक विलक्षण संपादक ही सम्पन्न कर सकता है। इस दृष्टि से यदि का॰ मुंशी के योगदान को देखा जाये तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि उनके हिमालयी परिश्रम तथा विलक्षण संपादन कौशल के बगैर प्रकाशन के क्षेत्र में पीपीएच को इतनी भारी प्रतिष्ठा प्राप्त करना शायद संभव न हो पाता । का॰ मुंशी की भाषा पर अद्भुत पकड़ थी और जब वह किसी पांडुलिपि को लेकर बैठ जाते तो उसके छपने के बाद उसमें उनकी भाषायी कीमियागीरी की झलक साफ नजर न आये यह संभव न था।
एक लंबे समय तक उनके साथ काम करते हुए मैंने महसूस किया कि का॰ मुंशी यदि मौलिक लेखन के काम में जुटे रहते तो शायद उनकी गिनती श्रेष्ठ साहित्यकारों से कमतर न होती। मगर, का॰ मुंशी को यह नसीब न हुआ। इसे हम साहित्य की क्षति भी बता सकते हैं। मगर तब उस अपार क्षति का क्या होता जब पीपीएच के अत्यंत उत्कृष्ट एवं विपुल हिन्दी साहित्य के अभाव में साहित्यकारोंलेखकों की अनगिन पौध पनपने से रह जाती । इस दुर्घटना को टालना इसलिए संभव हो सका क्योंकि का॰ मुंशी जैसी शख्सियत ने श्रेष्ठ साहित्यकार बनने की अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को तिलाजंलि देते हुए एक अतुलनीय संपादक के रूप में अपनी समस्त शक्ति एवं मेधा पीपीएच में झोंक दी थीं। अपनी मृत्यु के उपरांत का॰ मुंशी इसी रूप में पूरी पार्टी तथा पीपीएच साहित्य के असंख्य पाठकों के बीच सदैव याद किये जाते रहेंगे; प्रतिष्ठा पाते रहेंगे।
का॰ रामशरण शर्मा मुंशी’ की स्मृति को लाल सलाम।
-सुमन्त
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